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हेमराज ठाकुर जी की रचनाएँ

क्या सवर्ण आयोग की मांग वाजिब है?

Kmsraj51 की कलम से…..

Table of Contents

  • Kmsraj51 की कलम से…..
    • ♦ क्या सवर्ण आयोग की मांग वाजिब है? ♦
      • — मनुस्मृति में कहीं भी जातिवाद की व्यवस्था का समर्थन नहीं —
      • — यह धर्मगत और जातिगत भेदभाव क्यों? —
      • — सवर्ण आयोग आंदोलन का कारण और औचित्य क्या है? —
      • — निष्पक्ष और तथ्य पूर्ण चर्चा —
      • निष्कर्ष के तौर पर कहा जाए तो ……
      • — एक अभिशाप —
      • — पैसे वालों का अधिमान —
      • — आर्थिक आधार पर आरक्षण व्यवस्था —
      • — पुष्ट और दुरुस्त मानव समाज बन गया होता। —
      • — संविधान से जातिगत आरक्षण की व्यवस्था को हटा दिया जाए —
      • प्रश्न पैदा होता है कि…
      • प्रश्न वाजिब है…
      • क्या यह तर्क उचित है?
      • नरबलि — एक मनोवैज्ञानिक धंधा था।
      • निष्कर्ष — Conclusion :
    • Please share your comments.
    • आप सभी का प्रिय दोस्त
      • ———– © Best of Luck ®———–
    • Note:-
      • “सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

♦ क्या सवर्ण आयोग की मांग वाजिब है? ♦

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सोशल मीडिया में अगर देखें तो सवर्ण आयोग की मांग तूल पकड़ती जा रही है। इधर हिमाचल के शिमला से सवर्ण समाज ने बाबा भीमराव अंबेडकर जी की प्रतिमा के पास से आरक्षण की अर्थी को कंधा देकर के हरिद्वार तक उसकी पैदल शव यात्रा निकाल कर विरोध जताने की एक नई तकनीक अपनाई है। जिसके चलते यहां भीम आर्मी और दलित वर्ग के कई नेताओं और संगठनों ने इस बात का पुरजोर विरोध जताना शुरू कर दिया है और इन आंदोलनकारियों के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दायर करने की मांग की है। बात भले ही हिमाचल के गलियारों से निकल रही हो परंतु यह समस्या मात्र हिमाचल प्रदेश की ही नहीं समूचे हिंदुस्तान की समस्या है। न जाने हमारे पुरखों ने यह व्यवस्था क्यों और कैसे स्थापित की थी कि जिसे भिन्न-भिन्न जातियों और वर्गों का नाम देकर के छुआछूत का भेदभाव तैयार कर दिया। प्रकृति ने जब मनुष्य को जन्म दिया मेरे हिसाब से उसने मात्र दो ही जातियां बनाई। एक जाति का नाम नर है और एक जाति का नाम मादा। यह व्यवस्था प्रकृति ने मात्र मनुष्य योनि के लिए ही नहीं बनाई बल्कि संसार में जितनी भी योनियां जंगम प्राणियों की है, उन सब में एक नर और एक मादा का निर्माण प्रकृति या ईश्वर ने एक समान किया है। तर्क की कसौटी पर सिद्ध होता है कि संसार में मात्र दो ही जातियां हैं जिनमें एक नर है और दूसरी मादा। यूं ही अगर धर्मों की बात करें तो धर्म भी मात्र मानव धर्म है जो सबसे श्रेष्ठ धर्म माना जाता है। पशु पक्षियों के समाज के अपने अपने धर्म हो सकते हैं परंतु मनुष्य प्राणी के लिए यदि कोई धर्म प्रकृति ने निर्धारित किया है तो उस धर्म का नाम मानव धर्म है।

यदि इस बात को मनाने के लिए वर्तमान में समाज के किसी धर्म या जाति संप्रदाय विशेष के मनुष्य समुदाय को समझाने की चेष्टा करें तो कहना न होगा कि समझाने वाले को मुंह की खानी पड़ेगी। हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी जैसे नाना प्रकार के धर्म वैश्विक धरातल पर देखने को मिलते हैं। समझ ही नहीं आता कि सभी धर्मों के लोग इस एक छोटी सी बात को क्यों नहीं समझते हैं कि परमेश्वर ने या फिर इस प्रकृति ने हमें यूं धर्मों में बंटने के लिए नहीं बनाया था। उसने सृष्टि के घटना चक्र को निरंतर प्रवाहित रहने के लिए यह पवित्र व्यवस्था बनाई थी। आखिर कब इस बात का संपूर्ण ज्ञान मानव प्राणी के मानव मस्तिष्क में अंगीकार होगा? सदियों दर सदियों यही जाति और धर्म के झगड़े निरंतर मानवता के रास्ते का रोड़ा बनते आए हैं और बनते ही जा रहे हैं।

— मनुस्मृति में कहीं भी जातिवाद की व्यवस्था का समर्थन नहीं —

इधर एक मत इस बात के लिए मनुस्मृति को कसूरवार ठहराता है। उन्हें मैं बता दूं कि मनुस्मृति में कहीं भी जातिवाद की व्यवस्था का समर्थन नहीं किया है। हां यह जरूर है कि वहां वर्ण व्यवस्था की बात की गई है। परंतु वहां मात्र चार वर्णों की व्यवस्था थी। वे वर्ण थे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। मैं हैरान हूं कि जब मनुस्मृति में साफ शब्दों में यह लिखा है कि इन वर्णों की व्यवस्था भी कोई स्थाई नहीं थी। यदि शुद्र के घर में भी कोई ब्राह्मण बुद्धि का व्यक्ति पैदा होता था तो उसे शुद्र नहीं बल्कि ब्राह्मण कहा जाता था। अर्थात यह व्यवस्था मनुष्य के बौद्धिक धरातल के आधार पर और कार्यक्षमता के आधार पर निर्धारित की गई थी। छुआछूत का इस व्यवस्था में लेश मात्र भी नहीं था। ब्राह्मण और क्षत्रिय यदि शिक्षा और सुरक्षा का काम करते थे तो वैश्य वस्तु विनिमय के द्वारा पूरे समाज के लालन-पालन की व्यवस्था का जिम्मा उठाए रहता था। इधर जो शुद्र वर्ण के लोग होते थे, वही इन तीनों वर्णों के लोगों के घरों में सेवादारी का काम करते थे। यहां तक कि यही शूद्र इन तीनों वर्णों के घरों में खाना पीना बनाने का काम करते थे और इन तीनों वर्ण के साथ बैठकर भोजन बनाया और खाया करते थे।

— यह धर्मगत और जातिगत भेदभाव क्यों? —

एकाएक न जाने यह कैसा परिवर्तन भारतीय सामाजिक परंपरा में प्रचलन में आया कि जो जिस वर्ण में पैदा होता गया, वह उसी वर्ण का समझा जाने लगा और निरंतर यह वर्ण व्यवस्था विकृत होती गई। जो बाद में विकृत होकर के नाना प्रकार की जातियों के नाम से विभाजित हो गई। ऊंच नीच और उत्कृष्टता तथा निकृष्ठता की व्यवस्था भारत में कब से प्रारंभ हुई? इस बात का ठीक से प्रमाण नहीं मिलता। यह एक शोध का विषय है। इसे समझने के लिए हमें ऐतिहासिक एवं प्रागैतिहासिक तथ्यों के साथ चिंतन मनन करना होगा। परंतु भारत की इस कुत्सित व्यवस्था को देखकर एक प्रश्न सबके मन मस्तिष्क में जरूर कौंधता है कि जब सभी जातियों और धर्मों के लोगों के शरीरों की बनावट एक जैसी है, उनकी सभी अंग एक समान है, उनके संसार में पैदा होने का तरीका एक जैसा है, तो फिर यह धर्मगत और जातिगत भेदभाव क्यों?

विशेषकर भारतीय समाज में यह जाति व्यवस्था आखिर किस आधार पर अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं? इस संदर्भ में दूसरे मतावलंबियों का कहना यह है कि जातियां और धर्म हमने नहीं बनाए। यह तो भगवान के द्वारा बनाई गई व्यवस्थाएं है। इसलिए निम्न जाति वालों को इस व्यवस्था को भगवान के आदेशानुसार मानना चाहिए। ऐसा विचार प्रकट करने वालों की मानसिकता सचमुच हमें कितनी वीभत्स लगती है? इसके विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। उनसे मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि आप यह बताएं कि क्या जाति पाती की व्यवस्था भगवान ने मात्र भारत में ही बनाई? विश्व के अन्य देशों में यह व्यवस्था भारत के ही समकक्ष क्यों नहीं बनाई गई है? यह बात भी सच है कि विश्व के हर देश में ऊंच-नीच की एक अपनी व्यवस्था है। कहीं काले गोरे का भेद है तो कहीं किसी अन्य व्यवस्था के द्वारा समाज के उच्च एवं निम्न वर्ग को प्रदर्शित किया जाता है। परंतु यह भी सत्य है कि सब प्रकृति जन्य या परमेश्वर जन्य व्यवस्थाएं नहीं है। ये सभी मानव मस्तिष्क की खुरापात का प्रतिफल है।

— सवर्ण आयोग आंदोलन का कारण और औचित्य क्या है? —

विश्व एक बहुत बड़ा फलक है। आइए हम मात्र भारत के बारे में ही इस विषय के ऊपर जानने की कोशिश करेंगे। आज भारत देश के एक छोटे से प्रांत हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से आरक्षण के विरुद्ध जो आंदोलन सवर्ण आयोग का गठन करने के पक्ष में सरकार पर दबाव बनाने के लिए शुरू हुआ है, आखिर उस आंदोलन का कारण और औचित्य क्या है? इस बात पर एक सटीक, निष्पक्ष और तथ्य पूर्ण चर्चा होना बहुत जरूरी है। पूर्व में क्या घटनाएं और परिस्थितियां रही होगी? उन्हें न ही तो समझा जा सकता है और न ही तो दोहराया जा सकता है। वर्तमान संदर्भ की अगर बात करें तो आज समूचा विश्व एक परिवार की तरह हो गया है। आज के मानव प्राणी ने शिक्षा के क्षेत्र में और विज्ञान के क्षेत्र में जो विकास किया है, वह किसी से छिपा नहीं है। परंतु इतना कुछ होने के बावजूद भी यदि हमारी मानसिकता इन तथाकथित कुत्सित व्यवस्थाओं के चंगुल में ही फंसी रहेगी तो यह देश की उन्नति के पथ पर कोई ठीक संकेत नहीं है। आज यदि जातिगत आरक्षण सवर्ण समाज के भीतर सवर्ण आयोग के गठन का विचार पैदा करता है तो प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि क्या मात्र सवर्ण आयोग का गठन करने से यह लंबे समय से चली आ रही सामाजिक कुरीति समाप्त हो जाएगी?

— निष्पक्ष और तथ्य पूर्ण चर्चा —

अभी यहां संक्षेप में यदि सवर्ण समाज और दलित समाज की दलीलों को सोशल मीडिया के प्लेटफार्म से आंकलित करके लिया जाए तो कहना न होगा कि दोनों पक्ष अपनी अपनी जगह सही है। जहां एक ओर दलित समाज दलील देता है कि हमें सवर्ण समाज ने सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी शोषित किया है और हमें निरंतर घनघोर प्रताड़नाओं का दंश झेलना पड़ा। अब यदि हमें संविधान में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी ने यदि आरक्षण की व्यवस्था देकर के मान सम्मान का जीवन प्राप्त करने की पैरवी की है तो इसमें सवर्ण समाज को दिक्कत ही क्या है?

हम तो अपना सदियों पुराना वंचित अधिकार प्राप्त कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर सवर्ण समाज की दलील यह रहती है कि हमें किसी के सुखचैन से किसी प्रकार की दिक्कत नहीं है। हमारा मानना यह है कि जब आरक्षण नाम की व्यवस्था बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी ने संविधान बनाने के समय मात्र 10 वर्ष के लिए प्रस्तावित की थी तो उसे निरंतर च्विंगम की तरह ये राजनीतिक पार्टियां क्यों खींचती चली आई? यदि यही क्रम बना रहा तो हम भी अपने हक के लिए लड़ रहे हैं। सरकारें सवर्ण समाज के बारे में भी सोचे और सवर्ण आयोग का गठन करें। हम किसी के खिलाफ नहीं है बस अपना हक मांग रहे हैं। वहीं सवर्ण समाज का यह भी कहना है कि क्यों न जातिगत आरक्षण व्यवस्था को खत्म किया जाए और आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था बनाई जाए। इस मामले में अगर सवर्ण समाज के नेताओं से कोई मीडिया कर्मी कारण जांचने की कोशिश करता है तो उनका कहना स्पष्ट होता है कि जातिगत आरक्षण व्यवस्था खुद उन निम्न जाति के लोगों के लिए ही न्याय नहीं कर पाती तो सवर्ण समाज के लिए वह क्या न्याय करेगी?

सवर्ण समाज के नेताओं का कहना है कि संपन्न परिवार के निम्न जाति के लोगों का तो निरंतर इस आरक्षण व्यवस्था से भला हो रहा है। वे इस आरक्षण व्यवस्था के माध्यम से बड़े-बड़े पदों पर स्वयं भी विराजमान है और अपनी संतानों को भी निरंतर उन पदों तक पहुंचाने के लिए लाभ ले रहे हैं। परंतु जो एक गरीब, असहाय एवं दलित निम्न जाति का नुमाइंदा है। उसे न ही तो खुद इस आरक्षण व्यवस्था के माध्यम से लाभ मिल पा रहा है और न ही तो उसकी संतानों को ठीक से मिल पा रहा है। वे लोग मात्र राशन पानी की व्यवस्था तक ही इस व्यवस्था का लाभ उठा पाते हैं। बड़े बड़े पद और सरकारी नौकरियां साधन संपन्न लोगों के हाथ में ही लगती है। यह बात एक कड़वी सच्चाई भी जान पड़ती है। इस बात की पुष्टि मात्र सवर्ण नेता ही नहीं करते बल्कि दलित समाज का निम्न वर्ग भी इस बात की तस्दीक करता है।

निष्कर्ष के तौर पर कहा जाए तो ……

अब यदि दोनों समाजों की बातों को ध्यान में रखकर के निष्कर्ष के तौर पर कहा जाए तो कहना न होगा कि दोनों समाज अपने स्वार्थ की लड़ाई लड़ रहे हैं। समाज के सरोकारों और प्राकृतिक व्यवस्था की किसी को कोई चिंता नहीं है। यह बात सच है कि हमारे भारतीय समाज में कई ऐसी पुरातन रूढ़ियां है जिनका खात्मा होना नितांत आवश्यक है। इस बात को समझने के लिए हमें इस पहलू से थोड़ा हटकर के विचार करना होगा। हमारा भारतीय समाज देवी देवताओं के प्रभाव से पूरी तरह से बंधा हुआ है। विडंबना देखिए कि उन देवताओं की मूर्तियां, उन देवताओं के मंदिर और उन देवताओं के सारे साज बाज सभी कुछ इन्हीं निम्न जाति के लोगों के द्वारा सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी बनाए जाते आ रहे हैं। परंतु सब कुछ कर देने के बाद अंततः एक सवर्ण समाज का व्यक्ति किसी ब्राह्मण के मुख से मंत्रोच्चारण की ध्वनियों के साथ इन सब चीजों को शुद्ध करवा करके इन मूर्तियों और मंदिरों को पूजने का अधिकारी बन जाता है। आखिर ऐसा अब इन उच्च जाति के लोगों ने उनमें क्या डाला कि अब उच्च जातियों के सिवा कोई उन्हे छू ही नहीं सकता?

— एक अभिशाप —

जिन्होंने ये सब कलाकारियाँ अपने हाथों से की, उन्हें उन मंदिरों और देवताओं की मूर्तियों को छूने तक का अधिकार फिर नहीं दिया जाता। यह सचमुच एक निंदनीय एवं अमान्य परंपरा है। इसी पीड़ा के दंश को बाबा साहब ने झेला था। इसीलिए तो उन्होंने संविधान में मात्र 10 वर्ष तक ही आरक्षण की व्यवस्था की बात कही थी। उन्हें मालूम था कि भविष्य में यदि यह व्यवस्था यूं ही बनी रही तो यह जातिवाद खत्म नहीं होगा बल्कि भारत देश के विकास के लिए एक बहुत बड़ा नासूर पैदा हो जाएगा। आज यदि कुछ घटित हो रहा है तो सचमुच ऐसा ही हो रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की अगर कहीं फजीहत होती है तो वह इसी जातिगत व्यवस्था के कारण होती है। अलग-अलग धर्मों के मिश्रण को फिर भी लोग कहीं न कहीं पचा लेते हैं। पर यह जातिगत व्यवस्था सचमुच हमारे समाज के लिए एक अभिशाप बनती जा रही है। निरंतर ऐसी व्यवस्था अगर बनी रहे तो छुआछूत भारत के समाज में घटेगी नहीं बल्कि दिन दुगनी रात चौगुनी प्रगति करेगी। इससे बड़े और समृद्ध निम्न जाति के लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता।

— पैसे वालों का अधिमान —

क्योंकि इस संसार मैं पैसे वालों का अधिमान पूर्व काल से ही रहा है और रहेगा। निम्न जाति का यदि कोई नेता या बड़ा अधिकारी होगा तो उससे सवर्ण समाज के लोग भी कोई छुआछूत नहीं करते। फर्क अगर पड़ता है तो गरीब और सर्वहारा निम्न जाति के लोगों को। उनके हाथ का दिया हुआ पानी सवर्ण जाति के लोग नहीं पीते। उन्हें अपने घरों में घुसने नहीं देते। उन्हें देव मंदिरों में जाने नहीं देते। उन्हें सार्वजनिक धार्मिक स्थलों और कार्यक्रमों में प्रवेश निषेध है। पल पल तिरस्कार का जीवन जीने वाले वे लोग कब इस भुंडी व्यवस्था से बाहर आएंगे? यह सवाल अपने आप में बहुत बड़ी विडंबना है। हम जैसे लेखकों और समाज चिंतकों को इन दलित एवं शोषित लोगों की इस पीड़ा का बड़ा दुख होता है परंतु सत्य यह भी नहीं झुठलाया जा सकता कि जब तक संवैधानिक रूप से जातियों के प्रमाण पत्र बनते रहेंगे और बंटते रहेंगे, तब तक इस जाती पाती की व्याधि का ठीक से इलाज हो पाना असंभव है।

— आर्थिक आधार पर आरक्षण व्यवस्था —

सवर्ण समाज के लोगों को अगर समझाने की कोशिश करें तो वे दो टूक शब्दों में यही कहते हैं कि जब हम अपनी जातिगत श्रेष्ठा के आधार पर आरक्षण जैसे समाज विरोधी नियम का शिकार हुए हैं तो फिर आरक्षण का लाभ लेने के लिए खुशी खुशी जाति का प्रमाण पत्र बनाने वाले निम्न जाति के लोगों को जाति सूचक शब्द हमारे मुंह से सुनने में क्या दिक्कत होनी चाहिए? फिर उन्हें छुआछूत का उसी पुरानी व्यवस्था के अनुसार पालन करने में क्या दिक्कत है? हम नहीं कहते कि हम छुआछूत को बनाए रखेंगे और निम्न जाति के लोगों को जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करके अपमानित करेंगे। परंतु इसके लिए संविधान से जातिसूचक शब्दों को हमेशा के लिए हटा देना चाहिए और जातिगत आरक्षण व्यवस्था का खात्मा करके आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए। इतना ही नहीं सवर्ण समाज के नेताओं का यह भी मानना है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था भी वंशानुगत नहीं होनी चाहिए। वह भी किसी व्यक्ति के जीवन की व्यवस्था एवं सुविधाओं को ध्यान में रखकर के उसे एक बार प्रदान की जानी चाहिए। जब उसे उस आर्थिक आधार पर आरक्षण व्यवस्था के माध्यम से सरकारी नौकरी इत्यादि में लगने का अवसर मिल जाता है तो उस व्यक्ति को उस आरक्षण व्यवस्था से हटाकर नए पात्र उम्मीदवार को वहां स्थान मिलना चाहिए।

परंतु ऐसा कुछ नहीं है। जो गरीब है वह निरंतर गरीब ही बनता जा रहा है। चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का क्यों ना हो? और जो अमीर है वह निरंतर अमीर ही बनता जा रहा है। सच तो बहुत कड़वा है लेकिन इस कड़वाहट को दूर करने के लिए किसी न किसी को तो अपने स्वार्थ का परित्याग करना ही पड़ेगा। यदि किसी चुनावी सीट से कोई दलित नेता लड़ता है तो वह पीढ़ी दर पीढ़ी लड़ता रहता है। यदि निकाय चुनावों की बात करें तो वहां हर पांच साल बाद रोस्टर बदलता रहता है। फिर क्यों न विधानसभा और लोकसभा के आरक्षित चुनाव हलकों में भी यह रोस्टर बदलना चाहिए? ताकि एक और नए दलित एवं कमजोर बुद्धिमान व्यक्ति को आर्थिक रूप से संपन्न होने का मौका मिल सके। क्यों नहीं कोई समृद्ध दलित नेता अपने आप ही अपने किसी गरीब दलित बुद्धिमान भाई को अपनी सीट छोड़ देता? यह अगर स्वार्थ की लड़ाई नहीं है तो और क्या है? सब समृद्ध लोग सभी गरीब लोगों को अपने-अपने जाति और संप्रदाय के तहत भीड़ में इकट्ठा करके बेवकूफ बनाते हैं और लाभ स्वयं ही खाते हैं। बेचारे गरीब जनता भवावेश में अपनी जाति और संप्रदाय के नेताओं की विरोध रैलियों में मात्र भीड़ के सिवा और कोई महत्व नहीं रखती।

यह बात सच है कि चाहे वह सवर्ण समाज हो या फिर दलित समाज। दोनों ही समाजों में यदि आरक्षण को लेकर के जंग छिड़ी है तो उसका मुख्य कारण उनके व्यक्तिगत स्वार्थ है। अब यहां यदि इस बात निष्कर्ष की ओर ले जाने की कोशिश की जाए तो हमें कहना होगा कि यदि बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की बात को हमारे राजनीतिक दलों ने स्वीकार किया होता तो आज यह परिस्थिति पैदा ही न होती। लोगों के लिए संविधान में लिखी गई बात का हवाला देकर के शांत करने की औषधि मिल जाएगी और समाज के सुधार का एक प्रबल आधार मिल जाता। यदि 10 साल से आगे इस व्याधि को न बढ़ाते, वोट बैंक की राजनीति न करते, ध्रुवीकरण का काम न करते तो आज हमारी निम्न और उच्च जाति के सभी लोगों की बहू बेटियां और बेटे आपस में एक दूसरे के साथ शादियां करके इस कुचक्र से बाहर निकल गए होते।

— पुष्ट और दुरुस्त मानव समाज बन गया होता। —

आज भारतीय समाज जातिगत विडंबना से न उलझ रहा होता। आज वह एक पुष्ट और दुरुस्त मानव समाज बन गया होता। यह बात जरूर है कि आज राजनीतिक पार्टियां पुनः इस बात के मायने समझाने की कोशिश कर रही है। परंतु उसके पीछे भी उनकी वहीं राजनीतिक मंशा है न कि सामाजिक उत्थान एवं कल्याण की भावना। यह परम सत्य है कि बड़े लोगों के लिए न ही तो आज तक कोई जाति, धर्म या संप्रदाय आड़े आया है और न ही तो आएगा। इसका शिकार यदि कोई बनते हैं तो निम्न और मध्य वर्ग के लोग। मध्य वर्ग के लोगों में भी निम्न मध्यवर्गीय लोग सबसे ज्यादा इस व्याधि का शिकार होते हैं। उच्च मध्यवर्गीय लोग तो इस जात पात की व्यवस्था से अछूते ही रह जाते हैं।

— संविधान से जातिगत आरक्षण की व्यवस्था को हटा दिया जाए —

हमारे भारत के अधिकतर राजनीतिक लोग इसी उच्च मध्यवर्गीय परिप्रेक्ष्य से आते हैं। अब यदि सचमुच हम लोग जातिवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ना चाहते हैं तो हमें सवर्ण समाज और दलित समाज का नकाब उतार करके फेंकना पड़ेगा तथा मिलकर के इस जंग को लड़ना पड़ेगा। एट्रोसिटी एक्ट तो महज एक बहाना है। असली बात तो यह है कि हमें भारत से जातिवाद की सदियों पुरानी विकृत व्यवस्था को हटाना है। क्यों न उच्च मध्यवर्गीय निम्न जाति के लोग स्वयं ही जातिगत व्यवस्था के विरुद्ध और जातिगत आरक्षण के विरुद्ध आंदोलन शुरू करते? एक सुर में वे मिलकर यह आवाज उठाएं कि हमें न ही तो आरक्षण चाहिए और न ही तो जाति के आधार पर बंटने वाले सर्टिफिकेट। संविधान से जातिगत आरक्षण की व्यवस्था को हटा दिया जाए और जातियों के आधार पर अधिकारियों को जो सर्टिफिकेट बांटने की अथॉरिटी दी गई है, उसे भी तुरंत प्रभाव से निरस्त किया जाए।

प्रश्न पैदा होता है कि…

इतना ही नहीं हमें किसी भी मंदिर और सार्वजनिक स्थान पर जाने से कोई न रोक सके तथा हमारे साथ कोई छुआछूत का व्यवहार अमल में न लाएं। जो आरक्षण व्यवस्था को हटाने के बाद भी हमें जातिसूचक शब्दों से पुकारने की कोशिश करेगा या फिर हमारे साथ छुआछूत का व्यवहार करने की कोशिश करेगा, उसे सीधा फांसी की सजा दी जाए। क्योंकि दकियानूसी विचार सवर्ण जाति के लोगों में भी कम नहीं है। देव समाज के नाम से हमारे सवर्ण जाति के लोग सचमुच एक डर का व्यवसाय सदियों से करते आ रहे हैं। जिसके नाम पर निम्न जाति के लोगों को छुआछूत व्यवस्था को अपनाए रखने के लिए वे डरा डरा कर विवश करते हैं । इतना ही नहीं इस डर के व्यवसाय में भारतीय देव समाज में देवताओं के कार्यकर्ताओं द्वारा पशु बलि प्रथा का चलन भी आज तक विद्यमान है। जरा सोचिए कि देवता किसी की जान को बचाने के लिए किसी दूसरे जीव की जान क्यों लेगा? यह भी प्रश्न पैदा होता है कि जो देवता पशुओं की बलि लेकर प्रसन्न होता है, क्या वह देवता हो सकता ?

प्रश्न वाजिब है…

ऐसी बहुत सारी कुरीतियां है जो समाज ने अपने मनगढ़ंत तरीके से चलाई हुई है। इनका न ही तो कोई भावगत आधार है और न ही तो कोई विज्ञानगत आधार है। इधर हिंदू लोग गाय का मांस नहीं खाते और उधर मुस्लिम लोग सूअर का मांस नहीं खाते। बाकी सब कुछ खा जाते हैं। मुस्लिमों का कहना है कि यदि हिंदू लोग गाय को दूध देने के कारण माता समझ कर के उसका मांस नहीं खाते हैं तो दूध तो भेड़ और बकरियां भी देती है। फिर उनका मांस क्यों खाते हैं? प्रश्न वाजिब है। यही प्रश्न कोई हिंदू मुस्लिम से करता है कि मेरे भाई तुम भी तो सब कुछ खा जाते हो फिर सूअर का मांस क्यों नहीं खाते हो? आखिर वह भी तो एक जानवर है? ऐसे कई अनगिनत सवाल हर धर्म और हर जाति संप्रदाय के भीतर बिना किसी आधार के चलते आ रहे हैं, जिनका निराकरण होना बहुत मुश्किल है। कबीर साहब जैसे लोगों ने चीख चीख कर इन कुरीतियों को दूर करने की वकालत की परंतु इस भुंडे समाज ने किसकी एक न सुनी। एक ऐसा भी वर्ग है जो मांसाहार के पीछे एक बड़ा तर्क देता है।

क्या यह तर्क उचित है?

