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भक्तिकालीन साहित्य – कवि आंदोलन।

Kmsraj51 की कलम से…..

Table of Contents

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  • Kmsraj51 की कलम से…..
    • ♦ भक्तिकालीन साहित्य – कवि आंदोलन। ♦
      • भक्ति के अनेक मार्ग में…
      • ईश्वर प्राप्ति के अनेकों साधन बताए गए हैं जैसे—
      • लीला कीर्तन में सूरदास जी ने लिखा —
      • श्रवण, कीर्तन और स्मरण में उनका मत है कि —
      • वंदन, अर्चन और पाद सेवन में अपना मत व्यक्त किया है —
      • तुलसीदास जी का बचपन कष्ट में बीता इसके बारे में देखें —
      • रहीम ने लिखा कि —
      • वंदना में रहीम लिखते हैं कि —
      • ध्यान में रहीम लिखते हैं कि —
      • आगे भी रहीम कहते हैं कि —
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♦ भक्तिकालीन साहित्य – कवि आंदोलन। ♦

भक्त कवियों ने राम के नाम को आराम से बढ़कर माना है। इस संबंध में गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं कि —

राम सो बड़ों है कौन,
मोसों कौन छोटा?
राम सो खरो है कौन,
मोसों कौन खोटो?
तुलसीदास ने मानस में,
गुरु वंदना करते हुए कहा है कि-
‘बंदउ गुरु पद कंज, कृपा सिंधु नर रूप हरि ‘!

तुलसीदास जी को सगुण भक्ति काव्य धारा में इसीलिए शामिल किया गया कि वह सगुण उपासकों में से प्रतिष्ठित कवि हैं। सगुण विचारधारा का कवि ईश्वर को सगुण यानी सभी गुणों से युक्त परम उससे भी परे साकार यानी कि वह ईश्वर जगत में रूप धारण करके अवतरित होता है।

तुलसीदास जी ने ईश्वर के प्रति उत्कृष्ट प्रेम की भावना से ओतप्रोत उनका साहित्य मिलता है। यथा …

एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास।
एक राम घनश्याम हित, चातक तुलसीदास॥

कबीर दास जी ने अपने भक्ति साहित्य में भाव व्यक्त करते हुए कहा है कि —

आंखडिया झांई पड़ी, पंथ निहारि – निहारि।
जीभड़ियां छाला पड़यो, राम पुकारि – पुकारि॥

भक्तों की पहचान ईश्वर के प्रति प्रेम से होता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भक्ति आंदोलन पर विचार करते हुए सामान्य विशेषताओं का उल्लेख किया है…

  • भक्ति के बिना शास्त्र ज्ञान और पांडित्य को व्यर्थ कहा।
  • प्रेम ही परम पुरुषार्थ और मोक्ष है उन्होंने बताया।
  • द्विवेदी जी ने भक्तों को भगवान से बड़ा माना।
  • भगवान के प्रति प्रेम प्रतिज्ञा से बड़ी चीज कहा।
  • ईश्वर का नाम रूप से बढ़कर है।
  • भक्ति का अर्थ होता है सेवा करना।

भक्ति की उत्पत्ति भाग्य धातु से हुई माना जाता है। भक्ति का तात्पर्य ईश्वर के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति से ही है। जिसमें भगवान का भजन, प्रीति, अर्पण – समर्पण उसमें शामिल है।

भक्ति काल पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि भक्त कवियों का काव्य भक्ति भावना से पूर्ण रूप से प्रेरित है। भक्ति के स्वरूप का विस्तृत चर्चा पुराण ग्रंथों में भी की गई है। भक्ति के सूत्र और मंत्र वेदों में भी मिलते हैं। विद्वान मानते हैं कि भक्ति का उद्गम वेदों से ही हुआ है। उपनिषदों में भी भक्ति के तत्व को पाया जाता है।

भागवत गीता में इसका विशेष विकास और विस्तार मिलता है। महाकाव्य महाभारत में तो कहा गया है कि —

‘भागवत गीता में ईश्वर के प्रति गहरी निष्ठा को जीवन का लक्ष्य बताया गया है’!
गीता कहती है कि ईश्वर को जिस रूप में भजते हो ईश्वर उसी रूप में प्राप्त होता है।

ईश्वर के प्रति भक्त की गहरी निष्ठा और उसकी भावना का प्रतिफल भक्ति का साहित्य है। भारत में भक्ति वह केंद्रीय तत्व है जो काव्य में अंतः धारा की भांति सर्वत्र प्रभाव प्रवाहित होता रहता है। ईश्वर की प्राप्ति का सबसे सुगम साधन यदि कुछ है तो वह है भक्ति भाव जो उत्तम मार्ग है।

