Kmsraj51 की कलम से…..
♦हिमाचली लोक संस्कृति में प्रभु श्री राम और दिवाली। ♦
हिमाचल का नाम सुनते ही हर किसी के मन व मस्तिष्क में बर्फ से ढकी हुई चोटियां और प्राकृतिक सौंदर्य से लवरेज वादियां एकदम से अपना परिदृश्य प्रस्तुत कर देती है। जिस तरह से हिमाचल का नाम पर्यटकों को अपनी ओर स्वतः आकर्षित कर लेता है ठीक उसी तरह हिमाचल की लोक संस्कृति भी पर्यटकों को अपनी ओर लुभाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ती।
एक सहज, सरल, सुबोध और आतिथ्य धर्मी हिमाचली संस्कृति में जब प्रभु राम का समावेश हो जाता है तो यह संस्कृति और भी भाव ग्राह्य और मनमोहक बन पड़ती है। हिमाचल की इस सुरम्य प्राकृतिक छटा के बीच यहां की लोक संस्कृति में राम कहां – कहां है और उनकी मान्यताओं की क्या – क्या परंपराएं हैं तथा वे कब से हिमाचली संस्कृति में समावेशित हुए? ऐसे अनगिनत सवालों का एक शोध परक अवलोकन कुछ यूं किया जा सकता है:—
1 » लोक मान्यताओं, गाथाओं और गीतों में राम:—
यह किसी से नहीं छुपा है कि हिमाचल की लोक भाषा पहाड़ी है। इसका अपना कोई लिखित प्रारूप न होने के कारण यहां की अधिकतर लोक गाथाएं और स्मृतियां लोकगीतों में ही श्रुति – स्मृति परंपरा से अद्यतन प्रचलित है। इन लोकगीतों में राम संबंधित लोकगीत लोक गाथात्मक प्रचलन में आज भी निम्नलिखित प्रकार से हिमाचली संस्कृति में अपना स्थान ज्यों का त्यों बनाए हुए हैं।
यह जरूर है कि वर्तमान परिपेक्ष्य में प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने हिमाचली संस्कृति के पुरातन ढर्रे को थोड़ी ठेस पहुंचाई है, परंतु अभी भी हिमाचली संस्कृति के संवाहक अपनी इन पारंपरिक धरोहरों को संभालने में लगे हुए हैं।पहाड़ी में गाई जाने वाली पहाड़ी रामायण इन लोकगीतों की शैली में आज भी हिमाचल के विभिन्न जिलों में भिन्न – भिन्न तहजीबों में गेय शैली में विद्यमान है। इन्हीं लोकगीतों में से कुछ लोकगीत इस प्रकार से हैं:—
राम कृपा से संबंधित लोक गीत:—
राज होंदे हुए भी हुआ वनवास,
ओ रामा मेरे जोगणुआ।………… 2
— • —
“सूणे भी ता लया यारो गंगा रे ओ तारूओ,
रामा लया लखणा जो तारे ओ जी……!”
— • —
“पैरा भी ता लया धोणे दैए ओ मेरे मालको,
इन्हा री धुडा़ कै बणदे पात्थरा री नारी ओ जी ….!
एओ आसा काठा री बणी री ओ नावा,
एओ बणी गई ता दुई दूई, आसा केथी पाणी ओ जी..?
एक ता पहले ही थोकड़ा जे टबर नी ओ पाल्दा,
तूसे देख्या बगाड़दे आसा री कहाणी ओ जी……!”
(सन्दर्भ: — “श्री दिला राम मिस्त्री” घाट, जिला मंडी।)
यह पहाड़ी रामायण का पद्य भाग महात्मा तुलसी एवं महर्षि बाल्मीकि रामायण के केवट प्रसंग से मेल खाता है। इसमें राम और लक्ष्मण को नदी से पार पहले ले जाने के लिए आग्रह किया गया है और प्रत्युत्तर में केवट राम के चरणों की धूलि का महत्व बताते हुए अपनी लकड़ी से बनी हुई नौका के नारी बनने के डर से उन्हें अपना पांव नौका में बैठने से पहले केवट के हाथों धुलवाने की प्रार्थना करते हैं।
केवट यह सिद्ध करने की कोशिश करता है कि कहीं प्रभु के अनधुले चरण नाव में पड़ने से केवट की गृहस्थी में किसी प्रकार का खलल न पड़ जाए और केवट के छोटे से परिवार का गुजर – बसर ही कहीं ठप न पड़ जाए। कहीं नाव के नारी बन जाने पर केवट के परिवार की रोजी रोटी सदा के लिए बंद न हो जाए और दो – दो पत्नियां केवट के लिए कलह का कारण न बन जाए। इस प्रकार की बात कह कर केवट राम के चरणामृत को चालाकी से प्राप्त कर लेना चाहता है। यह सब घटना श्रीराम द्वारा अंदर ही अंदर भांप ली जाती है और वे अपने पांव केवट से धुलवाने के लिए तैयार हो जाते हैं।
राम रावण युद्ध संबंधी लोक गीत:—
“भाई जुद्ध लागो रे, रामो – रावण रा,
जुद्ध लागो रे, केसी री ताईए॥”
(संदर्भ: — श्री लाल सिंह सिरमौर से प्राप्त जानकारी।)
यह राम रावण युद्ध की पूरी गाथा गेय शैली में लोग बड़ी श्रद्धा से गाते भी हैं और इसके साथ – साथ छुकड़ा नृत्य भी करते हैं। यह नृत्य जलते हुई विशाल अग्निकुंड में देवताओं के गुरों (पुजारियों) द्वारा एक विशेष प्रकार के ऊनी वस्त्र को धारण करके छलांग लगाते हुए किया जाता है। हैरत अंगेज करने वाली घटना यह होती है कि इतनी भारी आग में प्रवेश करने के बाद भी वे नंगे पांव और ऊनी वस्त्र धारी गूर तनिक भी आग से नहीं झुलसते।
यह प्रक्रिया सिरमौर की गिरी पार की पहाड़ियों में तो होती ही होती है, इधर शिमला और सोलन आदि क्षेत्रों में भी यह छुकड़ा नृत्य एक विशेष अवसर पर कुतप वाद्य यंत्रों की पारंपरिक वैदिक धुनों के साथ किया जाता है। जब ऊनी वस्त्र धारी गुर लोग गले में चांदी की बनी मालाओं और हाथ में चांदी की बनी भाले जैसी छड़ी के साथ यह नृत्य करते हैं तो देखते ही बनता है। एक विहंगम दृश्य उत्पन्न होता है।
सिया लोकगीत: —
“सिया ऊबे बिउजाल, सिया ऊबे बिउजाल..2
लोखणा ढोन्दाणे पाणे,लोखणा ढोन्दाणे पाणे।
सिया किन्दे खे आए , सिया किन्दे खे आणे?…2
सिया रामा रे राणे, सिया रामा रे राणे……2
सिया पाणी खे लाओ रे, सिया पाणी खे लाओ ।
सिया ढोन्दे ने पाणी रे, सिया लान्दे ने पाणी।”
(संदर्भ: — श्री लाल सिंह सिरमौर से प्राप्त जानकारी।)
