Kmsraj51 की कलम से…..
♦ आखिर कहां जा रही है भारत की शिक्षा व्यवस्था? ♦
दिल्ली सिर्फ देश की राजधानी ही नहीं है। वह राजधानी होने के साथ-साथ हिंदुस्तान का दिल और एक महानगर भी है। देश का हर कोई छोटा बड़ा नागरिक अपने बच्चों को यहां के सरकारी शिक्षण संस्थानों में दाखिला लेने के लिए बेताब रहता है। हो भी क्यों ना? हर कोई चाहता है कि मेरे बच्चे को एक अच्छी और किफायती शिक्षा प्राप्त हो। वह शिक्षा किसी अच्छे संस्थान में और अच्छे स्थान में प्राप्त हो।
सबकी सोच होती है कि मेरा बच्चा सेंट्रल यूनिवर्सिटी के अधीन आने वाले शिक्षण संस्थानों में दाखिला लेकर शिक्षा ग्रहण करें। परंतु उन बच्चों और अभिभावकों का सपना तब चूर- चूर हो जाता है जब सेंट्रल यूनिवर्सिटी के अंतर्गत आने वाले सभी शैक्षणिक संस्थानों में बी ए ऑनर्स राजनीतिक शास्त्र, अर्थशास्त्र आदि में भी 100% का कट ऑफ प्रथम सूची में लगाया जाता है। 2015 में यह कट ऑफ कंप्यूटर साइंस में पहली बार लगाया गया था अब तो तकरीबन – तकरीबन सभी विषयों में यह कट ऑफ लगाया जा रहा है।
सवाल यह खड़ा होता है कि…
सवाल यह खड़ा होता है कि यदि 100% ही कट ऑफ लगाया जाएगा तो क्या इससे भी आगे कोई और अंक प्राप्त होते हैं क्या? प्रतिस्पर्धा के इस दौर में गरीब, मजबूर और मेहनती तथा परिश्रमी वह बच्चा तब निराश होता है जब उसके 99.9 प्रतिशत अंक होने पर भी इन संस्थानों में दाखिला नहीं मिलता। तब तो और भी ज्यादा परेशान होता है जब आस – पड़ोस के लोग अपने 100% अंक प्राप्त किए हुए बच्चे का दाखिला इन संस्थानों में करवातें हैं और पड़ोस के 99.9 प्रतिशत अंको को प्राप्त करने वाले बच्चों को या अभिभावकों को चिढ़ाने का काम करते हैं कि मेरे बच्चे का दाखिला तो उस कॉलेज में हो गया है आपके बच्चे का नहीं हुआ क्या?
मजबूरन निजी संस्थानों में दाखिला लेना।
समझ ही नहीं आता कि हमारे देश की शिक्षा प्रणाली किस ढर्रे की ओर चली जा रही है? 100% कट ऑफ लिस्ट कहां तक जायज है? सभी जानते हैं कि सेंट्रल यूनिवर्सिटी के अंतर्गत आने वाले इन कॉलेजों में दूसरी, तीसरी या चौथी कट ऑफ लिस्ट बहुत ही कम निकलती है। यदि निकल भी गई तो उसमें भी 97% अंक प्राप्त करने वाले को ही स्थान मिलेगा।
परंतु जो 90% से ऊपर के अंको को प्राप्त किए हुए अन्य प्रखर बुद्धि के छात्र है, जिनका सपना इन प्रतिष्ठित संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करने का रहा है, वे कहां जाएंगे? उन्हें मजबूरन निजी संस्थानों में दाखिला लेना पड़ता है, जहां लाखों की डोनेशन दे कर के बड़ी महंगी शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती है। आखिर आजादी के 74 साल बाद भी वे क्यों इस खर्चीली शिक्षा व्यवस्था में उलझ कर अपने साथ – साथ अपने परिवार वालों का भी नुकसान करें।
1965 में कोठारी कमीशन।
1965 में कोठारी कमीशन की अनुशंसाओं ने भारत सरकार को भारतीय शिक्षा प्रणाली पर देश की जी डी पी का 6% खर्च करने की अनुशंसा की थी। परंतु कमीशन की एक न मानी गई। वही पुराना शैक्षणिक ढर्रा अद्यतन आजादी के बाद अपनाया जाता रहा है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020
आज राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 लागू जरूर की गई है, जिसमें देश की जी डी पी का 6% शिक्षा पर खर्च करने का दावा भी केंद्र सरकार द्वारा किया जा रहा है। परंतु जनता को न्याय तब तक नहीं मिलेगा जब तक यह सारी बातें जमीनी स्तर पर हकीकत में क्रियाशील नहीं होती।
मात्र घोषणा करवाना और किसी व्यवस्था में प्रावधान करवा देना किसी बात को पूर्ण रूप से फलीभूत होने का प्रमाण नहीं होता। किसी बात की पूर्णता के लिए उसका विधिवत धरातल पर घटित होना बहुत जरूरी होता है।
प्रश्न उठता है…
सवाल खड़े होते हैं कि इतने लंबे अरसे के बाद भी आखिर क्यों देश की राजधानी में सरकारी शिक्षण संस्थानों की बढ़ोतरी नहीं हो पाई? क्यों हर सरकारें ‘थोथा चना बाजे घना ‘वाला राग आलापती रही?