भक्ति के अनेक मार्ग में…

  • स्मरण, ईश्वर के नाम रूप का।
  • कीर्तन, ईश्वर के नाम रूप और गुण का।
  • वंदना, ईश्वर के नाम रूप का।
  • श्रवण, ईश्वर के रूप में और लीला का।
  • पाद सेवन, ईश्वर के चरणों की सेवा का।
  • दास्य, ईश्वर को स्वामी मानकर सेवा अर्चना करना।
  • सख्य, ईश्वर को सखा मित्र और बंधु मानना।
  • आत्म निवेदन, ईश्वर के चरणों में सर्वस्व अर्पित करना।
  • अर्चना, ईश्वर की पूजा करते रहना।

ईश्वर प्राप्ति के अनेकों साधन बताए गए हैं जैसे—

  • कठोर तप और साधना।
  • ईश्वर के प्रति उत्कृष्ट आत्मीय प्रेम।
  • ईश्वर संबंधी तत्व चिंतन।
  • विधिक निषेध का पालन।
  • जीवन में योग, योग में ईश्वर का ध्यान।
  • प्राणायाम में ईश्वर की साधना।

आचार्य शुक्ल ने श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति कहा है। उन्होंने प्रेम के साथ श्रद्धा का संयोजन किया है। कहा है कि ईश्वर के प्रति की गई श्रद्धा अभिव्यक्ति है। श्रद्धा करने वाला व्यक्ति ईश्वर को पालन कर मार्गदर्शक और उद्धारक समझता है।

मनुष्य के जीवन में दिव्यता प्राप्त करने के लिए ईश्वर भक्ति की आवश्यकता इस संसार सागर में है।

भक्ति आंदोलन के कवि कृष्ण प्रेमी भक्त सूरदास ने अपने भक्ति साहित्य में सगुण भक्ति मार्ग को चुना। उन्होंने अपने काव्य में जीवन जीने की नई चाह पैदा की। लोक – चित्त से निराशा को उखाड़ फेंकने का कार्य अपने भारतीय भक्ति साहित्य से की। उन्होंने भक्ति मार्ग से विशाल सरस और सरल साहित्य प्रस्तुत किया।

सूरदास जी ने भगवान के भाषण के जीवन का वर्णन प्रिय विजन मानकर उत्कृष्ट तरीके से प्रस्तुत किया। उन्होंने निर्गुण को तिनका परंतु सगुण को सुमेरू की प्रधानता दी। यथा —

सुनि है कथा कौन निर्गुण की,
रचि – रचि बात बनावट।
सगुण सुमेरू प्रकट देखियत,
तुम तृण की ओर दुरावत॥

लीला कीर्तन में सूरदास जी ने लिखा —

जो यह लीला सुने सुनावै,
सो हरि भक्ति पाय सुख पावे।

श्रवण, कीर्तन और स्मरण में उनका मत है कि —

को को न तरयो हरिनाम लिये।

वंदन, अर्चन और पाद सेवन में अपना मत व्यक्त किया है —

जो सुख हो तो गोपालहिं गाएं,
वह सुख बैकुंठ में भी नहीं।
यह धरती बैकुंठ से भी श्रेष्ठ है।
यथा –
‘चरण कमल बंदों हरि राइ।’

इसी धरा पर हरिया अवतार धारण करके लीला करते हैं। इसी दृष्टि से यह धरा श्रेष्ठ हैं। भगवान के प्रेम में रूप लीला का वर्णन गीतिकाव्य में सूरदास ने हृदय से गाई है।

सूरदास का मन मुरली की मोहनी ता, जमुना ब्रज- कुंज, आनंद बधाई बाल क्रीड़ा प्रेम के रंग रहस्य और वियोग के भाव दशा में रमता है। वे अपने हृदय तल से संगीत को रचते हैं। भक्ति साहित्य काव्य में विविध रूप ढंग से सूर अपनी बात को कहते हैं। मुक्तक परंपरा का प्रतिपादन कला की कलात्मकता के लिए करते हैं।

तुलसीदास जी राम काव्य परंपरा में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। राम काव्य परंपरा में उन्हें महत्वपूर्ण स्थान पर माना जाता है। भक्ति आंदोलन की क्रांतिकारी भूमिका का निर्वहन गोस्वामी तुलसीदास जी ने किया।

तुलसी ने भक्ति की निर्गुण – सगुण परंपरा को वैचारिक स्तर पर एकता के सूत्र में बांधने का पूरा प्रयास किया। भावनात्मक रूप से जनता को एक करने का प्रयास किया। रामानंद ने लोक भाषाओं में काव्य रचने की प्रेरणा देकर हिंदी भक्ति काल को दिशा – दृष्टि देने का कार्य किया।