यहां वनवास के दौरान श्री लक्ष्मण नित्य प्रति सेवा करने के पश्चात उब जाने के कारण प्रभु श्री राम जी से माता सीता के प्रति शिकायत प्रकट करते हुए कहते हैं कि मैं नित्य प्रति पानी लाने जाता हूं और माता सीता तो दिन भर बैठी रहती है। वे तो कुछ भी नहीं करती है। ऐसी शिकायतों के चलते जब माता सीता पानी लाने स्वयं जाती है तो उनको मायावी मृग मिलता है। वे उस मृग को पकड़ने की जिद करती है। इसमें ठीक वही घटना आगे के गीत में दर्शाई गई है, जो प्रतिष्ठित रामायण में घटती है।
बरमा ने जाए “बिरसु” (बिरसु नाटी) :—
“थानों तेरो हनोले देवा, रोवे हनोले आये।
तेरी आए चरणो देवा, लोए महिमा गाए॥”
(देव हनोल की महिमा)
“बरमेना जाए रे देवा मेरा,
बरमेना जाए रे, बरमेना जाए रे।
हाटकोटी गाएने देवी दुर्गा माई रे ,
भूले देली बिसरो रास्ता लाई रे।
भूले देली बिसरो रास्ता लाई रे,
बिरसु पखवाणो बरये खे जाए रे।
—•—
तेरी जाणी हनोले देवा होले पाणी री कोई दाडीए,
त्यूणी सेटो मोड़ों दो रो सिहनी सोई रे,
बरमेना जाए बिरसु बरमे ना जाए रे।”
संदर्भ: — (श्री लाल सिंह सिरमौर से प्राप्त जानकारी।)
असल में यह गीत सिरमौरी लोक भाषा में देव हनोल (महासू राम) के गुर की घटना और महासु राम के शक्तिशाली प्रभाव का प्रचार करने के सम्बन्ध में गया जाता है।
असल में घटना यह है कि पुराने समय में देव का गुर लोगों से पाथा (फसल आने पर लोगों से अनाज के दाने देव सेवा हेतु लेना) इक्कठा करता था। देव हनोल महसूस राम के गुर ने बीच में यह प्रक्रिया इसलिए छोड़ दी क्योंकि उनके इलाके के रास्ते में घना जंगल था जिसमें एक शेरनी की गुफा थी और साथ में तौन्स (तमसा) नदी पर एक जर्जर लकड़ी का पुल खतरे का कारण था। इन के डर से गुर ने यह पाथा इकट्ठा करना बंद कर दिया था। परंतु देव महासू राम के प्रभाव से गुर को एक भयंकर प्रकोप होता है जिसके चलते उसे यह पाथा ग्रहण करने के लिए जना ही पड़ता है। वह शेरनी की गुफा से तो जैसे तैसे बच निकलता है, परंतु तौन्स नदी पर बने जर्जर पुल के टूट जाने से वह नदी में गिर जाता है। देव महासू राम की कृपा से गुर जी तो बच जाते है, पर उनका पाथा, शूप और डाल (अनाज इकट्ठा करने के सामान) नदी में बह कर यमुना नदी में जा मिले। वहां से वे बहते – बहते दिल्ली पहुंचे। वहां पर दिल्ली के राजा के मछुआरों ने उनको नदी में आया हुआ देखकर पकड़ कर बाहर निकाला और अपने बच्चों को खेलने के लिए दे दिया।
इस बीच दिल्ली के राजा के पेट से अजीब – अजीब जानवरों की आवाजें आने लगी। राजा ने इसके बारे में कई जगह छानबीन की। अंत में राजा को पता चला कि उसके राज्य में ऐसा – ऐसा देव महासू राम का सामान पहुंचा था, जिसे मछुआरों ने अपने बच्चों को खेलने के लिए दे दिया। उससे देव महासू राम राजा से नाराज है। तब राजा ने उन सभी सामानों को यथाशीघ्र हनोल में जाकर देव महासू राम के मंदिर में पहुंचाया। उस पर देव महासू ने राजा को प्रतिवर्ष लगने वाले भंडारे में नमक दंड के रूप में देने के लिए कहा। इस दंड को अदा करने के पश्चात राजा की वे अजीब – अजीब आवाजें सदा के लिए समाप्त हो गई। लोक मान्यता यह भी है कि आज भी दिल्ली से राष्ट्रपति भवन से वह नमक का पैकेट हनोल के इस बड़े मंदिर में नियमित रूप से प्रतिवर्ष भंडारे के लिए आता है।
देव महासू का मंदिर असल में भगवान राम का ही मंदिर है।
लोक मान्यता के मुताबिक उत्तराखंड में त्यूणी से लगभग 40 किलोमीटर दूर हनोल में बना देव महासू का मंदिर असल में भगवान राम का ही मंदिर है। यह एक पुरानी घटना है। इस जगह पर एक भयानक राक्षस रहता था। उस राक्षस के प्रकोप से निजात पाने के लिए, इस स्थान पर भगवान राम की प्रतिष्ठा कर के देव महासू के रूप में स्थापना की गई, जिसे बौठा (बड़ा) महासू कहा जाने लगा और इसके साथ – साथ इसी क्षेत्र के आसपास तीन और महासू मंदिर है, जिनका संबंध क्रमशः भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न से है। सिरमौरी लोग हाटकोटी होते हुए इस भव्य मंदिर की यात्रा पर प्रतिवर्ष श्रद्धा पूर्वक जाते हैं।
बरलाज लोक गीत (सोलन और शिमला): —
श्री जियालाल ठाकुर सोलन द्वारा प्रदत जानकारी के मुताबिक बरलाज का शुद्ध रूप बलिराज पूजन है। परंतु प्राकृत भाषा में चलता हुआ इसका अपभ्रंश रूप बरलाज बन गया। श्री जियालाल ठाकुर जी ने सन 2006 मैं ढोल नगाड़ों की थाप पर ‘राष्ट्रीय गान, राष्ट्रीय गीत और सारे जहां से अच्छा’ गीतों को वैदिक धुनों के ताल पर तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम के सामने गायन कर पेश किया गया था, जिसके लिए उन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
इसके साथ – साथ सन 2015 में हिमाचल प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल आचार्य देवव्रत के समक्ष इन्होंने पहाड़ी रामायण (बरलाज) को कुतप वाद्य यंत्रों की वैदिक धुनों पर गा कर प्रस्तुत किया, जिसके लिए राज्यपाल महोदय ने इन्हें विशेष संस्तुति से नवाजा। हाल ही में इनकी एक शोध पुस्तक “विरासती संस्कृति का डंका” छप कर आने वाली है। अतः इस आधार पर इनके द्वारा प्रदत बरलाज संबंधी जानकारी विशेष महत्वपूर्ण है। इससे पहले कि इस विषय को गहनता से समझे, हमें कुतप वाद्य यंत्रों के बारे में जान लेना चाहिए। इसमें चार प्रकार के वाद्य यंत्र आते हैं, जो वैदिक परंपराओं से संबंध रखते हैं:—
अवनाद वाद्य : —
ढोल, नगाड़े, मृदंग, डमरु आदि चमड़ी द्वारा निर्मित वाद्य यंत्रों की धुने इस श्रेणी में आती हैं।
सुशीर वाद्य : —
शहनाई, शंख, करनाल, रणसिंगा, बांसुरी, तुरी, सिंगी आदि फूंक से बजाए जाने वाले वाद्य यंत्रों की धुने इसमें आती है।