उसका कहना है कि इससे सृष्टि का संतुलन बना रहता है और इसके साथ – साथ समाज की जो सब्जी की व्यवस्था है वह व्यवस्था भी कहीं न कहीं पूरी होती है। वरना सोचो यदि लोग मांसाहार न करते तो कितनी सब्जी की किल्लत झेलनी पड़ती? ऐसे लोगों के तर्कों पर हंसी भी आती है और तरस भी आता है। अरे भाई अगर तुम्हारी बात को मान भी लिया जाए कि इससे सृष्टि चक्र में संतुलन बना रहता है। तो फिर इस धरती पर इतनी मानव जनसंख्या हो गई है कि वह असंतुलित होती जा रही है। उसकी व्यवस्था करना हमारे शासन एवं प्रशासन को मुश्किल हो रहा है। आए दिन कहीं न कहीं कोई न कोई बलात्कार, दंगा फसाद और धर्म एवं संप्रदाय से संबंधित झड़प हमें अखबारों एवं समाचार चैनलों में सुनने को मिलते हैं। यह समस्या सिर्फ एक देश की नहीं समूचे विश्व की है। तो फिर तो संतुलन बनाने के लिए यहां भी बीच-बीच में से मनुष्य को काट देना चाहिए और उनका मांस पका करके सब्जी की व्यवस्था की समस्या भी दूर हो जाएगी।

खैर छोड़िए यह भी एक अभद्र बात हो गई। शायद यह कुछ ज्यादा ही बड़ा तर्क हो गया। मैं तो यह भी कहता हूं कि जब कोई मनुष्य अपनी सहज मौत मरता है तो उसके बाद उसे तब जलाने दफनाने की कोई जरूरत नहीं। जो लोग मांसाहार करते हैं, उसका शरीर उनके हवाले कर देना चाहिए ताकि वह अपना मांसाहार भी प्राप्त कर ले और उसके मृत शरीर का निपटान भी हो जाए। पाप भी नहीं लगेगा, क्योंकि मुर्दे को तो यूं भी किसी न किसी तरह निपटाना है। इसके साथ-साथ सब्जी की किल्लत का प्रश्न भी खत्म हो जाएगा। नहीं ना। ऐसा कोई नहीं करेगा। पर क्यों? यह भी सत्य है कि एक समय हमारे भारत में नर बलि का भी प्रावधान था। वह भी एक डर का व्यवसाय था। जब लोग जागरूक हुए तो उन्होंने उस व्यवस्था का विरोध किया और नरबलि को खत्म किया।

नरबलि — एक मनोवैज्ञानिक धंधा था।

फिर कहां गए वे देवता या दानव जो नरबलि न देने के कारण समाज में दारुण दंश भरते थे। इस बलि को न देने के कारण ही देवता समाज में खलबली मचा देते थे। आखिर यह सिद्ध हुआ कि यह एक मनोवैज्ञानिक धंधा था। ताकि समाज में एक डर का माहौल बना रहे और जो देवताओं को पूजने वाले कार करिंदे होते थे उनका एक टेरर बना रहे। कोई देवी देवता किसी पशु या पक्षी को नहीं खाता। यह सब व्यवस्था मनुष्य ने अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए मांस भक्षण की लालसा से तैयार की थी और अब निरन्तर चली आ रही है। विडंबना यह है कि मांसाहार को चाहने वाले लोगों की संख्या समाज में हमेशा से अधिक रही है और इसीलिए इस गंदी परंपरा को निरंतर आगे बढ़ाते आ रहे हैं। जो लोग इस व्यवस्था की कुरीति को समझते हैं, उनकी संख्या कम है और वे कुछ कर नहीं सकते। यह डर अगर एक पीढ़ी तक जबरदस्ती रोक लिया जाए आने वाली पीढ़ी के भीतर से यह डर अपने आप ही चला जाएगा और कोई किसी देवता के मंदिर में बलि नहीं चढ़ाएगा।

निष्कर्ष — Conclusion :

अब आप कहेंगे कि यह विषय यहां क्यों लिया गया? मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि इस तरह की बहुत सारी कुव्यवस्थाएं हमारे भारत में आज भी विद्यमान है। जो हमें भारत के वैभव को गाने से निरंतर रोकती और टोकती रहती है। इतना ही नहीं अंतरराष्ट्रीय धरातल पर भी इन्हीं कुव्यवस्थाओं के चलते हमें अपमानित और शर्मिंदा होना पड़ता है। वरना भारत की गौरवशाली गाथा का वैभव विश्व में किसी से नहीं छुपा है। यह भारत एक समय यूं ही विश्व गुरु के पद पर आसीन नहीं था। इस बीच में ये जाति पाती, धर्म संप्रदाय और बलि प्रथा इत्यादि कुप्रथाओं ने भारत के दामन पर दाग लगा दिया और इसे वैश्विक पटल पर गवार सिद्ध कर दिया। अभी भी वक्त है। यदि आज भी हम लोग अपनी भौतिक लालसाओं को छोड़ कर के और व्यक्तिगत स्वार्थों को छोड़ कर के एकजुट होकर भारत के वैभव को बचाने की कोशिश करते हैं तो वह दिन दूर नहीं जिस दिन भारत पुनः विश्व गुरु के पद पर विराजमान होगा।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — सारी कुव्यवस्थाएं हमारे भारत में आज भी विद्यमान है। जो हमें भारत के वैभव को गाने से निरंतर रोकती और टोकती रहती है। इतना ही नहीं अंतरराष्ट्रीय धरातल पर भी इन्हीं कुव्यवस्थाओं के चलते हमें अपमानित और शर्मिंदा होना पड़ता है। वरना भारत की गौरवशाली गाथा का वैभव विश्व में किसी से नहीं छुपा है। यह भारत एक समय यूं ही विश्व गुरु के पद पर आसीन नहीं था। इस बीच में ये जाति पाती, धर्म संप्रदाय और बलि प्रथा इत्यादि कुप्रथाओं ने भारत के दामन पर दाग लगा दिया और इसे वैश्विक पटल पर गवार सिद्ध कर दिया। अभी भी वक्त है। यदि आज भी हम लोग अपनी भौतिक लालसाओं को छोड़ कर के और व्यक्तिगत स्वार्थों को छोड़ कर के एकजुट होकर भारत के वैभव को बचाने की कोशिश करते हैं तो वह दिन दूर नहीं जिस दिन भारत पुनः विश्व गुरु के पद पर विराजमान होगा।

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यह लेख (क्या सवर्ण आयोग की मांग वाजिब है?) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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साहित्य का प्रदेय।

Kmsraj51 की कलम से…..

Table of Contents

  • Kmsraj51 की कलम से…..
    • ♦ साहित्य का प्रदेय। ♦
      • • साहित्य मौखिक और लिखित दोनों रूपों में अनादिकाल से विद्यमान •
      • • हिंदी साहित्य का यौवन ही निखर आया •
      • • वह सब साहित्य का ही प्रदेय है •
      • • भाषा के आधार पर साहित्य •
      • • साहित्य के दो रूप •
      • मौखिक साहित्य। — Oral literature
      • लिखित साहित्य। — Written literature
      • 1. मौखिक साहित्य का प्रदेय : —
      • 2.लिखित साहित्य की देन : —
      • निष्कर्ष — Conclusion :
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    • Note:-
      • “सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

♦ साहित्य का प्रदेय। ♦

“साहित्य समाज का दर्पण होता है” इस पंक्ति से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। किसी भी काल – खंड की तस्वीर जब हम देखना चाहते हैं तो उस दौर का साहित्य उठाते हैं और शोधों – परिशोधों के शिकंजे पर कस कर साहित्य – आइने में उस काल – खंड का अवलोकन करते हैं। इस शीशे को फ्रेम बद्ध करना एक सजग साहित्यकार का काम होता है। यानी संक्षेप में कहें तो इन तीनों का आपस में एक गहरा नाता है।भविष्य के फलक पर वर्तमान का यथार्थ अपनी कलम छेनी और कल्पना मिश्रित अनुभूति के हथौड़े से चित्रित करना जहां साहित्यकार का काम है, वहीं समाज की पीड़ाओं के आत्मसात भावबोध के उस उद्घाटन का नाम ही साहित्य है। स्पष्ट है कि साहित्य और साहित्यकार के दरम्यान (बीच में) समाज ही केंद्र बन कर रहता है।

• साहित्य मौखिक और लिखित दोनों रूपों में अनादिकाल से विद्यमान •

साहित्य मौखिक और लिखित दोनों रूपों में अनादिकाल से विद्यमान होकर अपनी सेवाएं दे रहा है। इसके अनवरत प्रवाह के चलते, इसने अनेकों पड़ावों को पार कर घाट – घाट का पानी पीया है। जहां साहित्य का प्रारंभिक रूप पौराणिक दंत कथाओं के रूप में लंबे समय तक मौखिक चलता रहा, वहीं श्रुतियों – स्मृतियों ने इस कड़ी को बनाए रखने की अपार भूमिका अदा की। समय बदला, परिस्थितियां बदली। इसी मौखिक रूप ने लिखित रूप धारण किया और अपने समय के साक्ष्य देने का जिम्मा उठाया। वेदों – वेदांतों से गुजरते हुए यह रामायण – महाभारत जैसी महा लोक कथाओं को पार कर जब हिन्दी साहित्य के आदिकाल में प्रवेश हुआ तो इसने अपना मिजाज सिद्धों – नाथों की चमत्कृत अनुभूतियों के साथ बदल दिया।

यह सच है कि उस दौर में भी इसने वीर रस का पान करते हुए श्रृंगारित अनुभूतियों और युद्घिय वातावरण का चित्रण करने में कोई कोर – कसर न छोड़ी। जहां – जहां इसे वात्सल्य, वीभत्स, आदि दृश्यों को उद्घाटित करना था, सो भी कुल मिलाकर बखूबी किया। यानी इस काल में भी साहित्य की मूलभूत योग्यताओं और क्षमताओं का प्रदर्शन साहित्यकारों ने संतुलित किया।

• हिंदी साहित्य का यौवन ही निखर आया •

अब भक्ति काल या मध्यकाल में तो विशेष कर हिंदी साहित्य का यौवन ही निखर आया था। साहित्यिक रसों, गुणों, शब्द शक्तियों और छंद – अलंकारों के साथ – साथ साहित्य लेखन की महा विधाओं का उत्कर्ष ही निखर आया। इस काल – खंड के साहित्यकारों ने समाज की स्थिति को अपनी लेखनी की नोक से जिस क़दर साहित्य में उतारा, वह सच में काबिले तारीफ है। यह तो हिन्दी साहित्य का वह काल है, जिसे कोई चाह कर भी भूला नहीं सकता।

रीति काल में जहां दरबारी साहित्य की झलक के साथ – साथ शृंगारिकता का दर्शन होता है तो वहां आधुनिक काल में छायावादी कवियों का प्रकृति प्रेम दिखता है। आधुनिक काव्य साहित्य साहित्यिक परंपराओं को तोड़ता हुआ छंद मुक्त हो गया और इधर काव्य रचना की परिपाटी को तोड़ता हुआ गद्य साहित्य के क्षेत्र में उद्भूत हुआ।

• वह सब साहित्य का ही प्रदेय है •

यह तो भारतीय साहित्य परंपरा की एक संक्षिप्त गाथा है। परंतु साहित्य मात्र भारत में ही नहीं रचा गया। साहित्य तो विश्व के हर कोने – कोने में और हर जाति – धर्म में अपनी – अपनी भाषाओं में और अपनी – अपनी तहजीब में रचा गया। इधर यहूदी धर्म की पवित्र पुस्तक बाइबल से क्रिश्चियन धर्म का साहित्य शुरू हुआ और आधुनिक ईसाई मिशनरियों और इलियट जैसे प्रसिद्ध कवियों की कृतियों के साथ पल्लवित एवं संवर्धित हुआ।

ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद यदि हिन्दुओं के पवित्र और पुरातन ग्रंथ है तो इंजल, जबूर, तोरात और कुरान मजीद या कुरान शरीफ इस्लाम के पवित्र और पुरातन ग्रंथ है। अब चाहे पारसियों का साहित्य उठाओ या फिर बौद्धों, जैनों या सिखों का साहित्य उठाओ। धम्मपद, त्रिपिटक और गुरु ग्रंथ साहिब जैसी पवित्र ग्रंथों का अध्ययन करने पर या फिर किसी भी धर्म या संप्रदाय के साहित्य का अवलोकन करने पर जो कुछ हमें प्राप्त होता है वह सब साहित्य का ही प्रदेय है।

• भाषा के आधार पर साहित्य •

जाति, धर्म और संप्रदाय को छोड़कर यदि हम भाषा के आधार पर भी साहित्य को देखने की कोशिश करेंगे तो वह भी अपने आप में एक महत्वपूर्ण कड़ी है। अब चाहे संस्कृत का साहित्य हो या फिर हिंदी का। उधर अंग्रेजी, अरबी, फारसी या उर्दू का साहित्य हो चाहे फिर पाली, प्राकृत भाषा में रचित। पंजाबी, चीनी आदि विभिन्न भाषाओं में विपुल साहित्य की रचना हमें पढ़ने के लिए मिलती है। बात यहीं खत्म नहीं होती। बात तो यहां से शुरू होती है की साहित्य का प्रदेय क्या है?

• साहित्य के दो रूप •

यह प्रश्न जितना सरल है उतना ही इसका उत्तर भी सरल है। सीधी सी बात है कि विश्व के मानव मात्र के मन – मस्तिष्क में आज जो कुछ भी ज्ञान भरा पड़ा है, वह सब संसार के विविध साहित्य की ही देन है। इस संसार में साहित्य विद्यमान नहीं होता तो न ही तो संस्कृति और सभ्यता ही विकसित होती और न ही तो मनुष्य के पास मानव कल्याण एवं समाज उत्थान सम्बन्धी ज्ञान – विज्ञान होता। साहित्य ने हमें क्या नहीं दिया? साहित्य की देन को समझने के लिए हमें अनादि काल के उस परिप्रेक्ष्य में जाना होगा जहां से मौखिक साहित्य का उदय हुआ था। हम भलीभांति जानते हैं कि साहित्य के दो रूप हमें देखने को मिलते हैं : —

  1. मौखिक साहित्य। — Oral literature

  2. लिखित साहित्य। — Written literature

संसार की हर भाषा का साहित्य इन दो विभागों में बंटा हुआ है। जब मनुष्य को पढ़ना – लिखना नहीं आता था तो अवश्य ही उस काल खण्ड में हर भाषा का साहित्य मौखिक रूप से लंबे समय तक लोक में प्रचलित रहा। इन दोनों साहित्यिक विभागों के प्रदेय को समझने के लिए हमें इन्हें अलग – अलग तरीके से समझना होगा।

1. मौखिक साहित्य का प्रदेय : —

मौखिक साहित्य हर भाषा में श्रुति – स्मृति परंपरा में ही विद्यमान रहा। इस साहित्य ने जहां मानव मस्तिष्क और हृदय में भावनाओं एवं कल्पनाओं का विकास किया, वहीं दूसरी ओर मानवीय संस्कृति एवं सभ्यता को पाशविक संस्कृति एवं सभ्यता से पृथक करने में भी अपनी अहम भूमिका अदा की।

धर्मों के आधार पर यदि हम मानव परंपराओं को समझने की कोशिश करेंगे तो उसमें कई गतिरोध पैदा हो जाते हैं। इधर हिंदू मतानुसार यदि पुनर्जन्म की परिकल्पना की गई है तो इस्लामिक धर्म इसके विपरीत चलता है। इस कड़ी को ठीक से समझने के लिए यदि हम प्रागैतिहासिक घटनाओं और पुरातत्वविदों की परिकल्पना को ही वैज्ञानिक पृष्ठभूमि से जोड़कर आधार माने तो मौखिक साहित्य की देन का ठीक – ठीक विश्लेषण कर पाएंगे।

इस दृष्टि से माना जाता है कि मनुष्य का विकास पशु योनि से धीरे – धीरे विकसित होकर आदिमानव के रूप में हुआ। वह मौखिक ज्ञान – विज्ञान के आश्रय से बौद्धिक रूप से विकसित होता गया और उसी बौद्धिक ज्ञान – विज्ञान के आधार पर उसने अपने बाह्य वातावरण को और अपने शरीर को निरंतर परिष्कृत करके नवीन ढर्रे में ढालने की कोशिश की। आज का सभ्य मानुष उस आदिमानव का परिवर्धित एवं परिष्कृत रूप है।

यदि इस बात को आधार माना जाए तो यह स्पष्ट हैं कि मौखिक साहित्य ने सचमुच समाज के लिए बहुत कुछ दिया है। यह वह काल था जब मनुष्य ने धीरे-धीरे सोचना शुरू किया था। सोची हुई बातों को वैचारिक ताने-बाने में गूंथना शुरू किया था। इतना ही नहीं उन गुंथी हुई बातों को, कथा और कहानियों का रूप देकर के उन्हें स्मरण रखने की कला सीख ली थी। यह मौखिक साहित्य जितना प्रासंगिक उस काल खण्ड में था, उतना ही प्रासंगिक आज के दौर में भी है। यही साहित्य की वह विधा है जो पुरानी पीढ़ी का ज्ञान एवं अनुभव नई पीढ़ी में संप्रेषित करती है और नई पीढ़ी को उसके आगे आने वाली नई पीढ़ी के लिए ज्ञान – विज्ञान संप्रेषित करने के काबिल बनाती है।

हमें याद है कि हमारे घरों में हमारी दादियां और नानियां हमें ढेरों कहानियां मौखिक रूप से सुनाया करती थी और उन्हें वे कथाएं व कहानियां हमेशा के लिए सैकड़ों की तादात में जुबानी ही याद थी। उन कहानियों में मानवीय मूल्य, सामाजिक प्रेरणा और उदात्त भावनाओं के साथ – साथ मानवीय संबंधों को सुदृढ़ करने की एक विशेष परिकल्पना विद्यमान रहती थी। अतः कहना न होगा कि मौखिक साहित्य ने वैश्विक धरातल पर अपना जो योगदान समूची मानव जाति को दिया है, वह सचमुच अविस्मरणीय है।

दया, करुणा, मानवता, जिजीविषा, प्रेम, सामाजिकता, सहनशीलता, सहानुभूति, विश्वसनीयता, विनम्रता, मेहनत, धार्मिकता, आध्यात्मिकता और खोजबीन जैसे गुण यदि मनुष्य में विद्यमान हुए हैं तो इसका मुख्य साधन मौखिक साहित्य ही रहा है। मानव जाति को यदि सामाजिकता और निरन्तर खोजबीन का गुण मौखिक साहित्य न सिखाता तो आज के पढ़े लिखे एवं तर्क से परिपूर्ण समाज में अव्यवस्था फैल जाती।

कहना न होगा कि हम लोग पढ़े – लिखे आदिमानव कहलाते। यह बात जरूर है कि हर समाज एवं धर्म में अपनी-अपनी सृष्टि रचना का क्रम धार्मिक ग्रंथों में वर्णित किया गया है, परंतु वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मनुष्य प्रकृति का एक अभिन्न अंग है और उसने अवश्य ही मौखिक साहित्य का सहारा लेकर के आज तक के समाज तक पहुंचते-पहचते बहुत प्रगति की है।

सेवा, साधना और समर्पण की भावनाएं यदि मनुष्य के भीतर किसी ने भरी है तो वह मौखिक साहित्य ने ही भरी है। वरना आज की पढ़ी – लिखी पीढ़ी में ये गुण दूर – दूर तक देखने को नजर नहीं आते। कारण यही है कि आज का बालक दादियों और नानियों की उन मौखिक कथा कहानियों को नहीं सुनता है। इसलिए उसके व्यवहार में प्यार कम और विकार ज्यादा प्रभावी हो रहे हैं। यह भी सत्य है कि विकार पाशविक प्रवृत्ति के द्योतक है।

2.लिखित साहित्य की देन : —

जहां मनुष्य के आंतरिक भावबोध और संस्कारों का निर्माण करना मौखिक साहित्य की देन रहा है, वहां मनुष्य के मन और मस्तिष्क के बाह्य सामाजिक और व्यवहारिक पक्ष को अधिक कलात्मक और रोचक बनाना लिखित साहित्य की देन है। यह बात जरूर है कि लिखित साहित्य बहुत लंबे समय के बाद अस्तित्व में आया। परंतु जो भूमिका लिखित साहित्य ने मनुष्य जाति के लिए अदा की है वह अपने आप में अभिन्न है। जब से लिखित साहित्य अस्तित्व में आया तब से मनुष्य ने अपनी छोटी-बड़ी सभी सामाजिक घटनाओं को लिखित रूप से संग्रहित करने की कला सीख ली और उसे अपने पास में संजो करके रखने का उपक्रम मनुष्य जान गया। यह साहित्य का वह पक्ष है जो किसी भी समाज विशेष की और किसी भी काल खण्ड की स्थिति को अपने में समेट कर भविष्य की पीढ़ी को आईने की तरह बीते समय का दिग्दर्शन करवाता है ।

जहां मनुष्य ने अपने व्यवहारिक पक्ष को इस साहित्यिक पक्ष के द्वारा मजबूत किया वहीं उसने अपने सामाजिक पक्ष को भी साहित्य के इस पक्ष से सुदृढ़ किया। यह साहित्य का वह पक्ष है, जिसने विभिन्न संस्कृतियों और सभ्यताओं का वैचारिक आदान – प्रदान सुनिश्चित किया। इसी ने अनेकों संस्कृतियों और सभ्यताओं को लिखित रूप देकर मानव समाज के लिए सुरक्षित रखा। यही वह पक्ष है, जिसने मनुष्य को योग्य एवम साक्षर बनाया। यही वह पक्ष है, जिसने मनुष्य में तर्क, विवेक, स्पर्धा और निरंतर संघर्ष करना सिखाया। अध्ययन और अध्यापन भी इसी पक्ष की देन है। आज के युग में अध्ययन एवं अध्यापन का जो महत्त्व बन गया है, वह किसी से नहीं छुपा है। अनुलेखन, प्रतिलेखन अभिलेखन, पत्राचार, शीला लेखन या फिर स्तंभ लेखन आदि सारे उपक्रम इसी कड़ी की देन है।

आज का मनुष्य यदि देश – विदेश में जा कर या फिर इंटरनेट के माध्यम से जो कुछ भी सीख रहा है या फिर अपना अनुभव वैश्विक धरातल पर संप्रेषित कर रहा है तो वह साहित्य की इसी कड़ी का सहारा लेकर सब कर रहा है। लिखित साहित्य के माध्यम से ही आज यह संभव हो पाया है कि प्राचीनतम से भी प्राचीनतम ज्ञान – विज्ञान से लेकर नवीनतम से भी नवीनतम ज्ञान – विज्ञान को हम आज तथ्यात्मक ढंग से खोजबीन करके पुष्ट कर सकते हैं और समझ सकते हैं। यह जब मर्जी तब कर सकते हैं। यही लिखित साहित्य की विशेष उपलब्धि है।

यदि यह आज तक भी मात्र मौखिक ही रहा होता तो निश्चित तौर पर इस के अधिकतम प्रमाणिक अंश का या तो कुछ जानकारों के संसार छोड़ने के साथ अन्त हो जाता या फिर इनमें स्वार्थ वश कई प्रक्षिप्त अंश जुड़ जाते, जो मानव समाज को पथ भ्रष्ट करते। यह सच है कि अभी भी मौखिक साहित्य का एक बहुत बड़ा भाग लोक किंवदंतियों और दंत कथाओं में ही प्रचलित है। उसका लिखित रूप अभी तक सामने नहीं आ पाया है। उसे शोध के साथ खोजबीन करके लिखित रूप में लाने की नितान्त आवश्यकता है। परन्तु फिर भी संसार भर की समस्त भाषाओं का विपुल लिखित साहित्य मानव समाज को बहुत कुछ दे रहा है और निरन्तर देता ही रहेगा।

निष्कर्ष — Conclusion :

सार रूप से यदि कहा जाए तो इन दोनो साहित्यिक पक्षों ने मनुष्य जाति को बहुत कुछ दिया है। आज यदि मनुष्य के पास जो कुछ भी ज्ञान – विज्ञान है तो उसका मूल कारण साहित्य ही है। फिर वह चाहे लिखित हो या मौखिक। मानव ने जो कुछ भी भावात्मक या विचारात्मक सांस्कृतिक और सामाजिक विकास किया है, वह साहित्य के बल पर ही किया है। यह बात अलग है कि साहित्य के भी दो पहलू हैं। एक नकारात्मक साहित्य और एक सकारात्मक। आम तौर पर समाज का अधिकांश वर्ग साहित्य के सकारात्मक पक्ष को ही स्वीकार करता है और उसी के सहारे नई पीढ़ी को दशा और दिशा प्रदान करता है। यही साहित्य की असली प्रदेयता है और महता है।

अतः कहना न होगा कि साहित्य का सकारात्मक सृजन पुष्ट समाज के निर्माण के लिए निरन्तर होते रहना चाहिए और उसके पठन – पाठन का भी कार्य पीढ़ी दर पीढ़ी लगातार चलता रहना चाहिए। साहित्य ही समाज की वह ताकत है जो किसी समुदाय और समाज को वैचारिक और व्यवहारिक रूप से समृद्ध बनाती है। यदि ऐसा न होता तो विदेशी आक्रांता हमारी भारतीय साहित्यिक कृतियों को लूट कर अपने देश नहीं ले जाते। इन घटनाओं से स्पष्ट होता है कि साहित्य की प्रदेयता हर युग में विशेष रही है और रहेगी।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — हम सभी को मिलकर भारतीय साहित्य, संस्कृति और संस्कार को पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरण करने का कार्य कारण हैं। साहित्य का सकारात्मक सृजन पुष्ट समाज के निर्माण के लिए निरन्तर होते रहना चाहिए और उसके पठन – पाठन का भी कार्य पीढ़ी दर पीढ़ी लगातार चलता रहना चाहिए। साहित्य ही समाज की वह ताकत है जो किसी समुदाय और समाज को वैचारिक और व्यवहारिक रूप से समृद्ध बनाती है। यदि ऐसा न होता तो विदेशी आक्रांता हमारी भारतीय साहित्यिक कृतियों को लूट कर अपने देश नहीं ले जाते। इन घटनाओं से स्पष्ट होता है कि साहित्य की प्रदेयता हर युग में विशेष रही है और रहेगी।

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यह लेख (साहित्य का प्रदेय।) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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हिमाचली लोक संस्कृति में प्रभु श्री राम और दिवाली।

Kmsraj51 की कलम से…..

