Kmsraj51 की कलम से…..
♦ हृदय कमल। ♦
काव्य : हारे जीते।
शब्दों की वेणु की गुञ्जन कैसी बस गई,
मन के तारों में हमारे कैसे घुल गई।
आँखें संसार की सूर्य-चंद्र-सी खुल गई,
सर्दियों के कमलिनी झीलों में बसकर,
हृदय के भाव में बसकर खिल गई।
नीवर से उठकर प्रांजल कँवल विश्राव जैसे,
सुवास स्वर पीकर क्षितिज भी।
मधुसूदन चित्त विभ्रम बन पधारे,
उर समीर के हिय में भरा कम्पन सारा,
प्रीति का मंद – मंद गति क्रम जैसे।
रहा है कर समय विश्व को,
सोया हुआ सा हुआ जो निर्मोही।
खुद को हारकर जो सकल जन जीते,
विजित कर जो जन सकल हारे,
जो भर गई शास्त्र सिन्धु माया।
जगत में आलोक कर गई छाया,
मिलकर हृदय धन से छूट गई।
प्रियतमा की वास्तविक काया,
कथाओं में लोक-कांताओं के,
श्यामता के गुमान झाड़े।
♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦
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यह कविता (हृदय कमल।) “सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल’ जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।
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