Kmsraj51 की कलम से…..

ϒ कैसे करें ब्रह्मचर्य का पालन ? ϒ
ब्रह्मचर्य का अर्थ
ब्रह्मचर्य का अर्थ है सभी इन्द्रियों पर काबू पाना। ब्रह्मचर्य में दो बातें होती हैं- ध्येय उत्तम होना, इन्द्रियों और मन पर अपना नियंत्रण होना।
ब्रह्मचर्य में मूल बात यह है कि मन और इन्द्रियों को उचित दिशा में ले जाना है। ब्रह्मचर्य बड़ा गुण है। वह ऐसा गुण है, जिससे मनुष्य को नित्य मदद मिलती है और जीवन के सब प्रकार के खतरों में सहायता मिलती है।
ब्रह्मचर्य आध्यात्मिक जीवन का आधार है। आज तो आध्यात्मिक जीवन गिर गया है, उसकी स्थापना करनी है। उसमें ब्रह्मचर्य एक बहुत बड़ा विचार है। अगर ठीक ढंग से सोचें तो गृहस्थाश्रम भी ब्रह्मचर्य के लिए ही है। शास्त्रकारों के बताये अनुसार ही अगर वर्तन किया जाय तो गृहस्थाश्रम भी ब्रह्मचर्य की साधना का एक प्रकार हो जाता है।
पृथ्वी को पाप का भार होता है, संख्या का नहीं। संतान पाप से बढ़ सकती है, पुण्य से भी बढ़ सकती है। संतान पाप से घट सकती है, पुण्य से भी घट सकती है। पुण्यमार्ग से संतान बढ़ेगी या संतान घटेगी तो नुकसान नहीं होगा। पापमार्ग से संतान बढ़ेगी तो पृथ्वी पर भार होगा और पापमार्ग से संतान घटेगी तो नुक्सान होगा। यह संतान-निरोध के कृत्रिम उपायों के अवलम्बन से सिर्फ संतान ही नहीं रुकेगी, बुद्धिमत्ता भी रूकेगी। यह जो सर्जनशक्ति (Creative Energy) है, जिसे हम ‘वीर्य’ कहते हैं, मनुष्य उस निर्माणशक्ति का दुरुपयोग करता है। उस शक्ति का दूसरी तरफ जो उपयोग हो सकता था, उसे विषय-उपभोग में लगा दिया। विषय-वासना पर जो अंकुश रहता था, वह नहीं रहा। संतान उत्पन्न न हो, ऐसी व्यवस्था करके पति पत्नी विषय-वासना में व्यस्त रहेंगे, तो उनके दिमाग का कोई संतुलन नहीं रहता। ऐसी हालत में देश तेजोहीन बनेगा। ज्ञानतंतु भी क्षीण होंगे, प्रभा भी कम होगी, तेजस्विता भी कम होगी।
आज मानव समाज में ‘सेक्स’ का ऊधम मचाया जा रहा है। मुझे इसमें युद्ध से भी ज्यादा भय मालूम होता है। अहिंसा को हिंसा का जितना भय है, उससे ज्यादा काम-वासना का है। कमजोरों की जो संतानें पैदा होती हैं, वे भी निर्वीर्य या निकम्मी होती हैं। जानवरों में भी देखा गया है। शेर के बच्चे कम होते हैं, बकरी के ज्यादा। मजबूत जानवरों में विषयवासना कम होती है, कमजोरों में ज्यादा। इसीलिए ऐसा वातावरण निर्माण किया जाय, जो संयम के अनुकूल हो। समाज में पुरुषार्थ बढ़ायें, साहित्य सुधारें और गंदा साहित्य, गंदे सिनेमा रोकें।
∗ ब्रह्मचर्य का रहस्य। ∗
एक बार ऋषि दयानंद से किसी ने पूछाः “आपको कामदेव सताता है या नहीं ?”