Table of Contents

  • Kmsraj51 की कलम से…..
    • ♦हिमाचली लोक संस्कृति में प्रभु श्री राम और दिवाली। ♦
      • 1 » लोक मान्यताओं, गाथाओं और गीतों में राम:—
      • राम कृपा से संबंधित लोक गीत:—
      • राम रावण युद्ध संबंधी लोक गीत:—
      • सिया लोकगीत: —
      • बरमा ने जाए “बिरसु” (बिरसु नाटी) :—
      • देव महासू का मंदिर असल में भगवान राम का ही मंदिर है।
      • बरलाज लोक गीत (सोलन और शिमला): —
      • अवनाद वाद्य : —
      • सुशीर वाद्य : —
      • घन वाद्य: —
      • तार वाद्य: —
      • हनुमान जी – सूक्ष्म रूप बनाकर प्रविष्ट।
      • सर्यांजी नामक गांव में पांच पांडवों के मंदिर
      • भगवान वामन और महाराजा बली वृतांत: —
      • हनुमान का श्री राम एवं लक्ष्मण को बचाने हेतु जाना: —
      • कुल्लू घाटी की लोक प्रचलित मान्यता एवं श्रीराम से संबंधित घटनात्मक गाथा: —
      • सुप्रसिद्ध एवं सिद्ध संत “कृष्णदास पयहारी” जी
      • वैदिक रीत में किसी भी मूर्ति का असली माप
      • लोक मान्यता
      • कुल्लू का राज्य रघुनाथ जी के नाम
      • हिमाचल में राम मंदिर: —
      • श्री रघुनाथ जी मंदिर जिला कुल्लू: —
      • मणिकरण में स्थित राम मंदिर: —
      • जिला मंडी में राम मंदिर: —
      • सूद सभा राम मंदिर शिमला: —
      • महासू राम मंदिर सिरमौर: —
      • जिला चंबा के मुख्य बाजार का राम मंदिर: —
      • हरिपुर राम मंदिर धर्मशाला कांगड़ा: —
      • हिमाचली लोक यात्राओं में राम: —
      • लोक अभिवादनों और संस्कारों में राम : —
      • तीज – त्योहारों और उत्सव में राम: —
      • निष्कर्ष (Conclusion) : —
      • घोषणा : —
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    • Note:-
      • “सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

♦हिमाचली लोक संस्कृति में प्रभु श्री राम और दिवाली। ♦

हिमाचल का नाम सुनते ही हर किसी के मन व मस्तिष्क में बर्फ से ढकी हुई चोटियां और प्राकृतिक सौंदर्य से लवरेज वादियां एकदम से अपना परिदृश्य प्रस्तुत कर देती है। जिस तरह से हिमाचल का नाम पर्यटकों को अपनी ओर स्वतः आकर्षित कर लेता है ठीक उसी तरह हिमाचल की लोक संस्कृति भी पर्यटकों को अपनी ओर लुभाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ती।

एक सहज, सरल, सुबोध और आतिथ्य धर्मी हिमाचली संस्कृति में जब प्रभु राम का समावेश हो जाता है तो यह संस्कृति और भी भाव ग्राह्य और मनमोहक बन पड़ती है। हिमाचल की इस सुरम्य प्राकृतिक छटा के बीच यहां की लोक संस्कृति में राम कहां – कहां है और उनकी मान्यताओं की क्या – क्या परंपराएं हैं तथा वे कब से हिमाचली संस्कृति में समावेशित हुए? ऐसे अनगिनत सवालों का एक शोध परक अवलोकन कुछ यूं किया जा सकता है:—

1 » लोक मान्यताओं, गाथाओं और गीतों में राम:—

यह किसी से नहीं छुपा है कि हिमाचल की लोक भाषा पहाड़ी है। इसका अपना कोई लिखित प्रारूप न होने के कारण यहां की अधिकतर लोक गाथाएं और स्मृतियां लोकगीतों में ही श्रुति – स्मृति परंपरा से अद्यतन प्रचलित है। इन लोकगीतों में राम संबंधित लोकगीत लोक गाथात्मक प्रचलन में आज भी निम्नलिखित प्रकार से हिमाचली संस्कृति में अपना स्थान ज्यों का त्यों बनाए हुए हैं।

यह जरूर है कि वर्तमान परिपेक्ष्य में प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने हिमाचली संस्कृति के पुरातन ढर्रे को थोड़ी ठेस पहुंचाई है, परंतु अभी भी हिमाचली संस्कृति के संवाहक अपनी इन पारंपरिक धरोहरों को संभालने में लगे हुए हैं।पहाड़ी में गाई जाने वाली पहाड़ी रामायण इन लोकगीतों की शैली में आज भी हिमाचल के विभिन्न जिलों में भिन्न – भिन्न तहजीबों में गेय शैली में विद्यमान है। इन्हीं लोकगीतों में से कुछ लोकगीत इस प्रकार से हैं:—

राम कृपा से संबंधित लोक गीत:—

राज होंदे हुए भी हुआ वनवास,
ओ रामा मेरे जोगणुआ।………… 2

— • —

“सूणे भी ता लया यारो गंगा रे ओ तारूओ,
रामा लया लखणा जो तारे ओ जी……!”

— • —

“पैरा भी ता लया धोणे दैए ओ मेरे मालको,
इन्हा री धुडा़ कै बणदे पात्थरा री नारी ओ जी ….!
एओ आसा काठा री बणी री ओ नावा,
एओ बणी गई ता दुई दूई, आसा केथी पाणी ओ जी..?
एक ता पहले ही थोकड़ा जे टबर नी ओ पाल्दा,
तूसे देख्या बगाड़दे आसा री कहाणी ओ जी……!”

(सन्दर्भ: — “श्री दिला राम मिस्त्री” घाट, जिला मंडी।)
यह पहाड़ी रामायण का पद्य भाग महात्मा तुलसी एवं महर्षि बाल्मीकि रामायण के केवट प्रसंग से मेल खाता है। इसमें राम और लक्ष्मण को नदी से पार पहले ले जाने के लिए आग्रह किया गया है और प्रत्युत्तर में केवट राम के चरणों की धूलि का महत्व बताते हुए अपनी लकड़ी से बनी हुई नौका के नारी बनने के डर से उन्हें अपना पांव नौका में बैठने से पहले केवट के हाथों धुलवाने की प्रार्थना करते हैं।

केवट यह सिद्ध करने की कोशिश करता है कि कहीं प्रभु के अनधुले चरण नाव में पड़ने से केवट की गृहस्थी में किसी प्रकार का खलल न पड़ जाए और केवट के छोटे से परिवार का गुजर – बसर ही कहीं ठप न पड़ जाए। कहीं नाव के नारी बन जाने पर केवट के परिवार की रोजी रोटी सदा के लिए बंद न हो जाए और दो – दो पत्नियां केवट के लिए कलह का कारण न बन जाए। इस प्रकार की बात कह कर केवट राम के चरणामृत को चालाकी से प्राप्त कर लेना चाहता है। यह सब घटना श्रीराम द्वारा अंदर ही अंदर भांप ली जाती है और वे अपने पांव केवट से धुलवाने के लिए तैयार हो जाते हैं।

राम रावण युद्ध संबंधी लोक गीत:—

“भाई जुद्ध लागो रे, रामो – रावण रा,
जुद्ध लागो रे, केसी री ताईए॥”

(संदर्भ: — श्री लाल सिंह सिरमौर से प्राप्त जानकारी।)
यह राम रावण युद्ध की पूरी गाथा गेय शैली में लोग बड़ी श्रद्धा से गाते भी हैं और इसके साथ – साथ छुकड़ा नृत्य भी करते हैं। यह नृत्य जलते हुई विशाल अग्निकुंड में देवताओं के गुरों (पुजारियों) द्वारा एक विशेष प्रकार के ऊनी वस्त्र को धारण करके छलांग लगाते हुए किया जाता है। हैरत अंगेज करने वाली घटना यह होती है कि इतनी भारी आग में प्रवेश करने के बाद भी वे नंगे पांव और ऊनी वस्त्र धारी गूर तनिक भी आग से नहीं झुलसते।

यह प्रक्रिया सिरमौर की गिरी पार की पहाड़ियों में तो होती ही होती है, इधर शिमला और सोलन आदि क्षेत्रों में भी यह छुकड़ा नृत्य एक विशेष अवसर पर कुतप वाद्य यंत्रों की पारंपरिक वैदिक धुनों के साथ किया जाता है। जब ऊनी वस्त्र धारी गुर लोग गले में चांदी की बनी मालाओं और हाथ में चांदी की बनी भाले जैसी छड़ी के साथ यह नृत्य करते हैं तो देखते ही बनता है। एक विहंगम दृश्य उत्पन्न होता है।

सिया लोकगीत: —

“सिया ऊबे बिउजाल, सिया ऊबे बिउजाल..2
लोखणा ढोन्दाणे पाणे,लोखणा ढोन्दाणे पाणे।
सिया किन्दे खे आए , सिया किन्दे खे आणे?…2
सिया रामा रे राणे, सिया रामा रे राणे……2
सिया पाणी खे लाओ रे, सिया पाणी खे लाओ ।
सिया ढोन्दे ने पाणी रे, सिया लान्दे ने पाणी।”

(संदर्भ: — श्री लाल सिंह सिरमौर से प्राप्त जानकारी।)
यहां वनवास के दौरान श्री लक्ष्मण नित्य प्रति सेवा करने के पश्चात उब जाने के कारण प्रभु श्री राम जी से माता सीता के प्रति शिकायत प्रकट करते हुए कहते हैं कि मैं नित्य प्रति पानी लाने जाता हूं और माता सीता तो दिन भर बैठी रहती है। वे तो कुछ भी नहीं करती है। ऐसी शिकायतों के चलते जब माता सीता पानी लाने स्वयं जाती है तो उनको मायावी मृग मिलता है। वे उस मृग को पकड़ने की जिद करती है। इसमें ठीक वही घटना आगे के गीत में दर्शाई गई है, जो प्रतिष्ठित रामायण में घटती है।

बरमा ने जाए “बिरसु” (बिरसु नाटी) :—

“थानों तेरो हनोले देवा, रोवे हनोले आये।
तेरी आए चरणो देवा, लोए महिमा गाए॥”
(देव हनोल की महिमा)

“बरमेना जाए रे देवा मेरा,
बरमेना जाए रे, बरमेना जाए रे।
हाटकोटी गाएने देवी दुर्गा माई रे ,
भूले देली बिसरो रास्ता लाई रे।
भूले देली बिसरो रास्ता लाई रे,
बिरसु पखवाणो बरये खे जाए रे।

—•—

तेरी जाणी हनोले देवा होले पाणी री कोई दाडीए,
त्यूणी सेटो मोड़ों दो रो सिहनी सोई रे,
बरमेना जाए बिरसु बरमे ना जाए रे।”

संदर्भ: — (श्री लाल सिंह सिरमौर से प्राप्त जानकारी।)
असल में यह गीत सिरमौरी लोक भाषा में देव हनोल (महासू राम) के गुर की घटना और महासु राम के शक्तिशाली प्रभाव का प्रचार करने के सम्बन्ध में गया जाता है।

असल में घटना यह है कि पुराने समय में देव का गुर लोगों से पाथा (फसल आने पर लोगों से अनाज के दाने देव सेवा हेतु लेना) इक्कठा करता था। देव हनोल महसूस राम के गुर ने बीच में यह प्रक्रिया इसलिए छोड़ दी क्योंकि उनके इलाके के रास्ते में घना जंगल था जिसमें एक शेरनी की गुफा थी और साथ में तौन्स (तमसा) नदी पर एक जर्जर लकड़ी का पुल खतरे का कारण था। इन के डर से गुर ने यह पाथा इकट्ठा करना बंद कर दिया था। परंतु देव महासू राम के प्रभाव से गुर को एक भयंकर प्रकोप होता है जिसके चलते उसे यह पाथा ग्रहण करने के लिए जना ही पड़ता है। वह शेरनी की गुफा से तो जैसे तैसे बच निकलता है, परंतु तौन्स नदी पर बने जर्जर पुल के टूट जाने से वह नदी में गिर जाता है। देव महासू राम की कृपा से गुर जी तो बच जाते है, पर उनका पाथा, शूप और डाल (अनाज इकट्ठा करने के सामान) नदी में बह कर यमुना नदी में जा मिले। वहां से वे बहते – बहते दिल्ली पहुंचे। वहां पर दिल्ली के राजा के मछुआरों ने उनको नदी में आया हुआ देखकर पकड़ कर बाहर निकाला और अपने बच्चों को खेलने के लिए दे दिया।

इस बीच दिल्ली के राजा के पेट से अजीब – अजीब जानवरों की आवाजें आने लगी। राजा ने इसके बारे में कई जगह छानबीन की। अंत में राजा को पता चला कि उसके राज्य में ऐसा – ऐसा देव महासू राम का सामान पहुंचा था, जिसे मछुआरों ने अपने बच्चों को खेलने के लिए दे दिया। उससे देव महासू राम राजा से नाराज है। तब राजा ने उन सभी सामानों को यथाशीघ्र हनोल में जाकर देव महासू राम के मंदिर में पहुंचाया। उस पर देव महासू ने राजा को प्रतिवर्ष लगने वाले भंडारे में नमक दंड के रूप में देने के लिए कहा। इस दंड को अदा करने के पश्चात राजा की वे अजीब – अजीब आवाजें सदा के लिए समाप्त हो गई। लोक मान्यता यह भी है कि आज भी दिल्ली से राष्ट्रपति भवन से वह नमक का पैकेट हनोल के इस बड़े मंदिर में नियमित रूप से प्रतिवर्ष भंडारे के लिए आता है।

देव महासू का मंदिर असल में भगवान राम का ही मंदिर है।

लोक मान्यता के मुताबिक उत्तराखंड में त्यूणी से लगभग 40 किलोमीटर दूर हनोल में बना देव महासू का मंदिर असल में भगवान राम का ही मंदिर है। यह एक पुरानी घटना है। इस जगह पर एक भयानक राक्षस रहता था। उस राक्षस के प्रकोप से निजात पाने के लिए, इस स्थान पर भगवान राम की प्रतिष्ठा कर के देव महासू के रूप में स्थापना की गई, जिसे बौठा (बड़ा) महासू कहा जाने लगा और इसके साथ – साथ इसी क्षेत्र के आसपास तीन और महासू मंदिर है, जिनका संबंध क्रमशः भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न से है। सिरमौरी लोग हाटकोटी होते हुए इस भव्य मंदिर की यात्रा पर प्रतिवर्ष श्रद्धा पूर्वक जाते हैं।

बरलाज लोक गीत (सोलन और शिमला): —

श्री जियालाल ठाकुर सोलन द्वारा प्रदत जानकारी के मुताबिक बरलाज का शुद्ध रूप बलिराज पूजन है। परंतु प्राकृत भाषा में चलता हुआ इसका अपभ्रंश रूप बरलाज बन गया। श्री जियालाल ठाकुर जी ने सन 2006 मैं ढोल नगाड़ों की थाप पर ‘राष्ट्रीय गान, राष्ट्रीय गीत और सारे जहां से अच्छा’ गीतों को वैदिक धुनों के ताल पर तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम के सामने गायन कर पेश किया गया था, जिसके लिए उन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

इसके साथ – साथ सन 2015 में हिमाचल प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल आचार्य देवव्रत के समक्ष इन्होंने पहाड़ी रामायण (बरलाज) को कुतप वाद्य यंत्रों की वैदिक धुनों पर गा कर प्रस्तुत किया, जिसके लिए राज्यपाल महोदय ने इन्हें विशेष संस्तुति से नवाजा। हाल ही में इनकी एक शोध पुस्तक “विरासती संस्कृति का डंका” छप कर आने वाली है। अतः इस आधार पर इनके द्वारा प्रदत बरलाज संबंधी जानकारी विशेष महत्वपूर्ण है। इससे पहले कि इस विषय को गहनता से समझे, हमें कुतप वाद्य यंत्रों के बारे में जान लेना चाहिए। इसमें चार प्रकार के वाद्य यंत्र आते हैं, जो वैदिक परंपराओं से संबंध रखते हैं:—

अवनाद वाद्य : —

ढोल, नगाड़े, मृदंग, डमरु आदि चमड़ी द्वारा निर्मित वाद्य यंत्रों की धुने इस श्रेणी में आती हैं।

सुशीर वाद्य : —

शहनाई, शंख, करनाल, रणसिंगा, बांसुरी, तुरी, सिंगी आदि फूंक से बजाए जाने वाले वाद्य यंत्रों की धुने इसमें आती है।

घन वाद्य: —

थाल, घंटी, घड़ियाल, करताल आदि धातु द्वारा बने हुए वाद्य यंत्रों से निकलने वाली धुने इस श्रेणी में आती है।

तार वाद्य: —

एक तारा, तुंबा, वीणा, धनतारू या धनोटू, सारंगी आदि तार से बजने वाले वाद्य यंत्रों की धुने इस श्रेणी में आती है।

नोट: — इन सभी वाद्य यंत्रों के एक साथ सामूहिक वादन को नवगत ताल के नाम से भी जाना जाता है, जिससे नवग्रह प्रसन्नता के साथ – साथ देव पूजन भी किया जाता है। श्री जिया लाल ठाकुर के मुताबिक बरलाज गायन की परम्परा त्रेता काल से ही हिमाचल में प्रचलित थी। यह पहले कार्तिक अमावस्या के दिन विशेष तौर से गाई जाती थी। इसके पीछे वे रामायण से संबंधित एक ऐतिहासिक घटना का जिक्र करते हैं।

उनके अनुसार जब पताल के राजा अहिरावण ने रावण के अनुरोध पर छल से राम और लक्ष्मण को पाताल लोक में नागपाश से फांसकर अचेत करके चुपके से पहुंचाया था तो उनकी जगह – जगह खोज करने के बाद भी कोई जानकारी हासिल नहीं हो पा रही थी। तत्कालीन पाताल के राजा अहिरावण उनकी बलि पाताल की देवी “सकला” को चढ़ाने वाले थे। इस बीच राक्षसी माया से सभी दैवीय शक्तियां अवरुद्ध की जा चुकी थी। ऐसे में जब महाराज बलि अपने भगवान “वामन” के पास यह सूचना लेकर आते हैं कि श्री रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी इस तरह से पाताल में अचेत पड़े हैं, उन्हें बचा लो। वरना उन्हे कुछ ही देर में “सकला” देवी को भेंट चढ़ा दिया जाएगा। यह खबर सुनकर भगवान “वामन” पृथ्वी पर हनुमान जी से मिलने आते हैं और उन्हें सारी कहानी सुनाकर सचेत करते हैं। क्योंकि उनकी शक्तियां उन्हें स्मरण कराने पर पुनः जागृत हो जाया करती थी।

हनुमान जी – सूक्ष्म रूप बनाकर प्रविष्ट।

बाकी सभी शक्तियां असुरी माया के वश में की जा चुकी थी। तब हनुमान जी क्रोधित होते हैं और पाताल लोक में जाकर पाताल लोक के राजा की मालिनी के हाथ की फूल माला में सूक्ष्म रूप बनाकर प्रविष्ट हो जाते हैं, जो फूल मालाएं देवी सकला को चढ़ाने के लिए वह मालिन राजा के आदेश पर हर रोज की तरह ले जा रही थी। उन फूल मालाओं के माध्यम से हनुमान सकला देवी तक पहुंचते हैं और उस मूर्ति के अंदर प्रविष्ट हो जाते हैं। अब मूर्ति के अंदर से हनुमान स्वयं तरह – तरह की आवाजें निकालते हैं। असुरों द्वारा पेश किया गया सब कुछ चट कर जाते हैं। असुर यह समझते हैं कि आज तो हमारी कुलदेवी बहुत प्रसन्न है जो हमारे द्वारा प्रस्तुत किया गया यह बहुत कुछ खा गई।

ऐसे में हनुमान पूर्ण रूप को धारण करते हुए असुरों के सामने प्रकट होते हैं और भयंकर युद्ध करके उन सब का नाश करके अपने प्रभु श्री राम और लक्ष्मण को पाताल लोक से छुड़वा कर ले आते हैं। इस समय जब हनुमान श्री राम और लक्ष्मण को पाताल से ले आ रहे थे, तो श्री राम जी ने महाराज बलि को इस कृतज्ञता के लिए एकवचन दिया कि आज से हर कार्तिक अमावस्या को धरती पर मेरे नाम के साथ – साथ आपके नाम की भी लोग पूजा किया करेंगे।

अतः बरलाज को तब से हर कार्तिक मास की अमावस्या को गाया जाने लगा। इसमें महाराज बलि का पूजन भी लोग भगवान वामन और भगवान राम के साथ – साथ विधिवत करते थे और बरलाज का गायन कर श्री राम के गुणगान के साथ – साथ बलि की कृतज्ञता और महानता का भी गुणगान करते थे। परंतु इसमें भी बीच में किन्हीं कारणों से कहीं व्यवधान पड़ा।

फिर इस बरलाज को द्वापर काल में पांडवों के द्वारा पुनर्जीवित किया गया। पांडवों ने अपनी पहली बरलाज सोलन में बीड धार की चोटी पर गाई थी। उन्होंने इस धार की चोटी पर अपने अज्ञातवास के दौरान एकादश ज्योतिर्लिंगों की स्थापना की थी और उनकी पूजा अर्चना करके बरलाज गायन का पुनरुत्थान किया था।

सर्यांजी नामक गांव में पांच पांडवों के मंदिर

तब से यह परंपरा आज तक निर्वाहित होती आई है। आज सर्यांजी नामक गांव में पांच पांडवों के मंदिर बने हैं। वहां से प्रतिवर्ष पांच पांडवों की जातर (मेला जलूस) बीड़ धार तक जाती है। फिर रात को गुरु लोग मुद्रो (हाथ मुंह धोकर के अच्छी तरह से ब्रश करके कुला आदि करने के पश्चात निर्जल व्रत रखना) बांधते हैं और फिर कहीं भी नहीं जाते हैं। तब सारी रात वे गुरु लोग अन्य सिर्फ पुरुष लोगों के साथ छुकडा नृत्य रात को करते हैं, जिसमें वे ऊनी वस्त्र धारण कर नंगे पांव से अपनी जटाएं फैला कर भारी अग्निकुंड में भी प्रवेश करते हैं। उससे भी उनका कुछ नहीं बिगड़ता।

यह सारा नृत्य कुतप वाद्य यंत्रों की धुनों से विधिवत देव पूजन करके बरलाज गायन के साथ किया जाता है। सुबह मुद्रो खोल दिया जाता है और महिलाओं के साथ “सिया समृति” गायन गाते हुए सामूहिक नृत्य किया जाता है और उत्सव समाप्त किया जाता है। श्री जिया लाल ठाकुर के अनुसार यह गायन गायत्री छंद और देश तथा कल्याण राग के आधार पर गाया जाता है। अब लोग परंपरा के अनुसार यह बरलाज गायन हर वर्ष सायर पर्व (अश्वनी मास की संक्रान्ति) से शुरू किया जाता है और मकर संक्रान्ति को समाप्त किया जाता है। इस गायन में भगवान राम से संबंधित सोलह संस्कारों को लोग क्रमबद्ध इस लंबे अंतराल में कथा के रूप में गाते हैं और प्रभु श्री राम के सद चरित्रों का बखान करते हैं। प्रभु के जन्म से लेकर निर्वाण तक का पूरा वृतांत गायन शैली में वर्णन किया जाता है। यह परंपरा हिमाचल के विभिन्न पहाड़ी क्षेत्रों में भी कुछ यूं ही लंबे अंतराल तक विद्यमान रही है। हमारे यहां मंडी में एक प्रसिद्ध कहावत है: —

“जौ कणक निसरी, कथा बझुणी बिसरी।”

अर्थात शरद ऋतु शुरू होते ही लोग घरों – घरों में झुंढों में इकट्ठा होते थे और कथाएं गा – गा कर सुनते – सुनाते थे। जैसे ही जौ और गेहूं में वालियां निकलती थी, तब वे सब भूल जाया करते थे। क्योंकि फिर उन पर काम का बोझ पड़ जाता था। उक्त घटना के अनुसार सोलन और शिमला के आस – पास गाई जाने वाली बरलाज के कुछ अंश: यूं देखे जा सकते हैं: —

भगवान वामन और महाराजा बली वृतांत: —

“उटा – उटा बामणा डबारीरे डेवा …..2
वारी पारी बामणा मारी गंगा री छाला….2
मांगी लो बे बामणा रे दाण,
मांगी लो बे बामणा रे ss दाण।
जे त मांगे, ताखे देऊ प्रमाण…2
जेओडी जेई राजेया माखे दाणो री देणी …2
जेओडी बिना बोलणी जिशे बासुकी नागे …2
ढाई कदम राजेया माखे पृथ्वी देणी ……2
एकी बीखे नापेया से आधा संसार ……..2
दूजी बीखे नापेया से सारा संसार ……….3
तीजी बीखो खे जगा न रोए ……..2
राजा बलिए कनगी ढाली …………..2″

हनुमान का श्री राम एवं लक्ष्मण को बचाने हेतु जाना: —

“रामा लखणा रे बले लाए देणी ……2

—•—

हणो बे हुन्दरिया मेरा, हणो बे हुन्दरिया मेरा।”
(हुन्दरिया का अर्थ क्रोधित होना )

“कणदी ढणदी फूल मालण आई ………2
आजकै जे फूलणो बड़े गरकै होए ……..2
मुंह मांगे भोजनो म्हारी देविए खाए,
शौ घड़े दुधा रे म्हारी देविए पीए ………..2

—•—

बोलो हणो बे हुन्दरिया मेरा……………2″

ये सारे प्रमाण सोलन, सिरमौर और शिमला आदि के इलाकों में दीपावली के अवसर पर या फिर किसी संक्रांति, विवाह आदि उत्सवों के अवसर पर विशेष तौर में स्थानीय कलाकारों द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले लोक मंचनो में देखने को मिल जाते हैं। यदि श्री जिया लाल ठाकुर की माने तो हिमाचल वैदिक संस्कृति का गर्भ गृह रहा है। ठाकुर साहब किन्नौर जिले को वैदिक संस्कृति का प्रमुख केंद्र मानते हैं।

कुल्लू घाटी की लोक प्रचलित मान्यता एवं श्रीराम से संबंधित घटनात्मक गाथा: —

इधर कुल्लू घाटी में भगवान राम के हिमाचली संस्कृति में प्रवेश को लेकर एक अलग प्रकार की लोक प्रचलित मान्यता एवं कथा है। यहां के लोगों का मानना है कि वर्तमान में जो जिला कुल्लू के मुख्यालय में स्थित सुल्तानपुर में श्री रघुनाथ जी का मंदिर है, उसकी मूर्तियां श्री त्रेता नाथ मंदिर श्री अयोध्या धाम से लाई गई थी। इसके पीछे यहां के स्थानीय लोग एक बहुत पुरानी रोचक कहानी सुनाते हैं। लोगों का मानना है कि सन 1637 से 1662 तक कुलूत राज्य की राजगद्दी पर एक धर्मात्मा एवं प्रतापी राजा “श्री जगत सिंह” जी विराजमान रहे। उन्होंने 1637 ई में राजगद्दी संभाली। एक दिन उनसे टिप्परी गांव के एक ब्राम्हण “दुर्गा दत्त “की अनजाने में हत्या हो गई। उस ब्राम्हण की आत्मा ने उन्हें ब्रह्महत्या का शाप दे डाला, जिसके चलते उन्हें हर वक्त के भोजन में छोटे – छोटे कीड़े मकोड़े ही दिखाई देने लगे और धरती का सारा पानी खून जैसा लाल नजर आने लगा। ऐसे में राजा को कुछ भी खाना पीना बहुत ही मुश्किल हो गया। इसके साथ – साथ राजा के शरीर में कुष्ठ रोग निकल आया।

सुप्रसिद्ध एवं सिद्ध संत “कृष्णदास पयहारी” जी

उन्हीं दिनों शहर के समीप ही एक वैष्णो संप्रदाय के सुप्रसिद्ध एवं सिद्ध संत “कृष्णदास पयहारी” जी रहते थे। वे सिर्फ पेय पदार्थों का ही सेवन करते थे। किसी प्रकार का अन्य – फल आदि नहीं खाते थे। इसीलिए उनके नाम के साथ पयहारी लगाया जाता था। परंतु स्थानीय लोगों में “फुहारी बाबा” के नाम से ही जानते थे। यह अपभ्रंश रूप ही इलाके में प्रसिद्ध था।

राजा ने अपनी समस्या का समाधान जगह – जगह करवा लिया था। हर देवी – देवता और वैद्यों के पास जा – जा कर के राजा थक चुका था परंतु किसी से भी कोई राहत मिलती हुई नजर नहीं आ रही थी। एक दिन राजा फुहारी बाबा के पास अपनी समस्या लेकर उपस्थित होते हैं। राजा की समस्या को सुनकर के फुहारी बाबा ने अपनी सिद्धि शक्ति से उनका भोजन में कीट पतंगे दिखना और पानी का खून जैसा लाल दिखना तो तुरंत प्रभाव से ठीक कर दिया था परंतु उनका कुष्ठ का रोग फिर भी ठीक नहीं हो सका था। इस बीच राजा इस चमत्कार को देखकर के प्रभावित होकर फुहारी बाबा का शिष्य बन गया। बाबा ने राजा को भगवान नरसिंह की मूर्ति दी। राजा ने वह मूर्ति अपनी राजगद्दी पर विराजमान करवा दी और स्वयं एक छड़ी दार (प्रधान सेवक) की भूमिका में राज्य की सेवा करने लगे।

बाबा की चमत्कृत करने वाली अपार सिद्धि शक्ति से राजा बहुत प्रभावित हुआ और उनकी धार्मिक भावना और भी बलवती हो गई। एक दिन फिर से राजा बाबा के पास अपने कुष्ठ रोग निवारण हेतु प्रार्थना लेकर गए। तब बाबा ने उन्हें सलाह दी कि इस रोग को खत्म करने की क्षमता सिर्फ और सिर्फ त्रेता नाथ श्री रघुनाथ जी के ही पास है। अतः इसके लिए तुम्हें श्री अयोध्या धाम में विराजमान श्री त्रेता नाथ जी की मूर्ति और माता सीता जी की मूर्ति को यहां ले आना होगा। मूर्तियों को अयोध्या से ले आने के लिए बाबा ने अपने शिष्य “पंडित दामोदर दास” को भेजा, जो उन दिनों की सुकेत रियासत में रहते थे। आजकल यह सुकेत रियासत जिला मंडी का सुंदर नगर कस्बा है।

