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जब मेरे पास खेत और हल हो
तभी न मुझे जरूरत रहती गाय की?
गाय भी हो गई मेरी तरह बूढ़ी
उसकी जीविका के साथ-साथ
मेरा भी जीवन बन गया प्रश्न-चिह्न
जमीन तो बेच दी मैंने कभी लड़के की पढ़ाई के लिए
घर भी बेच डाला उसकी नौकरी की उम्मीद में
लड़के को पढ़ाई आ गई
फिर नौकरी तो नहीं आई
अगर पढ़ाई न आई हुई होती
तो कम-से-कम घर बच जाता
लड़का घूम रहा है लट्टू जैसा
उस लट्टू को घुमानेवाली रस्सी है बस नौकरी की खोज।
घर चला गया तो कुछ-न-कुछ विकल्प तो चाहिए
आवास के लिए खरक के सिवा कुछ न रहा
गाय को, उसकी जरूरत स्वयं को ही नहीं
उसका बछड़ा भी हाल में ही गुजर गया
गाय के खरक को अपना आवास बना लूँ तो
घर बनाने के लिए अब उधार लेना न पड़ता!
गाय के खरीददारों को खोजा
मुफ्त में दे दूँ तो भी लेनेवाला कोई न दिखा।
गुजरते जा रहे हैं दिन
आँसू भी सूखते जा रहे हैं मेरी आँखों में
एक दिन सुबह-सुबह सोचा कि
गाय को कबेला पहुँचा दूँ
धीरे-धीरे गया उसके पास
निकाल दिया उसके गले में बाँधा पगहा
देखा उसने तब मेरी आँखों में
भूल नहीं सकता उसकी वह नजर जन्म-जन्मांतरों तक
पूछने लगी है वह मानो सजल नेत्रों से—
‘बेच दोगे मुझे?
क्या मुझसे अब नहीं रही कोई जरूरत तुम्हें?’
ये दो ही नहीं सिर्फ
लाखों, करोड़ों सवाल
कौंध गए उसकी नजरों में।
अगर मैं उसके खरक को खाली कराऊँ तो
वह बनेगा मेरा निवास
उसकी कुथली और चारे के व्यय से
मिलेगी रोटी मुझे और मेरी पत्नी को
गुजारा तो हो ही जाएगा न ऐसे कुछ दिन!
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फिर मुझे तो सूझा एक उपाय
तुरंत छिपा लिया पगहे को छज्जे में सुरक्षित
कभी तो पड़ेगा शायद इससे काम
जब भूख बनेगी असहनीय
तड़प जाएँगे उसके कारण हमारे प्राण
उम्मीद है—वह पगहा
आएगा मेरे काम
करेगा मेरी मदद।
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