Kmsraj51 की कलम से…..
♦ कानूनी दांवपेच। ♦
सजा – ए – मौत सुनाकर भरी अदालत में,
फिर से अपील कर होती जहां पर माफी है।
वह अदालत की है शहर – ए – आम तौहीन,
या फिर, न्याय के चाहवानो से बेइंसाफी है।
जहां दशकों लग जाते हैं हे राम! तुझे ही,
अदालत में अपना ही नियत न्याय पाने में।
सोचो जरा क्या हालत होती होगी ऐसे में,
कमजोर, सर्वहारा, मजलूमों की जमाने में ?
अदालत भली है उस परवरदिगार की,
जहां न कोई वकालत है, न ही सुनवाई है।
माफी का तो कोई भी सवाल ही न उठाता,
जिसे एक बार सजा साहेब ने जो सुनाई है।
इस दुनियाँ में वकालत और सुनवाई के,
एक से बढ़ कर एक नए – नए लफड़े हैं।
कानूनी दांव पेच के बीच में ही मुकदमें,
सालों दर सालों अदालत में जकड़े हैं।
मिलता किसे है वक्त पर ही न्याय यहां?
मुकम्मल न्याय की तो उम्मीद ही बेकार है।
मुड़ जाती है अधिकतर न्याय की तासीर वहां,
जिधर को खड़ी दिखती खुद ही सरकार है।
दफ़न हो जाती है कई फाइलें यहां,
कई सालों दर सालों धूल फाक रही है।
इस महंगी होती हुई न्याय व्यवस्था में,
गरीबों ने हमेशा ही बेइंसाफी सही है।
रिमांड – शिनाख्त के नाम पर है धांधली यहां,
तो कभी जांच, पड़ताल, सबूतों में घोटाला है।
फिर भी मिल जाए न्याय सालों बाद किसी को,
तो क्या मजा? न ही तो अंधेरा न ही उजाला है।
अपनी बात कहने को अदालत में भला,
वकीलों की वकालत की क्या दरकार है?
कौन दोषी है इस लूट की व्यवस्था का?
स्वयं अदालत है या कि फिर सरकार है?
मुकदमा मेरा है तो मैं खुद बात रखूं,
भला जरूरत ही क्या है वकीलों की?
जरूरी कर दी जाए कानून की पढ़ाई तो,
दरकार कहां रहेगी वकीली दलीलों की?
चश्मदीद गवाहों की गवाहियां ही जहां,
वक्त पल भर में ही बदल दी जाती है।
उस दुनियां की न्याय व्यवस्था पर तो,
मुझे अजीबो गरीब सी घिन आती है।
♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला – मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦
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- “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस कविता के माध्यम से समझाने की कोशिश की है — एक बेहतर कानून व्यवस्था जनमानस के लिए और अच्छे समाज और अच्छा माहौल का निर्माण करती है। मुजरिम जो भी हो उसे किसी कीमत पर न छोड़ा जाए, पर क्या ऐसा हो रहा हैं? पैसे वाले आखिर बच कैसे जा रहे है? क्यों कानून व्यवस्था के नाम पर आर्थिक और मानसिक रूप से गरीबों का शोषण हो रहा हैं? क्यों लम्बे इन्तजार के बाद भी उन्हें उचित न्याय नही मिल रहा है? आखिर अपनी बात कहने को अदालत में भला, वकीलों की वकालत की क्या दरकार है? कौन दोषी है इस लूट की व्यवस्था का? स्वयं अदालत है या कि फिर सरकार है? यह सोचने का विषय है।
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यह कविता (कानूनी दांवपेच।) “हेमराज ठाकुर जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।
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