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♦ मकर संक्रांति का पर्व और हमारी मान्यताएं। ♦
भारत वर्ष उत्सव प्रिय देश है। यहाँ अनेक धार्मिक उत्सव, पशु मेले, देव मिलन, फसलों का उत्सव, त्यौहार आदि अनेक प्रमुख है। ये मेले उत्सव, त्यौहार किसी न किसी धार्मिक आस्था विशेष प्रकटोत्सव, ऋतु परिवर्तन, नव फसल के काटने पर मनाया जाते हैं। देव भूमि हिमाचल प्रदेश के कोने-कोने में तो हर रोज कोई न कोई महोत्सव होता रहता है। चाहे वह किसी भी उद्देश्य से क्यों न हो। ज्योतिषानुसार सौरमंडल में सभी ग्रह सूर्य कि परिक्रमा करते हैं। सूर्य की परिक्रमा करने से रात-दिन का परिवर्तन होता है। छः-छः मास का एक अयन होता है। जिसे सूर्य का अयन कहते है। वसंत, शिशिर और ग्रीष्म ऋतुओं का परिवर्तन जब होता है, तब सूर्य उतरायण होता है। जब सूर्य दक्षिणायन होता है तो वर्षा, शरद और हेमंत ऋतु का आगमन होता है।
सूर्य एक मास में एक राशी में रहता है। जब सूर्य एक राशि से दूसरी राशी में परिवर्तन करता है, उसे संक्रांति कहते है। जब सिंह राशि से मकर राशि में पहुंचता है तो मकर संक्रांति होती है। मकर संक्रांति के दिन सूर्य की दिशा उतरायण हो जाती है। सूर्य के उतरायण होने पर देवताओं का जागने का समय माना जाता है। मकर संक्रांति के दिन करसोग क्षेत्र के इमला बिमला व तातापानी में सतलुज नदी के किनारे बाल, युवा, कुमार, स्त्री, पुरुष, वृद्ध जनादि स्नान करते हैं।
मकर संक्रांति का त्यौहार क्यों मनाया जाता है: मकर संक्रांति किसानों के लिए बहुत अधिक महत्वपूर्ण होती है। इसी दिन किसान अपनी फसल की पुष्टि का दर्प देखते हैं। मकर संक्रांति भारत का सिर्फ एक ऐसा त्यौहार है जो हर साल 14 या 15 जनवरी को ही मनाया जाता है। यह वह दिन होता है, जब सूर्य उत्तर की ओर बढ़ता है। हिन्दूओं के लिए सूर्य एक रोशनी, ताकत और ज्ञान का प्रतीक होता है। मकर संक्रांति त्यौहार सभी को अँधेरे से रोशनी की तरफ बढ़ने की प्रेरणा देता है। एक नए तरीके से काम शुरू करने का प्रतीक है। मकर संक्रांति के दिन, सूर्योदय से सूर्यास्त तक पर्यावरण अधिक चैतन्य रहता है। यानि पर्यावरण में दिव्य जागरूकता होती है। इसलिए जो लोग आध्यात्मिक अभ्यास कर रहे होते हैं, वे इस चैतन्य का लाभ उठा सकते है।
मकर संक्रांति से बदलता है वातावरण: मकर संक्रांति के बाद से वातावरण में बदलाव आ जाता है। नदियों में वाष्प की प्रक्रिया शुरू होने लगती है। इससे कई सारी बीमारियां दूर हो जाती हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक, सूर्य के उत्तरायण होने से सूर्य का ताप सर्दी को कम करता है।
मकर संक्रांति का वैज्ञानिक महत्व: मकर संक्रांति के पावन दिन पर लंबे दिन और रातें छोटी होने लगती हैं। सर्दियों के मौसम में रातें लंबी हो जाती हैं और दिन छोटे होने लगते हैं। जिसकी शुरुआत 25 दिसंबर से होती है। लेकिन मकर संक्रांति से ये क्रम बदल जाता है। माना जाता है कि मकर संक्रांति से ठंड कम होने की शुरुआत हो जाती है।
मकर संक्रांति का आयुर्वेदिक महत्व: धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व के अलावा मकर संक्रांति का आयुर्वेदिक महत्व भी है। संक्रांति को खिचड़ी भी कहते हैं। इस दिन चावल, तिल और गुड़ से बनी चीजें खाई जाती हैं। तिल और गुड़ से बनी चीजों का सेवन स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होता है। इन चीजों के सेवन से इम्यून सिस्टम भी मजबूत होता है।
मकर संक्रांति का ज्योतिषीय और वैज्ञानिक महत्व: मकर संक्रान्ति से पहले सूर्य दक्षिणी गोलार्ध के निकट होता है अर्थात् उत्तरी गोलार्ध से अपेक्षाकृत दूर होता है जिससे उत्तरी गोलार्ध में रातें बड़ी एवं दिन छोटे होते हैं तथा सर्दी का मौसम होता है। किन्तु मकर संक्रान्ति से सूर्य उत्तरी गोलार्ध की ओर आना शुरू हो जाता है।