घन वाद्य: —
थाल, घंटी, घड़ियाल, करताल आदि धातु द्वारा बने हुए वाद्य यंत्रों से निकलने वाली धुने इस श्रेणी में आती है।
तार वाद्य: —
एक तारा, तुंबा, वीणा, धनतारू या धनोटू, सारंगी आदि तार से बजने वाले वाद्य यंत्रों की धुने इस श्रेणी में आती है।
नोट: — इन सभी वाद्य यंत्रों के एक साथ सामूहिक वादन को नवगत ताल के नाम से भी जाना जाता है, जिससे नवग्रह प्रसन्नता के साथ – साथ देव पूजन भी किया जाता है। श्री जिया लाल ठाकुर के मुताबिक बरलाज गायन की परम्परा त्रेता काल से ही हिमाचल में प्रचलित थी। यह पहले कार्तिक अमावस्या के दिन विशेष तौर से गाई जाती थी। इसके पीछे वे रामायण से संबंधित एक ऐतिहासिक घटना का जिक्र करते हैं।
उनके अनुसार जब पताल के राजा अहिरावण ने रावण के अनुरोध पर छल से राम और लक्ष्मण को पाताल लोक में नागपाश से फांसकर अचेत करके चुपके से पहुंचाया था तो उनकी जगह – जगह खोज करने के बाद भी कोई जानकारी हासिल नहीं हो पा रही थी। तत्कालीन पाताल के राजा अहिरावण उनकी बलि पाताल की देवी “सकला” को चढ़ाने वाले थे। इस बीच राक्षसी माया से सभी दैवीय शक्तियां अवरुद्ध की जा चुकी थी। ऐसे में जब महाराज बलि अपने भगवान “वामन” के पास यह सूचना लेकर आते हैं कि श्री रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी इस तरह से पाताल में अचेत पड़े हैं, उन्हें बचा लो। वरना उन्हे कुछ ही देर में “सकला” देवी को भेंट चढ़ा दिया जाएगा। यह खबर सुनकर भगवान “वामन” पृथ्वी पर हनुमान जी से मिलने आते हैं और उन्हें सारी कहानी सुनाकर सचेत करते हैं। क्योंकि उनकी शक्तियां उन्हें स्मरण कराने पर पुनः जागृत हो जाया करती थी।
हनुमान जी – सूक्ष्म रूप बनाकर प्रविष्ट।
बाकी सभी शक्तियां असुरी माया के वश में की जा चुकी थी। तब हनुमान जी क्रोधित होते हैं और पाताल लोक में जाकर पाताल लोक के राजा की मालिनी के हाथ की फूल माला में सूक्ष्म रूप बनाकर प्रविष्ट हो जाते हैं, जो फूल मालाएं देवी सकला को चढ़ाने के लिए वह मालिन राजा के आदेश पर हर रोज की तरह ले जा रही थी। उन फूल मालाओं के माध्यम से हनुमान सकला देवी तक पहुंचते हैं और उस मूर्ति के अंदर प्रविष्ट हो जाते हैं। अब मूर्ति के अंदर से हनुमान स्वयं तरह – तरह की आवाजें निकालते हैं। असुरों द्वारा पेश किया गया सब कुछ चट कर जाते हैं। असुर यह समझते हैं कि आज तो हमारी कुलदेवी बहुत प्रसन्न है जो हमारे द्वारा प्रस्तुत किया गया यह बहुत कुछ खा गई।
ऐसे में हनुमान पूर्ण रूप को धारण करते हुए असुरों के सामने प्रकट होते हैं और भयंकर युद्ध करके उन सब का नाश करके अपने प्रभु श्री राम और लक्ष्मण को पाताल लोक से छुड़वा कर ले आते हैं। इस समय जब हनुमान श्री राम और लक्ष्मण को पाताल से ले आ रहे थे, तो श्री राम जी ने महाराज बलि को इस कृतज्ञता के लिए एकवचन दिया कि आज से हर कार्तिक अमावस्या को धरती पर मेरे नाम के साथ – साथ आपके नाम की भी लोग पूजा किया करेंगे।
अतः बरलाज को तब से हर कार्तिक मास की अमावस्या को गाया जाने लगा। इसमें महाराज बलि का पूजन भी लोग भगवान वामन और भगवान राम के साथ – साथ विधिवत करते थे और बरलाज का गायन कर श्री राम के गुणगान के साथ – साथ बलि की कृतज्ञता और महानता का भी गुणगान करते थे। परंतु इसमें भी बीच में किन्हीं कारणों से कहीं व्यवधान पड़ा।
फिर इस बरलाज को द्वापर काल में पांडवों के द्वारा पुनर्जीवित किया गया। पांडवों ने अपनी पहली बरलाज सोलन में बीड धार की चोटी पर गाई थी। उन्होंने इस धार की चोटी पर अपने अज्ञातवास के दौरान एकादश ज्योतिर्लिंगों की स्थापना की थी और उनकी पूजा अर्चना करके बरलाज गायन का पुनरुत्थान किया था।
सर्यांजी नामक गांव में पांच पांडवों के मंदिर
तब से यह परंपरा आज तक निर्वाहित होती आई है। आज सर्यांजी नामक गांव में पांच पांडवों के मंदिर बने हैं। वहां से प्रतिवर्ष पांच पांडवों की जातर (मेला जलूस) बीड़ धार तक जाती है। फिर रात को गुरु लोग मुद्रो (हाथ मुंह धोकर के अच्छी तरह से ब्रश करके कुला आदि करने के पश्चात निर्जल व्रत रखना) बांधते हैं और फिर कहीं भी नहीं जाते हैं। तब सारी रात वे गुरु लोग अन्य सिर्फ पुरुष लोगों के साथ छुकडा नृत्य रात को करते हैं, जिसमें वे ऊनी वस्त्र धारण कर नंगे पांव से अपनी जटाएं फैला कर भारी अग्निकुंड में भी प्रवेश करते हैं। उससे भी उनका कुछ नहीं बिगड़ता।
यह सारा नृत्य कुतप वाद्य यंत्रों की धुनों से विधिवत देव पूजन करके बरलाज गायन के साथ किया जाता है। सुबह मुद्रो खोल दिया जाता है और महिलाओं के साथ “सिया समृति” गायन गाते हुए सामूहिक नृत्य किया जाता है और उत्सव समाप्त किया जाता है। श्री जिया लाल ठाकुर के अनुसार यह गायन गायत्री छंद और देश तथा कल्याण राग के आधार पर गाया जाता है। अब लोग परंपरा के अनुसार यह बरलाज गायन हर वर्ष सायर पर्व (अश्वनी मास की संक्रान्ति) से शुरू किया जाता है और मकर संक्रान्ति को समाप्त किया जाता है। इस गायन में भगवान राम से संबंधित सोलह संस्कारों को लोग क्रमबद्ध इस लंबे अंतराल में कथा के रूप में गाते हैं और प्रभु श्री राम के सद चरित्रों का बखान करते हैं। प्रभु के जन्म से लेकर निर्वाण तक का पूरा वृतांत गायन शैली में वर्णन किया जाता है। यह परंपरा हिमाचल के विभिन्न पहाड़ी क्षेत्रों में भी कुछ यूं ही लंबे अंतराल तक विद्यमान रही है। हमारे यहां मंडी में एक प्रसिद्ध कहावत है: —
