चार गीत -देवेंद्र आर्य
मेघ सलोने जेठ दुपहरी देख नन्ही-नन्ही आँखों में कभी जेब से स्वाति बूँद बन कभी नटखट बचपन बन बिजली पर चढ़ कभी नदी के घाट नहाने हंसों की पाँतों सा बादल गरजे घनन घनन घन बादल गरजे फुनगी चढ़े पात-पात यूँ अँगड़ाई ले उठा गाँव झूम झूम कर कहे जिंदगी बूँद-बूँद कर रिसता पानी घन, बरसो पिय के आँगन मलयानिल नाचा करती है पर्वत जैसी पीर हुई, पर जो भी मिला सभी का माना संबंधों के लिए आज तक धूपवाले दिन ठुमकती फिरती वसंती हवा पीतवसना घूमती सरसों दूर वंशी के स्वरों में |
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