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गुरु – शिष्य परम्परा की शुरुआत कब और कैसे?

Kmsraj51 की कलम से…..

Table of Contents

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  • Kmsraj51 की कलम से…..
    • Beginning of Guru Shishya tradition when and how | गुरु–शिष्य परंपरा की शुरुआत कब और कैसे हुई?
      • वैदिक काल का जीवन दर्शन
      • उपनयन संस्कार
      • उच्चकोटि के गुरूकुल व आश्रम
      • शिक्षा केंद्रों द्वारा समाज को नई दिशा
      • — Conclusion —
      • ज़रूर पढ़ें — प्रातः उठ हरि हर को भज।
    • Please share your comments.
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Beginning of Guru Shishya tradition when and how | गुरु–शिष्य परंपरा की शुरुआत कब और कैसे हुई?

वैदिक युग के साहित्य अध्ययन की सुविधा से पूर्व वैदिक काल जो 1500 ई. पूर्व से लेकर 1000 ई. पूर्व तक तथा उत्तर वैदिक काल 1000 ई. पूर्व से लेकर 500 ई. पूर्व तक में विभक्त किया गया। ऋग्वेद से हमें पूर्णरूपेण ऋग्वैदिक काल का इतिहास ज्ञात होता है। उत्तर वैदिक काल का विकास संस्कृति का उत्थान ऋग्वेद से ही हुआ। इस काल का इतिहास संहिता अख्यक ग्रंथ ब्राह्मण एवं उपनिषदों से प्राप्त हुआ है। आर्य सभ्यता को फैलाव ऋग्वैदिक काल तक पंजाब एवं सिंध तक सीमित रहा, परंतु उत्तर वैदिक काल में आर्यों का प्रसार व्यापक क्षेत्र में हो गया। आर्य सभ्यता का केन्द्र सरस्वती से गंगा तक दोआब में विकसित-विस्तृत था। आध्यात्मिक तत्वों की विशाल राशि वेद है। इन तत्वों का अनुगमन ही धर्म है। धर्म का स्त्रोत वेद है।

वैदिक काल का जीवन दर्शन

वेद प्रत्यक्ष या अनुमान द्वारा अगम्य औषधि तत्वों का सुगमता से बोध अनुभव कराता है। अलौकिक तत्वों के रहस्य जानने के लिये वेद का अध्ययन जरूरी है। इसे जानने हेतु दर्शन एवं चिंतन की आवश्यता है। चिंतन से नवीन दार्शनिक आयाम प्राप्त होते है। वैदिक काल का जीवन दर्शन, निष्ठा, आस्था एवं अनुराग था। उक्त काल में कर्मठता, एकनिष्ठा, के आधार पर समन्वय अनुशासन अनुकरण करते रहे। वेदों के सूक्त, सरल, सुबोध, सुविधाजनक तथा देवताओं को प्रसन्न करने हेतु है। अथर्ववेद में वरुणा नदी का उल्लेख से कुछ विद्वान वाराणसी नाम की प्राचीनता का अनुमान करते हैं, तो भी यह नगर काशी की तुलना में जाती रही, परंतु मुख्य रूप से संस्कृत विद्या पर विशेष वद दिया जाता था।

ऋग्वेद कालीन समाज में भौतिक की अपेक्षा बौद्धिक ज्ञान के महत्व का लोगों के ऊँचे विचार ज्ञान की महिमा आध्यात्मिक चिंतन और भौतिक आकर्षण के प्रति विरक्त मनुष्य की जीवन के मूल्य थे। यहाँ वेद में गायत्री मंत्र ज्ञान के उच्चतम आधार थे। मंच द्रष्टा ऋषियों में उच्चतम दार्शनिक चिंतन दिग्दर्शिका होता था। ऋग्वेद के अनुसार स्वाध्याय एवं प्रवचन के अनुगमन से मनुष्य एकाग्र-चीना होता है। लोग विविध विद्या का अध्ययन कर देवताओं को प्रसन्न करते थे और अपनी कामयाबी की पूर्ति करते थे। वैदिक काल में प्रमुख रूप से वेद अध्ययन होता था।

शिक्षा शास्त्र का निर्माण स्वरों के अनुशासन एवं शुद्धता के लिये किया गया। योद्धा को धर्म की शिक्षायें कंठस्थ करायी जाती, तो वहीं पुरोहितों को संस्कार के मंत्रों का, शिक्षाओं की विस्तृत व्याख्या बतायी जाती थी। गुरू-शिष्य परम्परा का निर्वहन काशी में होता था। ब्रह्माघाट पर ब्रह्मशाला को ब्रह्मा जी ने आकर ब्राह्मण वंश चलाया था, ऐसी काशी की मान्यता है। विद्या, श्रद्धा और योग से किया गया कर्म संयुक्त होने का प्रबल हो जाता है। शिक्षा से सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन का उत्कर्ष होता। ज्ञान शिक्षा से प्राप्त होता है, ज्ञान जीवन को प्रकाशवान बनाता है। मानव को संमार्ग अवलोकन कराता है। ज्ञान से जीवन का कठिनतम कठिनाइयों को दूर करने का सम्बल प्राप्त होता करने में शिक्षा का महत योगदान है। समाज को विकसित करने तथा जीवन को सात्विक और नैतिक निर्देशों का पालन करने का मार्ग शिक्षा द्वारा प्रदान होता है।