वैदिक रीत में किसी भी मूर्ति का असली माप

पंडित दामोदर दास जी बाबा के आदेशानुसार श्री अयोध्या धाम पहुंचे और वर्षभर वहां श्री रघुनाथ जी के पूजन अर्चन की विधियां और सारे क्रियाकलापों को गौर से देखा। फिर एक दिन सुअवसर आने पर वे भगवान श्री रामचंद्र और माता सीता की त्रेता काल में बनी मूल मूर्तियों को उठाकर कुल्लू की ओर चल दिए। लोक मान्यता है कि ये मूल मूर्तियां त्रेता काल में भगवान श्री रामचंद्र जी ने स्वयं ही अपने अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर बनाई थी। ये अंगुष्ट प्रमाण है। वैदिक रीत में किसी भी मूर्ति का असली माप यही माना जाता है। वैदिक रीति में यह मान्यता है कि मूर्ति का माप अंगुष्ट प्रमाण होना चाहिए। क्योंकि मूर्ति आत्मा का प्रतिरूप होती है। जिस प्रकार आत्मा अति सूक्ष्म होती है, दिखाई ही नहीं देती। उसी प्रकार मूर्ति भी अति लघु होनी चाहिए। अतः वे मूल मूर्तियां है, जिन्हें आज भी कुल्लू में बने श्री रघुनाथ जी के मंदिर में पर्दे के अंदर रखा जाता है। इनके दर्शन किसी को नहीं करवाए जाते। किसी विशेष घड़ी या स्थिति में इनका दर्शन प्राप्य है। परंतु आम दिनों में इनको परदे से बाहर नहीं किया जाता।

लोक मान्यता

लोक मान्यता के अनुसार पंडित दामोदर दास चलता – चलता जब मंडी रियासत में वर्तमान कनैड नामक स्थान पर पहुंचा तो वहां उन्होंने मूर्तियों समेत रात्रि विश्राम किया। अतः लोगों ने वहां भी मंडी के राजा की मदद से एक पुरातन शैली में राम मंदिर का निर्माण कर डाला। वहां से पंडित जी मणिकरण पहुंचे और उन मूल मूर्तियों को मणिकरण में ही स्थापित किया।

वहीं पर अयोध्या की रीत से नित्य प्रति रघुनाथ जी की पूजा अर्चना होने लगी। राजा जगत सिंह भी नित्य प्रति प्रभु श्री राम और माता सीता के चरणामृत को ग्रहण करने सुबह – सुबह मणिकरण पहुंच जाते। कुछ दिनों यह सिलसिला चला। कुछ दिनों बाद राजा का कुष्ठ रोग चरणामृत के पान से नदारद हो गया। इससे राजा की धार्मिक भावना और बलवती हुई। यह खबर जब इलाके में फैली तो मूर्तियों के चमत्कार से प्रभावित होकर कुल्लू घाटी के सभी देवी देवता मूर्तियों का दर्शन करने मणिकरण आ पहुंचे।

कुल्लू का राज्य रघुनाथ जी के नाम

तब राजा श्री राम जी और माता सीता की मूर्तियों को मणिकरण से कुल्लू सुल्तानपुर में स्थित रघुनाथपुर ले गए। वहां उन्होंने श्री रघुनाथ जी के भव्य मंदिर का निर्माण किया और उसी में मूर्तियों को विधिवत प्रतिष्ठित एवं स्थापित किया। तब से लेकर राजा ने अपनी राजगद्दी पर रघुनाथ जी को विराजमान करवाया और स्वयं उनका छड़ी दार (प्रधान सेवक) होकर रहने की घोषणा की। इसके साथ – साथ राजा ने अपने राज्य के अलग – अलग इलाकों को 365 देवी – देवताओं में बतौर जागीर बांट दिया। तब से कुल्लू का राज्य रघुनाथ जी के नाम पर चलने लगा और राज्य के भिन्न-भिन्न क्षेत्र देव जागीरों के नाम से चलने लगे।

लोक मान्यता यह भी है कि तभी से प्रतिवर्ष कुल्लू के ऐतिहासिक ढालपुर मैदान में दशहरे का मेला आयोजित होने लगा। इस मेले में सुल्तानपुर से एक लकड़ी के बने भव्य रथ पर रघुनाथ जी की सवारी निकलती है और उनके पीछे जिले के विभिन्न क्षेत्रों से आए हुए समस्त देवी देवताओं की एक विशाल जलेड लोक वाद्य यंत्रों की धुनों के साथ- साथ भारी जनसैलाब के साथ निकलती है। इस प्रकार लगभग 40 छोटे – बड़े उत्सव कुल्लू में रघुनाथ जी की अध्यक्षता में आयोजित किए जाते हैं। तब से ले कर आज तक श्री रघुनाथ जी को कुल्लू का प्रधान देवता माना जाने लगा। असल में श्री रघुनाथ जी भगवान श्री राम के ही रूप है।

संदर्भ: —
१. श्री सुदेश कुमार कुल्लू से प्राप्त जानकारी।
२. श्री रघुनाथ जी मंदिर में चस्पा की गई इतिहास पट्टीका।)

हिमाचल में राम मंदिर: —

हिमाचल के कुछ एक राम मंदिरों का विवरण निम्नलिखित प्रकार से हैं: —

श्री रघुनाथ जी मंदिर जिला कुल्लू: —

यह मंदिर जिला कुल्लू के सुल्तानपुर बाजार में रघुनाथपुर में सन 1637 से 1662 ईसवी के बीच राजा जगत सिंह के द्वारा बनाया गया माना जाता है। यह कुल्लू के बस स्टैंड से थोड़ा सा ऊपर को बना हुआ है। पैदल पौडियों वाले रास्ते से यहां तक पहुंचा जाता है। इस मंदिर की बाकी विशेषताएं ऊपर विस्तार से बताई जा चुकी है। वर्तमान में भगवान श्री राम और सीता जी की भव्य मूर्तियां इस मंदिर में स्थापित की गई है। यहां वर्ष भर प्रतिदिन श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। यह मंदिर कुल्लू जिला के प्रधान देव मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।

मणिकरण में स्थित राम मंदिर: —

यह मंदिर मणिकरण नामक तीर्थ स्थल पर बना हुआ है। हिंदू लोग इस मंदिर परिसर में बने हुए गरम पानी के कुंडों में स्नान कर के अपने पापों का प्रक्षालन करते हैं। यहां स्त्री और पुरुषों के लिए अलग – अलग स्नान ग्रह बनाए गए हैं। जिनका नाम रामकुंड और सीता कुंड के नाम से रखा गया है। राम कुंड में पुरुष स्नान करते हैं और सीता कुंड में स्त्रियां स्नान करती है। वर्ष भर में लाखों श्रद्धालु इस तीर्थ स्थल में स्नान करने आते हैं।

गर्म पानी के चश्मे से संबद्ध राम और सीता कुंड में स्नान करके अपने पापों को धुला हुआ प्रतीत करते हैं। इसी विशेष तीर्थ यात्रा के दौरान सभी श्रद्धालु भगवान श्री रामचंद्र के मणिकरण स्थित इस भव्य मंदिर के भी विधिवत दर्शन करते हैं और प्रभु राम की कृपा प्राप्त करते हैं। इस मंदिर में नित्य प्रति प्रभु कृपा से श्रद्धालुओं के लिए भंडारे का भी आयोजन किया जाता है। इस मंदिर के प्रांगण में लकड़ी का बना हुआ एक भव्य रथ भी हमेशा मौजूद रहता है। मान्यता है कि इस रथ पर प्रभु राम जी की सवारी विशेष अवसरों पर निकाली जाती है।

जिला मंडी में राम मंदिर: —

जिला मंडी में भगवान राम के दो मंदिर है: —

  1. सनातन धर्म सभा राम मंदिर भगवाहण मोहल्ला मंडी बाजार। यह मंदिर जिला मंडी के उपायुक्त कार्यालय के ठीक पीछे बना है। इस मंदिर में भगवान श्री राम, लक्ष्मण एवं माता सीता की मूर्तियां विराजमान है। लोग वर्षभर प्रतिदिन यहां दर्शन करने आते हैं। सुबह – शाम की पूजा अर्चना और आरती इत्यादि में बराबर भाग लेते हैं। नवरात्रों के दिनों या फिर किसी राम कथा के आयोजन के दिनों यहां विशेष जन भीड़ उमड़ पड़ती है।
  2. यह एक पुरातन शैली में पत्थरों से बना हुआ राम मंदिर है, जिसमें भगवान श्री राम और सीता जी की मूर्तियां विराजमान है। यह मंदिर कनैड के पास बना हुआ है। इसका जिक्र भी ऊपर किया जा चुका है। परंतु वर्तमान समय में यह जीर्ण अवस्था में है। इसको पुनरुत्थान की आवश्यकता है। यहां लोगों का आना जाना आज बहुत कम है। (ग) यहां करसोग में भी राम मंदिर बना है।इस बाबत कोई खास जानकारी यहां उपलब्ध नहीं हो पाई है।

सूद सभा राम मंदिर शिमला: —

यह मंदिर जिला शिमला में बस स्टैंड के साथ ही रिज मैदान के नीचे को बना हुआ है। यह एक बहुत ही भव्य मंदिर है। इसके ठीक सामने जाखू में भगवान हनुमान का मंदिर है। शिमला के इस मंदिर में भगवान राम लक्ष्मण और माता सीता की मूर्तियां विद्यमान है। यहां भी नित्य प्रति श्रद्धालुओं की भारी भीड़ रहती है।

महासू राम मंदिर सिरमौर: —

हिमाचल के जिला सिरमौर का इलाका उत्तराखंड की सीमा से सटा हुआ है। यहां देव महासू के जितने भी मंदिर है उन सब मंदिरों में भगवान श्री रामचंद्र जी की ही प्रतिस्थापना मानी जाती है। इन मंदिरों का जिक्र भी ऊपर किया जा चुका है। असल में मूल महासू (बौठा महासू) मंदिर आज उत्तराखंड में त्यूणी से लगभग 40 किलोमीटर आगे मुख्य सड़क पर ही है। इसके साथ साथ तीन और महासू मंदिर यहां पर विद्यमान है, जिनमें क्रमशः भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न की प्रतिस्थापना मानी जाती है। इनके साथ साथ हनुमान, जामवंत, अंगद, सुग्रीव जैसे वानर वीरों की भी इन क्षेत्रों में पूजा अर्चना बौठा महासू के साथ की जाती है। बौठा महासू स्वयं भगवान राम ही है। इन्हीं मंदिरों के प्रारूप सिरमौर जिला की गिरी पार की पहाड़ियों में जगह – जगह बने हैं और लोग इन्हें बड़ी श्रद्धा से पूछते हैं।

जिला चंबा के मुख्य बाजार का राम मंदिर: —

जिला चंबा में मुख्य बाजार के साथ ही एक राम मंदिर बना हुआ है। वहां भी काफी श्रद्धालु आते रहते हैं। सुनने में आता है कि इस मंदिर की मूर्तियां कुछ समय पहले चोरी हुई थी। बाद में वे मुंबई में मिली थी।

हरिपुर राम मंदिर धर्मशाला कांगड़ा: —

यह मंदिर बनेर खड्ड के मुहाने पर हरिपुर नामक स्थान पर बना हुआ है। इसमें भी भगवान श्री रामचंद्र और लक्ष्मण के साथ-साथ माता सीता की मूर्ति स्थापित की गई है। इस मंदिर के निर्माण में अलग-अलग प्रकार की मान्यताएं। कुछ लोग इसे 825 वर्ष पुराना मानते हैं तो कुछ लोग इसे 1398 ईसवी से 1405 ईसवी के बीच राजा हरिचंद के द्वारा बनाया हुआ मानते हैं। एक अन्य मान्यता के अनुसार यह मंदिर पांडवों ने अपने अज्ञातवास के दौरान बनाया था। डॉ योगेश रैना की टिप्पणी को अगर ध्यान में रखें तो उनके अनुसार यह मंदिर 825 वर्ष पुराना है। उनका मानना है कि मंदिर में 825 साल पुराने एक घंटे में तिथि अंकित है। इसलिए यह मंदिर उसी कालखंड में बना होगा। कांगड़ा जिले में शायद ही ऐसा दूसरा कोई राम मंदिर हो। स्थानीय लोगों के अनुसार यहां की मिट्टी हाल ही में श्री अयोध्या जी में बनने वाले भव्य राम मंदिर के निर्माण के लिए भी ले गए हैं।

भव्य राम मंदिर निर्माण श्री अयोध्या धाम के विषय में कांगड़ा के पालमपुर स्थित रोटरी भवन का जिक्र आजकल खासा चर्चा में है। कहा जाता है कि लगभग 500 सालों से लटके हुए भव्य राम मंदिर निर्माण मामले की रूपरेखा इसी रोटरी क्लब में हुई 9 जून से लेकर 11 जून 1989 तक की भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक मैं तैयार की गई थी। इस बैठक का आयोजन पूर्व मुख्यमंत्री श्री शांता कुमार जी ने तत्कालीन राष्ट्रीय भाजपा अध्यक्ष श्री लालकृष्ण आडवाणी जी और भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री अटल बिहारी वाजपेई जी के निर्देशानुसार किया था। इसमें भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के बहुत से नेताओं ने हिस्सा लिया था। इसी बैठक में वर्तमान में अयोध्या में बनने वाले भव्य राम मंदिर का प्रारूप तैयार किया गया था और पूरे का पूरा मसौदा बनाकर राम मंदिर के मुद्दे पर आगामी रणनीति बनाई गई थी। राजनीतिक विशेषज्ञों की टिप्पणियों को यदि ध्यान में रखा जाए तो यही वह बैठक थी जो 1984 में मात्र 2 सीट वाली भाजपा को 1989 में 85 सीटें प्रदान करवाती है। अतः श्री अयोध्या धाम के भव्य राम मंदिर में हिमाचली संस्कृति की ओट में लिए गए इस अहम निर्णय का भी एक विशेष महत्त्व सुनहरे अक्षरों में सदा के लिए चिन्हित रहेगा।

इसके अतिरिक्त भी कई देवताओं के नाम से या फिर स्वयं भगवान श्री रामचंद्र जी के नाम से राज्य के विभिन्न जिलों में और भी मंदिर स्थित है, जिनका जिक्र अधूरी खोज के चलते यहां करना उचित नहीं है।

हिमाचली लोक यात्राओं में राम: —

लोक यात्रियों के रूप में हिमाचल में मात्र सिरमौर जिले के लोग ही उत्तराखंड में स्थित हणोल बौठा महासू मंदिर की यात्रा के लिए प्रतिवर्ष विधिवत जाते हैं। यह यात्रा पहले पैदल की जाती थी परंतु आज के दौर में इस मंदिर तक सड़क बनी हुई है और अब यह यात्रा गाड़ियों पर की जाती है। इस यात्रा के लिए लोग रोहडू से हाटकोटी होते हुए त्यूणी से लगभग 40 किलोमीटर दूर स्थित इस मंदिर तक यात्रा करते हैं और वहां पर बौठा महासू के रूप में भगवान श्री रामचंद्र जी के दर्शन करके अपने – अपने घरों को पुनः प्रभु का आशीर्वाद लेकर लौट आते हैं।

यहां कुल्लू जिले में स्थित मणिकरण की तीर्थ यात्रा भी श्री राम जिसे आँशिक संबंध रखती है। परंतु मूलतः लोग इस स्थान पर मणिकरण स्नान की दृष्टि से जाते हैं। ऐसे में इसे विशुद्ध राम दर्शन यात्रा नहीं कहा जा सकता।

लोक अभिवादनों और संस्कारों में राम : —

अभिवादन के रूम से हिमाचल के लोग सुबह उठकर ही आपस में एक दूसरे को “राम – राम” कह कर प्रणाम करते हैं, जिसकी जगह वर्तमान में गुड मॉर्निंग धीरे-धीरे ले रहा है। परंतु फिर भी अधिकांश पहाड़ी लोग “राम-राम” कह कर ही अपना अभिवादन प्रस्तुत करते हैं। हां नई पीढ़ी में इस संबंध में कुछ विकार आ चुका है परंतु पुरानी पीढ़ी के लोग आज भी इसी परंपरा को अपनाए हुए हैं। संस्कार के नाम पर मृत्यु संस्कार के समय “राम नाम सत्य है” का जय घोष भी भारत की अखंड संस्कृति के अद्वितीय नियमों के अनुसार ही हिमाचली लोग भी बखूबी करते हैं।

तीज – त्योहारों और उत्सव में राम: —

  1. त्योहारों के रूप में एक तो हिमाचल में कार्तिक मास की अमावस्या को समूचे भारतवर्ष की तर्ज पर प्रभु राम की स्मृति में दिवाली का पर्व मनाया जाता है। परंतु हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्र की मान्यता के अनुसार यह पर्व महाराज बलि की कृतज्ञता हेतु भगवान श्री रामचंद्र जी के वचनानुसार हिमाचल में मनाया जाता है न कि उनके अयोध्या पुनरागमन की खुशी पर। परंतु वर्तमान में यह समूचे भारतवर्ष की तरह भगवान राम के अयोध्या वापस लौटने के पुनरागमन की खुशी का पर्याय ही बन गया है।
  2. दूसरा राम से संबंधित त्यौहार हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों में “बूढ़ी दिवाली” का मनाया जाता है। लोक मान्यता के अनुसार हिमाचल के दूरदराज के क्षेत्रों में भगवान रामचंद्र जी के वनवास से लौटने की सूचना एक महीना देर से प्राप्त हुई थी और कहीं कहीं तो दो महीना देर से पहुंची थी। अतः उन लोगों ने जैसे उनको सूचना मिली वैसे ही दिवाली का उत्सव इन पहाड़ी क्षेत्रों में मनाया। तब से यह परंपरा वैसे ही चलती आई। यह दिवाली कुछ लोग मार्गशीर्ष मास की अमावस्या को मनाते हैं तो कुछ लोग पौष मास की अमावस्या को मनाते हैं। इस दिवाली को मनाने का अलग – अलग जगहों पर अलग – अलग तरीका है। सोलन, सिरमौर, शिमला तथा मंडी आदि के ऊपरी क्षेत्रों में यह दिवाली भिन्न – भिन्न मासो में मनाई जाती है। कुछ लोग इस दिन रात को लकड़ियों की छोटी-छोटी अधिक जवलन क्षमता वाली बारीक झिल्लियों (जगनी) को इकट्ठा करके एक लंबे लकड़ी के डंठल पर वन बेलों से बांधते हैं और उसकी विशाल मशाल तैयार करते हैं। फिर रात्रि के अंधेरे में सब ग्रामीण इकट्ठा होकर के इन मशालों से दिवाली खेलते हैं। बहुत सी खाने – पीने की वस्तुएं भी बनाते हैं। यह मशाल जुलूस और खेल देखने लायक होता है। कहीं – कहीं विशाल अग्निकुंड जलाकर यह दिवाली मनाई जाती है। लोक मान्यता के अनुसार उस समय किसी प्रकार का संचार का साधन ना होने के कारण इन इलाकों में सूचना देर से मिली थी। इसलिए यह दिवाली अयोध्या की दिवाली से बाद मनाई गई थी। अर्थात तब तक यह बात पुरानी हो गई थी। परंतु फिर भी लोगों ने राम के आगमन की सूचना सुनकर एक विशाल जश्न मनाया जिसका नाम बूढ़ी दिवाली रखा गया। इस अवसर पर लोग कई जगहों पर ढोल नगाड़ों के साथ दिवाली गाते भी हैं और नृत्य भी करते हैं।
  3. रामनवमी एवं दशहरा पर्व — ये पर्व भी हिमाचली संस्कृति में समूचे भारत की संस्कृति की तरह मनाए जाते हैं। परंतु दशहरा पर्व की दृष्टि से कुल्लू का दशहरा पर्व समूचे भारतवर्ष में प्रसिद्ध है। जिला कुल्लू के ऐतिहासिक ढालपुर मैदान में इस अवसर पर एक विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। यह मेला कई दिनों तक चलता रहता है। इसमें देश के भिन्न – भिन्न भागों से व्यापारी सामान लेकर आते हैं और हिमाचल के भिन्न – भिन्न जिलों के सभी लोग भगवान राम की याद में मनाए जाने वाले इस पर्व के अवसर पर लगने वाले मेले का भरपूर आनंद उठाते हैं। इस अवसर पर सभी आगंतुक मेले में खूब खरीद-फरोख्त भी करते हैं।
  4. उत्सवों में राम — अमूमन देखा गया है कि बाल जन्मोत्सव के अवसर पर जो बधाई गीत गाए जाते हैं, उनमें महिलाएं रामलला का जिक्र जरूर किया करती है। एक पंक्ति कुछ यूं देखी जा सकती है: —“बधाई हो बधाई जी आज,राम लल्ला ने दर्श दियो है।”
    इसके साथ – साथ कुछ ऊपरी इलाकों में सिया स्मृति को भी बेटी के विवाह के अवसर पर गाया जाता है। बेटे के विवाह के अवसर पर वधू प्रवेश के दौरान भी कुछ इसी तर्ज के गीत गाए जाते हैं।
  5. लोकनाट्य विधाओं में राम – हिमाचली लोक संस्कृति में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से पहले लोकनाट्य की शैली प्रचलित थी। उसमें बांठडा, स्वांग और करियाला नृत्य नाट्य शैली आदि बहुत से नाट्य मंचन स्थानीय कलाकारों के द्वारा
    लोक मनोरंजन हेतु किए जाते थे किए जाते थे। उन नाट्य मंचनों मैं रामकथा के किसी एक अंश विशेष पर स्थानीय कलाकार राम के महान चरित्र को प्रदर्शित करने वाले नाटक को प्रस्तुत किया करते थे और लोग उन नाटकों को देखकर मनोरंजन के साथ – साथ एक विशेष शिक्षा ले कर के भी जाते थे।ये कार्यक्रम साल के एक आध बार आयोजित किए जाते थे। बाद में इनकी जगह रामलीला मंचन ने ले ली। रामलीला भी लोग बड़ी श्रद्धा और भक्ति भाव से देखते थे। ये कार्यक्रम एक स्थान पर 14 वर्षों तक आयोजित किए जाते थे और फिर रामलीला किसी दूसरे स्थान पर स्थानांतरित की जाती थी। इन रामलीलाओं में मंडी में जोगिंदर नगर, किन्नौर में भावानगर की रामलीलाएं विशेष आकर्षक एवं महत्वपूर्ण मानी जाती है। असल में किन्नौर जिला में रामलीलाओं का प्रचलन सन 1979 में भावनगर विद्युत प्रोजेक्ट के कर्मचारियों के द्वारा शुरू किया गया। उससे पहले किन्नौर में इस प्रकार का कोई भी नाट्य मंचन प्रभु श्री राम जी की जीवन घटना पर मौजूद नहीं था। यह जानकारी श्री लाल सिंह ठाकुर विद्युत प्रोजेक्ट भावनगर के कर्मचारी द्वारा प्रदान की गई।वर्तमान में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के चलते तथा धारावाहिकों के प्रसारण के चलते और उसके साथ – साथ अब इंटरनेट की दुनियां के चलते ये सब कलाएं धीरे – धीरे लुप्त प्राय होती जा रही है। हां अब हिमाचली संस्कृति में भी रामकथा का पंडालीय चलन समूचे भारतवर्ष की तरह अधिकता से होने लगा है।
  6. हिमाचली संस्कृति में राम वनवास काल से संबंधित साक्ष्य – यह सर्वविदित है कि श्री राम जी का वनवास काल अधिकतर दक्षिण भारत में ही गुजरा। इसलिए यहां उनके इस काल का कोई खास साक्ष्य नहीं मिलता। परंतु हां जिला शिमला में रिज के मैदान के ठीक सामने जाखू में हनुमान मंदिर को उनके वनवास काल से जरूर जोड़ा जाता है। लोक मान्यता है कि जब भगवान श्री रामचंद्र जी के छोटे भाई लक्ष्मण जी मूर्छित होकर के अचेत पड़े थे तो उन्हें संजीवनी लाने के उद्देश्य से हनुमान इस जगह से होते हुए हिमालय की ओर बढ़े थे। इस जगह पर हनुमान जी याकु ऋषि से मिले थे। अतः इस स्मृति में जाखू मैं हनुमान का मंदिर बनाया गया है। अब तो यहां पर हनुमान जी की 108 फुट ऊंची मूर्ति का निर्माण भी किया गया है।

निष्कर्ष (Conclusion) : —

निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि हिमाचली संस्कृति में भगवान राम के प्रति आस्था व विश्वास त्रेता काल से ही प्रगाढ़ रूप में विद्यमान है। यहां की भोली – भाली जनता भारतीय जनमानस के नायक भगवान श्री रामचंद्र जी के जीवन चरित्र से बहुत ही प्रभावित है और भगवान रामचंद्र जी के पद चिन्हों पर चलने के लिए निरंतर प्रयासरत रहती है।

यहां की देव संस्कृति में भले ही प्रभु श्री राम को किसी देव विशेष के नाम से अभिहित किया गया हो, परंतु आस्था और मान्यता फिर भी भगवान राम के ही प्रति बनी हुई है। विषय चाहे लोकगीतों, लोक संस्कारों, मंदिरों, लोक गाथाओं तथा लोक श्रुति – स्मृतियों का हो या फिर तीज त्योहारों का हो, राम कहीं ना कहीं हिमाचली संस्कृति में साक्षात नजर आ ही जाते हैं। हिमाचली संस्कृति के उन्नत वैभव में प्रभु श्री रामचंद्र जी का मिश्रण कुछ इस कदर हो गया है कि मानो आटे में नमक मिल गया हो।

अब इन्हें कोई चाह कर भी अलग नहीं कर सकता। बूढ़ी दिवाली के पर्व को लेकर जो मान्यता है या फिर सोलन, शिमला, सिरमौर के लोक पारंपरिक रामायण गीतों (बरलाज) की जो मान्यताएं हैं, उनको यदि तथ्य माना जाए तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि हिमाचली संस्कृति में राम सचमुच त्रेता काल से ही प्रतिष्ठित रहे है। हिमाचली संस्कृति और राम का आपस में घनिष्ठ संबंध है।

घोषणा : —

उपरोक्त साक्ष्य एवं संदर्भों के अनुसार प्राप्त जानकारी के तहत यह मेरा मौलिक और स्वरचित शोध आलेख है।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — हिमाचली संस्कृति में भगवान राम के प्रति आस्था व विश्वास त्रेता काल से ही प्रगाढ़ रूप में विद्यमान है। यहां की भोली – भाली जनता भारतीय जनमानस के नायक भगवान श्री रामचंद्र जी के जीवन चरित्र से बहुत ही प्रभावित है और भगवान रामचंद्र जी के पद चिन्हों पर चलने के लिए निरंतर प्रयासरत रहती है। विषय चाहे लोकगीतों, लोक संस्कारों, मंदिरों, लोक गाथाओं तथा लोक श्रुति – स्मृतियों का हो या फिर तीज त्योहारों का हो, राम कहीं ना कहीं हिमाचली संस्कृति में साक्षात नजर आ ही जाते हैं। हिमाचली संस्कृति के उन्नत वैभव में प्रभु श्री रामचंद्र जी का मिश्रण कुछ इस कदर हो गया है कि मानो आटे में नमक मिल गया हो।

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यह लेख (हिमाचली लोक संस्कृति में प्रभु श्री राम और दिवाली।) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत।

Kmsraj51 की कलम से…..