संस्थान वही, संस्थानों में सीटें वही और उस पर छात्रों की तादात निरंतर बढ़ती जा रही है। बढ़ती छात्र तादात के हिसाब से सरकारों को शिक्षण संस्थानों का विकास करना चाहिए था और इन संस्थानों में सीटों की अभिवृद्धि करनी चाहिए थी। परंतु ऐसा नाम मात्र को ही देखने में मिला है।
प्रश्न उठता है क्या सरकार जानबूझकर के भारतीय शिक्षा व्यवस्था को निजी शिक्षण व्यवस्था की झोली में डालने के चक्कर में है या फिर उसे अपने देश में जी रहे नव शिक्षार्थियों की कोई चिंता ही नहीं है?
देश के मानव संसाधन को संचालित करना, व्यवस्थित करना और उनकी सुविधाओं के प्रावधानों को प्रबंधित करना राज्य एवं केंद्र सरकार का संयुक्त दायित्व होता है। परंतु इस मुद्दे पर सब के सब अपना पल्ला झाड़ते हुए से नजर आ रहे हैं। 100% की कटऑफ कहां तक तर्क संगत और न्याय संगत है? इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
सवाल भारतीय शिक्षा व्यवस्था के मूल्यांकन ढांचे पर।
इसमें तो सवाल भारतीय शिक्षा व्यवस्था के मूल्यांकन ढांचे पर भी खड़े होते हैं कि क्या सारे की सारी परीक्षाएं वस्तुनिष्ठ विधि से ही करवाई जाती है? क्या स्कूली शिक्षा प्रणाली के मूल्यांकन में व्याख्यात्मक और सरांशात्मक परीक्षाओं का कोई स्थान नहीं है? यदि है तो फिर 100 में से 100 अंक प्राप्त होने का सवाल ही खड़ा नहीं होता?
आखिर क्यों हमारे देश के शिक्षाविद इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हैं? खैर सरकार और राजनीतिज्ञों से तो इस मामले में बात करना ही बेकार है। एक शिक्षक होने के नाते मैं यह बड़े दावे के साथ कह सकता हूं कि स्कूली शिक्षा में 100 में से 100 अंक प्राप्त करना वर्तमान मूल्यांकन प्रणाली की विश्वसनीयता और वैधता पर कहीं ना कहीं सवाल जरूर खड़े करता है।
क्या एक भी बिंदी की गलती बच्चा नहीं कर रहा है? क्या एक भी सवाल या फिर एक भी शब्द बच्चों से गलत नहीं हो रहा है? इतना ही नहीं भाषा, राजनीतिक शास्त्र, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और गणित जैसे कई विषयों में कहीं ना कहीं बच्चों से जरूर चूक हो जाती है। उन सब चूकों को नजरअंदाज करके 100 में से 100 अंक बच्चों को प्रदान करना कहीं से भी उचित नहीं जान पड़ता।
शिक्षा प्रणाली की और व्यवस्थाओं की तारतम्यता का ना होना।
इससे हम बच्चे को अहम और वहम के चक्रव्यू में डालते जा रहे हैं। और इसके साथ – साथ प्रतिस्पर्धात्मक बुद्धि को रखने वाले छात्रों और अभिभावकों को निराशा और हताशा की ओर धकेलते जा रहे हैं। अधिक से अधिक अंक प्राप्त करना आज के बच्चों और अभिभावकों का एक शौक और फैशन बन गया है।
यदि सर्वाधिक अंक किसी अभिभावक का बच्चा नहीं लाता है तो वह पड़ोसी के बच्चे का उदाहरण देकर उस पर अधिक से अधिक अंक प्राप्त करने का दबाव बनाता है। प्रतिस्पर्धा की इस घिनौनी लड़ाई में वह बच्चा कई बार कम नंबर आने पर आत्महत्या जैसे कदम उठा लेता है, जो कहीं से भी तर्कसंगत और ठीक सिद्ध नहीं होता। इन सब बातों के पीछे मुख्य कारण शिक्षा प्रणाली की और व्यवस्थाओं की तारतम्यता का ना होना ही होता है।
भारत के बच्चे -बच्चे को सरकारी शिक्षण संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करने का पूरा-पूरा अधिकार प्राप्त हो।
जनसंख्या की दृष्टि से शिक्षण संस्थान और उनकी सीटें निरंतर बढ़ती जानी चाहिए न कि स्थिर रहनी चाहिए। कट ऑफ लिस्ट भी 100% कहीं से भी न्याय संगत नहीं हो सकती। निजी शिक्षण संस्थानों के चंगुल से भारतीय शिक्षा व्यवस्था को बाहर निकाल करके भारत के बच्चे -बच्चे को सरकारी शिक्षण संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करने का पूरा-पूरा अधिकार प्राप्त होना चाहिए।
