Kmsraj51 की कलम से…..
♦ दर्पण। ♦
अपने प्रतिबिंब का अवलोकन करता हूँ।
जब भी दर्पण सामने संयम का होता है॥
बिम्बित-प्रतिबिंबित होती मन की तरंगें।
अदृश्य अस्तित्व की होती साथ परछाई।
परिचय दिगम्बरी दिशाओं का है ये मन।
ललित भाव सरल दर्पण मैं निहारता हूँ॥
उदास मन की बढ़ती गहरी व्याकुलता।
तब शब्दों का स्वयं दर्पण बन जाता है।
विचार एकाकी मन ज्यों छीन जाता है।
आभार मन दर्पण का तब कर पाता हूँ॥
आकर्षण सुंदर संपुट आशा का दर्पण।
नर- देही का सत्य दिखलाता है दर्पण।
स्मृतियों की भीगी अनुभूति – चित्रण।
मन के भीतर मैं दर्पण में देख पाता हूँ॥
मन पाखी उन्मुक्त विचरण भूलकर।
मुक्त मुक्तांगन में भी जब सिमटकर।
अव्यक्त प्रज्ञा प्रतिबिंब स्व हृदय की।
देव दर्पण में आभास निज मैं पाता हूँ॥
♦– देवेन्द्र हिरवानी, राजनांदगांव(छ.ग.) ♦
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