मकर संक्रांति की कथा व कहानी: हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार इस विशेष दिन पर भगवान् सूर्य अपने पुत्र भगवान् शनि के पास जाते है, उस समय भगवान् शनि मकर राशि का प्रतिनिधित्व कर रहे होते है। पिता और पुत्र के बीच स्वस्थ सम्बन्धों को मनाने के लिए, मतभेदों के बावजूद, मकर संक्रांति को महत्व दिया गया, ऐसा माना जाता है कि इस विशेष दिन पर जब कोई पिता अपने पुत्र से मिलने जाते है, तो उनके संघर्ष हल हो जाते हैं और सकारात्मकता खुशी और समृधि के साथ साझा हो जाती है।
भीष्म पितामह को मिला था इस दिन मोक्ष: ऐसा कहा जाता है कि महाभारत काल के भीष्म पितामह ने अपने मोक्ष की सुविधा के लिए अपने शरीर को छोड़ने के लिए इस दिन की प्रतीक्षा की थी। महाभारत के अनुसार धर्मराज युधिष्ठिर ने शैया पर पड़े हुये भीष्म जी से सम्पूर्ण ब्रह्मर्षियों तथा देवर्षियों के सम्मुख धर्म के विषय में अनेक प्रश्न पूछे। तत्वज्ञानी एवं धर्मेवेत्ता भीष्म जी ने वर्णाश्रम, राग-वैराग्य, निवृति प्रवृति आदि के सम्बंध में अनेक रहस्यमय भेद समझाये तथा दानधर्म, राजधर्म, मोक्षधर्म, स्त्रीधर्म, भगवत्धर्म, द्विविध धर्म आदि के विषय में विस्तार से चर्चा की।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के साधनों का भी उत्तम विधि से वर्णन किया। उसी काल में उत्तरायण सूर्य आ गये। अपनी मृत्यु का उत्तम समय जान कर भीष्म जी ने अपनी वाणी को संयम में कर के मन को सम्पूर्ण रागादि से हटा कर सच्चिदान्द भगवान श्रीकृष्ण में लगा दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अपना चतुर्भुज रूप धारण कर के दर्शन दिये। भीष्म जी ने श्रीकृष्ण की मोहिनी छवि पर अपने नेत्र एकटक लगा दिये और अपनी इन्द्रियों को रोकर भगवान की इस प्रकार स्तुति करने लगे – “मै अपने इस शुद्ध मन को देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में अर्पण करता हूँ। जो भगवान अकर्मा होते हुये भी अपनी लीला विलास के लिये योगमाया द्वारा इस संसार की श्रृष्टि रच कर लीला करते हैं, जिनका श्यामवर्ण है, जिनका तेज करोड़ों सूर्यों के समान है, जो पीताम्बरधारी हैं तथा चारों भुजाओं में शंख, चक्र, गदा, पद्म कण्ठ में कौस्तुभ मणि और वक्षस्थल पर वनमाला धारण किये हुये हैं, ऐसे भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में मेरा मन समर्पित हो। इस तरह से भीष्म पितामह ने मन, वचन एवं कर्म से भगवान के आत्मरूप का ध्यान किया और उसी में अपने आप को लीन कर दिया।
देवताओं ने आकाश से पुष्पवर्षा की और दुंदुभी बजाये। युधिष्ठिर ने उनके शव की अन्त्येष्टि क्रिया की। सूर्य केवल भारतवर्ष में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में विशेष महत्व रखते हैं। वर्तमान समय में मकर संक्रांति के महत्व को अंग्रेज आज तक एक-दूसरे का अभिवादन करते हुए ‘सनी डे’ की कामना करते हैं … प्राचीन मिस्र के लोग सूर्य की पूजा अटम और होरस के रूप में करते थे, मेसोपोटामिया के लोग शमाश के रूप में, जर्मन सोल के रूप में, ग्रीक हेलिओस और अपोलो के रूप में। पृथ्वी की धुरी में बदलाव के साथ, उत्तरायण की घटना मकर संक्रांति यानी 14 जनवरी स्थानांतरित हो जाती है।
मकर संक्रांति पूजा विधि: जो लोग इस विशेष दिन को मानते है, वे अपने घरों में मकर संक्रांति की पूजा करते है। इस दिन के लिए पूजा विधि को नीचे दर्शाया गया है- सर्व प्रथम पूजा शुरू करने से पूर्व पूण्य काल मुहूर्त और महा पुण्य काल मुहूर्त निकाल ले, और अपने पूजा करने के स्थान को साफ़ और शुद्ध कर ले वैसे यह पूजा भगवान् सूर्य के लिए की जाती है इसलिए यह पूजा उन्हें समर्पित करते है। इसके बाद एक थाली में 4 काली और 4 सफेद तीली के लड्डू रखे जाते हैं। साथ ही कुछ पैसे भी थाली में रखते हैं। इसके बाद थाली में अगली सामग्री चावल का आटा और हल्दी का मिश्रण, सुपारी, पान के पत्ते, शुद्ध जल, फूल और अगरबत्ती रखी जाती है। इसके बाद भगवान के प्रसाद के लिए एक प्लेट में काली तीली और सफेद तीली के लड्डू, कुछ पैसे और मिठाई रख कर भगवान को चढाया जाता है। यह प्रसाद भगवान् सूर्य को चढ़ाने के बाद उनकी आरती की जाती है।