वेदों उपनिषदों से भक्ति की धारा जो उमड़ी, वह तीसरी से 9वीं शताब्दी तक भक्ति आंदोलन को तमिल से तीव्रता मिली। भक्ति आंदोलन तमिल ने तीव्र हुआ। संपूर्ण देश की कवियों में कश्मीर में लल देद, तमिल में आंडाल, बंगाल में चंडीदास, चैतन्य, पंजाब में नानक, गुजरात में नरसी मेहता आदि ने भक्त कवियों को पैदा किया। इन कवियों ने सांस्कृतिक – सामाजिक एकता के सूत्र पैदा किए।

निर्गुण भक्ति आंदोलन को उत्तर भारत में शोषित जनता का भरपूर सहयोग मिला। जिसमें कबीर, दादू रज्जब, पीपा, रैदास और सूरदास की कहानियों का संदेश जनता के लिए सुधारवादी और क्रांतिकारी सिद्ध हुआ।

सगुण भक्ति का मत निम्न वर्ग के साथ ही उच्च वर्ग को भी प्रभावित किया। इस विचारधारा का रामानुजाचार्य, रामानंद, वल्लभाचार्य से लेकर मध्या आचार्य तक का चिंतन और समर्थन प्राप्त हुआ।

इसी प्रभाव चिंतन में उत्तरी भारत में कृष्ण भक्ति और राम भक्ति धाराओं के प्रचार-प्रसार विकास में चार चांद लगा दिया। कृष्ण भक्ति की धारा में मीरा ने चैतन्य महाप्रभु के साथ अन्य आचार्यों के विचारों का प्रेम रस भक्ति काव्य के माध्यम से प्रभावित किया।

भारतीय भाषाओं के साहित्य में व्यापक स्तर पर राम काव्य की रचना का मूल आधार बना वाल्मीकि रामायण। हिंदी में 1286 ई. के आसपास कवि भूपति रचित ‘रामचरित रामायण’ का संकेत मिलता है परंतु यह कृति उपलब्ध नहीं है।

अतः तुलसीदास राम काव्य परंपरा में हिंदी के प्रतिनिधि के रूप में माने जाते हैं।

राम काव्य परंपरा का मंथन करने के उपरांत ही जिसे तुलसीदास जी ने पढ़ा होगा उसी से प्रभावित होकर राम चरित्र मानस के प्रारंभ में यह लिखकर अपना मनन चिंतन व्यक्त किया। कि …

‘नाना पुराण निगमा गम रघुनाथ गाथा’!

रामानंद द्वारा सन 1943 ईस्वी के आसपास उनके द्वारा रचित ‘राम रक्षा स्तोत्र’ को तुलसीदास जी ने उनकी परंपरा को आगे बढ़ाया जिसे रामानंद जी ने लोक शक्ति से जुड़ा था।

तुलसीदास जी का बचपन कष्ट में बीता इसके बारे में देखें —

बारे ते लाल बिललात द्वार – द्वार दीन।
जैसे रचना से संकेत मिलता है॥

गोस्वामी तुलसीदास जी पर हनुमान जी का विशेष प्रभाव पड़ा। हनुमान पूजा मध्य युग की शगुन राम उपासना का अनिवार्य अंग है। कहा जाता है कि राम को प्राप्त करने के लिए हनुमान की उपासना अति आवशक है।

तुलसीदास जी ने अनेकों जगह हनुमान की मूर्ति की स्थापना की जिसमें काशी (बनारस) मैं उन्होंने रामलीला के साथ-साथ लगभग एक दर्जन हनुमान जी की मूर्तियों की स्थापना की उन मूर्तियों में विशेष रूप से संकट मोचन मंदिर में और हनुमान फाटक पर बड़ी मूर्तियां स्थापित की बाकी हनुमान जी की, काशी में स्थापित मूर्तियां इन दो मूर्तियों से छोटी मूर्ति की स्थापना की।

उन्होंने काशी अयोध्या जगन्नाथपुरी रामेश्वरम द्वारिका होते हुए बद्रीनाथ की भी यात्रा की। वहीं से वे कैलाश और मानसरोवर जाने के उनके प्रमाण मिलते हैं। तुलसीदास चित्रकूट में अंत में जाकर बस गए वहीं उन्होंने सत्संग किया और वहीं रह गए। इसके उपरांत अयोध्या जाकर संवत् 1631 में मानस की रचना करने से जीवनकाल में ही गोस्वामी ने प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली।

तुलसीदास का 20 – 25 वर्ष काशी में कष्टप्रद बीता। कहा जाता है कि वह बिंदु माधव मंदिर के बगल संकट्ठा मंदिर के पास हनुमान जी की एक मूर्ति की स्थापना की थी परंतु काशी वासियों ने उन्हें शांति से लेखन का कार्य करने नहीं दिया। बाधा पहुंचाई जिसकी वजह से वह बिंदु माधव मंदिर में एक रूम में काशी के लोगों से छिपकर रचना की। नामा दास में ‘भक्त काल’ में कहा गया है कि—

‘जीव निस्तार हित वाल्मीकि तुलसी भयो’!

