कुछ भी…!!!!!!!!!!!!
कुछ ठहरे लम्हों ने
फिर पत्थर उठाये हैं
बे-पैरहन यादों पर
जम कर चलायें हैं
शब्-ए-खामोशी से
थोड़ी आवाज़ चुरा
हौसले की इक नई धुन
नजदीकियों ने गाये हैं
अब कैसी तक़ल्लुफ़
तराश लिया बुत मैंने
नज़रों से टूटते तारों ने
सज़दे में सिर झुकाए हैं
होंगे कभी उस फ़लक पर
या फिर गर्दिश के पार
फ़ेर कर मुँह आफ़ताब से
अब हम चाँद बुझाये हैं
उम्मीद के सामने
ख़ामोश है ‘अदा’
रोनी सी सूरत लिए
हाथ हम हिलाए हैं
(बे-पैरहन : बिना कपडों के)
(गर्दिश : दुर्भाग्य)
(फ़लक : आसमान )
Leave a Reply