उन्होंने उत्तर दियाः “हाँ वह आता है, परन्तु उसे मेरे मकान के बाहर ही खड़े रहना पड़ता है क्योंकि वह मुझे कभी खाली ही नहीं पाता।”
ऋषि दयानंद कार्य में इतने व्यस्त रहते थे कि उन्हें सामान्य बातों के लिए फुर्सत ही नहीं थी। यही उनके ब्रह्मचर्य का रहस्य था।
हे युवानों ! अपने जीवन का एक क्षण भी व्यर्थ न गँवाओ। स्वयं को किसी-न-किसी दिव्य सत्प्रवृत्ति में संलग्न रखो। व्यस्त रहने की आदत डालो। खाली दिमाग शैतान का घर। निठल्ले व्यक्ति को ही विकार अधिक सताते हैं। आप अपने विचारों को पवित्र, सात्त्विक व उच्च बनाओ। विचारों की उच्चता बढ़ाकर आप अपनी आंतरिक दशा को परिवर्तित कर सकते हो। उच्च व सात्त्विक विचारों के रहते हुए राजसी व हलके विचारों व कर्मों की दाल नहीं गलेगी। सात्त्विक व पवित्र विचार ही ब्रह्मचर्य का आधार है।
∗ विवाहित युवक-युवतियों के लिए। ∗
प्रत्येक नवविवाहित युवक-युवती को डॉ.कोवन की निम्न पंक्यिताँ अवश्य ध्यान में रखनी चाहिएः “नई शादी करके पुरुष तथा स्त्री विषय भोग की दलदल में जा धँसते हैं। विवाह के प्रारम्भ के दिन तो मानों व्यभिचार के दिन होते हैं। उन दिनों ऐसा जान पड़ता है, जैसे विवाह जैसी उच्च तथा पवित्र व्यवस्था भी मनुष्य को पशु बनाने के लिए ही गढ़ी गई हो।
ऐ नव विवाहित दम्पत्ति ! क्या तुम समझते हो कि यह उचित है ? क्या विवाह के पर्दे में छिपे इस व्यभिचार से तुम्हें शांति, बल तथा स्थायी संतोष मिल सकते हैं ? क्या इस व्यभिचार के लिए छुट्टी पाकर तुम में प्रेम का पवित्र भाव बना रह सकता है ?
देखो, अपने को धोखा मत दो। विषय-वासना में इस प्रकार पड़ जाने से तुम्हारे शरीर और आत्मा, दोनों गिरते हैं। ….और प्रेम ! प्रेम तो, यह बात गाँठ बाँध लो, उन लोगों में हो ही नहीं सकता, जो संयमहीन जीवन व्यतीत करते हैं।
नई शादी के बाद लोग विषय में बह जाते हैं। परन्तु इस अन्धेपन में पति-पत्नी का भविष्य, उनका आनन्द, बल, प्रेम खतरे में पड़ जाता है। संयमहीन जीवन से कभी प्रेम नहीं उपजता। संयम को तोड़ने पर सदा घृणा उत्पन्न होती है, और ज्यों-ज्यों जीवन में संयमहीनता बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों पति-पत्नी का हृदय एक दूसरे से दूर होने लगता है।
प्रत्येक पुरुष तथा स्त्री को यह बात समझ लेनी चाहिए कि विवाहित होकर विषयवासना का विकार बन जाना शरीर, मन तथा आत्मा के लिए वैसा ही घातक है जैसा व्यभिचार। यदि पति अपनी इच्छा को अथवा कल्पित इच्छा को पूर्ण करना अपना वैवाहिक अधिकार समझता है और स्त्री केवल पति से डरकर उसकी इच्छा पूर्ण करती है, तो परिणाम वैसा ही घातक होता है, जैसा हस्तमैथुन का।”
∗ भारतीय मनोविज्ञान कितना यथार्थ! ∗
पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक डॉ. सिग्मंड फ्रायड स्वयं कई शारीरिक और मानसिक रोगों से ग्रस्त था। ‘कोकीन’ नाम की नशीली दवा का वो व्यसनी भी था। इस व्यसन के प्रभाव में आकर उसने जो कुछ लिख दिया उसे पाश्चात्य जगत ने स्वीकार कर लिया और इसके फलस्वरूप आज तक वे शारीरिक और मानसिक रोगियों की संख्या बढ़ाते जा रहे हैं। अब पश्चिम के मनोवैज्ञानिकों ने फ्रायड की गलती को स्वीकार किया है और एडलर एवं कार्ल गुस्ताव जुंग जैसे प्रखर मनोवैज्ञानिक ने फ्रायड की कड़ी आलोचना की है। फिर भी इस देश के मनोचिकित्सक और सेक्सोलोजिस्ट कई बार हमारे युवावर्ग को फ्रायड के सिद्धान्तों पर आधारित उपदेश देकर गुमराह कर रहे हैं। कुछ लोग समझते हैं किः ‘ब्रह्मचर्य को वैज्ञानिक समर्थन प्राप्त नहीं है…. यह केवल हमारे शास्त्रों के द्वारा ही प्रमाणित है….’ पर ऐसी बात नहीं है। वास्तव में या तो लोगों को गुमराह करने वाले लोग फ्रायड के अंधे अनुयायी हैं, या तो वे इस देश में भी पाश्चात्य देशों की नाईं पागलों की और यौन रोगियों की संख्या बढ़ाना चाहते हैं जिससे उनको पर्याप्त मरीज मिलते रहें और उनका धंधा चलता रहे।
आज के बड़े-बड़े डॉक्टर और मनोवैज्ञानिक भारत के ऋषि-मुनियों के ब्रह्मचर्य विषयक विचारधारा का, उनकी खोज का समर्थन करते हैं। डॉ. ई. पैरियर का कहना हैः “यह एक अत्यन्त झूठा विचार है कि पूर्ण ब्रह्मचर्य से हानि होती है। नवयुवकों के शरीर, चरित्र और बुद्धि का रक्षक रखना सबसे अच्छी बात ही है।”
ब्रिटिश सम्राट के चिकित्सक सर जेम्स पेजन लिखते हैं- “ब्रह्मचर्य से शरीर और आत्मा को कोई हानि नहीं पहुँचती। अपने को नियंत्रण में रखना सबसे अच्छी बात है।”
आज कल के मनोचिकित्सक और यौन विज्ञान के ज्ञाता जो समाज को अनैतिकता, मुक्त साहचर्य (Free Sex) और अनियंत्रित विकारी सुख भोगने का उपदेश देते हैं उनको डॉ. निकोलस की बात अवश्य समझनी चाहिए। डॉ. निकोलस कहते हैं- “वीर्य को पानी की भाँति बहाने वाले आज कल के अविवेकी युवकों के शरीर को भयंकर रोग इस प्रकार घेर लेते हैं कि डॉक्टर की शरण में जाने पर भी उनका उद्धार नहीं होता और अंत में बड़ी कठिन रोमांचकारी विपत्तियों का सामना करने के बाद असमय ही उन अभागों का महाविनाश हो जाता है।“
वीर्यरक्षा से कितने लाभ होते हैं यह बताते हुए डॉ. मोलविल कीथ (एम.डी.) कहते हैं- “वीर्य तुम्हारी हड्डियों का सार, मस्तिष्क का भोजन, जोड़ों का तेल और श्वास का माधुर्य है। यदि तुम मनुष्य हो तो उसका एक बिन्दु भी नष्ट मत करो जब तक कि तुम पूरे 30 वर्ष के न हो जाओ और तभी भी केवल संतान उत्पन्न करने के लिए। उस समय स्वर्ग के प्राणधारियों में से कोई दिव्यात्मा तुम्हारे घर में आकर जन्म लेगी, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।”
हमारे ऋषि-मुनियें ने तो हजारों वर्ष पहले वीर्यरक्षा और संयम से दिव्य आत्मा को अवतरित करने की बात बताई है लेकिन पाश्चात्य बुद्धिजीवियों से प्रभावित हमारे देश के शिक्षित लोग उन महापुरुषों के वचनों को मानते नहीं थे। अब पाश्चात्य चिकित्सकों की बात मानकर भी यदि वे संयम के रास्ते चल पड़ेंगे तो हमें प्रसन्नता होगी। हिन्दू धर्मशास्त्रों के उपदेशों को विधर्मी एवं नास्तिक लोग स्वीकार न करें यह संभव है पर अब जबकि उन्ही बातों को विज्ञानी मान रहे हैं और अपनी भाषा से ब्रह्मचर्य की आवश्यकता बता रहे हैं, वैज्ञानिक स्वीकृति मिल रही है तब उसका स्वीकार सबको करना ही पड़ेगा और सीधे नहीं तो अनसीधे ढंग से भी उनक भारतीय संस्कृति की शरण में आना ही पड़ेगा। इसी मे उनका कल्याण निहित है।
ब्रह्मचर्य से कितने लाभ होते हैं यह बताते हुए डॉ. मोन्टेगाजा कहते हैं- “सभी मनुष्य, विशेषकर नवयुवक, ब्रह्मचर्य के लाभें का तत्काल अनुभव कर सकते है। स्मृति की स्थिरता और धारण एवं ग्रहण शक्ति बढ़ जाती है। बुद्धिशक्ति तीव्र हो जाती है, इच्छाशक्ति बलवती हो जाती है। सच्चारित्र्य से सभी अंगों में एक ऐसी शक्ति आ जाती है कि विलासी लोग जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। ब्रह्मचर्य से हमें परिस्थितियाँ एक विशेष आनंददायक रंग में रँगी हुई प्रतीत होती हैं।