वर्तमान समय में कलिकाल का समय चल रहा है इसलिए हनुमान जी की पूजा का विशेष प्रभाव मानव पर पड़ सकता है। शास्त्रों का अध्ययन करने के उपरांत हमने अपना महत्व, मत व्यक्त करते हुए लिखा है कि हनुमान की गदा का प्रयोग प्रतीकात्मक हर हिंदू, हिंदुस्तानी को भी करना चाहिए। गुरु नानक देव जी ने लिखा है कि —

जानो रे जिन जागना,
अब जागिन की बारी।
फेरि कि जागो नानका,
जब सोबाऊ पांव पसारी॥

रहीम ने संप्रदाय से उठकर, संप्रदाय में बंध कर रचना नहीं किया, अपितु उन्होंने भी अपने काव्य में निर्गुण भक्ति, सगुण भक्ति, सूफी भक्ति के साथ ही सख्य, दास्य, शांत, श्रृंगार भक्ति के दर्शन लिखे हैं जो उनके साहित्य में मिलता है।

रहीम ने लिखा कि —

ते रहिमन मन आपनों,
कीन्हें चारु चकोर।
निसि बासर रहे,
कृष्ण चंद्र की ओर॥

वंदना में रहीम लिखते हैं कि —

पुनि – पुनि बंदो गुरु के पद जलजात।
जीहि प्रताप ते मन के तिमिर बिलात॥

ध्यान में रहीम लिखते हैं कि —

ध्यावहुं सोत विमोचन गिरजा ईश।
नागर भरण त्रिलोचन सुरसरी सीस॥

आगे भी रहीम कहते हैं कि —

जे गरीब पर हित करें,
ते रहीम बड़ लोग।
कहा सुदामा बापुरो,
कृष्ण मिताई जोग॥

भक्ति काल के आंदोलनकारी रचनाकारों पर ध्यान केंद्रित करने से ज्ञात होता है कि वास्तव में भक्तिकाल हिंदी साहित्य के इतिहास का सर्वोत्तम काल रहा है। माना जाता है कि भक्ति साहित्य का उदय पहले पहल दक्षिण भारत से हुआ। इसके बारे ईशा की दूसरी तीसरी शताब्दी के लिए लिखे गए साहित्य को पढ़ने से क्या होता है।

वहां पूर्व में बौद्ध और जैन धर्म का विशेष प्रभाव रहा हिंदी दोनों धर्म का प्रचार प्रसार और विकास परिलक्षित होता है। इन दोनों धर्मों का उन लोगों पर प्रभाव बढ़ने और सहने को लेकर इन्हीं प्रभाव के कारण भक्ति साहित्य को समृद्ध करने और यह जन तक उसे समझाने का प्रयत्न किया और विकसित करने का कार्य किया।

♦ सुखमंगल सिंह जी – अवध निवासी ♦

—————

— Conclusion —

  • “सुखमंगल सिंह जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस लेख में समझाने की कोशिश की है — यह मनुष्य जन्म मिला हैं भगवन भजन करने के लिए न की भोग विलाष के लिए। हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्ति काल महत्वपूर्ण स्थान रखता है। आदिकाल के बाद आये इस युग को ‘पूर्व मध्यकाल’ भी कहा जाता है। इसकी समयावधि 1375 वि.सं से 1700 वि.सं तक की मानी जाती है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है जिसको जॉर्ज ग्रियर्सन ने स्वर्णकाल, श्यामसुन्दर दास ने स्वर्णयुग, आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने भक्ति काल एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लोक जागरण कहा। सम्पूर्ण साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इसी में प्राप्त होती हैं।

—————

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यह लेख (भक्तिकालीन साहित्य – कवि आंदोलन।) “सुखमंगल सिंह जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें, व्यंग्य / लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी कविताओं और लेख से आने वाली पीढ़ी के दिलो दिमाग में हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम बना रहेगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे, बाबा विश्वनाथ की कृपा से।

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