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♦ खोता जा रहा बचपन। ♦
बचपन जीवन का वो सबसे सुंदर पड़ाव है जिसको इंसान बुढ़ापे तक भी नही भूलता। ये समय भगवान का दिया वो अनमोल उपहार है जिसको जीने के लिए भगवान भी इस धरा पर अवतरित होते है। बच्चा जो भी अपने बचपन में अठखेलियां करता है वो बड़ों के चेहरों पर मुस्कान लाता है।
पर अब लगता है उस बचपन को ग्रहण लग गया जिसमें वो लुभाने वाली मासूमियत व भोलापन दिखाई देता था। बचपन को न कोई डर न किसी को ख़ौफ होता था बस उन अनमोल लम्हों को जीता हैं।
पहले पांच वर्ष के बालक को किताबों की ओर ले जाया जाता था ताकि वो स्कूली शिक्षा को प्राप्त करने में पूरी तरह सक्षम हो जाये। बच्चा अपना खुल कर बचपन को जी सके। लेकिन हम बड़ो ने अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए शायद ये भी बच्चों से छीन लिया।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण है प्ले-वे-स्कूल। जहाँ पर बच्चे को लगभग दो साल में ही छोड़ दिया जाता है। कहने को वहाँ पर खेल-खेल में शिक्षा होती है। लेकिन आओं एक विचार करें कि तीन या चार कमरों की बन्द कोठियों में किस प्रकार कोई भी स्वतंत्र रहकर खेल सकता है।
जिस समय उसे माँ की ममता, दादा-दादी का दुलार, बड़े भाई-बहन का प्यार मिलना था वो तो सब उस खेल-खेल में शिक्षा के प्रांगण में खो गया। जिनके घर भरा-पूरा परिवार होता है उनका भी बचपन छीन जाता है।
जब बच्चा बड़े भाई-बहन को स्कूल जाते देखता है उसका जी भी मचलता है क्योंकि उस अबोध मन को कुछ पता नही होता। तो माता-पिता उसको उस प्राँगण में भेजने लग जाते है और सोचते है बच्चें की खुशी की खातिर किया।
लेकिन क्या कभी दस या पंद्रह दिन के बाद उस बच्चे की उस उदासी को भी महसूस किया है जब वो स्कूल जाने के नाम से ही रोने लगता है। चिड़चिड़ा हो जाता है। जिद्दी हो जाता है। अब उसकी बातों में बचपना नही एक झुंझलाहट दिखाई देती है।
क्योंकि उस प्राँगण में होता तो सब नियत समय पर ही है जैसे खाना, पीना, खेलना।
वो बच्चे को सुलाने में माँ की गोदी की लोरी तो खत्म ही हो जाती है। तो क्यूँ नही बच्चों को उनका बचपन ही उपहार में दिया जाए क्योंकि पूरी उम्र तो उसको इन्हीं नियमों में बंधे रहना है।
एक विचारणीय विषय है हम सब मिलकर विचार-विमर्श करें कि बच्चों का बचपन अपने घरों में ही किस प्रकार लौटाए, जिससे उनके खिलखिलाते बचपन में ही गुण भर जाए।
एक बच्चे का बचपन करें पुकार—
मुझसे मेरा बचपन मत छीनों यही पर तो मुझें पूरा जीवन जीना है।
यही पर वो खिलखिलाते अनुभव होंगे आगे तो बहाना पसीना है॥
मेरी मासूमियत मुझें लौटाकर मुझ पर एक अहसान करो।
भोले बचपन की यादें संजो लूं बस पूरा ये अरमान करो॥
♦ सुशीला देवी जी – करनाल, हरियाणा ♦
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- “श्रीमती सुशीला देवी जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस लेख के माध्यम से समझाने की कोशिश की है — बच्चे मन के सच्चे, इनसे न छीनो इनका बचपन। इनको खुलकर जी लेने दो इनका बचपन, अपनी बचपन की यादों को अपनी जहन में समेट लेने दो इन्हें, इन नन्हे राजकुमारों को ना बांधो स्कूल के बंधन में। जिस समय उसे माँ की ममता, दादा-दादी का दुलार, बड़े भाई-बहन का प्यार मिलना था वो तो सब उस खेल-खेल में शिक्षा के प्रांगण में खो गया। जिनके घर भरा-पूरा परिवार होता है उनका भी बचपन छीन जाता है।
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यह लेख (खोता जा रहा बचपन।) “श्रीमती सुशीला देवी जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे।
आपका परिचय आप ही के शब्दों में:—
मेरा नाम श्रीमती सुशीला देवी है। मैं राजकीय प्राथमिक पाठशाला, ब्लॉक – घरौंडा, जिला – करनाल, में J.B.T.tr. के पद पर कार्यरत हूँ। मैं “विश्व कविता पाठ“ के पटल की सदस्य हूँ। मेरी कुछ रचनाओं ने टीम मंथन गुजरात के पटल पर भी स्थान पाया है। मेरी रचनाओं में प्रकृति, माँ अम्बे, दिल की पुकार, हिंदी दिवस, वो पुराने दिन, डिजिटल जमाना, नारी, वक्त, नया जमाना, मित्रता दिवस, सोच रे मानव, इन सभी की झलक है।
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