ब्रह्मचर्य अपने तेज-ओज से संसार के प्रत्येक पदार्थ को आलोकित कर देता है और हमें कभी न समाप्त होने वाले विशुद्ध एवं निर्मल आनन्द की अवस्था में ले जाता है, ऐसा आनंद जो कभी नहीं घटता।”
तथाकथित मनोचिकित्सक जो विक्षिप्त फ्रायड के अंधे अनुयायी हैं वे अल्पबुद्धि प्रायः वर्तमानपत्रों और सामयिकों में स्वास्थ्य प्रश्नोत्तरी में हस्तमैथुन व स्वप्नदोष को प्राकृतिक, स्वाभाविक बताते हैं और हमारे युवावर्ग को चरित्रभ्रष्ट करने का बड़ा अपराध करते है, महापाप करते हैं।
डॉ. केलाग महोदय लिखते हैं- “मेरी सम्मति में मानव-समाज को प्लेग, चेचक तथा इस प्रकार की अन्य व्याधियों एवं युद्ध से इतनी हानि नहीं पहुँचती जितनी हस्तमैथुन तथा इस प्रकार के अन्य घृणित महापातकों से पहुँचती है। सभ्य समाज को नष्ट करने वाला यह एक घुन है, जो अपना घातक कार्य लगातार करता रहता है और धीरे-धीरे स्वास्थ्य, सदगुण और साहस को समूल नष्ट कर देता है।”
डॉ. क्राफट एर्विंग ने लिखा हैः “यह कली की सुंदरता एवं महक को नष्ट कर देता है जिसे पूर्ण फूल एवं पवित्र होने पर ही खिलना चाहिए परंतु ये कुण्ठित बुद्धिवाले इन्द्रिय-तृप्ति के लिए महान भूल करते हैं… इससे नैतिकता, स्वास्थ्य, चिन्तनशक्ति, चारित्र्य एवं कल्पनाशक्ति तथा जीवन की अनुभूति नष्ट हो जाती है।”
डॉ. हिल का कथन हैः “हस्तमैथुन वह तेज कुल्हाड़ी है, जिसे अज्ञानी युवक अपने ही हाथों से अपने पैर पर मारता है। उस अज्ञानी को तब चेत होता है, जब हृदय, मस्तिष्क और मूत्राशय आदि निर्बल हो जाते हैं तथा स्वप्नदोष, शीघ्रपतन, प्रमेह आदि दुष्ट रोग आ घेरते हैं।”
अतः जहाँ भी, किसी भी अखबार या पत्रिका में कोई मनोचिकित्सक या सेक्सोलोजिस्ट समाज को गुमराह करने के लिए ब्रह्मचर्य और नैतिकता के विरूद्ध लेख लिखते हों, जो समाज की आधारशिलास्वरूप चरित्र, संयम और नैतिकता को नष्ट करने का जघन्य अपराध कर रहे हों ऐसे लोगों का अथवा वर्तमानपत्र या पत्रिकाओं का व्यापक तौर पर विरोध करना चाहिए।
बड़े-बड़े महानगरों के रेलवे स्टेशनों पर जब गाड़ी पहुँचती है तब दीवारों पर विज्ञापन लिखे हुए दिखते है। ‘खोई हुई शक्ति को पुनः प्राप्त करें… संतान-प्राप्ति के इच्छुक संपर्क करें… शीघ्रपतन और नपुंसकता से ग्रस्त लोग संपर्क करें।’ आज से पचीस साल पहले इतने यौन रोगी भारत में नहीं थे जितने आज हैं। संयम और नैतिकता का ह्रास होने के कारण कई लोग कई प्रकार के रोगी बन गये। रोगों का उपचार करने की अपेक्षा रोगों को होने न देना उत्तम है। Prevention is better than cure.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O.) और कई राष्ट्रीय संस्थाएँ चेचक, पोलियो, टी.बी., मलेरिया, प्लेग आदि संक्रामक रोगों की रोकथाम के लिए करोड़ों डॉलर खर्च करती है, अपने लक्ष्य में कुछ हद तक वे सफल भी होती हैं परन्तु इन सबसे ज्यादा हानिकर रोग है वीर्यह्रास। इसके द्वारा कई प्रकार के शारीरिक, मानसिक और जातीय रोगों का उदभव होता है, सामाजिक अपराध बढ़ते हैं, अनैतिकता और चरित्रहीनता नग्न नृत्य होने लगता है जो आगे चलकर संपूर्ण जाति के स्वास्थ्य को नष्ट कर डालता है। वीर्यह्रासरूपी रोग का नियंत्रण करने से व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली भारी हानि से विश्वसमुदाय बच सकता है और उपरोक्त सभी स्तरों पर ब्रह्मचर्य के अप्रतिम लाभ से सर्वांगीण उन्नति प्राप्त कर सकता है।