Table of Contents

  • Kmsraj51 की कलम से…..
    • ♦ हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत। ♦
      • हिंदी भाषा को राजनीति का शिकार बना दिया।
      • भारत के इस गौरवशाली वैभव को धीरे-धीरे तोड़ने मरोड़ने की कोशिश।
      • मिश्रित भाषा।
      • हिन्द – यूरोपीय भाषा।
      • भारतेंदु और द्विवेदी युग।
      • पुरातन वैदिक गुरुकुल परंपरा को खंडित कर नवीन शिक्षा नीति।
      • कई बातें हैं जो हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत को स्पष्ट करती है।
      • Conclusion:
      • अपने राष्ट्र के गौरवशाली इतिहास को ही न भूल बैठे।
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    • Note:-
      • “सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

♦ हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत। ♦

किसी भी देश के गौरव के वैभव की गाथा यदि समग्र रूप से कोई गा सकता है तो वह है उस देश की राष्ट्रभाषा का स्वरूप। बड़े खेद के साथ कहना पड़ता है कि हमारे भारत देश की आज दिन तक कोई राष्ट्रभाषा निर्धारित ही नहीं हो सकी। भारत देश को आजाद हुए आज 7 दशक से ज्यादा समय हो चुका है परंतु इस देश की विडंबना देखिए कि अभी तक हम इस देश के गौरव का गुणगान करने वाली इसकी मातृ भाषा हिंदी को न्याय नहीं दिला सके।

हिंदी भाषा को राजनीति का शिकार बना दिया।

सन 1949 में अगर इस दिशा में कार्य कुछ हुआ भी तो वह भी अधूरा ही हुआ। भारत के अधिकतर लोगों द्वारा बोली जाने वाली और समझी जाने वाली हिंदी भाषा को राजनीति का शिकार बना दिया गया और इसे इस देश की अपनी भाषा होने के बावजूद विदेशी भाषा अंग्रेजी के समकक्ष भारत की मात्र राजभाषा ही स्वीकार किया गया।

यह सत्य किसी से छुपा नहीं है कि जब आर्यवर्त या जंबूद्वीप की राष्ट्रभाषा संस्कृत हुआ करती थी तो इस देश का अपना एक समृद्ध साहित्य था और उस भाषा में लिखित नाना प्रकार की विधाओं के ज्ञान विज्ञान थे। उस भाषा के बल पर भारत विश्व गुरु की उपाधि से सुसज्जित था।

उस समस्त ज्ञान-विज्ञान का लाभ मात्र भारतवासी ही नहीं लेते थे बल्कि उनका लाभ प्राप्त करने के लिए हयुत्संग और फाह्यान जैसे लोग विदेशों से भारत के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने आते हैं। समय बदला ,परिस्थितियां बदली, भारत पर हूणों,मंगोलों,डचों,तुर्कों, अफगानों आदि ने अपने आक्रमण किए।

भारत के इस गौरवशाली वैभव को धीरे-धीरे तोड़ने मरोड़ने की कोशिश।

भारत के इस गौरवशाली वैभव को धीरे-धीरे तोड़ने मरोड़ने की कोशिश की गई। 1000 ईसवी के आसपास शौरसेनी और अर्धमाग्धी अपभ्रांशों से विकसित हिंदी का स्वरूप स्वतंत्र रूप से साहित्यिक क्षेत्र में दिखने लगा। साहित्य संदर्भों में प्रयोग होने वाली यही भाषाएं बाद में विकसित होकर आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के रूप में अभिहित हुई।

इस बीच भारत में मुगलों का आगमन हुआ। मुगल भारत में स्थाई रूप से बस गए। इससे पूर्व के आक्रमणकारी आक्रमण करते रहे और यहां से पुनः स्वदेश लौटते रहे। परंतु मुगल शासकों ने जिस तरह से भारतीय राजनीति को अपने हाथों में ले लिया, उससे भारत में अपभ्रंशों से विकसित एवं पलवित होने वाली हिंदी का स्वरूप हिंदुस्तानी में बदल गया।

यह सच है कि 1000 ईसवी के आसपास डिंगल पिंगल का बोलबाला भारतीय साहित्य में रहा हिंदी साहित्य का आदिकाल अधिकतर इसी दौर का है। मध्यकाल तक भक्ति साहित्य का वैभव हिंदी की विभिन्न उप भाषाओं ने कुछ यूं सुसज्जित कर दिया कि उसे चाह कर भी हम सदियों तक भुला नहीं सकते।

मिश्रित भाषा।

रीतिकाल तक आते-आते मुगल शासकों की शासकीय कामकाज की भाषा अरबी फारसी होने के कारण भारतीय जनमानस की आमजन भाषाएं उसमें मिश्रित हो गई जिस मिश्रित भाषा को हिंदुस्तानी का नाम दिया गया। जो भारतीय जनमानस की भाषा अपना एक राष्ट्रीय नया स्वरूप तैयार कर रही थी उसने एक नया मोड़ ले लिया। अर्यवर्त या जंबूद्वीप की राष्ट्रभाषा संस्कृत का प्रभाव धीरे- धीरे क्षीण होने लगा और हिंदुस्तानी ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया। जो हिंदी शौरसेनी और अर्धमाग्धी से 1000 ईस्वी के आसपास विकसित हुई थी उसको राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिल सका।

हिन्द – यूरोपीय भाषा।

हिन्द – यूरोपीय भाषा परिवार से होती हुई हिंदी – ईरानी, हिन्दी – आर्य, संस्कृत, केंद्रीय क्षेत्र (हिन्दी), पश्चिमी हिंदी , हिंदुस्तानी और खड़ी बोली से हिंदी का रूप लेने वाली वर्तमान हिंदी भाषा लगभग 18वीं शताब्दी में मूलतः अस्तित्व में आई। इस नव विकसित हिंदी भाषा के स्वरूप को देवनागरी में ही लिखा जाने लगा जो संस्कृत की मानक लिपि थी और है।

भारतेंदु और द्विवेदी युग।

भारतेंदु और द्विवेदी युग ने इस नव विकसित भाषा को और दृढ़ता प्रदान की। हिंदी भारतीय साहित्य की एक मानक भाषा उभर कर सामने आई। भारतीय जनमानस की इस भाषा ने धीरे – धीरे भारत के अधिकतर प्रांतों में अपना अधिकार जमाया। इस बीच भारत में शासन कर रहे अंग्रेजों ने भी अपनी राष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी के प्रचार – प्रसार में भारत में कोई कसर नहीं छोड़ी।

पुरातन वैदिक गुरुकुल परंपरा को खंडित कर नवीन शिक्षा नीति।

1936 में लार्ड मैकाले ने भारत की पुरातन वैदिक गुरुकुल परंपरा को खंडित कर नवीन शिक्षा नीति को इस उद्देश्य से स्थापित किया कि भारत के लोगों को न तो ठीक से हिंदी समझ में आ सके और न ही अंग्रेजी ही समझ में आ सके। अपने शासन को चलाने के लिए उन्हें सस्ते लिपिकों की जरूरत थी, जिन्हें तैयार करने में वे लगभग सफल भी हुए।

धीरे – धीरे तथाकथित अंग्रेजी शिक्षित भारतीयों के भीतर भी अंग्रेजी का ऐसा भूत सवार हुआ कि थोड़ी बहुत अंग्रेजी जान लेने के बाद वह अपने आपको अंग्रेजी का विद्वान समझने लगे और जो हिंदी बोलने वाला आम भारतीय था उसको तुच्छ एवम हेय समझने लगे। यह चलन भारत के आजाद होने तक इतना बढ़ गया था कि सरमायादार लोग दूर देशों में जाकर के अपने बच्चों को अंग्रेजी की तालीम लेने के लिए भेजने लगे।

फिर वे चाहे हिंदू थे या मुस्लिम। इस प्रक्रिया में सभी अपने देश की मातृभाषा हिंदी के वजूद को स्थापित करना ही भूल गए, जबकि भारत की आजादी के वक्त तक हिंदी में बहुत कुछ लिखा जा चुका था जो भारत के गौरव गान के लिए किसी भी दृष्टि से कम नहीं था। इस दृष्टि से शायद 1949 में हिंदी को राष्ट्रभाषा स्वीकार करने की मुहिम तेज हुई थी परंतु वहां हिंदी को पुनः राजनीति की भेंट चढ़ा दिया गया और हिंदी को मात्र राजभाषा का दर्जा दिया गया।

इसके पीछे साजिश शायद यह भी रही हो कि भारत के जो तथाकथित अंग्रेजी शिक्षित लोग मानसिक रूप से अभी भी अंग्रेजों के गुलाम ही थे, उन्होंने जानबूझकर यह चालाकी की हो कि हिंदी जानने और बोलने वाले लोगों के ऊपर राज करने के लिए यदि अंग्रेजी भाषा को हिंदी के समकक्ष रखा जाए तो अच्छा रहेगा। उससे उन तथाकथित अंग्रेजी शिक्षित सरमायादारों की संतानें भारत की हिंदी भाषी जनता पर शासन करती रही और भारत की हिंदी भाषी आम जनता उनकी सेवा करती रही।

भले ही अंग्रेज भारत से चले गए थे परंतु अंग्रेजी के मानसिक रूप से गुलाम ये भारतीय अंग्रेज लंबे समय तक भारत की इस हिंदी भाषी जनता को मूर्ख बनाने में कामयाब रहे। अब यदि यह कहा जाए कि आप की बात अतिशयोक्ति हो गई है तो मैं स्पष्टीकरण जरूर देना चाहूंगा।

क्यों राजभाषा होने के बावजूद भी भारत की न्यायिक व्यवस्थाओं के पत्राचार, राजस्व विभाग सम्बन्धी पत्राचार और चिकित्सीय व्यवस्था संबंधित शिक्षा प्रणाली हिंदी भाषा में न की गई? क्या यह एक सोचा समझा षड्यंत्र नहीं था? या फिर इसलिए कि आम जनमानस की जन भाषा में यदि इन व्यवस्थाओं की बातों को लिख दिया जाएगा या पढ़ा दिया जाएगा तो फिर तथाकथित अंग्रेजी शिक्षित लोग और उनकी संतान लोगों को मूर्ख बनाने में कामयाब कैसे हो पाएगी? उनकी रोजी रोटी कैसे चल पाएगी?

खैर कुछ भी हो, आज परिस्थितियां कुछ और ही है। आज हिंदी सिर्फ भारत के ही अधिकतर क्षेत्र में नहीं बोली जाती परंतु वैश्विक धरातल पर इसने अपनी एक विशेष पहचान बना ली है। इसलिए आज यह बहुत जरूरी हो जाता है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाए। यह सिर्फ आधारहीन एवं तथ्य से हटकर बात नहीं है बल्कि इसके पीछे एक बहुत लंबी – चौड़ी तथ्यपरक बातों की सूची है: —

  1. 2011 की भारतीय जनगणना के अनुसार भारत की 57.1% जनता हिंदी को बोल और समझ सकती है। जिसमें 43.63% भारतीयों ने तो हिंदी को अपनी मातृभाषा ही घोषित किया है। यह एक प्रबल आधार है कि भारत की अधिकतर जनता हिंदी बोलती है और समझती है। इस दृष्टि से हिंदी को अब भारत की राष्ट्रभाषा घोषित कर देना चाहिए ताकि भारत का आम नागरिक वैधानिक, प्रशासनिक, कार्मिक, व्यवहारिक और शैक्षिक आचार – विचारों को अपनी भाषा में प्राप्त कर सकें।
  2. हिंदी भाषा बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर के साथ – साथ उत्तर प्रदेश तथा दिल्ली आदि जनसंख्या बाहुल्य क्षेत्रों की मात्र संपर्क भाषा ही नहीं है बल्कि वाच बाहुल्य के साथ – साथ यहां इन क्षेत्रों की रोजमर्रा की व्यवसायिक भाषा भी है।
  3. आज हिंदी सिर्फ भारत में ही नहीं बोली जाती है परंतु भारत के साथ-साथ कई अन्य देशों में भी इसे बोलने और समझने वालों की संख्या कम नहीं है। एक आंकड़े के मुताबिक हिंदी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बोली जाने वाली भाषाओं में दूसरा दर्जा प्राप्त है। आज हिंदी पाकिस्तान, भूटान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव, मंयांमार, इंडोनेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड, चीन, जापान, ब्रिटेन, जर्मनी, न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रीका, मारीशस, यमन, युगांडा, त्रिनाड एण्ड टोबैगो, कनाडा, अमेरिका तथा मध्य एशिया आदि कई देशों में बोली जाती है और समझी जाती है। यदि देखा जाए तो आज हिंदी लगभग 80 करोड से ज्यादा लोगों के द्वारा बोली और समझी जाती है।
    — इन देशों में से चीन में 6, जर्मनी में 7, ब्रिटेन में 4, अमेरिका में 5, कनाडा में 3, रूस, इटली, हंगरी, फ्रांस और जापान में 2 – 2 विश्वविद्यालयों में आज हिंदी पढ़ाई जाती है। एक आंकड़े के मुताबिक लगभग 150 के करीब – करीब विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आज हिंदी को पढ़ाया जा रहा है। ऐसे में भारत को हिंदी को अपनी राष्ट्रीय भाषा घोषित करने में आखिर दिक्कत ही क्या है? भारत से बाहर के लोग आज हिंदी में कई सत्संग और अध्यात्म की चर्चाएं सुनने और समझने भारत में आते हैं और भारत से बाहर हमारे हिंदी भाषी मनीषियों को हिंदी में सत्संग और चर्चा परिचर्चा करने के लिए अपने देशों में ले जाते हैं। बहुत से विदेशी लोग बाहर से आकर भारत में भी हिंदी को समझने और जानने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे में निश्चित है की हिंदी में कुछ तो खास है जो इसे समझने की और जानने की इतनी लालसा गैर हिंदी भाषी लोगों में भी निरंतर बढ़ती जा रही है। फिर भारतवासी और भारत की राजनीतिक शक्तियां क्यों हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने से परहेज कर रही है?
  4. पाठकों की जानकारी के लिए यह भी बताना उचित समझ रहा हूं कि आज सरकार हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए तो प्रयास कर रही है परंतु अपने देश में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की ओर कोई भी ठोस कदम ठीक से नहीं उठाया जा रहा है।वैसे यूनेस्को की 7 भाषाओं में हिंदी पहले से ही शामिल है, परंतु फिर भी सरकार का इसे संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए प्रयास निरंतर जारी है।
  5. इतना ही नहीं विश्व आर्थिक मंच की गणना के अनुसार हिंदी विश्व की 10 शक्तिशाली भाषाओं में से एक है। यह बात भी अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक आचार व्यवहार की दृष्टि से हिंदी को राष्ट्रभाषा का सम्मान देने की पैरवी पुरजोर करती है। यदि हिंदी को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की भाषा में मानक रूप प्राप्त हो जाता है तो निश्चित ही भारत के व्यापार एवं आर्थिक मोर्चों में भी हिंदी अपनी अहम भूमिका निभाएगी। परंतु इसके लिए हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देना बहुत ही जरूरी है।
  6. एथ्नोलॉग के अनुसार हिंदी विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। यह बात भी हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने के लिए प्रबल सहयोग करती है। यह बात उन तथाकथित अवधारणाओं का भी खंडन करती है कि ‘अंग्रेजी विश्व की भाषा है, इसलिए इसे महत्व देना जरूरी है। हिन्दी तो कहीं स्टैण्ड ही नहीं करती।’इतना ही नहीं हिंदी व संस्कृत की लिपि को संगणकीय टंकण प्रणाली में वैज्ञानिक लिपि भी सिद्ध कर लिया गया है। ऐसे में हिन्दी को भारत में यूं नकारना कहीं से भी ठीक नहीं है।
  7. इधर आबूधाबी में हिंदी को 2019 में अपने वहां न्यायालय की तीसरी भाषा घोषित कर दिया गया है। परंतु एक भारत है कि अपने ही देश की मातृभाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने के मामले में संजीदगी नहीं दिखा रहा है।

कई बातें हैं जो हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत को स्पष्ट करती है।

ऐसी कई बातें हैं जो हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत को स्पष्ट करती है परंतु यह सब भारत की राजनीतिक शक्तियों की इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है। आज भारतवासियों की हालत यह हो गई है कि भले ही हम अंग्रेजी में एम ए क्यों ना हो परंतु जब बात करने की बारी हो तो वह हिंदी में ही की जाती है। यह जरूर है कि कुछ लोग अपना रौब झाड़ने के लिए उस हिंदी में अंग्रेजी मिक्स कर देते हैं परंतु वह खिचड़ी न ही तो ठीक से हिंदी का मान – सम्मान कर पाती है और न ही तो अंग्रेजी का। बात यह नहीं है कि हमें अंग्रेजी से नफरत है।

अंग्रेजी को भी पढ़ा जाना चाहिए और समझा जाना चाहिए। हर भाषा का मान – सम्मान करना हमारे देश की संस्कृति रही है परंतु किसी भी देश के उत्थान एवं विकास के लिए उस देश की अपनी राष्ट्रभाषा का होना नितांत आवश्यक होता है। देश कितनी भी तरक्की कर लें, परंतु जब तक उसके पास अपनी राष्ट्रभाषा नहीं है तब तक उस तरक्की का कोई औचित्य नहीं रह जाता।

Conclusion:

अपने राष्ट्र के गौरवशाली इतिहास को ही न भूल बैठे।

कहीं ऐसा न हो कि हम हिंदी का तिरस्कार करते – करते अपने राष्ट्र के गौरवशाली इतिहास को ही भूल बैठे। यदि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत नहीं है तो फिर क्यों वे सारे कारोबार हिंदी में किए जाते हैं जिनसे राष्ट्रीय खजाने में निरंतर बढ़ोतरी होती रहती है।

उदाहरण के लिए फिल्मी कारोबार हिंदी में ही किया जाता है। आम जनमानस से संपर्क साधने के लिए राजनीतिक पार्टियां हिंदी में ही अपनी बातचीत करती है।अधिकतर समाचार पत्र – पत्रिकाएं तथा चैनल सब हिन्दी में ही कार्य करते हैं। बस हिंदी में अगर कुछ होता नहीं है तो वह सरकारी कार्यालयों का पत्राचार नहीं होता है। न जाने क्यों इतना महत्व सरकारी पत्राचार में अंग्रेजी को दिया जाता है जब कि हिंदुस्तान आज आजाद हो चुका है।

हमारे भारत के जन समुदाय में एक ट्रेंड सा बन चुका है कि पड़ोसी का बच्चा अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने जा रहा है तो मैं भी अपने बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में ही पढ़ाऊंगा। भले ही वह वहां कुछ सीखे या न सीखे परंतु सोसाइटी की नकल करना हमारी आदत बन गई है। जबकि सत्य यह है कि बच्चा जो कुछ अपनी मातृभाषा में सीखता है वह किसी दूसरी भाषा में नहीं सीख सकता परंतु एक हम है कि अपनी जिद पर अड़े हुए हैं।

हां वर्तमान सरकार ने एक मेहरबानी जरूर की है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में अंग्रेजी को पांचवी तक मात्र एक विषय के रूप में पढ़ाने का प्रावधान किया है न कि माध्यम के रूप में। परंतु क्या हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए बिना इस प्रकार के प्रयासों का भी कोई महत्व सिद्ध हो सकेगा या नहीं? इस बात पर हमें आत्म चिंतन और मंथन करने की नितांत आवश्यकता है।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — अंग्रेजो से आजादी के इतने वर्षों बाद भी हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा की मान्यता आधिकारिक रूप से क्यों दर्ज नही हुआ, हिंदी को उसका सम्मान क्यों नहीं मिला? हिन्दी राष्ट्रभाषा के महत्व, गुणों और प्रभाव को बताया है। हिन्दी हर भारतीय के दिल से निकलने वाली भाषा हैं। हिन्दी भाषा दिल को दिल से जोड़ने का कार्य करती है। एकलौती हिन्दी भाषा ही है जिसमे अपनापन है दुनिया की किसी भी अन्य भाषा अपनापन का स्थान नहीं।

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यह लेख (हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत।) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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दोषी कौन है?

Kmsraj51 की कलम से…..

Table of Contents

  • Kmsraj51 की कलम से…..
    • ♦ दोषी कौन है? ♦
      • बैंक में गिरवी
      • अब छुटकू की बारी थी।
      • छुटकू डॉक्टर
      • सरकारी नौकरी का इंतजार
      • ज़रूर पढ़ें — शिक्षक की महानता।
      • Conclusion — निष्कर्ष
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      • “सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

♦ दोषी कौन है? ♦

स्कूलों में गर्मियों की छुट्टियां थी। नरपत काका के चारों बेटे खेतों में जी जान से जोर लगा रहे थे। उम्मीदें सब की ये थी कि इस बार खूब फसल होनी चाहिए। फसल से जो कमाई होगी, बाबा वह जरूर हमारी शिक्षा पर खर्च करेंगे।

नरपत काका अपना पेट मसोस मसोसकर बच्चों की अच्छी तालीम के हर संभव प्रयास करते रहते थे। प्राथमिक से लेकर कॉलेज तक की पढ़ाई। चार – चार बेटों का लाखों का खर्च। काका की दो चार बीघा जमीन से कैसे तैयार हो पाता ये तो वही जाने। काका का कोई सरकारी रोजगार भी तो नहीं है ना।

अबकी चारों कॉलेज से अच्छी डिग्रियां लेकर प्रशिक्षण की जिद पर अड़े हुए हैं। काका भी दिल से प्रशिक्षण कराने की सोचता है। जानता है प्रशिक्षण के बिना सरकारी नौकरियां नहीं मिलने वाली पर माली हालत इजाजत नहीं देती है।

बैंक में गिरवी

दो चार बीघा जमीन है, उसे बैंक में गिरवी रखकर बड़े वाले को शहर डिग्री के बाद प्रशिक्षण हेतु भेज देते हैं। कुछ फसल का जुगाड़ था और कुछ बैंक से ले लिया। बाकी के तीनों को ढाढस बंधाता है। “बच्चों तुम अभी छोटे हो। भैया जब प्रशिक्षण पूरा कर लेगा ना तब तुम्हें भी बारी – बारी से मौका दूंगा।”

बाबा की आंखों की कोरों पर आते आंसुओं को देखकर सब सहमत हो जाते हैं। बड़े वाला साल भर का प्रशिक्षण लाखों का डोनेशन देकर जब घर लौटता है तब तक तीनों बेटों और बाप ने एड़ी चोटी का दम लगा कर बैंक का हिसाब-किताब चुकता कर दिया था।

वह तो कृषि कार्ड की लिमिट थी। उसी लिमिट से पैसा निकाल कर दूसरे को उसकी डिग्री के हिसाब से प्रशिक्षण को भेज दिया। उसका भी कुछ यूं ही निभा। इस बार दिक्कत कुछ ज्यादा रही। सूखे की मार फसलों से इतनी कमाई नहीं करवा पाई, जितना कि पिछली बार हुई थी। पर फिर भी आस पड़ोस में मेहनत मजदूरी करके सब लोगों ने मिलकर इस बार का खाता भी क्लियर कर लिया था। इसी कदर तीसरे का भी कुछ यूं ही बीता।

अब छुटकू की बारी थी।

अब छुटकू की बारी थी। उसकी जिद डॉक्टरी करने की थी। तीनों बड़े भाइयों ने भी नरपत काका को यह कह कर मना लिया “बाबा छुटकू ठीक कहता है। हमारे पूरे इलाके में कोई डॉक्टर नहीं है। छुटकू है भी तेज। कर लेने दो उसे डॉक्टरी। परिवार के साथ साथ सबका भला हो जाएगा।”

“तुम्हारी मत मारी गई है। लाखों का खर्चा होता है उस पर। कहां से आएगा इतना पैसा। कर लेने दो इसे भी कोई छोटा – मोटा डिप्लोमा। फिर ढूंढो कहीं नौकरियां? मेरे पास इतना पैसा नहीं है। “नरपत काका कुछ रूखे से बोले।

छुटकू आंगन की पीपल के नीचे बैठकर सुबकियां भर रहा है। तीनों बड़ों ने मान मनौती करके बाबा को मना लिया और छुटकू को डॉक्टरी के लिए भेज दिया। पर इस बार सौदा कुछ महंगा था। ऐसे में नरपत काका को अपनी दो चार बीघा जमीन से एक आध बीघा को जड़ से बेच देना पड़ा।

छुटकू के जाने के बाद नरपत काका और उनकी पत्नी उस दिन शाम को उसी पीपल के नीचे बैठे – बैठे बतिया रहे थे। “पगली आज मैंने अपनी मां को बेचा है। और करता भी क्या? बच्चों ने मजबूर कर दिया।” यह कहते – कहते नरपत काका की आंखों से अश्रुओं की धारा बहने लगी। उनके साथ काकी की आंखों से भी अश्रुपात होने लगा। पर बच्चों को देखकर दोनों हड़बड़ाहट में आंसू पोंछ लेते हैं।

छुटकू डॉक्टर

चारों बाप बेटों ने दिन रात मेहनत की। एक दिन छुटकू डॉक्टर बनकर के लौट आता है। घर में खुशी का माहौल है। नरपत काका और काकी बहुत खुश है। आस पड़ोस के लोग भी उन्हें बधाइयां देने लगे हैं।

“ओ यारा नरपत्या, हुन ता तू फ्री हुई गया भाई।” रामलू काका नरपत काका से कह रहे थे।

“क्येथी ओ यारा रमालू भाई? हजा ता इन्हा रे ब्याह रही गए।” नरपत काका माथे पर हाथ फेरते हुए कहते हैं।

सरकारी नौकरी का इंतजार

चारों बेटों ने सरकारी नौकरियां पाने के लिए लंबे समय तक इंतजार किया। पर कोई सरकारी नौकरी की अधिसूचना ही जारी नहीं हो पा रही है। एक दिन डॉक्टरी की पोस्टें भरने की अधिसूचना निकली भी थी। वह भी किसी कोर्ट केस के चलते रद्द कर दी गई।

बड़े वाले तीनों निजी कंपनियों में बहुत कम वेतनमान पर नौकरियां करने लगे हैं। हालत यह है कि शहरी जीवन में रहते – रहते उस वेतन से महीने भर के लिए अपने पेट का ही गुजारा नहीं होता। क्वार्टर का किराया, राशन – पानी, बिजली का भाड़ा और एक आध घर का चक्कर। बस सब उसी में खत्म। काका की हालत आज भी ज्यों की त्यों है।

बड़े वाले की शादी तय कर दी गई है। जेब में खर्चने को दमड़ी भी नहीं है। फिर से एक आध बीघा जमीन बेच दी जाती है। आज काका फिर से दुखी है।

एक दिन चारों भाई शाम को आंगन में बैठकर बतिया रहे हैं। “अरे भाई न जाने यह कैसी शिक्षा प्रणाली और व्यवस्था है? इतनी महंगी पढ़ाई हासिल कर भी ढंग की नौकरी ना ही तो सरकारी क्षेत्र में नसीब हो पाती है और ना ही निजी क्षेत्र में। सरकारें वादे तो बड़ी-बड़ी करती है, पर तोड़ती डक्का नहीं।” छुटकू बड़े तैश से बोल रहा था।

“हाथी के दांत खाने के और तथा दिखाने के और वाली कहावत है यह छुटकू। आखिर दोषी कौन?” सबसे बड़े वाले ने विलक्षण स्वरों से जवाब दिया।

इतने में अंदर से आवाज आती है, “अजी सुनते हो। खाना तैयार है।”
सब खाना खाने चले जाते हैं।

घोषणा: यह मेरी मौलिक, स्वरचित रचना है।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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ज़रूर पढ़ें — शिक्षक की महानता।

Conclusion — निष्कर्ष

  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस छोटी कहानी के माध्यम से मिडिल क्लास के परिवारों के मजबूरी और समझ को बताने की बखूबी कोशिश की है। मिडिल क्लास परिवार किस कदर मेहनत कर बमुश्किल उच्च डिग्री हासिल करता है। उसके बाद भी उसे अच्छी नौकरी नही मिल पाती।

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यह छोटी कहानी (दोषी कौन है?) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कहानी/कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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आज की जरूरत।

Kmsraj51 की कलम से…..