“जौ कणक निसरी, कथा बझुणी बिसरी।”
अर्थात शरद ऋतु शुरू होते ही लोग घरों – घरों में झुंढों में इकट्ठा होते थे और कथाएं गा – गा कर सुनते – सुनाते थे। जैसे ही जौ और गेहूं में वालियां निकलती थी, तब वे सब भूल जाया करते थे। क्योंकि फिर उन पर काम का बोझ पड़ जाता था। उक्त घटना के अनुसार सोलन और शिमला के आस – पास गाई जाने वाली बरलाज के कुछ अंश: यूं देखे जा सकते हैं: —
भगवान वामन और महाराजा बली वृतांत: —
“उटा – उटा बामणा डबारीरे डेवा …..2
वारी पारी बामणा मारी गंगा री छाला….2
मांगी लो बे बामणा रे दाण,
मांगी लो बे बामणा रे ss दाण।
जे त मांगे, ताखे देऊ प्रमाण…2
जेओडी जेई राजेया माखे दाणो री देणी …2
जेओडी बिना बोलणी जिशे बासुकी नागे …2
ढाई कदम राजेया माखे पृथ्वी देणी ……2
एकी बीखे नापेया से आधा संसार ……..2
दूजी बीखे नापेया से सारा संसार ……….3
तीजी बीखो खे जगा न रोए ……..2
राजा बलिए कनगी ढाली …………..2″
हनुमान का श्री राम एवं लक्ष्मण को बचाने हेतु जाना: —
“रामा लखणा रे बले लाए देणी ……2
—•—
हणो बे हुन्दरिया मेरा, हणो बे हुन्दरिया मेरा।”
(हुन्दरिया का अर्थ क्रोधित होना )
“कणदी ढणदी फूल मालण आई ………2
आजकै जे फूलणो बड़े गरकै होए ……..2
मुंह मांगे भोजनो म्हारी देविए खाए,
शौ घड़े दुधा रे म्हारी देविए पीए ………..2
—•—
बोलो हणो बे हुन्दरिया मेरा……………2″
ये सारे प्रमाण सोलन, सिरमौर और शिमला आदि के इलाकों में दीपावली के अवसर पर या फिर किसी संक्रांति, विवाह आदि उत्सवों के अवसर पर विशेष तौर में स्थानीय कलाकारों द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले लोक मंचनो में देखने को मिल जाते हैं। यदि श्री जिया लाल ठाकुर की माने तो हिमाचल वैदिक संस्कृति का गर्भ गृह रहा है। ठाकुर साहब किन्नौर जिले को वैदिक संस्कृति का प्रमुख केंद्र मानते हैं।
कुल्लू घाटी की लोक प्रचलित मान्यता एवं श्रीराम से संबंधित घटनात्मक गाथा: —
इधर कुल्लू घाटी में भगवान राम के हिमाचली संस्कृति में प्रवेश को लेकर एक अलग प्रकार की लोक प्रचलित मान्यता एवं कथा है। यहां के लोगों का मानना है कि वर्तमान में जो जिला कुल्लू के मुख्यालय में स्थित सुल्तानपुर में श्री रघुनाथ जी का मंदिर है, उसकी मूर्तियां श्री त्रेता नाथ मंदिर श्री अयोध्या धाम से लाई गई थी। इसके पीछे यहां के स्थानीय लोग एक बहुत पुरानी रोचक कहानी सुनाते हैं। लोगों का मानना है कि सन 1637 से 1662 तक कुलूत राज्य की राजगद्दी पर एक धर्मात्मा एवं प्रतापी राजा “श्री जगत सिंह” जी विराजमान रहे। उन्होंने 1637 ई में राजगद्दी संभाली। एक दिन उनसे टिप्परी गांव के एक ब्राम्हण “दुर्गा दत्त “की अनजाने में हत्या हो गई। उस ब्राम्हण की आत्मा ने उन्हें ब्रह्महत्या का शाप दे डाला, जिसके चलते उन्हें हर वक्त के भोजन में छोटे – छोटे कीड़े मकोड़े ही दिखाई देने लगे और धरती का सारा पानी खून जैसा लाल नजर आने लगा। ऐसे में राजा को कुछ भी खाना पीना बहुत ही मुश्किल हो गया। इसके साथ – साथ राजा के शरीर में कुष्ठ रोग निकल आया।
सुप्रसिद्ध एवं सिद्ध संत “कृष्णदास पयहारी” जी
उन्हीं दिनों शहर के समीप ही एक वैष्णो संप्रदाय के सुप्रसिद्ध एवं सिद्ध संत “कृष्णदास पयहारी” जी रहते थे। वे सिर्फ पेय पदार्थों का ही सेवन करते थे। किसी प्रकार का अन्य – फल आदि नहीं खाते थे। इसीलिए उनके नाम के साथ पयहारी लगाया जाता था। परंतु स्थानीय लोगों में “फुहारी बाबा” के नाम से ही जानते थे। यह अपभ्रंश रूप ही इलाके में प्रसिद्ध था।
राजा ने अपनी समस्या का समाधान जगह – जगह करवा लिया था। हर देवी – देवता और वैद्यों के पास जा – जा कर के राजा थक चुका था परंतु किसी से भी कोई राहत मिलती हुई नजर नहीं आ रही थी। एक दिन राजा फुहारी बाबा के पास अपनी समस्या लेकर उपस्थित होते हैं। राजा की समस्या को सुनकर के फुहारी बाबा ने अपनी सिद्धि शक्ति से उनका भोजन में कीट पतंगे दिखना और पानी का खून जैसा लाल दिखना तो तुरंत प्रभाव से ठीक कर दिया था परंतु उनका कुष्ठ का रोग फिर भी ठीक नहीं हो सका था। इस बीच राजा इस चमत्कार को देखकर के प्रभावित होकर फुहारी बाबा का शिष्य बन गया। बाबा ने राजा को भगवान नरसिंह की मूर्ति दी। राजा ने वह मूर्ति अपनी राजगद्दी पर विराजमान करवा दी और स्वयं एक छड़ी दार (प्रधान सेवक) की भूमिका में राज्य की सेवा करने लगे।
बाबा की चमत्कृत करने वाली अपार सिद्धि शक्ति से राजा बहुत प्रभावित हुआ और उनकी धार्मिक भावना और भी बलवती हो गई। एक दिन फिर से राजा बाबा के पास अपने कुष्ठ रोग निवारण हेतु प्रार्थना लेकर गए। तब बाबा ने उन्हें सलाह दी कि इस रोग को खत्म करने की क्षमता सिर्फ और सिर्फ त्रेता नाथ श्री रघुनाथ जी के ही पास है। अतः इसके लिए तुम्हें श्री अयोध्या धाम में विराजमान श्री त्रेता नाथ जी की मूर्ति और माता सीता जी की मूर्ति को यहां ले आना होगा। मूर्तियों को अयोध्या से ले आने के लिए बाबा ने अपने शिष्य “पंडित दामोदर दास” को भेजा, जो उन दिनों की सुकेत रियासत में रहते थे। आजकल यह सुकेत रियासत जिला मंडी का सुंदर नगर कस्बा है।
वैदिक रीत में किसी भी मूर्ति का असली माप