भारत के शिक्षार्थी और अभिभावक का शोषण किसी भी हालत से नहीं होना चाहिए। इन्हीं सब बातों का प्रावधान करना देश की और राज्य की सरकारों का सामूहिक दायित्व होता है। परंतु सरकारें ऐसा कुछ भी नहीं कर रही है। आजादी के इतने दिनों के बाद भी देश में नाम मात्र को ही शिक्षण संस्थानों में वृद्धि की गई है और उन शिक्षण संस्थानों में सीटों के निर्धारण में भी नाम मात्र की ही वृद्धि हुई है।
देश का होनहार छात्र निराश – हताश।
ऐसे में देश का होनहार छात्र निराश – हताश होकर के गलत कदम नहीं उठाएगा तो और क्या करेगा? यहां यह भी स्पष्ट किया जाना जरूरी है कि 90% अंक प्राप्त करने वाला छात्र भी कोई कमजोर नहीं होता। वह भी एक तीव्र बुद्धि और प्रखर व्यक्तित्व होता है। ऐसे में उसे निराश और हताश होने की कोई जरूरत नहीं है बल्कि उसे अपने अस्तित्व को बनाए रखना चाहिए और निरंतर व्यवस्थाओं के साथ संघर्ष करके अपने भविष्य को संवार कर देश के भविष्य को संवारने की कोशिश करनी चाहिए।
निराशा और हताशा में गलत कदम उठाने की अपेक्षा विपरीत परिस्थितियों का सामना करके अपने लिए सफलता के नए रास्ते गढ़ना मानव जीवन का सबसे बड़ा कर्तव्य है। अतः देश के हर नौजवान को इन चुनौतियों से घबराना नहीं चाहिए बल्कि इनको उल्टी चुनौती देकर के इन्हें हराना चाहिए।
समाज की मानसिकता में बदलाव लाने की जरूरत।
समाज की मानसिकता को भी अपने आप में बदलाव लाने की जरूरत है। यदि आपके बच्चों ने सर्वाधिक अंक प्राप्त कर भी लिए हैं तो ऐसे में दूसरों को चिढ़ाने और जलील करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए बल्कि एक अच्छे नागरिक होने के नाते और एक अच्छा पड़ोसी होने के नाते या फिर एक अच्छा रिश्तेदार होने के नाते हमें एक दूसरे को निरंतर प्रोत्साहित करना चाहिए।
अंतरराष्ट्रीय सर्वे में हमारे देश की शिक्षा प्रणाली।
सवाल यह भी खड़ा होता है कि यदि 100% अंक प्राप्त करने योग्य प्रतिभाएं निखारने की क्षमता हमारे देश की शिक्षा प्रणाली रखती है तो फिर वैश्विक शिक्षण पायदान पर अपने आप को लड़खड़ाता हुआ सा महसूस क्यों करती है? क्यों अंतरराष्ट्रीय सर्वे में हमारे देश की शिक्षा प्रणाली को विशेष स्थान प्राप्त नहीं होता?
किसी अमीर धनवान और रसूखदार घर आने का बच्चा तो निजी शिक्षण संस्थानों में शिक्षा ग्रहण कर भी ले परंतु मध्यवर्ग और गरीब सर्वहारा वर्ग का होनहार छात्र इस 100% कटऑफ की व्यवस्था वाली शिक्षा प्रणाली में पिछड़ जाएगा।
.001 प्रतिशत से कटऑफ सूची में दाखिला ना मिलने के कारण एक तो वह बेचारा सरकारी शिक्षण संस्थानों से न्यारा रहेगा और उधर पैसों की तंगी के चलते उसे निजी स्कूलों से भी बाहर ही रहना पड़ेगा। ऐसे में उसकी अभिलाष, उसकी प्रतिभा और उसका स्वाभिमान सबका सब चोटिल हो जाता है।
सैद्धांतिक शिक्षा प्रणाली से हटकर प्रायोगिक शिक्षा प्रणाली की जरूरत।
समय रहते ही यदि देश की सरकारों ने इस दिशा की ओर ध्यान नहीं दिया तो देश में कुंठा और अराजकता का वातावरण धीरे – धीरे बढ़ता चला जाएगा। सैद्धांतिक शिक्षा प्रणाली से हटकर प्रायोगिक शिक्षा प्रणाली पर जब तक जोर नहीं दिया जाएगा तब तक राष्ट्रीय शिक्षा नीति का समूचा मसौदा भी बेकार ही सिद्ध होगा।
♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦
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Conclusion:
- “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से बखूबी समझाने की कोशिश की है – सैद्धांतिक शिक्षा प्रणाली से हटकर प्रायोगिक शिक्षा प्रणाली पर जब तक जोर नहीं दिया जाएगा तब तक राष्ट्रीय शिक्षा नीति का समूचा मसौदा भी बेकार ही सिद्ध होगा। 100% कटऑफ की व्यवस्था वाली शिक्षा प्रणाली को हटाना होगा।
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यह लेख (आखिर कहां जा रही है भारत की शिक्षा व्यवस्था?) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।
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“सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)
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