!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!! – kmsraj51 – !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
नयन के नीर से
उन दिनों को याद किया जब भी
आँखों में पानी आया है,
रो-रोकर बीत रहे हैं दिन
पानी भी सूख न पाया है।
जब हर रात उन आँखों ने
रो-रोकर गुजारी थी,
जब एक सहारे को मेरी माँ
वो फिरती मारी-मारी थी।
जब अपनों ने उम्मीदों के
सारे पुल तोड़ दिए,
और अपनों ने ही उसे
जब कहर-पर-कहर दिए।
जब डर से काली रातें
करवटों में कट जाती थीं,
जब यादें पास आती थीं
हिचकियों से रुलाती थीं।
जब अपनों की ठोकरों ने
उसे चलना सिखा दिया,
जब दुनिया के इन रिश्तों ने
दिल से विश्वास मिटा दिया।
जब अपनों ने ही उसे
बेघर करने की ठानी थी,
तब जाके उसने इस
जीवन की हकीकत जानी थी। ¨
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रिसते रिश्ते
गर रूठ गए अपने तो क्या?
अपने कब अपने थे मेरे,
गर टूट गए सपने तो क्या?
सपने कब सपने थे मेरे।
जब छोड़ दिया
जब तोड़ दिया
रिश्तों से ही
मुँह मोड़ लिया
जब गैर किया
जब बैर दिया
अपनों ने ही—
सब छीन लिया
गर टूट गए रिश्ते तो क्या?
रिश्ते कब रिश्ते थे मेरे। ¨
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राख-ही-राख
हो रहा है क्या और क्यूँ?
आज मैं कैसे कहूँ?
इक महल था प्रेम का
आज जलके राख हुआ।
सब बिचरते थे जहाँ पे
स्वप्न के संसार में,
उस स्वप्न का ताना-बाना
कुछ ऐसे बेजार हुआ।
टूटकर गिर पड़ीं हर तरफ
उम्मीदों की थेगडि़याँ
इक ममता का आँचल
इस तरह बेकार हुआ। ¨
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भँवर में
दुःख के
दरिया के सामने
खड़े होकर
पूछा मैंने
अपने आप से
क्या कभी मैं
पार होऊँगी—
दुःख की इस
मझधार से।
थे किनारे
हर तरफ
पर ना किनारा
था कोई
उस भँवर से
पार होने का—
ना सहारा॒
था कोई।
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कृष्ण मोहन सिंह
हमेशा सकारात्मक विचारक
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