Table of Contents

  • Kmsraj51 की कलम से…..
    • ♦ आज की जरूरत। ♦
      • वैचारिक लेख —
      • कोरोना विदेशों से लाने वाले।
      • बच्चों को मुफ्त और सरकारी गुणवत्ता युक्त शिक्षा क्यों नहीं मिल रही है?
      • एक शिक्षा एक पाठ्यक्रम।
      • पूरे विश्व में ही धार्मिक शिक्षा को सरकारों को अपने हाथों में लेना चाहिए।
      • असल में सारे फसाद की जड़ कौन है?
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♦ आज की जरूरत। ♦

वैचारिक लेख —

वर्तमान में भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में एक भयानक महामारी ने अपना तांडव पुरजोर मचाया है। इस चपेट में विश्व का बड़े से बड़ा देश अपनी समस्त ताकतों को विफल-सा हुआ पा रहा है। ऐसे में जब हररोज हजारों लोग काल के गाल में समाते जा रहे हैं तो डर भला किसे नहीं लगेगा।

बस डर नहीं रहे हैं तो कुछ सर फिर लोग और दिल्ली के निजामुद्दीन के मरकज में जमा हुई तब्बलिकी जमात। शायद उन्हें मृत्यु ने मानव जाति के विनाश का जिम्मा सौंपा हो या फिर यह उनके जहन जनित उस अल्लाह की शरणागति का मनमुखी खुरापात है जो किसी पवित्र धार्मिक ग्रंथ में नहीं मिलता है।

अब लीजिए आप पवित्र कुरान शरीफ़ को या फिर इस्लाम धर्म के जो चार पवित्र ग्रंथ माने जाते हैं “पवित्र इंजील, जबूर, तोरात और स्वयं पवित्र कुरान मजीद।” इनमें कहीं कोई जमाती यह सिद्ध कर दें कि वहाँ खुदा की ऐसी आज्ञा है कि किसी को जानबूझ कर मारने या फिर अनजाने में मारने से अल्लाह खुश होता है।

तो मैं मान जाऊंगा कि जिहाद जैसी, जो सोच इन लोगों ने अपनाई है और अपने अनुयायियों को भी उसका अनुसरण करने को कहते हैं; वह सच में ही वाजिब है। पर शर्त है कि यह सिद्ध करने के लिए ‘देवबंध’ जैसी संस्थाओं की स्वयंभु सोच का हवाला न दिया जाए।

मक्का की पवित्र दरगाह की मूल सामग्री का ही सहारा लिया जाए। कोई खुदा, अल्लाह, गॉड, वाहे गुरु, तीर्थंकर या भगवान किसी के प्राणों को लेने की बात नहीं करता है। चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो। हाँ यदि कोई करता है तो वह भगवान हो – ही नहीं सकता। क्योंकि किसी को काल के सिवा कोई मारने वाला शैतान कहलाता है भगवान नहीं।

चलो लगे हाथों जिहाद समझ लें। जेहाद पाक कुरान में अंकित है और वह सिर्फ़ मुस्लिम समुदाय के लोगों के ही करने की नहीं है बल्कि समूचे मानव प्राणी को करनी चाहिए।

जिहाद का मतलब संघर्ष करने से है न की साज़िश और खून खराबा करने से। पवित्र कुरान कहता है कि जो लोग तुझे उस एक खुदा की इवादत से भटका कर किसी दूसरे की उपासना करने को मजबूर भी करता है तो उसका प्रभाव भले ही कितना ऊंचा हो, तू उसकी नहीं मानना।

तू अपने धर्म के लिए अपनी जान दे देना पर दूसरों को कष्ट मत देना। अब इन्होंने इसका अर्थ उल्टा ले लिया कि अपना धर्म बचाने के लिए दूसरों की जान ले लेना पर अपने धर्म को बचाए रखना। असल में ऐसा तो हजरत मुहम्मद साहब बयाँ ही नहीं करते।

अब रही धर्म की बात तो यह भी हमें समझना होगा कि धर्म क्या होता है और अध्यात्म क्या होता है? धर्म असल में किसी समुदाय या समाज के सामाजिक जीवन के जीने के तौर – तरीके का नाम है और अध्यात्म आत्मा और परमात्मा के मूल तत्व को जानने का नाम है।

दरअसल हुआ यूं कि लोग धर्म को ही अध्यात्म समझ बैठे। फिर चाहे वह हिन्दू धर्म की बात हो या फिर कोई और धर्म की बात हो। इसीलिए हर धर्म के नियंताओं ने अपने-अपने धर्म के संचालन हेतु किसी नियम का आगाज किया और उन्हें किसी ग्रंथ की सूरत दे दी। यह सच है कि वे नियंता पवित्र भावी थे और उन्होंने उन्हीं ग्रंथो में अध्यात्म को भी भर दिया। यह महज समाज को अनुशासन में बांधने के उद्देश्य से स्थापित किया गया था।

अगर यूं कहा जाए कि “धर्म अध्यात्म का शरीर है और अध्यात्म उस देह की आत्मा तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह बात यहाँ से भी प्रमाणित होती है कि खुदा, भगवान, रब्बा कहो या प्रकृति, उसने तो समूचे जीव जगत को उत्पन किया।”

जब मानव प्राणी के अलावा किसी जीव जगत का कोई सामाजिक नियम ही नहीं है तो मानव का ही क्यों? शायद इसलिए कि उसमें बुद्धि है और वह भी इस प्रकार से उस बनाने वाले ने मानव में डाली कि सब के सब उसे एक बराबर प्रयोग नहीं कर पाते।

हमने इतिहास पढ़ा। जहाँ यह बताया जाता है कि असल में मानव पशुओं से विकसित हो कर बना है। वह भी पहले आदिमानव के रूप में असभ्य और पशु तुल्य जीवन जीता था। जैसे-जैसे उसने बौद्धिक विकास किया तो सभ्यता अस्तित्व में आई और धीरे-धीरे धर्म, समुदाय तथा संस्कृति चलन में आई। इन प्रमाणों को आधार माने तो, तो भी सिद्ध होता है कि धर्म मानव द्वारा स्थापित किया गया एक सामाजिक नियम है और कुछ नहीं।

प्रभु को पाना है तो उसके लिए धर्म की नहीं बल्कि अध्यात्म की ज़रूरत पड़ती है। आप निजी स्कूल में पढ़े या सरकारी में। बात एक ही है क्योंकि उद्देश शिक्षा प्राप्त करना है। वह दोनों जगह मिल जाएगी। मेरे कहने का भाव यह है कि धर्म कोई भी बुरा नहीं है। वे सभी समाज को सुंदर और पुष्ट करने की बृहद संस्थाएँ हैं।

इन्हे विकृत कुछ स्वयंभु धर्म के ठेकेदारों और कुछ राजनीतिक सरोकारों वाले लोगों द्वारा निज स्वार्थ साधने के चलते किया है। बेचारी साधारण जनता उनके बहकावे में आस्थाओं के मकड़ जाल में फंस कर बंध जाती है।

यह किसी धर्म विशेष की बात नहीं है। यह सभी धर्मों की दशा है। हिन्दू धर्म को ही ले लीजिए। हमारे तो यहाँ लोग पढ़-लिख कर भी अनपढ़ो की-सी बात करते हैं। किसी से पूछे कि —

  • हिन्दू धर्म के मूल ग्रन्थ कौन है?
  • पुराणों के नाम क्रमवार बताओ?
  • षड्दर्शन कौन-कौन से हैं?
  • 9 श्रुतियों और स्मृतियों को क्रमवार बताओ?

सब कन्नी काटते हैं। बस हम हिन्दू हैं। इस धर्म का अता पता चाहे कुछ भी न हो। और देखो, यह पूछे कि यह हिन्दू धर्म है क्या? वैदिक धर्म तो सनातन धर्म तथा आर्य धर्म की बात करता है। जिसमें वसुधैव कुटुंबकम की बात होती है। फिर यह हिन्दू धर्म कहाँ से और कैसे निकला? जैन, सिख जैसे धर्म कहाँ से निकले और क्यों?

इन बातों का सही तथा प्रामाणिक ज्ञान 95% लोग नहीं दे सकते। पर है हम फिर भी हिन्दू। तो सिद्ध हुआ कि धर्म असल में एक भीड़ का नाम ही रह गया है और कुछ नहीं। सबसे बड़ा धर्म मानव धर्म है, जिससे ये दुनियाँ के सारे धर्म निकले हैं। पर उसे मानने को कोई तैयार नहीं है।

सभी संतों और ज़िंदा महात्माओं ने चीख-चीख कर इसका प्रचार किया, जिन्होंने असल में जिहाद की। पर मानी किस ने। यह दुनियाँ अपने ही रसूख के लिए जीती है और इसमें मारा जाता है हमेशा गरीब, मजलूम तथा सर्वहारा और असहाय वर्ग।

कोरोना विदेशों से लाने वाले।

हाल ही में सफदर गंज की हालत आप सबने देखी। कोरोना विदेशों से लाने वाले वही रसूखदार लोग थे जिन्होंने अपनी कमाई का तो आधे से ज़्यादा पैसा विदेशों में ही ख़र्च कर दिया होता है, उल्टा हमारी गाढ़ी कमाई को भी वे सरकारी खर्चे से वहाँ उड़ाते आए हैं।

जो ये सुबह कमाते हैं और शाम को खाते हैं। ये लोग हमारे देश की फैक्ट्रियों और कारखानों में काम करने वाले वह लोग हैं, जो अपनी सुविधा बेच कर देश की अर्थव्यवस्था को संभालते हैं।

क्या कोरोना संकट में इनकी समस्याओं को दरकिनार करना उचित था। विदेशों में फंसे भारतीयों को, जो करोना पीड़ित भी थे; उन्हें लाने के लिए सरकार के पास प्लान हैं और सुविधा भी। पर अपने देश के निर्दोष लोगों की आंखों के आंसू पोंछने के लिए कुछ भी नहीं।

खैर ये लोग तो सदियों से इसी पीड़ा से गुजर रहे हैं और गुजरते रहेंगे। सताएँ और तमाम सियासी पार्टियों तो इस वक़्त भी सियासत करने से बाज नहीं आ रही है, जब विश्व व्यापी संकट सिर पर मंडरा रहा है। किसे मालूम कल क्या हो? पर ये है कि ख़ुद को खुदा समझते हैं।

इस गफलत भरे माहौल में यदि ये स्वयं सेवी संगठन और धार्मिक संगठन सामने न आते तो सरकारों की सारी हेकड़ी निकल जाती। अब आप कहेंगे कि ये दोगली बातें क्यों? एक ओर तो धर्म पर चोट करता है और दूसरी ओर उसी की प्रशंसा। नहीं भाई यह मानव धर्म की प्रशंसा है। जो हमें हमारे पुरखों ने और संतों ने विरासत में दिया था और एक हम है कि उस महा-पुनीत भाव बोध को भी अपनी रसुखता की भेंट चढ़ाने पर तुले हैं।

अब रही जमात की बात। तो बता दू कि जमात के द्वारा किया गया वाकया असल में एक अमानवीय कृत्य था। फिर चाहे वह जाने अनजाने कैसे भी हुआ हो। यह मायने नहीं रखता। मायने रखता है परिणाम। दीन बांटने वाले ही अगर नफ़रत बांटने लगे तो उस धर्म और समाज का क्या होगा? उस पर कुछ तथाकथित मानवतावादियों की भी अपनी एक जमात है, जो इस नाज़ुक घड़ी में इस घटना से पूरे मुस्लिम समाज को जोड़ने पर तुली हैं।

वे ये नहीं समझते कि इस समाज में भी सभी लोग एक जैसे नहीं है। बहुत से ऐसे भी मुस्लिम पैरोकार है जो हिन्दू-मुस्लिम की भावना से ऊपर उठ कर मानव धर्म की बात करते हैं। इस पूरे मामले में उन्हें क्यों घसीट रहे हो? यहाँ भी ध्रुवीकरण और मजहबवाद की बू आती है।

तो फिर मैं क्यों न कहूँ कि पूरे फसाद की जड़ धर्म ही है। यदि ये अलग-अलग धर्म न होते तो यह सब न घटता। यह सब सदियों से होता आ रहा है। पहले साम्राज्यवाद के नाम पर तो आज धर्मवाद के नाम पर।

मैं धर्मों का विरोधी नहीं हूँ। मैं विरोधी हूँ तो इन धर्मो की व्यवस्थाओं और सरकारी तंत्र की स्वार्थपरता का। सरकारें चाहें तो यह झगड़ा ही सदा को समाप्त हो सकता है। पर वे ऐसा नहीं करना चाहती। ऐसा करने से उनकी राजनीति नहीं चल पाएगी।

यह भारत है साहब। यहाँ कोई भी इमोशनली ब्लैकमेल हो ही जाता है बस। सरकारें ऐलान करें कि किसी भी धर्म या समुदाय के बच्चों को सरकारी शिक्षा ही लेनी होगी। कोई भी धर्म या समुदाय अपनी निजी पाठशाला नहीं चलाएगा। धर्म को लेकर की जाने वाली पढ़ाई भी स्कूलों में ही होगी। जो उलंघन करता है तो उसे सजा दी जाएगी। तो सारे फसाद बंद हो जाएंगे। पर नहीं, उन्हें तो निजीकरण से अपने चहेतों को लाभ पहुँचाना है। बस फिर उसी की आड में दूसरे लोग भी अपना उल्लू साधने में कामयाब हो जाते हैं।

बच्चों को मुफ्त और सरकारी गुणवत्ता युक्त शिक्षा क्यों नहीं मिल रही है?

सरकारें और सियासी पार्टियाँ तो उल्टा सरकारी अध्यापकों को बदनाम करने पर तुली रहती है और बेचारा समाज उनकी बातों में आ कर असलियत भूल जाता है। ज़रा सोचो भाई कि क्या आजादी के 70 साल बाद भी हमारे बच्चों को मुफ्त और सरकारी गुणवत्ता युक्त शिक्षा क्यों नहीं मिल रही है?

जिसका प्रावधान करने की बात संविधान में की गई है। क्यों गरीब का बेटा या बेटी अमीरों या हुक्मरानों के बच्चों की तरह अच्छी शिक्षा नहीं ले पा रहे हैं? क्योंकि यह एक बड़ी चालाकी है। ताकि इन्हीं के बेटे बड़े-बड़े पदों पर बने रहे और हमारे आजाद गुलाम। यह पूर्ण सत्य है।

आज दुनियाँ के उच्च शैक्षिक धरातल पर भारत की सरकारी शिक्षा प्रणाली की सुविधाओं को रखा जाए तो हम शायद कहीं खड़े ही न हो पाएंगे। कई बदलाव हर सरकारों में करवाए गए। पर सब आंकड़ों और कागजों में। क्योंकि इन स्कूलों में किसी बड़े आला अधिकारी या नेता के अपने बच्चे नहीं पढ़ते हैं। सब ख्याली घोड़े।

सब को बराबर लाने के लिए पूरे देश में एक ही पाठ्यक्रम होना चाहिए और सभी नागरिकों को सरकारी स्कूलों में ही बच्चे पढ़ाने के सरकारी आदेश होने चाहिए। संविधान में संशोधन पर संशोधन किए जा रहे हैं तो क्या यह नहीं हो सकता?

एक शिक्षा एक पाठ्यक्रम।

अब आप कहेंगे कि इस से क्या होगा? एक शिक्षा एक पाठ्यक्रम से गरीब-अमीर सबके बच्चों को समान शिक्षा मिलेगी और बराबर ज्ञान मिलेगा। उससे बड़े से बड़ी सरकारी सेवा में गरीबों के मेहनती बच्चे पहुँच जाएंगे और पूरे राष्ट्र की विचारधारा भी एक बनेगी।

जिससे ये जमात जैसी घटनाएँ नहीं घटेगी। ये सभी धार्मिक संगठन हो, पर धर्म की शिक्षा सरकार के अधीन हो। सरकार तय करें कि किस धर्म के लोगों और बच्चों को कैसी धार्मिक शिक्षा देनी है। नहीं तो हम सब लोग इन ठेकेदारों के यहाँ यूं ही लूटते रहेंगे। भारत में पहले भी धर्म गुरु राजदरबार के ही सदस्य होते थे।

अब तो धर्म के क्षेत्र में ऐसी बाढ़ आ गई है कि जिसे भी अच्छे से बोलना और गाना-बजाना या डराना – धमकाना आ गया, वहीं स्वयंभु धर्मगुरु बन जाता है। न कोई परीक्षा और न ही कोई रोक-टोक। न हींग लगे न फिटकरी रंग चोखे का चोखा।

मैं यह नहीं कहता कि सभी धर्म गुरु निकम्मे हैं। पर सवाल तो उठते हैं। जैसे ग़लत किया जमातियों ने उंगली उठी पूरे मुस्लिम समाज पर। मेरा तो मानना है कि सभी ज्योतिष, अध्यात्म, वास्तु और योग जैसे गूढ़ विषय स्कूलों में पढ़ाए जाने चाहिए और वे भी मुफ्त। तभी निरीह जनता लूटने से बचेगी और इस तरह की आफतों से भी बचेगी, जो आज आई है।

हमें बच्चों को मानव बनाना है न की किसी धर्म का पैरोकार या महज़ कोई कर्मचारी और अधिकारी। वे बने, पर पहले वह एक मानव बने। आज ज़रूरत है सर्व धर्म समभाव की। यह भारत को ही नहीं, पूरी दुनियाँ को समझना होगा।

आज हमें मशीनी – इंजीनियरों से ज़्यादा मानवता के इंजीनियरों की ज़रूरत है। यह महामारी चाहे मानव मस्तिष्क की खोपड़-वाजी हो या फिर किसी दैवी शक्ति का प्रकोप। चाहे फिर प्रकृति की विडम्बना हो। पर हर दृष्टि से कहीं न कहीं इस सब के लिए मानव की अमानवता जिम्मेवार है। अतः आज ज़रूरत है तो मानव को मानव बनाने की है।

सब जानते हैं कि चीन के बुहान से यह रोग दुनियाँ के कोने-कोने तक फैल गया। क्या इसके पीछे भी अमानवीयता का हाथ नहीं है? क्यों विश्व समुदाय के सामने यह बात चीन ने समय पर नहीं रखी? क्यों चीन अन्य देशों की यात्रा अपने लोगों से करवाता रहा, जबकि वह जानता था कि यह एक जानलेवा और लाइलाज घातक बीमारी है।

हम नहीं जानते कि यह चीन की चाल थी या फिर कोई प्राकृतिक घटना। परन्तु विश्व मानवतावादी दृष्टिकोण तो चीन को भी होना चाहिए था। वहीं नहीं रुकी यह गाड़ी। उस पर कई देशों के जमाती टूरिस्ट वीजा पर भारत घूमने आते हैं और यहाँ अपने ही धर्म को शर्मसार कर दिया। क्या फिर भी मानवता का पाठ स्कूलों में पढ़ाने के विपक्ष में खड़े होंगे हम? यह विश्व समुदाय को गहनता से सोचने की ज़रूरत है आज।

पूरे विश्व में ही धार्मिक शिक्षा को सरकारों को अपने हाथों में लेना चाहिए।

वरना भविष्य में इस के और भी गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। मैं तो कहता हूँ कि पूरे विश्व में ही धार्मिक शिक्षा को सरकारों को अपने हाथों में लेना चाहिए। भले ही उसके लिए सरकारें जनता की राय समय – समय पर लेती रहे। तभी यह भीड़ तंत्र राह पर आएगा। वरना यह पीढ़ी दर पीढ़ी यूं ही घटता जाएगा।

भले ही आज जान पर बन आई है, इसलिए लोग डाक्टरों को भगवान कहने लगे हैं। कहना भी चाहिए। पर असल में सबसे ज़्यादा ज़रूरी समाज को सही शिक्षा देना है। अगर शिक्षा का विकेंद्रीकरण और दोहरी व्यवस्थाएँ न रोकी गई तो भविष्य में डॉक्टर भी हाथ खड़े कर देंगे।

कुदरत या खुदा अपनी ओर से कुछ नहीं करता है। वह हमारे ही कर्मो को कई गुना बढ़ा कर हमें वापिस करती / करता है। किसी घाटी के बीच डाली जाने वाली आवाज़ ज्युं उल्टा हमारे ही कानों में कई गुना बढ़ कर प्रतिध्वनि के रूप में लौट आती है, उसी प्रकार कर्म भी लौटते हैं।

असल में सारे फसाद की जड़ कौन है?

इसलिए अच्छे कर्म करने की सीख जब तक न दी गई, तब तक अच्छे कर्म की उम्मीद रखना भी बेईमानी है। अब आप समझ गए होंगे कि असल में सारे फसाद की जड़ कौन है। सरकारें हैं कि इसका ठीकरा उसके सिर और उसका ठीकरा इसके सिर पर फोड़ती रहती है। अपनी गलती मानने को न पक्ष तैयार है और न विपक्ष। अब मेरे एक मित्र का कहना है कि ये मुस्लिम साले गद्दार है। ये मोदी जी से जलते हैं, इसलिए इन्होंने ऐसा किया। इन्हे तो गोली मार देनी चाहिए।

वह बेचारा भाजपाई है और उसके विरोध में दूसरे मित्र ने कहा कि हां-हाँ, जो तुम सोचते हो और बोलते हो वहीं सही है और सच भी वहीं होता है। माना कि ये जमाती साज़िश रच गए। तेरे मोदी जी की सरकार कहाँ सोई हुई थी। कहाँ थी खुफिया एजेंसियाँ। क्या वे सिर्फ़ और सिर्फ़ विरोधी पार्टियों की खुफिया जानकारी में ही लगा के रखी है? वे देश के लिए होती है जनाब किसी व्यक्ति या पार्टी की खुशामद के लिए नहीं। वह बेचारा कांग्रेसी था।

भाजपाई ने उसका दोष केजरीवाल के सर मढ़ दिया। यह तो राज्य सरकार को देखना चाहिए था। कांग्रेसी ने जबाव दिया कि पढ़ कल का अखबार। देख आपकी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता शांत कुमार का बयान। वे कहते हैं कि इस मामले में चूक दोनों सरकारों ने की है। पर उनकी सुनता कौन है।

आपके तो यहाँ गुजराती जोड़ी की दादागिरी चलती है और भी बहुत कुछ वे अनापशनाप कह गए। सब यहाँ लिख पाना संभव नहीं है। यहाँ गुटवाजियों की बू आ रही थी। तो मुझे लगा कि असल में यह भीड़ तंत्र ही सारे फसाद की जड़ है। यदि आदमी दिमाग़ के बजाए दिल से पढ़ जाए तो सब ठीक हो जाएगा। पर अफसोस यह होगा कैसे?

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से बताया है की — कोरोना संकट के समय पर भी इस्लामिक धार्मिक संगठन की जानबूझकर लापरवाही क्या ठीक था? याद रखे – सबसे बड़ा धर्म मानव धर्म है। “हमें बच्चों को मानव बनाना है न की किसी धर्म का पैरोकार या महज़ कोई कर्मचारी और अधिकारी। आज हमें मशीनी – इंजीनियरों से ज़्यादा मानवता के इंजीनियरों की ज़रूरत है।” यदि आदमी दिमाग़ के बजाए दिल से पढ़ जाए तो सब ठीक हो जाएगा। पर अफसोस यह होगा कैसे?

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यह वैचारिक लेख (आज की जरूरत।) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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“सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

“अगर अपने कार्य से आप स्वयं संतुष्ट हैं, ताे फिर अन्य लोग क्या कहते हैं उसकी परवाह ना करें।”~KMSRAj51

 

 

 

 

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बदलता दौर।

Kmsraj51 की कलम से…..

Table of Contents

  • Kmsraj51 की कलम से…..
    • ♦ बदलता दौर। ♦
      • पुत्र रत्न पैदा हुआ।
      • कुंदन और ईशा की शादी।
      • Conclusion:
    • Please share your comments.
    • आप सभी का प्रिय दोस्त
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    • Note:-
      • “सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

♦ बदलता दौर। ♦

इतवार की सुबह सवेरे तड़के ही कोई रविन्द्र के आंगन से आवाजे लगा रहा था,” भाई साहब! ओ भाई साहब! चलो चलना है क्या?”

” कौन बिरजू है क्या?” अंदर से रविन्द्र चाय पीते हुए बोला।
” जी हां भाई साहब। मैं बोल रहा हूं।” बिरजू ने झट से उत्तर दिया।
रविन्द्र ने अपनी पत्नी को जल्दी तैयार होने को कहा और स्वयं भी कपड़े पहनते हुए बिरजू से बतियाता रहा।

” क्या बताएं बिरजू? हर चेले – घोपे के पास गए। हर डॉक्टर – हकीम के पास गए।लाखों का खर्च कर लिया है, और तो और अम्मा जी के कहने पर हवन – पाठ भी करवा लिए। पर शादी के दस साल बाद भी कोई औलाद नहीं हो रही है। कल जब तुम्हे दफ्तर से आते वक्त, मन्दिर जाने के बारे में शांता से बतियाते हुए सुना तो सोचा हम भी एक बार तुम दोनों के साथ मन्दिर चल आते हैं। शायद अबकी भगवान हमारी सुन ही लें।”

“भाग्य का क्या पता भाई साहब? कब खुल जाए? मैं भी इन्हें बड़ी मुश्किल से मन्दिर में लिए जा रही हूं। वे भी आपके जाने के लिए राजी होने के बाद ही जाने को तैयार हुए हैं। वरना कहां ….? ” शांता ने अदब से कहा।

पुत्र रत्न पैदा हुआ।

इस बार सचमुच भगवान ने रविन्द्र और तारा की सुन ली। दोनों की किस्मत खुली और उनके एक पुत्र रत्न पैदा हुआ। वह बच्चा बचपन में इतना बीमार रहा कि न जाने तारा ने उसको बड़ा करने के लिए क्या – क्या नहीं किया?

बेचारे रविन्द्र की आधी तनख्वाह हर महीने उसी के इलाज में लग जाती थी। बड़ी मुद्दत से जो हुआ था लाल। दोनों ने लालन पालन में कोई कोर कसर न छोड़ी। तारा तो उसके बी ए करने तक उसे अपनी थाली से ही खिलाती रहती थी। बेचारी खुद भूखी रह जाती पर कुन्दन पर आंच न आने देती।

कुंदन और ईशा की शादी।

भगवान की कृपा से कुन्दन की नौकरी भी लग गई। नौकरी की खबर सुनकर उसकी एक सहपाठी ने उसे रिश्ता भेज दिया। यूं तो कुन्दन भी उसके प्यार में कालेज से ही लट्टू हुआ पड़ा था पर वह बड़ा भाव खा रही थी। वह थोड़े बड़े घराने की थी। पर नौकरी लगने के बाद वह कुन्दन से शादी करने को मान गई। रिश्ता तय हुआ और शादी भी हुई। साल भर सब ठीक से रहा। मां बाप ने भी न पूछा दोनों को। सोचा बच्चे हैं। करने दो मस्ती।

साल बाद रविन्द्र की गाड़ी की एक दुर्घटना हुई। इसमें रविन्द्र ने तो अपनी जान ही गवाई और तारा की टांग टूट गई। अब घर का सारा काम कुन्दन और कुन्दन की पत्नी को करना पड़ रहा था।

साल भर के इलाज के बाद तारा भी ठीक तो हो गई थी पर बूढ़े शरीर में दर्द तो बढ़ता ही जा रहा था। ईशा कुछ दिन तो इधर उधर टल कर खुद को घर के कामकाज से बचाती रही और पति से ही खाना भी बनवाती रही और कपड़े भी धुलाती रही।

कुन्दन ने भी मां को बीमार देख चुपके से सब काम किया। परन्तु साल भर बाद एक दिन उसने साफ साफ कह दिया, _ ” बुढ़िया ज्यादा नाटक करने की कोई जरूरत नहीं है। अब तू ठीक हो गई है। पेट भरना है तो खाना खुद बनाया कर और अपने कपड़े खुद धोया कर। वरना चली जा वृद्धाश्रम। पति के मरने के बाद पेंशन मिलती है। आश्रम वाले पाल लेंगे उन्ही पैसों से। हमें न पैसों की जरूरत है और न ही मुझसे ये सब होता।”

कुन्दन ने ईशा को थोड़ा फटकारा। ईशा घर छोड़ कर माइके चली गई। उधर ईशा की मां ने तो और भी आग में घी डालने का काम किया। कुन्दन ईशा के बेगैर रह ही नहीं सकता था। मनाते – मनाते बात यहां तक आ पहुंची कि अब हमारी ईशा उस घर में तभी जाएगी, जब आप अपनी मां को अलग रखोगे या वृद्धा-आश्रम में छोड़ आएंगे।

कुन्दन ने डरते हुए से ईशा से कहा, ” ईशा तुम समझती क्यों नहीं? अभी हम मां को न अकेला रख सकते हैं और न ही तो आश्रम को भेज सकते हैं। अभी पापा को मरे हुए मात्र एक साल ही हुआ है। पति मरा है उसका, और फिर समाज क्या कहेगा?”