पंडित दामोदर दास जी बाबा के आदेशानुसार श्री अयोध्या धाम पहुंचे और वर्षभर वहां श्री रघुनाथ जी के पूजन अर्चन की विधियां और सारे क्रियाकलापों को गौर से देखा। फिर एक दिन सुअवसर आने पर वे भगवान श्री रामचंद्र और माता सीता की त्रेता काल में बनी मूल मूर्तियों को उठाकर कुल्लू की ओर चल दिए। लोक मान्यता है कि ये मूल मूर्तियां त्रेता काल में भगवान श्री रामचंद्र जी ने स्वयं ही अपने अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर बनाई थी। ये अंगुष्ट प्रमाण है। वैदिक रीत में किसी भी मूर्ति का असली माप यही माना जाता है। वैदिक रीति में यह मान्यता है कि मूर्ति का माप अंगुष्ट प्रमाण होना चाहिए। क्योंकि मूर्ति आत्मा का प्रतिरूप होती है। जिस प्रकार आत्मा अति सूक्ष्म होती है, दिखाई ही नहीं देती। उसी प्रकार मूर्ति भी अति लघु होनी चाहिए। अतः वे मूल मूर्तियां है, जिन्हें आज भी कुल्लू में बने श्री रघुनाथ जी के मंदिर में पर्दे के अंदर रखा जाता है। इनके दर्शन किसी को नहीं करवाए जाते। किसी विशेष घड़ी या स्थिति में इनका दर्शन प्राप्य है। परंतु आम दिनों में इनको परदे से बाहर नहीं किया जाता।
लोक मान्यता
लोक मान्यता के अनुसार पंडित दामोदर दास चलता – चलता जब मंडी रियासत में वर्तमान कनैड नामक स्थान पर पहुंचा तो वहां उन्होंने मूर्तियों समेत रात्रि विश्राम किया। अतः लोगों ने वहां भी मंडी के राजा की मदद से एक पुरातन शैली में राम मंदिर का निर्माण कर डाला। वहां से पंडित जी मणिकरण पहुंचे और उन मूल मूर्तियों को मणिकरण में ही स्थापित किया।
वहीं पर अयोध्या की रीत से नित्य प्रति रघुनाथ जी की पूजा अर्चना होने लगी। राजा जगत सिंह भी नित्य प्रति प्रभु श्री राम और माता सीता के चरणामृत को ग्रहण करने सुबह – सुबह मणिकरण पहुंच जाते। कुछ दिनों यह सिलसिला चला। कुछ दिनों बाद राजा का कुष्ठ रोग चरणामृत के पान से नदारद हो गया। इससे राजा की धार्मिक भावना और बलवती हुई। यह खबर जब इलाके में फैली तो मूर्तियों के चमत्कार से प्रभावित होकर कुल्लू घाटी के सभी देवी देवता मूर्तियों का दर्शन करने मणिकरण आ पहुंचे।
कुल्लू का राज्य रघुनाथ जी के नाम
तब राजा श्री राम जी और माता सीता की मूर्तियों को मणिकरण से कुल्लू सुल्तानपुर में स्थित रघुनाथपुर ले गए। वहां उन्होंने श्री रघुनाथ जी के भव्य मंदिर का निर्माण किया और उसी में मूर्तियों को विधिवत प्रतिष्ठित एवं स्थापित किया। तब से लेकर राजा ने अपनी राजगद्दी पर रघुनाथ जी को विराजमान करवाया और स्वयं उनका छड़ी दार (प्रधान सेवक) होकर रहने की घोषणा की। इसके साथ – साथ राजा ने अपने राज्य के अलग – अलग इलाकों को 365 देवी – देवताओं में बतौर जागीर बांट दिया। तब से कुल्लू का राज्य रघुनाथ जी के नाम पर चलने लगा और राज्य के भिन्न-भिन्न क्षेत्र देव जागीरों के नाम से चलने लगे।
लोक मान्यता यह भी है कि तभी से प्रतिवर्ष कुल्लू के ऐतिहासिक ढालपुर मैदान में दशहरे का मेला आयोजित होने लगा। इस मेले में सुल्तानपुर से एक लकड़ी के बने भव्य रथ पर रघुनाथ जी की सवारी निकलती है और उनके पीछे जिले के विभिन्न क्षेत्रों से आए हुए समस्त देवी देवताओं की एक विशाल जलेड लोक वाद्य यंत्रों की धुनों के साथ- साथ भारी जनसैलाब के साथ निकलती है। इस प्रकार लगभग 40 छोटे – बड़े उत्सव कुल्लू में रघुनाथ जी की अध्यक्षता में आयोजित किए जाते हैं। तब से ले कर आज तक श्री रघुनाथ जी को कुल्लू का प्रधान देवता माना जाने लगा। असल में श्री रघुनाथ जी भगवान श्री राम के ही रूप है।
संदर्भ: —
१. श्री सुदेश कुमार कुल्लू से प्राप्त जानकारी।
२. श्री रघुनाथ जी मंदिर में चस्पा की गई इतिहास पट्टीका।)
हिमाचल में राम मंदिर: —
हिमाचल के कुछ एक राम मंदिरों का विवरण निम्नलिखित प्रकार से हैं: —
श्री रघुनाथ जी मंदिर जिला कुल्लू: —
यह मंदिर जिला कुल्लू के सुल्तानपुर बाजार में रघुनाथपुर में सन 1637 से 1662 ईसवी के बीच राजा जगत सिंह के द्वारा बनाया गया माना जाता है। यह कुल्लू के बस स्टैंड से थोड़ा सा ऊपर को बना हुआ है। पैदल पौडियों वाले रास्ते से यहां तक पहुंचा जाता है। इस मंदिर की बाकी विशेषताएं ऊपर विस्तार से बताई जा चुकी है। वर्तमान में भगवान श्री राम और सीता जी की भव्य मूर्तियां इस मंदिर में स्थापित की गई है। यहां वर्ष भर प्रतिदिन श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। यह मंदिर कुल्लू जिला के प्रधान देव मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।
मणिकरण में स्थित राम मंदिर: —
यह मंदिर मणिकरण नामक तीर्थ स्थल पर बना हुआ है। हिंदू लोग इस मंदिर परिसर में बने हुए गरम पानी के कुंडों में स्नान कर के अपने पापों का प्रक्षालन करते हैं। यहां स्त्री और पुरुषों के लिए अलग – अलग स्नान ग्रह बनाए गए हैं। जिनका नाम रामकुंड और सीता कुंड के नाम से रखा गया है। राम कुंड में पुरुष स्नान करते हैं और सीता कुंड में स्त्रियां स्नान करती है। वर्ष भर में लाखों श्रद्धालु इस तीर्थ स्थल में स्नान करने आते हैं।
गर्म पानी के चश्मे से संबद्ध राम और सीता कुंड में स्नान करके अपने पापों को धुला हुआ प्रतीत करते हैं। इसी विशेष तीर्थ यात्रा के दौरान सभी श्रद्धालु भगवान श्री रामचंद्र के मणिकरण स्थित इस भव्य मंदिर के भी विधिवत दर्शन करते हैं और प्रभु राम की कृपा प्राप्त करते हैं। इस मंदिर में नित्य प्रति प्रभु कृपा से श्रद्धालुओं के लिए भंडारे का भी आयोजन किया जाता है। इस मंदिर के प्रांगण में लकड़ी का बना हुआ एक भव्य रथ भी हमेशा मौजूद रहता है। मान्यता है कि इस रथ पर प्रभु राम जी की सवारी विशेष अवसरों पर निकाली जाती है।