पूजा के दौरान महिलाएं अपने सिर को ढक कर रखती हैं। इसके बाद सूर्य मंत्र ‘ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं सह सूर्याय नमः’ का कम से कम 21 या 108 बार उच्चारण किया जाता है। कुछ भक्त इस दिन पूजा के दौरान 12 मुखी रुद्राक्ष भी पहनते हैं, या पहनना शुरू करते है। इस दिन रूबी जेमस्टोन भी पहना जाता है।
मकर संक्रांति में क्यों खाई जाती है खिचड़ी: मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी खाने की परंपरा है, इसलिए मकर संक्रांति के पावन पर्व को खिचड़ी भी कहते हैं। हालांकि इस दिन खिचड़ी खाने की एक वजह ये भी होती है कि मकर संक्रांति में फसल की कटाई होती है। चावल और दाल से बनी खिचड़ी का सेवन सेहत के लिए फायदेमंद होता है। ये पाचन तंत्र को मजबूत करती है।
करसोग क्षेत्र के तत्तापानी में होता है मकर सक्रांति का विशेष आयोजन: तत्तापानी में सतलुज नदी के किनारे लोग गर्म चश्मे (स्नान पात्र) में स्नान करते हैं। नवविवाहित स्त्रियां स्नान करते हुए सूर्य देव से पुत्र प्राप्ति की याचना करती है। मकर सक्रांति के दिन दान करने का बड़ा महत्व माना गया है इस दिन प्रत्येक घर में चावल माह की दाल घी दान किया जाता है। इस दिन प्रत्येक घर में खिचड़ी पकाने की परंपरा है।
मकर सक्रांति के दिन घर के सदस्य ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान करके अपने इष्ट देवता और सूर्य की पूजा करते हैं। लोग दूर-दूर से आकर तत्तापानी में पापों की मुक्ति के लिए दान व स्नान करते हैं। कहा जाता है अगर मकर सक्रांति को तत्तापानी, इमला विमला व बूढ़ा केदार या किसी देव सरोवर में स्नान करते हैं तो मनुष्य को चर्म रोग से भी मुक्ति मिलती है। इस दिन तत्तापानी में दूर-दूर से आए हुए लोग आसपास के क्षेत्रों में तुलादान भी करते हैं जिससे शनि का ढैया, शनि साढ़ेसाती या शनि दशा व शनि अनिष्टता का निवारण होता है। मकर सक्रांति का पावन पर्व पारस्परिक स्नेह और मधुरता का महोत्सव है। जिला मण्डी में यह त्यौहार बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
ज़रूर पढ़ें: लोहड़ी के त्यौहार उद्देश्य।
♦ आचार्य रोशन शास्त्री जी – जिला – मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦
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- “आचार्य रोशन शास्त्री जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस लेख के माध्यम से समझाने की कोशिश की है — यह माना जाता है कि भगवान सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उनके घर जाते हैं और शनि मकर राशि के स्वामी है। इसलिए इस दिन को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है। पवित्र गंगा नदी का भी इसी दिन धरती पर अवतरण हुआ था, इसलिए भी मकर संक्रांति का पर्व मनाया जाता हैं। लोहड़ी का पर्व हर साल मकर संक्रांति से एक दिन पहले मनाया जाता है क्योंकि हर साल मकर संक्रांति 14 जनवरी को मनाई जाती है इस प्रकार 13 जनवरी को लोहड़ी मनायी जाती है। ऐसा माना जाता है की उस समय से दिन छोटे और राते लम्बी होने लगती है। लोहड़ी के दिन सभी लोग नए-नए कपडे पहनते है और खुशी मनाते है। इस दिन सभी लोग नाचते व गाते है। लोहड़ी की संध्या को आग जलाई जाती है । लोग अग्नि के चारो ओर चक्कर काटते हुए नाचते-गाते हैं व आग मे रेवड़ी, मूंगफली, खीर, मक्की के दानों की आहुति देते हैं । आग के चारो ओर बैठकर लोग आग सेंकते हैं। लोहड़ी भारत के प्रसिद्ध त्योहारों में से एक त्यौहार है। यह पंजाब का सबसे लोकप्रिय त्यौहार है जिसे पंजाबी धर्म के लोगो द्वारा प्रत्येक वर्ष मनाया जाता है।
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यह लेख (लोहड़ी के त्यौहार उद्देश्य।) “आचार्य रोशन शास्त्री जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी लेख/कवितायें सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे।
आचार्य रोशन शास्त्री जी– राजकीय माध्यमिक पाठशाला, नौलखा, सुंदर नगर, जिला मंडी – हिमाचल प्रदेश।
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