उपनयन संस्कार

व्यक्ति आत्मनिर्भर हो, बहुमूल्य शिक्षा का विकास करता है। पारिवारिक निर्वहन के साथ-साथ सामाजिक आर्थिक नैतिक, धार्मिक उत्थान करते हुये चरित्रवान बनकर उत्कृष्ट व्यक्तित्व के उत्तरदायित्वों के साथ सभ्य समाज का नवनिर्माण करता है। मौखिक शिक्षा का प्रचलन वैदिक काल में था। आगे चल कर कमल एवं भोजपत्र पर मयूर पंखों से लिखा जाने लगा। शिक्षा का आरम्भ ब्रह्मचर्य आश्रमों में उपनयन संस्कार के बाद ही होता था। विद्यारम्भ संस्कार के समय बालक गुरूवंदना कर गुरू के प्रति निष्ठा व्यक्त करता था। उपनयन उपरांत ब्रह्मचारी बालक को विद्यामय शरीर और ज्ञानमुक्ति मस्तिष्क प्राप्त होता था, जो माता-पिता से प्राप्त स्थल शरीर से भिन्न था। शिक्षा ग्रहण करने के काल का निर्धारण किया गया था, जो क्रमशः 8-10 वर्ष क्षत्रिय, 11-12 , वर्ष की आयु में शिक्षा प्रारम्भ करने का निर्धारण था। गुरूकुल की प्रथा थी कि गृह त्याग कर बालक गुरू आश्रमों में रहते और योग्यतानुसार शिक्षा प्रदान की जाती रही। उपनिषदों के गुरूकुल के स्थान आचार्य कुल का प्रयोग आते हैं। शिक्षा और विद्या के अद्धतीय अधिष्ठानों का उल्लेख महाकाव्य में गुरुकुल का उल्लेख मिलता है।

उच्चकोटि के गुरूकुल व आश्रम

पूर्वकाल में भारद्वाज एवं वाल्मीकि आश्रम उच्चकोटि के गुरूकुल थे। { महाभारत के द्वारा } मार्कण्डेय एवं कण ऋषि के आश्रम शिक्षा के प्रधान विद्या स्थल थे। वैदिक काल में गुरू के निम्न प्रकार बताये गये हैं। आचार्य, उपाध्याय, प्रवक्ता, अध्यापक, श्रोचिय, गुरू, ऋत्विक, चरक। उक्त गुरूओं का वैदिक काल एवं सूक्तयुग में वेद का ज्ञान स्मरण ! शक्ति पर आधारित था। वेद मंत्रों का कंठस्थ! किया जाता था। गुरूकुल में ज्ञान प्राप्त करने हेतु अध्ययन-अध्यापन कंठस्थ कर होता था। वैदिक युग में आचार्य और गुरू का स्थान देवता-सा था, जो आदरयुक्त, गरिमामय और प्रतिष्ठित था। अग्नि का आचार्य अंगिरा के रूप में अतवरण हुआ, इंद्र के गुरू के रूप में प्रतिष्ठा थी। ऋग्वैदिक आचार्य दिव्य और आलौकिक ज्ञान के प्रतीक थे।

शिक्षा केंद्रों द्वारा समाज को नई दिशा

दृष्टि के धनी होने और बुद्धि तीक्ष्ण होना! शिक्षा के कारण स्वभाविक हो सकता है। एक व्यक्ति से दूसरा अधिक विवेकशील तथा विद्वान हो सकता है। निरंतरता में त्रुटियों के बावजूद काशी की शिक्षा पद्धति ने समाज को एक नई दिशा प्रदान की। आज विश्वविद्यायल, काशी, कश्मीर, धारा, कनौज, उपहित्न पातन, कांची, नालंदा, विक्रमशीला, बल्लभी एवं त्रावस्ती जैसे शिक्षा केंद्रों द्वारा समाज को नई दिशा प्रदान करने का क्रम जारी है। काशी में छोटी-बड़ी वेदशालाओं में दर्जनों भर शिष्य वेद परम्पराओं का निर्वहन कर रहे हैं। ऋग्वेद की शाकल शाखा कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा शुक्लर यजुर्वेद की माध्यंदिन शाखापूर्ण रूप से काशी में विद्यमान है। सामवेद की रमणीय शाखा में आंशिक गान करने वाले भी कुछ गुरू-शिष्य परम्परा काशी में दृष्टिगत होती है।

♦ सुख मंगल सिंह जी – अवध निवासी ♦

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— Conclusion —

  • “सुख मंगल सिंह जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस लेख में समझाने की कोशिश की है — वैदिक काल का जीवन दर्शन, निष्ठा, आस्था एवं अनुराग था। उक्त काल में कर्मठता, एकनिष्ठा, के आधार पर समन्वय अनुशासन अनुकरण करते रहे। वेदों के सूक्त, सरल, सुबोध, सुविधाजनक तथा देवताओं को प्रसन्न करने हेतु है। अथर्ववेद में वरुणा नदी का उल्लेख से कुछ विद्वान वाराणसी नाम की प्राचीनता का अनुमान करते हैं, तो भी यह नगर काशी की तुलना में जाती रही, परंतु मुख्य रूप से संस्कृत विद्या पर विशेष वद दिया जाता था। ऋग्वेद कालीन समाज में भौतिक की अपेक्षा बौद्धिक ज्ञान के महत्व का लोगों के ऊँचे विचार ज्ञान की महिमा आध्यात्मिक चिंतन और भौतिक आकर्षण के प्रति विरक्त मनुष्य की जीवन के मूल्य थे।

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यह लेख (गुरु – शिष्य परम्परा की शुरुआत कब और कैसे ?) “सुख मंगल सिंह जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें, व्यंग्य / लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी कविताओं और लेख से आने वाली पीढ़ी के दिलो दिमाग में हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम बना रहेगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे, बाबा विश्वनाथ की कृपा से।

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