∗ आधुनिक चिकित्सकों की दृष्टि में ब्रह्मचर्य। ∗
यूरोप के प्रतिष्ठित चिकित्सक भी भारतीय योगियों के कथन का समर्थन करते है। डॉ. निकोल कहते हैं- “यह एक भैषजिक और दैहिक तथ्य है कि शरीर के सर्वोत्तम रक्त से स्त्री तथा पुरुष दोनों ही जातियों में प्रजनन तत्त्व बनते हैं। शुद्ध तथा व्यवस्थित जीवन में यह तत्त्व पुनः अवशोषित हो जाता है। यह सूक्ष्मतम मस्तिष्क, स्नायु तथा मांसपेशीय उत्तकों (Tissues-कोशों) का निर्माण करने के लिए तैयार होकर पुनः परिसंचारण में जाता है। मनुष्य का यह वीर्य वापस ले जाने तथा उसके शरीर में विसारितत होने पर उस व्यक्ति को निर्भीक, बलवान, साहसी तथा वीर बनाता है। यदि इसका अपव्यय किया गया तो यह उसको स्त्रैण, दुर्बल तथा कृशकलेवर, कामोत्तेजनशील तथा उसके शरीर के अंगों के कार्यव्यापार को विकृत तथा स्नायुतंत्र को शिथिल (दुर्बल) करता है तथा उसे मिर्गी (मृगी) एवं अन्य अनेक रोगों और शीघ्र मृत्यु का शिकार बना देता है। जननेन्द्रिय के व्यवहार की निवृत्ति से शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक बल में असाधारण वृद्धि होती है।”
परम धीर तथा अध्यवसयायी वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चला है कि जब कभी भी रेतःस्राव को सुरक्षित रखा जाता तथा इस प्रकार शरीर में उसका पुनरवशोषण किया जाता है तो वह रक्त को समृद्ध तथा मस्तिष्क को बलवान बनाता है। डॉ. डिओ लुई कहते हैं- “शारीरिक बल, मानसिक, ओज तथा बौद्धिक कुशाग्रता के लिए इस वीर्य का संरक्षण परम आवश्यक है।”
एक अन्य लेखक डॉ. ई.पी.मिलर लिखते हैं- “शुक्रस्राव का स्वैच्छिक अथवा अनैच्छिक अपव्यय जीवनशक्ति का प्रत्यक्ष अपव्यय है। यह प्रायः सभी स्वीकार करते हैं कि रक्त के सर्वोत्तम तत्त्व शुक्रस्राव की संरचना में प्रवेश कर जाते हैं। यदि यह निष्कर्ष ठीक है तो इसका अर्थ यह हुआ कि व्यक्ति के कल्याण के लिए जीवन में ब्रह्मचर्य परम आवश्यक है।”
पश्चिम के प्रख्यात चिकित्सक कहते हैं कि वीर्यक्षय से, विशेषकर तरूणावस्था में वीर्यक्षय से विविध प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। वे हैं, शरीर में व्रण, चेहरे पर मुँहासे अथवा विस्फोट, नेत्रों के चतुर्दिक, नीली रेखाएँ, दाढ़ी का अभाव, धँसे हुए नेत्र, रक्तक्षीणता से पीला चेहरा, स्मृतिनाश, दृष्टि की क्षीणता, मूत्र के साथ वीर्यस्खलन, अण्डकोश की वृद्धि, अण्डकोशों में पीड़ा, दुर्बलता, निद्रालुता, आलस्य, उदासी, हृदय-कम्प, श्वासावरोध या कष्टश्वास, यक्ष्मा, पृष्ठशूल, कटिवात, शिरोवेदना, संधि-पीड़ा, दुर्बल युवक, निद्रा में मूत्र निकल जाना, मानसिक अस्थिरता, विचारशक्ति का अभाव, दुःस्वप्न, स्वप्न दोष तथा मानसिक अशांति।
उपरोक्त रोगों को मिटाने का एकमात्र इलाज है ब्रह्मचर्य, यौवनतत्त्व की सुरक्षा। दवाइयों से या अन्य उपचारों से ये रोग स्थायी रूप से ठीक नहीं होते।
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