जिला मंडी में राम मंदिर: —
जिला मंडी में भगवान राम के दो मंदिर है: —
- सनातन धर्म सभा राम मंदिर भगवाहण मोहल्ला मंडी बाजार। यह मंदिर जिला मंडी के उपायुक्त कार्यालय के ठीक पीछे बना है। इस मंदिर में भगवान श्री राम, लक्ष्मण एवं माता सीता की मूर्तियां विराजमान है। लोग वर्षभर प्रतिदिन यहां दर्शन करने आते हैं। सुबह – शाम की पूजा अर्चना और आरती इत्यादि में बराबर भाग लेते हैं। नवरात्रों के दिनों या फिर किसी राम कथा के आयोजन के दिनों यहां विशेष जन भीड़ उमड़ पड़ती है।
- यह एक पुरातन शैली में पत्थरों से बना हुआ राम मंदिर है, जिसमें भगवान श्री राम और सीता जी की मूर्तियां विराजमान है। यह मंदिर कनैड के पास बना हुआ है। इसका जिक्र भी ऊपर किया जा चुका है। परंतु वर्तमान समय में यह जीर्ण अवस्था में है। इसको पुनरुत्थान की आवश्यकता है। यहां लोगों का आना जाना आज बहुत कम है। (ग) यहां करसोग में भी राम मंदिर बना है।इस बाबत कोई खास जानकारी यहां उपलब्ध नहीं हो पाई है।
सूद सभा राम मंदिर शिमला: —
यह मंदिर जिला शिमला में बस स्टैंड के साथ ही रिज मैदान के नीचे को बना हुआ है। यह एक बहुत ही भव्य मंदिर है। इसके ठीक सामने जाखू में भगवान हनुमान का मंदिर है। शिमला के इस मंदिर में भगवान राम लक्ष्मण और माता सीता की मूर्तियां विद्यमान है। यहां भी नित्य प्रति श्रद्धालुओं की भारी भीड़ रहती है।
महासू राम मंदिर सिरमौर: —
हिमाचल के जिला सिरमौर का इलाका उत्तराखंड की सीमा से सटा हुआ है। यहां देव महासू के जितने भी मंदिर है उन सब मंदिरों में भगवान श्री रामचंद्र जी की ही प्रतिस्थापना मानी जाती है। इन मंदिरों का जिक्र भी ऊपर किया जा चुका है। असल में मूल महासू (बौठा महासू) मंदिर आज उत्तराखंड में त्यूणी से लगभग 40 किलोमीटर आगे मुख्य सड़क पर ही है। इसके साथ साथ तीन और महासू मंदिर यहां पर विद्यमान है, जिनमें क्रमशः भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न की प्रतिस्थापना मानी जाती है। इनके साथ साथ हनुमान, जामवंत, अंगद, सुग्रीव जैसे वानर वीरों की भी इन क्षेत्रों में पूजा अर्चना बौठा महासू के साथ की जाती है। बौठा महासू स्वयं भगवान राम ही है। इन्हीं मंदिरों के प्रारूप सिरमौर जिला की गिरी पार की पहाड़ियों में जगह – जगह बने हैं और लोग इन्हें बड़ी श्रद्धा से पूछते हैं।
जिला चंबा के मुख्य बाजार का राम मंदिर: —
जिला चंबा में मुख्य बाजार के साथ ही एक राम मंदिर बना हुआ है। वहां भी काफी श्रद्धालु आते रहते हैं। सुनने में आता है कि इस मंदिर की मूर्तियां कुछ समय पहले चोरी हुई थी। बाद में वे मुंबई में मिली थी।
हरिपुर राम मंदिर धर्मशाला कांगड़ा: —
यह मंदिर बनेर खड्ड के मुहाने पर हरिपुर नामक स्थान पर बना हुआ है। इसमें भी भगवान श्री रामचंद्र और लक्ष्मण के साथ-साथ माता सीता की मूर्ति स्थापित की गई है। इस मंदिर के निर्माण में अलग-अलग प्रकार की मान्यताएं। कुछ लोग इसे 825 वर्ष पुराना मानते हैं तो कुछ लोग इसे 1398 ईसवी से 1405 ईसवी के बीच राजा हरिचंद के द्वारा बनाया हुआ मानते हैं। एक अन्य मान्यता के अनुसार यह मंदिर पांडवों ने अपने अज्ञातवास के दौरान बनाया था। डॉ योगेश रैना की टिप्पणी को अगर ध्यान में रखें तो उनके अनुसार यह मंदिर 825 वर्ष पुराना है। उनका मानना है कि मंदिर में 825 साल पुराने एक घंटे में तिथि अंकित है। इसलिए यह मंदिर उसी कालखंड में बना होगा। कांगड़ा जिले में शायद ही ऐसा दूसरा कोई राम मंदिर हो। स्थानीय लोगों के अनुसार यहां की मिट्टी हाल ही में श्री अयोध्या जी में बनने वाले भव्य राम मंदिर के निर्माण के लिए भी ले गए हैं।
भव्य राम मंदिर निर्माण श्री अयोध्या धाम के विषय में कांगड़ा के पालमपुर स्थित रोटरी भवन का जिक्र आजकल खासा चर्चा में है। कहा जाता है कि लगभग 500 सालों से लटके हुए भव्य राम मंदिर निर्माण मामले की रूपरेखा इसी रोटरी क्लब में हुई 9 जून से लेकर 11 जून 1989 तक की भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक मैं तैयार की गई थी। इस बैठक का आयोजन पूर्व मुख्यमंत्री श्री शांता कुमार जी ने तत्कालीन राष्ट्रीय भाजपा अध्यक्ष श्री लालकृष्ण आडवाणी जी और भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री अटल बिहारी वाजपेई जी के निर्देशानुसार किया था। इसमें भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के बहुत से नेताओं ने हिस्सा लिया था। इसी बैठक में वर्तमान में अयोध्या में बनने वाले भव्य राम मंदिर का प्रारूप तैयार किया गया था और पूरे का पूरा मसौदा बनाकर राम मंदिर के मुद्दे पर आगामी रणनीति बनाई गई थी। राजनीतिक विशेषज्ञों की टिप्पणियों को यदि ध्यान में रखा जाए तो यही वह बैठक थी जो 1984 में मात्र 2 सीट वाली भाजपा को 1989 में 85 सीटें प्रदान करवाती है। अतः श्री अयोध्या धाम के भव्य राम मंदिर में हिमाचली संस्कृति की ओट में लिए गए इस अहम निर्णय का भी एक विशेष महत्त्व सुनहरे अक्षरों में सदा के लिए चिन्हित रहेगा।
इसके अतिरिक्त भी कई देवताओं के नाम से या फिर स्वयं भगवान श्री रामचंद्र जी के नाम से राज्य के विभिन्न जिलों में और भी मंदिर स्थित है, जिनका जिक्र अधूरी खोज के चलते यहां करना उचित नहीं है।