ईशा ने सर्पणी की तरह फुंकारते हुए उत्तर दिया, ” पति क्या सिर्फ तेरी मां का ही अनोखा मरा है? संसार में कईयों के पति मरे हैं। मैं कुछ नहीं सुनना चाहती। मैं समाज समूज कुछ नहीं जानती। फैसला तुम्हे करना है। तुम्हे मां चाहिए या फिर मैं? नहीं तो तलाक के पेपर तैयार करो पापा।”

“नहीं बेटी। कुछ दिन का समय इसे और देते हैं।” ईशा के पापा ने शराब का पैग लेते हुए कहा।
कुन्दन शाम को मां से सब सच सच कहता है।

तारा ने कुन्दन से कहा, ” बेटे तेरे पापा ने तो तुझे तभी कहा था कि यह लड़की कुछ ठीक नहीं है बेटा। कोई और लड़की देखते हैं। पर तेरी जिद्द के आगे हमारी एक न चली। अभी भी वक्त है बेटा। वे अगर तलाक मांग रहे हैं तो दे – दे तलाक। वह लड़की तुझे बर्बाद कर डालेगी।”

तारा के इतना कहते ही कुन्दन आग बबूला हो उठा, ” ठीक कहती है ईशा और उसके मम्मा-पापा। तेरे साथ रहना सचमुच ठीक नहीं है। पड़ी रह घर में अकेली। हम रह लेंगे क्वार्टर में। बड़ी आई तलाक दे – दे।”

दोनो पति – पत्नी क्वार्टर में रहने लगे। जितना कुन्दन महीने का कमाता, उससे तीन गुना खर्चे मैडम के थे। घर के काम काज को रखी नौकरानी पैसे न मिलने के कारण नौकरी छोड़ गई। सब काम कुन्दन को खुद करने पड़ते थे।

मैडम जी तो दिन रात व्यस्त ही रहती थी और नशे में चूर। बेटे की हालत देख कर नौकरानी को पैसे देना तारा ने चुपके से शुरू किए, ताकि बेटे पर बोझ न पड़े। कुन्दन पर बैंक का कर्ज भी बहुत हो गया था।

अब वह भी परेशान हो कर और ससुराल की संगत से शराब पीने लग गया था। एक दिन उसने दफ्तर से लौट कर मैडम को किसी गैर मर्द की बाहों में लिपटे देखा तो उससे रहा नहीं गया। उसने सासू मां और ससुर साहब से ईशा की करतूतों की शिकायत की।

उन्होंने उसे जबाव दिया,” तो क्या हुआ? यह तो आजकल आम बात है। हमारी बेटी है ही बहुत सुंदर दामाद जी। आ गया होगा किसी का दिल उस पर। तुम्हारा भी किसी और पर आ जाए तो उसमें क्या गलत है? इस बात पर ज्यादा बबाल करने की कोई जरूरत नहीं है।”

उधर बैक वालों की चिट्ठियों से कुन्दन अलग से परेशान था। कुन्दन को एक दिन दिमागी दौरा पड़ा। वह हस्पताल में कराह रहा था। तारा को नौकरानी ने खबर दी।तारा उसे घर ले आई और उस अपाहिज बुद्धि का इलाज भी करती रही और उसका कर्जा भी भरती गई।

उन बूढ़ी बाहों में अब और इतनी शेष ताकत नहीं थी कि वे इस बुढ़ापे में भी अपने बेटे को अपना पेट काट कर पालती। पर क्या करती? उसे यह सब मजबूरी में करना पड़ रहा था।

मैडम ईशा ने अपने माइके में उसी गैर मर्द के साथ डेरा जमा लिया था। एक दिन तारा उसे घर बुलाने गई तो उसने बेहूदा जवाब दिया, “क्या करूंगी तेरे अपाहिज बेटे के साथ रह कर?”
तारा रोते – रोते घर लौट आई।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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Conclusion:

  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से बखूबी समझाने की कोशिश की है – माता-पिता सदैव ही अपने बच्चे/बच्चियों का भला ही चाहते हैं, उनका कहना जरूर माने, उनके अनुभव का कभी भी मजाक ना बनाये। जो आपके माता-पिता का सम्मान और सेवा नहीं कर सकती/सकता वो आपका सम्मान और सेवा भला क्या करेगी। इसलिए सदैव ही माता-पिता का सम्मान और सेवा करें, उनका कहना माने। कभी भी उनका साथ ना छोड़े, चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थिति क्यों ना आ जाये।

—————

यह लेख/लघु कथा (बदलता दौर।) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख / लघु कथा सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

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आखिर कहां जा रही है भारत की शिक्षा व्यवस्था?

Kmsraj51 की कलम से…..

Table of Contents

  • Kmsraj51 की कलम से…..
    • ♦ आखिर कहां जा रही है भारत की शिक्षा व्यवस्था? ♦
      • सवाल यह खड़ा होता है कि…
      • मजबूरन निजी संस्थानों में दाखिला लेना।
      • 1965 में कोठारी कमीशन।
      • राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020
      • प्रश्न उठता है…
      • सवाल भारतीय शिक्षा व्यवस्था के मूल्यांकन ढांचे पर।
      • शिक्षा प्रणाली की और व्यवस्थाओं की तारतम्यता का ना होना।
      • भारत के बच्चे -बच्चे को सरकारी शिक्षण संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करने का पूरा-पूरा अधिकार प्राप्त हो।
      • देश का होनहार छात्र निराश – हताश।
      • समाज की मानसिकता में बदलाव लाने की जरूरत।
      • अंतरराष्ट्रीय सर्वे में हमारे देश की शिक्षा प्रणाली।
      • सैद्धांतिक शिक्षा प्रणाली से हटकर प्रायोगिक शिक्षा प्रणाली की जरूरत।
      • Conclusion:
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♦ आखिर कहां जा रही है भारत की शिक्षा व्यवस्था? ♦

दिल्ली सिर्फ देश की राजधानी ही नहीं है। वह राजधानी होने के साथ-साथ हिंदुस्तान का दिल और एक महानगर भी है। देश का हर कोई छोटा बड़ा नागरिक अपने बच्चों को यहां के सरकारी शिक्षण संस्थानों में दाखिला लेने के लिए बेताब रहता है। हो भी क्यों ना? हर कोई चाहता है कि मेरे बच्चे को एक अच्छी और किफायती शिक्षा प्राप्त हो। वह शिक्षा किसी अच्छे संस्थान में और अच्छे स्थान में प्राप्त हो।

सबकी सोच होती है कि मेरा बच्चा सेंट्रल यूनिवर्सिटी के अधीन आने वाले शिक्षण संस्थानों में दाखिला लेकर शिक्षा ग्रहण करें। परंतु उन बच्चों और अभिभावकों का सपना तब चूर- चूर हो जाता है जब सेंट्रल यूनिवर्सिटी के अंतर्गत आने वाले सभी शैक्षणिक संस्थानों में बी ए ऑनर्स राजनीतिक शास्त्र, अर्थशास्त्र आदि में भी 100% का कट ऑफ प्रथम सूची में लगाया जाता है। 2015 में यह कट ऑफ कंप्यूटर साइंस में पहली बार लगाया गया था अब तो तकरीबन – तकरीबन सभी विषयों में यह कट ऑफ लगाया जा रहा है।

सवाल यह खड़ा होता है कि…

सवाल यह खड़ा होता है कि यदि 100% ही कट ऑफ लगाया जाएगा तो क्या इससे भी आगे कोई और अंक प्राप्त होते हैं क्या? प्रतिस्पर्धा के इस दौर में गरीब, मजबूर और मेहनती तथा परिश्रमी वह बच्चा तब निराश होता है जब उसके 99.9 प्रतिशत अंक होने पर भी इन संस्थानों में दाखिला नहीं मिलता। तब तो और भी ज्यादा परेशान होता है जब आस – पड़ोस के लोग अपने 100% अंक प्राप्त किए हुए बच्चे का दाखिला इन संस्थानों में करवातें हैं और पड़ोस के 99.9 प्रतिशत अंको को प्राप्त करने वाले बच्चों को या अभिभावकों को चिढ़ाने का काम करते हैं कि मेरे बच्चे का दाखिला तो उस कॉलेज में हो गया है आपके बच्चे का नहीं हुआ क्या?

मजबूरन निजी संस्थानों में दाखिला लेना।

समझ ही नहीं आता कि हमारे देश की शिक्षा प्रणाली किस ढर्रे की ओर चली जा रही है? 100% कट ऑफ लिस्ट कहां तक जायज है? सभी जानते हैं कि सेंट्रल यूनिवर्सिटी के अंतर्गत आने वाले इन कॉलेजों में दूसरी, तीसरी या चौथी कट ऑफ लिस्ट बहुत ही कम निकलती है। यदि निकल भी गई तो उसमें भी 97% अंक प्राप्त करने वाले को ही स्थान मिलेगा।

परंतु जो 90% से ऊपर के अंको को प्राप्त किए हुए अन्य प्रखर बुद्धि के छात्र है, जिनका सपना इन प्रतिष्ठित संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करने का रहा है, वे कहां जाएंगे? उन्हें मजबूरन निजी संस्थानों में दाखिला लेना पड़ता है, जहां लाखों की डोनेशन दे कर के बड़ी महंगी शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती है। आखिर आजादी के 74 साल बाद भी वे क्यों इस खर्चीली शिक्षा व्यवस्था में उलझ कर अपने साथ – साथ अपने परिवार वालों का भी नुकसान करें।

1965 में कोठारी कमीशन।

1965 में कोठारी कमीशन की अनुशंसाओं ने भारत सरकार को भारतीय शिक्षा प्रणाली पर देश की जी डी पी का 6% खर्च करने की अनुशंसा की थी। परंतु कमीशन की एक न मानी गई। वही पुराना शैक्षणिक ढर्रा अद्यतन आजादी के बाद अपनाया जाता रहा है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020

आज राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 लागू जरूर की गई है, जिसमें देश की जी डी पी का 6% शिक्षा पर खर्च करने का दावा भी केंद्र सरकार द्वारा किया जा रहा है। परंतु जनता को न्याय तब तक नहीं मिलेगा जब तक यह सारी बातें जमीनी स्तर पर हकीकत में क्रियाशील नहीं होती।

मात्र घोषणा करवाना और किसी व्यवस्था में प्रावधान करवा देना किसी बात को पूर्ण रूप से फलीभूत होने का प्रमाण नहीं होता। किसी बात की पूर्णता के लिए उसका विधिवत धरातल पर घटित होना बहुत जरूरी होता है।

प्रश्न उठता है…

सवाल खड़े होते हैं कि इतने लंबे अरसे के बाद भी आखिर क्यों देश की राजधानी में सरकारी शिक्षण संस्थानों की बढ़ोतरी नहीं हो पाई? क्यों हर सरकारें ‘थोथा चना बाजे घना ‘वाला राग आलापती रही?

संस्थान वही, संस्थानों में सीटें वही और उस पर छात्रों की तादात निरंतर बढ़ती जा रही है। बढ़ती छात्र तादात के हिसाब से सरकारों को शिक्षण संस्थानों का विकास करना चाहिए था और इन संस्थानों में सीटों की अभिवृद्धि करनी चाहिए थी। परंतु ऐसा नाम मात्र को ही देखने में मिला है।

प्रश्न उठता है क्या सरकार जानबूझकर के भारतीय शिक्षा व्यवस्था को निजी शिक्षण व्यवस्था की झोली में डालने के चक्कर में है या फिर उसे अपने देश में जी रहे नव शिक्षार्थियों की कोई चिंता ही नहीं है?

देश के मानव संसाधन को संचालित करना, व्यवस्थित करना और उनकी सुविधाओं के प्रावधानों को प्रबंधित करना राज्य एवं केंद्र सरकार का संयुक्त दायित्व होता है। परंतु इस मुद्दे पर सब के सब अपना पल्ला झाड़ते हुए से नजर आ रहे हैं। 100% की कटऑफ कहां तक तर्क संगत और न्याय संगत है? इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

सवाल भारतीय शिक्षा व्यवस्था के मूल्यांकन ढांचे पर।

इसमें तो सवाल भारतीय शिक्षा व्यवस्था के मूल्यांकन ढांचे पर भी खड़े होते हैं कि क्या सारे की सारी परीक्षाएं वस्तुनिष्ठ विधि से ही करवाई जाती है? क्या स्कूली शिक्षा प्रणाली के मूल्यांकन में व्याख्यात्मक और सरांशात्मक परीक्षाओं का कोई स्थान नहीं है? यदि है तो फिर 100 में से 100 अंक प्राप्त होने का सवाल ही खड़ा नहीं होता?

आखिर क्यों हमारे देश के शिक्षाविद इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हैं? खैर सरकार और राजनीतिज्ञों से तो इस मामले में बात करना ही बेकार है। एक शिक्षक होने के नाते मैं यह बड़े दावे के साथ कह सकता हूं कि स्कूली शिक्षा में 100 में से 100 अंक प्राप्त करना वर्तमान मूल्यांकन प्रणाली की विश्वसनीयता और वैधता पर कहीं ना कहीं सवाल जरूर खड़े करता है।

क्या एक भी बिंदी की गलती बच्चा नहीं कर रहा है? क्या एक भी सवाल या फिर एक भी शब्द बच्चों से गलत नहीं हो रहा है? इतना ही नहीं भाषा, राजनीतिक शास्त्र, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और गणित जैसे कई विषयों में कहीं ना कहीं बच्चों से जरूर चूक हो जाती है। उन सब चूकों को नजरअंदाज करके 100 में से 100 अंक बच्चों को प्रदान करना कहीं से भी उचित नहीं जान पड़ता।

शिक्षा प्रणाली की और व्यवस्थाओं की तारतम्यता का ना होना।

इससे हम बच्चे को अहम और वहम के चक्रव्यू में डालते जा रहे हैं। और इसके साथ – साथ प्रतिस्पर्धात्मक बुद्धि को रखने वाले छात्रों और अभिभावकों को निराशा और हताशा की ओर धकेलते जा रहे हैं। अधिक से अधिक अंक प्राप्त करना आज के बच्चों और अभिभावकों का एक शौक और फैशन बन गया है।

यदि सर्वाधिक अंक किसी अभिभावक का बच्चा नहीं लाता है तो वह पड़ोसी के बच्चे का उदाहरण देकर उस पर अधिक से अधिक अंक प्राप्त करने का दबाव बनाता है। प्रतिस्पर्धा की इस घिनौनी लड़ाई में वह बच्चा कई बार कम नंबर आने पर आत्महत्या जैसे कदम उठा लेता है, जो कहीं से भी तर्कसंगत और ठीक सिद्ध नहीं होता। इन सब बातों के पीछे मुख्य कारण शिक्षा प्रणाली की और व्यवस्थाओं की तारतम्यता का ना होना ही होता है।

भारत के बच्चे -बच्चे को सरकारी शिक्षण संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करने का पूरा-पूरा अधिकार प्राप्त हो।

जनसंख्या की दृष्टि से शिक्षण संस्थान और उनकी सीटें निरंतर बढ़ती जानी चाहिए न कि स्थिर रहनी चाहिए। कट ऑफ लिस्ट भी 100% कहीं से भी न्याय संगत नहीं हो सकती। निजी शिक्षण संस्थानों के चंगुल से भारतीय शिक्षा व्यवस्था को बाहर निकाल करके भारत के बच्चे -बच्चे को सरकारी शिक्षण संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करने का पूरा-पूरा अधिकार प्राप्त होना चाहिए।

भारत के शिक्षार्थी और अभिभावक का शोषण किसी भी हालत से नहीं होना चाहिए। इन्हीं सब बातों का प्रावधान करना देश की और राज्य की सरकारों का सामूहिक दायित्व होता है। परंतु सरकारें ऐसा कुछ भी नहीं कर रही है। आजादी के इतने दिनों के बाद भी देश में नाम मात्र को ही शिक्षण संस्थानों में वृद्धि की गई है और उन शिक्षण संस्थानों में सीटों के निर्धारण में भी नाम मात्र की ही वृद्धि हुई है।

देश का होनहार छात्र निराश – हताश।

ऐसे में देश का होनहार छात्र निराश – हताश होकर के गलत कदम नहीं उठाएगा तो और क्या करेगा? यहां यह भी स्पष्ट किया जाना जरूरी है कि 90% अंक प्राप्त करने वाला छात्र भी कोई कमजोर नहीं होता। वह भी एक तीव्र बुद्धि और प्रखर व्यक्तित्व होता है। ऐसे में उसे निराश और हताश होने की कोई जरूरत नहीं है बल्कि उसे अपने अस्तित्व को बनाए रखना चाहिए और निरंतर व्यवस्थाओं के साथ संघर्ष करके अपने भविष्य को संवार कर देश के भविष्य को संवारने की कोशिश करनी चाहिए।

निराशा और हताशा में गलत कदम उठाने की अपेक्षा विपरीत परिस्थितियों का सामना करके अपने लिए सफलता के नए रास्ते गढ़ना मानव जीवन का सबसे बड़ा कर्तव्य है। अतः देश के हर नौजवान को इन चुनौतियों से घबराना नहीं चाहिए बल्कि इनको उल्टी चुनौती देकर के इन्हें हराना चाहिए।

समाज की मानसिकता में बदलाव लाने की जरूरत।

समाज की मानसिकता को भी अपने आप में बदलाव लाने की जरूरत है। यदि आपके बच्चों ने सर्वाधिक अंक प्राप्त कर भी लिए हैं तो ऐसे में दूसरों को चिढ़ाने और जलील करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए बल्कि एक अच्छे नागरिक होने के नाते और एक अच्छा पड़ोसी होने के नाते या फिर एक अच्छा रिश्तेदार होने के नाते हमें एक दूसरे को निरंतर प्रोत्साहित करना चाहिए।

अंतरराष्ट्रीय सर्वे में हमारे देश की शिक्षा प्रणाली।

सवाल यह भी खड़ा होता है कि यदि 100% अंक प्राप्त करने योग्य प्रतिभाएं निखारने की क्षमता हमारे देश की शिक्षा प्रणाली रखती है तो फिर वैश्विक शिक्षण पायदान पर अपने आप को लड़खड़ाता हुआ सा महसूस क्यों करती है? क्यों अंतरराष्ट्रीय सर्वे में हमारे देश की शिक्षा प्रणाली को विशेष स्थान प्राप्त नहीं होता?

किसी अमीर धनवान और रसूखदार घर आने का बच्चा तो निजी शिक्षण संस्थानों में शिक्षा ग्रहण कर भी ले परंतु मध्यवर्ग और गरीब सर्वहारा वर्ग का होनहार छात्र इस 100% कटऑफ की व्यवस्था वाली शिक्षा प्रणाली में पिछड़ जाएगा।

.001 प्रतिशत से कटऑफ सूची में दाखिला ना मिलने के कारण एक तो वह बेचारा सरकारी शिक्षण संस्थानों से न्यारा रहेगा और उधर पैसों की तंगी के चलते उसे निजी स्कूलों से भी बाहर ही रहना पड़ेगा। ऐसे में उसकी अभिलाष, उसकी प्रतिभा और उसका स्वाभिमान सबका सब चोटिल हो जाता है।

सैद्धांतिक शिक्षा प्रणाली से हटकर प्रायोगिक शिक्षा प्रणाली की जरूरत।

समय रहते ही यदि देश की सरकारों ने इस दिशा की ओर ध्यान नहीं दिया तो देश में कुंठा और अराजकता का वातावरण धीरे – धीरे बढ़ता चला जाएगा। सैद्धांतिक शिक्षा प्रणाली से हटकर प्रायोगिक शिक्षा प्रणाली पर जब तक जोर नहीं दिया जाएगा तब तक राष्ट्रीय शिक्षा नीति का समूचा मसौदा भी बेकार ही सिद्ध होगा।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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Conclusion:

  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से बखूबी समझाने की कोशिश की है – सैद्धांतिक शिक्षा प्रणाली से हटकर प्रायोगिक शिक्षा प्रणाली पर जब तक जोर नहीं दिया जाएगा तब तक राष्ट्रीय शिक्षा नीति का समूचा मसौदा भी बेकार ही सिद्ध होगा। 100% कटऑफ की व्यवस्था वाली शिक्षा प्रणाली को हटाना होगा।

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यह लेख (आखिर कहां जा रही है भारत की शिक्षा व्यवस्था?) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने की राह में कौन बना है रोड़ा?

Kmsraj51 की कलम से…..

Table of Contents

  • Kmsraj51 की कलम से…..
    • ♦ हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने की राह में कौन बना है रोड़ा? ♦
      • इतिहास से लेकर वर्तमान तक को एक नजर में।
      • भारतीय संविधान में केवल दो ऑफिशियल भाषाओं को स्थान।
      • द्विभाषी पद्धति को मान्यता।
      • मुख्यतः चर्चित विवाद।
      • मानसिक रूप से आज भी हम अंग्रेजी के गुलाम है।
      • प्रायोजित साजिश तो नहीं है?
      • अंग्रेजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने का भूत।
      • संत श्रेष्ठ तुलसीदास जी।
      • शिक्षा संबंधी एक बार खड़ी करना चाहते हैं।
      • मुझे राष्ट्रभाषा का दर्जा दो।
      • विश्व में शिक्षा के क्षेत्र में एजुकेशन हब।
      • यह भी सत्य है।
      • समूची शिक्षा प्रणाली भारतवर्ष में हिंदी होना चाहिए।
      • नई शिक्षा नीति।
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♦ हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने की राह में कौन बना है रोड़ा? ♦

भारत के हिन्दी भाषी क्षेत्रों के अधिकांश पढ़े-लिखे लोग भी यही मानते है कि भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी है। यह जरूर है कि भारतीयों ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा मान लिया है परंतु हमें शायद यह ज्ञान नहीं है कि संवैधानिक तौर पर हिन्दी आज भी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है। भले ही समूचे विश्व में हिन्दी को जानने वाले लोगों की तादाद 200 करोड़ से अधिक हो चुकी है, पर हिन्दी को अपने देश में न्याय नहीं मिल पाया है।

इतना ही नहीं संस्कृत भाषा की तकनीक को संगणकीय पृष्ठभूमि पर खरा पाए जाने के कारण आज हिन्दी को वैश्विक भाषा के रूप में प्रतिस्थापित किए जाने की मुहिम शुरू हो चुकी है क्योंकि संस्कृत तो अब अधिकतर चलन की भाषा नहीं रही, पर उससे उद्भूत हिन्दी को यह सम्मान दिए जाने की पूरी पैरवी की जा रही है। पर भारत में हिन्दी नगण्य क्यों है? इसके लिए हमें इतिहास से लेकर वर्तमान तक को एक नजर में जरूर देखना होगा।

इतिहास से लेकर वर्तमान तक को एक नजर में।

भारतीय इतिहास का ज्ञान रखने वाले प्रत्येक भारतीय को यह पूरी तरह से मालूम है कि हजारों वर्ष तक भारत की भाषाएं राजकाज के कार्यों से विदेशी आक्रांताओं की शासकीय पकड़ के चलते नदारद रही। मुगल शासन काल में राजकाज की भाषा अरबी और फारसी रही और उसके बाद अंग्रेजी शासन काल में यह स्थान अंग्रेजी ने लिया। भारत को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाने के लिए आजादी की लड़ाई लड़ने वालों का एक लंबा चौड़ा इतिहास है।

उसी इतिहास में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एक विशेष स्थान रखते हैं। उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए विशेष प्रयास किए थे। इसी के चलते उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने के लिए सन 1917 में भरूच (गुजरात) में पहली बार हिंदी को राष्ट्रभाषा का नाम दिया था। इस मुहिम में नेहरू जी ने भी गांधी जी का साथ दिया था, यह भी पढ़ने को मिलता है। इसी के चलते आजादी के बाद इस मुद्दे पर भारतीय नेताओं के दो गुट बने, जिसके चलते संविधान सभा ने 14 सितंबर 1949 को मुंशी आयंगर समझौते के तहत हिन्दी को संस्कृत की लिपि देवनागरी में टंकित किए जाने और राजभाषा का दर्जा दिए जाने की बात स्वीकार की।

भारतीय संविधान में केवल दो ऑफिशियल भाषाओं को स्थान।

भारतीय संविधान में केवल दो ऑफिशियल (राजभाषा भाषाओं) भाषाओं (अंग्रेजी और हिंदी) को स्थान दिया गया है। वहां किसी भी राष्ट्रभाषा का जिक्र न होने के कारण शायद हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने के संदर्भ में एक बहुत बड़ा अड़ंगा बन गया है। इसमें यह भी जिक्र किया गया था की 26 जनवरी 1950 को भारत के संविधान के लागू होने से लेकर 26 जनवरी 1965 तक धीरे-धीरे अंग्रेजी का प्रयोग शासकीय कार्य में कम किया जाएगा और 15 सालों के बाद हिन्दी में ही भारत के शासकीय कार्य किए जाने हैं।

1950 में संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के तहत देवनागरी लिपि में हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया। ये राजभाषा संबंधी प्रावधान संविधान में अनुच्छेद 343 से 351 तक अंकित किए गए हैं। 14 सितंबर 1953 को राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के अनुरोध पर पहली बार हिंदी दिवस मनाया गया था। धीरे-धीरे हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की मुहिम और तेज होने लगी। इसमें हिन्दी के पक्षधर नेता बालकृष्ण और पुरुषोत्तम दास टंडन के आंदोलनों ने विशेष भूमिका निभाई।

1960 में राष्ट्रपति के आदेश पर इस संबंध में एक आयोग बना। 1963 में राजभाषा अधिनियम पारित हुआ जिसके तहत राजभाषा के प्रयोग से सम्बन्धित तीन क्षेत्र क, ख, ग बनाए गए। इस अधिनियम में यह तय किया गया कि हिन्दी और अंग्रेजी के अलावा अन्य भाषा में किए गए पत्राचारों के जवाब:-

1. क क्षेत्र के राज्यों को हिन्दी में ही दिए जाएंगे।
2. ख क्षेत्र से प्राप्त अन्य भाषाई पत्रों का जवाब 60% हिन्दी और अंग्रेजी में तथा बाकी 40% सिर्फ अंग्रेजी में ही दिए जाएंगे।
3. ग क्षेत्र से प्राप्त ऐसे पत्राचारों का जवाब 40% हिन्दी और अंग्रेजी में और बाकी सिर्फ अंग्रेजी में दिया जाएगा।

ये प्रावधान संविधान में निर्दिष्ट संविधान लागू होने की 15 सालों के बाद हिन्दी को अधिमान दिए जाने के तहत किए गए।

द्विभाषी पद्धति को मान्यता।

1965 में जब कांग्रेस सरकार ने पूरे भारत में हिंदी के प्रयोग को सर्वत्र अनिवार्य किए जाने पर चर्चा की तो तमिलनाडु में इसके विरोध में हिंसक प्रदर्शन हुए। भले ही ये प्रदर्शन राजनीति प्रेरित थे, परंतु कांग्रेस वर्किंग कमिटी ने इन प्रदर्शनों को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय लिया कि जब आजादी के 15 साल बाद भी पूरे भारत के सभी राज्य हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में ग्रहण करने को तैयार नहीं है तो यह फैसला वापस ले लेना चाहिए। इसी के चलते सन 1967 मैं पुनः 1963 के राजभाषा अधिनियम को संशोधित किया गया और पुनः शासकीय कार्य में राजभाषा के रूप में द्विभाषी पद्धति को मान्यता प्रदान की गई। ये दो भाषाएं वहीं पूर्व की अंग्रेजी और हिन्दी थी।

1971 मैं क्षेत्रीय भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में जोड़ने की कवायद तेज हुई। इसमें आजादी के समय में तो 14 भाषाएं जोड़ी गई थी। बाद में ये 17 हुई और अब 2007 तक इनकी संख्या 22 हो चुकी है। एक यह भी मुहिम चली कि इन्हें भी राजभाषा का दर्जा दिया जाना चाहिए। ये भारतीय संविधान में भाषा अधिनियम के तहत भाषाएं तो स्वीकारी गई परंतु राजभाषा का दर्जा इन्हें पूर्ण तौर से नहीं दिया गया शायद।

फिर 1976 में राजभाषा अधिनियम की धारा 4 के तहत राजभाषा संसदीय समिति बनाई गई, जिसने राष्ट्रपति की अनुशंसा पर राजभाषा नीति बनाकर लागू की। अब राजभाषा विभाग मासिक, त्रैमासिक और अर्धवार्षिक सतत निगरानी व विश्लेषण भी करता है और समेकित रिपोर्ट 30 सदस्यों वाली (जिसमें 10 सदस्य राज्यसभा तथा 20 सदस्य लोकसभा के होते हैं) संसदीय राजभाषा समिति को सौंपता है। यह संसदीय समिति अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपती है।

हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने के संबंध में गुजरात हाईकोर्ट में भी एक याचिका दायर की गई थी। 25 जनवरी 2010 को इस याचिका का फैसला सुनाते हुए हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता की दलीलों के आधार पर यह निर्णय दिया था कि जो दलीलें भारत में अधिकतर लोग हिन्दी भाषा बोलने और जानने वाले हैं आदि – आदि के आधार पर दी जा रही है। वे कहीं भी किसी रिकॉर्ड में अंकित नहीं है और न ही इसका कोई स्पष्ट आंकड़ा किसी रिकॉर्ड में अंकित है। इसके अलावा संविधान में भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने की बात अंकित नहीं है। अतः यह पैरवी निराधार है। कोर्ट की इस टिप्पणी के बाद यह मामला पुनः ठंडे बस्ते में चला गया।

मुख्यतः चर्चित विवाद।

रही बात हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने वाले गुट और न देने वाले गुट की तो उसमें मुख्यत ये विवाद चर्चित रहे:-

1. हिन्दी का विरोध करने वाले गुट का यह मानना है कि जब भारत के 29 में से 20 राज्यों में हिन्दी बोलने वाले लोग बहुत ही कम है, तो फिर हिंदी को ही राष्ट्रभषा का दर्जा क्यों दिया जाए? राष्ट्रभाषा तो वह होनी चाहिए जिसे समूचे देश के अधिकतर भागों के लोग जानते, बोलते और समझते हो।

2. जो राज्य हिन्दी भाषी चिन्हित किए भी गए हैं, उनमें भी अधिकतर क्षेत्रों में जनजातिय और क्षेत्रीय भाषाएं बोली और समझी जाती है। ऐसे में उन्हें भी हिन्दी भाषी चिन्हित करना न्याय संगत नहीं है।

3. हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने वालों की यह दलील कि देश की पूर्ण जनसंख्या का 50% हिस्सा हिंदी बोलता और समझता है तथा शेष गैर हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लोगों का भी 20% हिस्सा हिन्दी समझता है। ऐसे में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा मिला ही चाहिए।
उस पर विरोधी विद्वान टिप्पणी करते हैं कि जिन 50% लोगों की आप बात करते हैं, उनमें से अधिकतर जनजातिय और क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग करते हैं। तो फिर वे हिन्दी भाषी कैसे सिद्ध हुए?