हिमाचली लोक यात्राओं में राम: —
लोक यात्रियों के रूप में हिमाचल में मात्र सिरमौर जिले के लोग ही उत्तराखंड में स्थित हणोल बौठा महासू मंदिर की यात्रा के लिए प्रतिवर्ष विधिवत जाते हैं। यह यात्रा पहले पैदल की जाती थी परंतु आज के दौर में इस मंदिर तक सड़क बनी हुई है और अब यह यात्रा गाड़ियों पर की जाती है। इस यात्रा के लिए लोग रोहडू से हाटकोटी होते हुए त्यूणी से लगभग 40 किलोमीटर दूर स्थित इस मंदिर तक यात्रा करते हैं और वहां पर बौठा महासू के रूप में भगवान श्री रामचंद्र जी के दर्शन करके अपने – अपने घरों को पुनः प्रभु का आशीर्वाद लेकर लौट आते हैं।
यहां कुल्लू जिले में स्थित मणिकरण की तीर्थ यात्रा भी श्री राम जिसे आँशिक संबंध रखती है। परंतु मूलतः लोग इस स्थान पर मणिकरण स्नान की दृष्टि से जाते हैं। ऐसे में इसे विशुद्ध राम दर्शन यात्रा नहीं कहा जा सकता।
लोक अभिवादनों और संस्कारों में राम : —
अभिवादन के रूम से हिमाचल के लोग सुबह उठकर ही आपस में एक दूसरे को “राम – राम” कह कर प्रणाम करते हैं, जिसकी जगह वर्तमान में गुड मॉर्निंग धीरे-धीरे ले रहा है। परंतु फिर भी अधिकांश पहाड़ी लोग “राम-राम” कह कर ही अपना अभिवादन प्रस्तुत करते हैं। हां नई पीढ़ी में इस संबंध में कुछ विकार आ चुका है परंतु पुरानी पीढ़ी के लोग आज भी इसी परंपरा को अपनाए हुए हैं। संस्कार के नाम पर मृत्यु संस्कार के समय “राम नाम सत्य है” का जय घोष भी भारत की अखंड संस्कृति के अद्वितीय नियमों के अनुसार ही हिमाचली लोग भी बखूबी करते हैं।
तीज – त्योहारों और उत्सव में राम: —
- त्योहारों के रूप में एक तो हिमाचल में कार्तिक मास की अमावस्या को समूचे भारतवर्ष की तर्ज पर प्रभु राम की स्मृति में दिवाली का पर्व मनाया जाता है। परंतु हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्र की मान्यता के अनुसार यह पर्व महाराज बलि की कृतज्ञता हेतु भगवान श्री रामचंद्र जी के वचनानुसार हिमाचल में मनाया जाता है न कि उनके अयोध्या पुनरागमन की खुशी पर। परंतु वर्तमान में यह समूचे भारतवर्ष की तरह भगवान राम के अयोध्या वापस लौटने के पुनरागमन की खुशी का पर्याय ही बन गया है।
- दूसरा राम से संबंधित त्यौहार हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों में “बूढ़ी दिवाली” का मनाया जाता है। लोक मान्यता के अनुसार हिमाचल के दूरदराज के क्षेत्रों में भगवान रामचंद्र जी के वनवास से लौटने की सूचना एक महीना देर से प्राप्त हुई थी और कहीं कहीं तो दो महीना देर से पहुंची थी। अतः उन लोगों ने जैसे उनको सूचना मिली वैसे ही दिवाली का उत्सव इन पहाड़ी क्षेत्रों में मनाया। तब से यह परंपरा वैसे ही चलती आई। यह दिवाली कुछ लोग मार्गशीर्ष मास की अमावस्या को मनाते हैं तो कुछ लोग पौष मास की अमावस्या को मनाते हैं। इस दिवाली को मनाने का अलग – अलग जगहों पर अलग – अलग तरीका है। सोलन, सिरमौर, शिमला तथा मंडी आदि के ऊपरी क्षेत्रों में यह दिवाली भिन्न – भिन्न मासो में मनाई जाती है। कुछ लोग इस दिन रात को लकड़ियों की छोटी-छोटी अधिक जवलन क्षमता वाली बारीक झिल्लियों (जगनी) को इकट्ठा करके एक लंबे लकड़ी के डंठल पर वन बेलों से बांधते हैं और उसकी विशाल मशाल तैयार करते हैं। फिर रात्रि के अंधेरे में सब ग्रामीण इकट्ठा होकर के इन मशालों से दिवाली खेलते हैं। बहुत सी खाने – पीने की वस्तुएं भी बनाते हैं। यह मशाल जुलूस और खेल देखने लायक होता है। कहीं – कहीं विशाल अग्निकुंड जलाकर यह दिवाली मनाई जाती है। लोक मान्यता के अनुसार उस समय किसी प्रकार का संचार का साधन ना होने के कारण इन इलाकों में सूचना देर से मिली थी। इसलिए यह दिवाली अयोध्या की दिवाली से बाद मनाई गई थी। अर्थात तब तक यह बात पुरानी हो गई थी। परंतु फिर भी लोगों ने राम के आगमन की सूचना सुनकर एक विशाल जश्न मनाया जिसका नाम बूढ़ी दिवाली रखा गया। इस अवसर पर लोग कई जगहों पर ढोल नगाड़ों के साथ दिवाली गाते भी हैं और नृत्य भी करते हैं।
- रामनवमी एवं दशहरा पर्व — ये पर्व भी हिमाचली संस्कृति में समूचे भारत की संस्कृति की तरह मनाए जाते हैं। परंतु दशहरा पर्व की दृष्टि से कुल्लू का दशहरा पर्व समूचे भारतवर्ष में प्रसिद्ध है। जिला कुल्लू के ऐतिहासिक ढालपुर मैदान में इस अवसर पर एक विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। यह मेला कई दिनों तक चलता रहता है। इसमें देश के भिन्न – भिन्न भागों से व्यापारी सामान लेकर आते हैं और हिमाचल के भिन्न – भिन्न जिलों के सभी लोग भगवान राम की याद में मनाए जाने वाले इस पर्व के अवसर पर लगने वाले मेले का भरपूर आनंद उठाते हैं। इस अवसर पर सभी आगंतुक मेले में खूब खरीद-फरोख्त भी करते हैं।
- उत्सवों में राम — अमूमन देखा गया है कि बाल जन्मोत्सव के अवसर पर जो बधाई गीत गाए जाते हैं, उनमें महिलाएं रामलला का जिक्र जरूर किया करती है। एक पंक्ति कुछ यूं देखी जा सकती है: —“बधाई हो बधाई जी आज,राम लल्ला ने दर्श दियो है।”
इसके साथ – साथ कुछ ऊपरी इलाकों में सिया स्मृति को भी बेटी के विवाह के अवसर पर गाया जाता है। बेटे के विवाह के अवसर पर वधू प्रवेश के दौरान भी कुछ इसी तर्ज के गीत गाए जाते हैं। - लोकनाट्य विधाओं में राम – हिमाचली लोक संस्कृति में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से पहले लोकनाट्य की शैली प्रचलित थी। उसमें बांठडा, स्वांग और करियाला नृत्य नाट्य शैली आदि बहुत से नाट्य मंचन स्थानीय कलाकारों के द्वारा