4. हिन्दी विरोधी विद्वानों का तर्क यह भी है कि भारत में हिंदी से भी पुरानी तमिल, कन्नड़, तेलुगू , मलयालम, मराठी, गुजराती, सिंधी, कश्मीरी ओड़िया, बंगला, नेपाली और असमिया जैसी भाषाएं हैं। तो ऐसे में इनसे कहीं बाद दिल्ली के आसपास की चर्चित खड़ी बोली से विकसित हिन्दी को कैसे राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाए?

तर्क – वितर्क का यह सिलसिला तो तब तक चलता ही रहेगा जब तक किसी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिल जाता। चर्चा में तो यह भी एक विषय उठता है कि संविधान सभा के समक्ष नेहरू जी ने यह भी प्रस्ताव रखा था कि हिन्दी और अंग्रेजी दोनों को ही राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाए, परंतु वह प्रस्ताव भी खारिज कर दिया गया था। खैर कुछ भी हो। किसी भी राष्ट्र की निजी पहचान और उन्नति के लिए उसकी अपनी राष्ट्रभाषा का होना बहुत जरूरी होता है। इस संबंध में हमारा भारत देश आज तक बौना है। एन डी ए सरकार ने 2014 में अपने मंत्रियों और अधिकारियों को सारे शासकीय कार्य हिन्दी में करने की हिदायत जरूर दी थी, परंतु हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के संदर्भ में वह भी चुप्पी साधे है।

मानसिक रूप से आज भी हम अंग्रेजी के गुलाम है।

बड़े हैरत में डालता है संविधान समिति का वह निर्णय, जिस निर्णय ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं बल्कि राजभाषा का दर्जा दिलाया। सब जानते हैं कि एक लंबी जद्दोजहद के बाद भारत मुश्किल से अंग्रेजों की गुलामी से छुटकारा प्राप्त करता है। असल में यह गुलामी आज भी बरकरार है। यह सत्य है कि भारत का प्रत्येक नागरिक शारीरिक रूप से आज अंग्रेजी हुकूमत से आजाद हो चुका है, परंतु इस सत्य को भी झूठलाया नहीं जा सकता कि मानसिक रूप से आज भी हम अंग्रेजी के गुलाम है।

14 सितंबर 1949 को हमारे संविधान में हिंदी को राजभाषा का दर्जा तो दिया गया, परंतु हिंदी की हालत आज भी ऐसी है कि मानो अपने ही घर में अपनी ही मां के साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा हो। न्यायालय की बड़ी-बड़ी टिप्पणियां, बहसें और न्याय प्रक्रिया के बाद आने वाले निर्णय के लिखित प्रारूप, चिकित्सा व्यवस्था की सारी लिखित और मौखिक जानकारी, शिक्षा व्यवस्था के वैज्ञानिक पहलुओं का लिखित एवं मौखिक ढांचा तथा अधिकतर उच्च प्रतियोगिताओं की परीक्षा भाषा आज भी अंग्रेजी ही बनी हुई है।

इतना ही नहीं, ये सब प्रारूप इतने जटिल और दुरूह होते हैं कि इन व्यवसायों और प्रक्रियाओं पर जिसने शिक्षा प्राप्त नहीं कर रखी है, उस शिक्षित व्यक्ति को भी इन प्रारूपों और व्यवस्थाओं की भाषा शैली को समझाने के लिए, इन्हीं व्यवसायों में काम करने वाले लोगों के पास जाना पड़ता है।

भले ही इन व्यवसायों के अंतर्गत काम न करने वाला व्यक्ति कितना ही पढ़ा लिखा क्यों न हो? या यूं कहें कि उसे अंग्रेजी का कितना ही अच्छा ज्ञान क्यों न हो फिर भी उसे इन प्रारूपों और व्यवस्थाओं को समझने में कहीं न कहीं दिक्कत आ ही जाती है। ऐसे में उसे पढ़ा – लिखा होने के बावजूद भी कई बार लाखों का खर्चा मात्र इन चीजों को समझने और समझाने के लिए ही मुफ्त में करना पड़ता है।

प्रायोजित साजिश तो नहीं है?

समझ ही नहीं आता कि आखिर क्यों इन व्यवस्थाओं को आजादी के आज 74 साल बाद भी अंग्रेजी में प्रारूपित किया जाता है? किया भी जाता है तो फिर भी सवाल उठता है कि क्यों इतना जटिल भाषा शैली में यह सब लिखा जाता है? और देखिए! राजस्व विभाग की भाषा शैली आज भी मुगलिया सल्तनत के दौर की ही बरकरार है। फिर तो जहन में सवाल कौंधे गा ही कि कहीं यह एक सोची-समझी और प्रायोजित साजिश तो नहीं है?

भारत की अधिकांश जनता हिन्दी बोलती है, हिन्दी जानती है और हिन्दी समझती है। उसके बावजूद भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा आज तलक प्राप्त नहीं हो सका। राजभाषा होने के बावजूद भी राजकाज के अधिकतर कार्य आज तक अंग्रेजी में ही संपादित किए जाते हैं। सबसे बड़ी हैरत तो तब होती है, जब एक छोटे से छोटे कार्यालय का सामान्य दस – बारह पढ़ा-लिखा बाबू भी बड़े रूआब से जवाब देता है, “सर अंग्रेजी में बोलिए अंग्रेजी में, हिन्दी मुझे लिखनी नहीं आती।”

भले ही उसे अंग्रेजी समझ नहीं आती हो पर चिट्ठी वह भी अंग्रेजी में ही लिखता है। फिर चाहे उसे उसके लिए नकल ही क्यों ना मारनी पड़े? फिर हर कार्यालय में वही रटी रटाई अंग्रेजी की प्रारूपित चिट्ठियां अंग्रेजों के जमाने से आज तक प्रचलित है। कोई कुछ नया अपनी मौलिक शब्द शक्ति के साथ करना चाहे, तो कार्यालय के बड़े अधिकारी पुनः ड्राफ्टिंग करवाते हैं। यानी नकल करो बस। नया बिल्कुल भी न सोचो। यह उनका दोष नहीं है। यह तो हमारी अंग्रेजी मानसिकता का दोष है।

अंग्रेजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने का भूत।

आज के दौर में तो एक और नया भूत लोगों पर सवार हुआ है। अंग्रेजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने का भूत। बड़े-बड़े कान्वेंट स्कूल में तो व्यवस्था यह भी है कि बच्चों को दाखिल करवाने से पहले उनके अभिभावकों का टेस्ट होता है। यदि उन्हें अंग्रेजी बोलनी और समझनी न आए तो उनके बच्चों को इन कॉन्वेंट स्कूलों में दाखिला नहीं दिया जाता। ऐसी स्थिति में उन अभिभावकों को मायूस होना पड़ता है। आखिर इसमें बच्चों का क्या दोष?

भले ही हिन्दी स्कूल कितना ही अच्छा क्यों न हो? वहां पर कितने ही पढ़े लिखे और प्रशिक्षित अध्यापक क्यों न हो? फिर भी लोगों की मानसिकता शटर में चलने वाले अंग्रेजी स्कूलों के प्रति इतनी दृढ़ है कि जिसे तोड़ पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।

जब किसी कारोबार की बात होती है तो तब सारा का सारा बड़ा कारोबार हिन्दी में किया जाता है। राजनीति की भाषा (भाषण)हिन्दी। फिल्मी कारोबार की भाषा हिन्दी। प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की अधिकतम भाषा हिन्दी।

अरे भाई जब अंग्रेजी इतनी महत्वपूर्ण है तो फिर ये सब कारोबार भी अंग्रेजी में ही क्यों नहीं करते हो? सवाल तो बनता है। शायद इसलिए कि इन कारोबारों का उपभोक्ता या मतदाता आम व्यक्ति है, जिसे अंग्रेजी नहीं आती। कमाई तो उसी से करनी है। कमाने के लिए हिंदी और भुनाने के लिए अंग्रेजी। वाह! यह कैसी आजादी और कैसी व्यवस्था?

संत श्रेष्ठ तुलसीदास जी।

हमें याद है कि संत श्रेष्ठ तुलसीदास जी ने संस्कृत की अधिकृतता को चुनौती देते हुए अवधि में जब रामायण को लिखना शुरू किया था तो लोगों ने उनकी प्रतिलिपि को ही पानी में फेंक दिया था। क्योंकि संस्कृत को जानने वाले वर्ग के भीतर एक खासा आक्रोश था, कि कहीं यह महान ग्रंथ आम जन भाषा में संपादित हो गया तो हमारी प्रतिष्ठा और रोटी को बट्टा लग सकता है।

जिस तरह से वे नहीं चाहते थे कि आम जनता को इस समूची महाविद्या का सरल ज्ञान हो जाए, ठीक उसी तरह आजाद भारत का एक तथाकथित प्रतिष्ठित और शारीरिक रूप से आजाद तथा मानसिक रूप से अंग्रेजी का गुलाम वर्ग भी शायद यह नहीं चाहता कि भारत की आम जनता को उसकी जन भाषा में उपरोक्त सभी जटिल भाषाई पहलुओं के साथ जटिल विषयों का ज्ञान प्राप्त हो जाए। यदि ऐसा हुआ तो सभी व्यक्ति कानून के अच्छे खासे जानकार हो जाएंगे। सभी को चिकित्सा संबंधी और राजस्व संबंधी सूक्ष्म से सूक्ष्म जानकारियां स्वयं प्राप्त हो जाएगी।

आम जनता का मेहनती और बुद्धिमान बच्चा बड़े-बड़े ओहदों को प्राप्त कर लेगा। जनता इतनी चालाक हो जाएगी कि वह हुक्मरानों, अफसरानों और बड़े – बड़े कारोबारियों के नको दम कर देगी। अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। इसके बिना आज की दुनियां में जीना असंभव है। आदि – आदि बातें इतनी ज्यादा सशक्त नहीं है, जीतने की इन तथाकथित अंग्रेजी मानसिकता के गुलाम लोगों के निजी स्वार्थ है।

शिक्षा संबंधी एक बार खड़ी करना चाहते हैं।

ये लोग जानबूझकर आम जनमानस और विशिष्ट जनमानस के बीच में शिक्षा संबंधी एक बार खड़ी करना चाहते हैं ताकि इनकी और इनके परिवारों की प्रतिष्ठा और विशिष्टत्व बना रहे। बाकी जनमानस इनके आगे हाजिर सलामी करता रहे। यदि ऐसा नहीं है तो फिर विश्व के अनेक विकसित देशों के लोग अपनी भाषा को महत्व देकर तरक्की क्यों कर रहे हैं।

उदाहरण के तौर पर हमारे पड़ोसी देश चीन को ही लिया जाए। क्या वह वैश्विक धरातल पर खड़ा नहीं हुआ है? खड़ा होना ही नहीं बल्कि उसे तो वैश्विक धरातल पर दौड़ना आता है।

यह बात अलग है कि आज वह करोना, सीमा विवादों, तथा कूटनीतिक राजनीतिक हलचलों के चलते चौतरफा घिरा हुआ है, परंतु इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि उसने आज जो तरक्की प्राप्त की है वह अपनी भाषा के बलबूते ही प्राप्त की है।

उसने सूक्ष्म से सूक्ष्म विज्ञान को अपनी जन भाषा में लोगों को मुहैया करवाया और प्रत्येक व्यक्ति को इतना दक्ष बनाया कि वह छोटे से लेकर बड़ा प्रोडक्ट तैयार करने के लिए सक्षम है।

हमारे भारत में हमारे बच्चों की आधी जिंदगी तो अंग्रेजी सीखने में ही गुजर जाती है। जब उसे अंग्रेजी का थोड़ा बहुत ज्ञान होता है तो तब वह कहीं वैज्ञानिक पहलुओं को समझने लगता है। जितने को वह इन वैज्ञानिक पहलुओं की थोड़ी सी समझ तैयार करता है, उतने को उसकी जिंदगी ढल चुकी होती है।

मुझे राष्ट्रभाषा का दर्जा दो।

हमारी तो आज हालत यह है कि हम न तो अंग्रेजी के हो पा रहे हैं और न ही हिन्दी के रह गए हैं। हिंदी ने हर भाषा को अपने भीतर समेटा। तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशी आदि विशाल शब्दकोश के साथ अब हमारे सामने खड़ी है। हमें पुकार रही है कि “मैं तुम्हारे हिसाब से हर तरह से ढलने को तैयार हूं, पर तुम मेरा दर्द समझो और मुझे राष्ट्रभाषा का दर्जा दो। मुझे हजारों सालों से आक्रांताओं के द्वारा कुचलने की पूरी कोशिश की गई, पर मैं तुम्हारे लिए आज तक जिंदा हूं।”

दुख तब होता है जब आजादी के इतने लंबे दौर के बाद भी हम अपने देश की जन भाषा को राष्ट्रभाषा का सम्मान नहीं दे पा रहे हैं। माना कि उस दौर में सब कुछ अंग्रेजी में और मुगलिया सल्तनत की भाषा शैली में प्रारूपित था। उस सब को एकदम से तब्दील नहीं किया जा सकता था।

परंतु आज तक तो धीरे-धीरे सब कुछ बदला जाना चाहिए था ना। फिर क्यों नहीं बदला गया? क्या यह एक साजिश है? ऐसे बहुत सारे सवाल आज की नई पीढ़ी के भीतर घर कर रहे हैं। हमारी हालत आज ऐसी हो गई है कि एक वाक्य में यदि चार शब्द हम अंग्रेजी के रूआब झड़ने के लिए बोलना शुरू करते हैं तो हर पांचवा शब्द हिन्दी का बोलना ही पड़ता है।

यह हालत बड़े से बड़े तथाकथित विद्वानों की भी कई बार हो जाती है। ऐसे में क्यों फिर यह बवंडर बना कर रखा है? क्यों न हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्रदान करके भारतीय जनमानस के शैक्षिक धरातल पर प्रस्तुत किया जाता है? ताकि आम व्यक्ति लूटने से बचे और अपने भारत के पुरातन विज्ञान को अपनी जन्म भाषा में खंगाल कर भारत को पुनः विश्व गुरु के स्थान पर स्थापित कर सकें।

विश्व में शिक्षा के क्षेत्र में एजुकेशन हब।

हम इतिहास को जानते है। हमें यह मालूम है कि एक समय भारत और चीन दो ऐसे देश थे जो पूरे विश्व में शिक्षा के क्षेत्र में एजुकेशन हब माने जाते थे। भारत की तक्षशिला और नालंदा यूनिवर्सिटी पूरे विश्व में शिक्षा के लिए विख्यात थी।

क्या वहां पर उस दौर में अंग्रेजी में शिक्षा दी जाती थी? नहीं ऐसा नहीं है। यदि उस दौर में हमारी जन भाषा में या फिर संस्कृत में शिक्षा ग्रहण करने लोग बाहर से हमारे देश में आते थे, तो आज भी आ सकते हैं।

परंतु इस सब के लिए राजनीतिक दृढ़ इच्छाशक्ति का होना और भारतीय जनमानस को अंग्रेजी मानसिकता की गुलामी से मुक्त करवाना बहुत जरूरी है। चीन ने तो अपनी भाषा को आज तक बनाए रखा है, इसीलिए वह आज विकसित की श्रेणी में है शायद। और एक हम हैं कि अपनी भाषा को तवज्जो ही नहीं देना चाहते।

आज लोग अधिकतर मैकाले को ही हिन्दी की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। मैं कहूंगा इसमें न तो अंग्रेजी का दोष है और न ही तो मैकाले का। वे दोनों सन 1947 में भारत छोड़कर चले गए थे। फिर क्यों आजाद भारतीयों ने उनके द्वारा स्थापित किए गए मापदंडों को हारिल की लकड़ी की तरह पकड़ के रखा?

क्या हमारे आजाद देश की राजनीति, व्यवस्था और जनता इतने आलसी हो गए कि आजादी के 74 साल बीत जाने के बाद भी उन अंग्रेजों और मुगलों द्वारा प्रतिस्थापित किए गए मापदंडों को हटाकर हिंदी में प्रतिस्थापित नहीं कर सके? यह दोष न मुगलों का है और न ही तो अंग्रेजों का है।

यह हमारी राजनैतिक और व्यवस्था जनक साजिशों का परिणाम है। आज पार्टियां भले ही एक दूसरे के सिर पर इस बात का ठीकरा फोड़ती हो। परंतु यह कटु सत्य है कि ये सब पार्टियां सत्ता में बारी बारी से आ चुकी है। सब का यही परिणाम है। इसके लिए जनता भी कम उत्तरदाई नहीं है।

विदेशों में प्रतिष्ठित लोगों के घरों में भी अपनी भाषा की पत्रिकाएं और समाचार पत्र पढ़ने को मिलेंगे। एक हमारा देश है, जिसमें बड़े – बड़े घरानों में अपनी भाषा के पत्र – पत्रिकाओं के स्थान पर अंग्रेजी भाषा के अखबार या पत्रिकाएं पढ़ने को मिलेंगे। हमारे भारत के उच्च मध्यवर्गीय या फिर उच्च वर्गीय लोग तो इसको अपनी शान समझते हैं और हिन्दी में कुछ पढ़ना – लिखना अपनी तौहीन समझते हैं।

यह भी सत्य है।

यह भी सत्य है कि देश की सत्ता और व्यवस्था में इन्हीं लोगों का सिक्का चलता है। आम जनता का उसमें कोई लेना-देना नहीं होता। वह तो महज वोटर थी, है और रहेगी शायद।

फिर क्यों जनाक्रोश का बहाना बनाकर हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया जाता? यदि ये तीन समुदाय के लोग अपनी एंठ और राजनैतिक स्वार्थ छोड़ दें, तो भारत के किसी भी प्रांत और किसी भी धर्म, जाति तथा संप्रदाय के लोग हिंदी को राष्ट्रभाषा स्वीकार करने से कभी मना नहीं करेंगे।

समूची शिक्षा प्रणाली भारतवर्ष में हिंदी होना चाहिए।

वैश्विक धरातल पर आज हिंदी का बोलबाला धीरे-धीरे हो रहा है। हमारे कई कवि महोदय और धर्मगुरु विदेशों में अपने धर्म का प्रचार – प्रसार और कविताओं का प्रचार – प्रसार करने जाते हैं।

करोड़ों की तादात में लोग विदेशों में भी उनके अनुयाई बन चुके हैं, तो फिर हमारी सरकारें और व्यवस्थाएं यह कैसे कह सकती है कि हिन्दी वैश्विक धरातल पर प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकती? अंग्रेजी पूरे विश्व की भाषा है, इसलिए इसे महत्व देना ही होगा।

इन प्रचार – प्रसारों से यह स्वयं ही सिद्ध हो जाता है कि हिन्दी कमजोर नहीं है, कमजोर है तो वह है हमारी अपनी मानसिकता। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनने की राह में यदि कोई रोड़ा है तो वह हमारी अंग्रेजी की गुलाम मानसिकता ही है, दूसरा कोई नहीं है।

अंग्रेजी बुरी नहीं है और न ही तो कोई दूसरी भाषा बुरी है। परंतु मेरे कहने का अर्थ यह है कि इन भाषाओं को मात्र एक विषय के रूप में, अन्य भाषाओं को सीखने की दृष्टि से स्कूलों कालेजों में पढ़ाया जाना चाहिए।

न कि इन्हें समूची शिक्षा प्रणाली का माध्यम बनाना चाहिए। समूची शिक्षा प्रणाली का यदि कोई माध्यम हो, तो भारतवर्ष में वह हिंदी होना चाहिए। मुझे नहीं लगता कि ऐसा करने से देश को कोई घाटा होगा बल्कि उल्टा मुनाफा होगा।

नई शिक्षा नीति।

आज जो नई शिक्षा नीति भारत में अधिसूचित की गई है उसमें प्रारंभिक स्तर पर स्थानीय भाषाओं को महत्त्व जरूर दिया गया है, परंतु हिन्दी को पूर्ण मान – सम्मान वहां भी नहीं मिल पाया है।

उच्च शिक्षाओं की किताबे फिर से उन्हीं जटिल भाषा और शिल्प में ही पढ़नी पड़ेगी। एक लंबे अरसे के बाद बड़ी जद्दोजहद के बाद भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने इस मसौदे को मंजूरी दी। पर उस मंजूरी में भी हिन्दी को न्याय नहीं मिल सका। प्रारंभिक स्तर में तो पहले भी ऐसी व्यवस्था थी।

हम लोगों ने अंग्रेजी पांचवी या छठी के बाद पढ़ी है। मेरे हिसाब से यह हिन्दी के लिए कुछ ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं हो पाया है। महत्वपूर्ण तो तब होता जब उच्च शिक्षा व्यवस्था में भी हिन्दी भाषा में ही शिक्षा देने का प्रावधान किया जाता। परंतु यह हमारे देश के शिक्षाविदों को और सत्ता धारियों को रास नहीं आया शायद।

आजादी से आज तक निरंतर राष्ट्रभाषा हिन्दी बनने का सपना बहुतों ने संजोया और वह अभी तक संजोया हुआ ही रह गया है। बस उम्मीद बाकी है कि एक न एक दिन यह सपना जरूर पूरा होगा। अब देखना यह है कि इस मुद्दे पर कौन कब क्या करता है? मेरे देश की आम जनता को कब न्याय मिलता है?

नोट: यह आर्टिकल बड़ा है, अगर आप एक बार में पूरा आर्टिकल नहीं पढ़ पा रहे है तो घबराये नही, आर्टिकल के लिंक को अपने लैपटॉप या कंप्यूटर / स्मार्टफोन के ब्राउज़र पर बुकमार्क कर ले, जिससे आप इस आर्टिकल को दो से तीन बार में पूरा पढ़ ले।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से बखूबी समझाने की कोशिश की है – हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने की राह में आखिर कब तक रुकावट आता रहेगा। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का कब और किसके द्वारा क्या प्रयास हुआ, इसका विस्तार से वर्णन किया है। हिन्दी भाषा के महत्व को भी समझाया है, सभी जानते है की भारत देश में एकमात्र हिंदी भाषा ही राष्ट्रभाषा बनने लायक हैं। आखिर क्यों हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं बनाया जा रहा है। क्यों हम अंग्रेजो की बनाई हुई नीति को आज तक ढ़ो रहे है। अपने आप से हम सभी क्यों प्रश्न नहीं करते की – मानसिक रूप से आज भी हम अंग्रेजी के गुलाम क्यों है। बहुत जल्द हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना ही होगा, इसके अलावा और कोई चारा नहीं है। किसी भी देश के विकास के लिए एक राष्ट्रभाषा का होना बहुत जरूरी है।

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यह लेख (हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने की राह में कौन बना है रोड़ा?) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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जनता सकपकाई है।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ जनता सकपकाई है। ♦

बक्सर के गंगा घाट में बहती, लाशें देती गवाही है।
भारत में कोरोना द्वितीय ने, घनी मचाई तबाही है।

यह दुष्ट बीमारी दुनियां में, जाने कहां से आई है?
बेगुनाहों की जिन्दगियां, इसके आगोश में समाई है।

शमशानों में जगह नहीं, बिन जले ही लाशें बहाई है।
पानी में बहती लाशों को देख, जनता सकपकाई है।

गांव – गांव में है घुमा कोरोना, नंगा नाच नचाया है।
चुन चुन बदला ले रहा है, हमने इसका क्या खाया है?

जाति धर्म का भेद नहीं, ऊंच नीच का न कोई ख्याल।
बिन एस ओ पी के इससे बचे, किसकी ऐसी मजाल ?

सत्ता पक्ष के नथुने है फूले, विपक्ष ने मचाई धमाल है।
पक्ष – विपक्ष के इस झगड़े में, बेचारी जनता बेहाल है।

हस्पतालों में बिस्तर न, ऑक्सीजन की किल्लत भारी है।
हल्के में न लो इसको कोई भईया, यह खूनी महामारी है।

सौ सालों के अंतरालों में, सुना ऐसा कुछ न कुछ होता है।
काटता इन्सान फसले वही है, जैसा वह खेतों में बोता है।

भ्रष्टाचार और फरेबी, मकारी, जब नस नस में समाई है।
कुदरती तिलसम वाजिव है, बबुल में आमें तो न आई है।

खुद को खुदा की पदवियां, नेता – धर्मनेता जब जब देते हैं।
इतिहास गवाह है कुदरत के मालिक, सजा तब तब देते हैं।

आदमी ने खोई अदमियत सारी, इंसानियत का गला है रेता।
शैतानी फितरत में जी रहा है, यूं ही खुदा यह सिला न देता।

यूं ही न बहती लाशें गंगा घाट में, इंसानों की बेबस ढोरों सी।
काले जो लगे हैं करने अब करतूतें, आज फिरंगी गोरों सी।

अपनों का बैरी अपना बने, दुश्मनों की दुश्मनी तब बौनी है।
दौर -ए -नाजुक में हालात को समझो, राजनीति घिनौनी है।

उससे पहले कि कातिल हो जाए पवने, सावधानी जरूरी है।
इस गर्दिशे माहौल में, सेनेटाइजर, मास्क, दूरियां मजबूरी है।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से बखूबी समझाने की कोशिश की है – कोरोना काल में आम जनता किस तरह से मर रही है, चारो तरफ सभी परेशान है इस कोरोना से, न जाने अभी क्या – क्या गुल खिलायेगा ये कोरोना। वर्तमान सरकार अपनी तरफ से हर संभव कोशिश कर रही है कोरोना को काबू करने के लिए। लेकिन सभी विरोधी पार्टी गन्दी राजनीती कर रही है, कोरोना पर और वैक्सीन पर। इनके गन्दी राजनीती से आम जनता मर रही है।

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यह लेख (भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य संस्कृति का तुलनात्मक अध्ययन।) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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