लोक मनोरंजन हेतु किए जाते थे किए जाते थे। उन नाट्य मंचनों मैं रामकथा के किसी एक अंश विशेष पर स्थानीय कलाकार राम के महान चरित्र को प्रदर्शित करने वाले नाटक को प्रस्तुत किया करते थे और लोग उन नाटकों को देखकर मनोरंजन के साथ – साथ एक विशेष शिक्षा ले कर के भी जाते थे।ये कार्यक्रम साल के एक आध बार आयोजित किए जाते थे। बाद में इनकी जगह रामलीला मंचन ने ले ली। रामलीला भी लोग बड़ी श्रद्धा और भक्ति भाव से देखते थे। ये कार्यक्रम एक स्थान पर 14 वर्षों तक आयोजित किए जाते थे और फिर रामलीला किसी दूसरे स्थान पर स्थानांतरित की जाती थी। इन रामलीलाओं में मंडी में जोगिंदर नगर, किन्नौर में भावानगर की रामलीलाएं विशेष आकर्षक एवं महत्वपूर्ण मानी जाती है। असल में किन्नौर जिला में रामलीलाओं का प्रचलन सन 1979 में भावनगर विद्युत प्रोजेक्ट के कर्मचारियों के द्वारा शुरू किया गया। उससे पहले किन्नौर में इस प्रकार का कोई भी नाट्य मंचन प्रभु श्री राम जी की जीवन घटना पर मौजूद नहीं था। यह जानकारी श्री लाल सिंह ठाकुर विद्युत प्रोजेक्ट भावनगर के कर्मचारी द्वारा प्रदान की गई।वर्तमान में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के चलते तथा धारावाहिकों के प्रसारण के चलते और उसके साथ – साथ अब इंटरनेट की दुनियां के चलते ये सब कलाएं धीरे – धीरे लुप्त प्राय होती जा रही है। हां अब हिमाचली संस्कृति में भी रामकथा का पंडालीय चलन समूचे भारतवर्ष की तरह अधिकता से होने लगा है। - हिमाचली संस्कृति में राम वनवास काल से संबंधित साक्ष्य – यह सर्वविदित है कि श्री राम जी का वनवास काल अधिकतर दक्षिण भारत में ही गुजरा। इसलिए यहां उनके इस काल का कोई खास साक्ष्य नहीं मिलता। परंतु हां जिला शिमला में रिज के मैदान के ठीक सामने जाखू में हनुमान मंदिर को उनके वनवास काल से जरूर जोड़ा जाता है। लोक मान्यता है कि जब भगवान श्री रामचंद्र जी के छोटे भाई लक्ष्मण जी मूर्छित होकर के अचेत पड़े थे तो उन्हें संजीवनी लाने के उद्देश्य से हनुमान इस जगह से होते हुए हिमालय की ओर बढ़े थे। इस जगह पर हनुमान जी याकु ऋषि से मिले थे। अतः इस स्मृति में जाखू मैं हनुमान का मंदिर बनाया गया है। अब तो यहां पर हनुमान जी की 108 फुट ऊंची मूर्ति का निर्माण भी किया गया है।
निष्कर्ष (Conclusion) : —
निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि हिमाचली संस्कृति में भगवान राम के प्रति आस्था व विश्वास त्रेता काल से ही प्रगाढ़ रूप में विद्यमान है। यहां की भोली – भाली जनता भारतीय जनमानस के नायक भगवान श्री रामचंद्र जी के जीवन चरित्र से बहुत ही प्रभावित है और भगवान रामचंद्र जी के पद चिन्हों पर चलने के लिए निरंतर प्रयासरत रहती है।
यहां की देव संस्कृति में भले ही प्रभु श्री राम को किसी देव विशेष के नाम से अभिहित किया गया हो, परंतु आस्था और मान्यता फिर भी भगवान राम के ही प्रति बनी हुई है। विषय चाहे लोकगीतों, लोक संस्कारों, मंदिरों, लोक गाथाओं तथा लोक श्रुति – स्मृतियों का हो या फिर तीज त्योहारों का हो, राम कहीं ना कहीं हिमाचली संस्कृति में साक्षात नजर आ ही जाते हैं। हिमाचली संस्कृति के उन्नत वैभव में प्रभु श्री रामचंद्र जी का मिश्रण कुछ इस कदर हो गया है कि मानो आटे में नमक मिल गया हो।
अब इन्हें कोई चाह कर भी अलग नहीं कर सकता। बूढ़ी दिवाली के पर्व को लेकर जो मान्यता है या फिर सोलन, शिमला, सिरमौर के लोक पारंपरिक रामायण गीतों (बरलाज) की जो मान्यताएं हैं, उनको यदि तथ्य माना जाए तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि हिमाचली संस्कृति में राम सचमुच त्रेता काल से ही प्रतिष्ठित रहे है। हिमाचली संस्कृति और राम का आपस में घनिष्ठ संबंध है।
घोषणा : —
उपरोक्त साक्ष्य एवं संदर्भों के अनुसार प्राप्त जानकारी के तहत यह मेरा मौलिक और स्वरचित शोध आलेख है।
♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦
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- “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — हिमाचली संस्कृति में भगवान राम के प्रति आस्था व विश्वास त्रेता काल से ही प्रगाढ़ रूप में विद्यमान है। यहां की भोली – भाली जनता भारतीय जनमानस के नायक भगवान श्री रामचंद्र जी के जीवन चरित्र से बहुत ही प्रभावित है और भगवान रामचंद्र जी के पद चिन्हों पर चलने के लिए निरंतर प्रयासरत रहती है। विषय चाहे लोकगीतों, लोक संस्कारों, मंदिरों, लोक गाथाओं तथा लोक श्रुति – स्मृतियों का हो या फिर तीज त्योहारों का हो, राम कहीं ना कहीं हिमाचली संस्कृति में साक्षात नजर आ ही जाते हैं। हिमाचली संस्कृति के उन्नत वैभव में प्रभु श्री रामचंद्र जी का मिश्रण कुछ इस कदर हो गया है कि मानो आटे में नमक मिल गया हो।
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यह लेख (हिमाचली लोक संस्कृति में प्रभु श्री राम और दिवाली।) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।
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Vijaylaxmi says
बहुत सुंदर लेखनी से लेख और कविताएं लिखी हैं आपने।