एक बार एक सेठ जी स्वयं महामना मालवीय जी के पास अपने एक प्रीतिभोज में सम्मिलित होने का निमंत्रण देने के लिए पहुँचे। महामना जी ने उनके इस निमंत्रण को इन विनम्र किंतु मर्मस्पर्शी शब्दों में अस्वीकार कर दिया : –
“यह आपकी कृपा है, जो मुझ अकिंचन के पास स्वयं निमंत्रण देने पधारें, किंतु जब तक मेरे इस देश में मेरे हजारों-लाखों भाई आधे पेट रहकर दिन काट रहे हों तो मैं विविध व्यंजनों से परिपूर्ण बड़े-बड़े भोजों मे कैसे सम्मिलित हो सकता हूँ – ये सुस्वादु पदार्थ मेरे गले कैसे उतर सकते हैं।’’ महामना जी की यह मर्मयुक्त बात सुन सेठ जी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने प्रीतिभोज में व्यय होने वाला सारा धन गरीबों के कल्याण हेतु दान दे दिया। बाद में उनका हृदय इस सत्कार्य से आनन्दमग्न हो उठा।
शिक्षा – “अन्य लोगों के कष्टपीड़ित और अभावग्रस्त रहते स्वयं मौज- मस्ती में रहना मानवीय अपराध हैं।”
महामना पं० मदन मोहन मालवीय का जीवन-परिचय।
(१८६१-१९४६)
भारतीय ज्ञान-सम्पदा व सांस्कृतिक धरोहर की प्रतिमूर्ति महामना पं० मदन मोहन मालवीय मध्य भारत के मालवा के निवासी पं० प्रेमधर के पौत्र तथा पं० विष्णु प्रसाद के प्रपौत्र थे। पं० प्रेमधर जी संस्कृत के मूर्धन्य विद्वान थे। पं० मदन मोहन मालवीय के पूर्वजों के तीर्थराज प्रयाग (इलाहाबाद) में बस जाने का मन बनाया, जबकि उनके परिवार के कुछ सदस्यों ने पड़ोसी शहर मीरजापुर को अपना निवास स्थान बनाया। पं० प्रेमधर जी भागवत की कथा को बड़े सरस ढंग से वाचन व प्रवचन करते थे। मदन मोहन अपने पिता पं० ब्रजनाथ जी के छः पुत्र-पुत्रियों में सबसे अधिक गुणी, निपुण एवं मेधावी रहे। उनका जन्म २५ दिसम्बर, १८६१ ई० (हिन्दू पंचाङ्ग के अनुसार पौष कृष्ण अष्टमी, बुधवार, सं० १९१८ विक्रम) को प्रयाग के लाल डिग्गी मुहल्ले (भारती भवन, इलाहाबाद) में हुआ था। उनकी माता श्रीमती मोना देवी, अत्यन्त धर्मनिष्ठ एवं निर्मल ममतामयी देवी रही। मदन मोहन की प्रतिभा में अनेक चमत्कारी गुण रहे, जिनके कारण उन्होंने ऐसे सपने देखे जो भारत-निर्माण के साथ-साथ मानवता के लिए श्रेष्ठ आदर्श सिद्ध हुए। इन गुणों के कारण ही उन्हें महामना के नाम-रूप में जाना-पहचाना जाता है।
शिक्षा – महामना की प्रारंभिक शिक्षा प्रयाग के महाजनी पाठशाला में ५ वर्ष की आयु में आरम्भ हुई थी। पं० मदन मोहन मालवीय जी ने अपने व्यवहार व चरित्र में हिन्दू संस्कारों को भली-भांति आत्मसात किया था। इसी के फलस्वरूप वे जब भी प्रातःकाल पाठशाला को जाते तो प्रथमतः हनुमान-मन्दिर में जाकर प्रणामाजंलि के साथ यह प्रार्थना अवश्य दुहराते थे:
मनोत्रवं मारूत तुल्य वेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्
वातात्मजं वानरयूथ मुख्यं श्री रामदूतं शिरसा नमामि।
वातात्मजं वानरयूथ मुख्यं श्री रामदूतं शिरसा नमामि।
श्री कृष्णजन्माष्टमी के महोत्सव को वे सच्च मन व हृदय से धूमधाम के साथ मनाने थे। १५ वर्ष के किशोर वय में ही उन्होंने काव्य रचना आरम्भ कर दी थी जिसे वे अपने उपनाम मकरन्द से पहचाने जाते रहे। मैट्रिक परीक्षा सन १८६४ में प्रयाग राजकीय हाईस्कूल से उत्तीर्ण कर, म्योर सेण्ट्रल काॅलेज में दाखिल हुए। विद्यालय व कालेज दोनों जगहों पर उन्होंने अनेक सांस्कृतिक व सामाजिक आयोजनों में सहभागिता की। सन १८८० ई० में उन्होंने हिन्दू समाज की स्थापना की।
विवाह – उनका विवाह मीरजापुर के पं० नन्दलाल जी की पुत्री कुन्दन देवी के साथ १६ वर्ष की आयु में हुआ था।
सामाजिक कार्य – पं० मदन मोहन मालवीय जी कई संस्थाओं के संस्थापक तथा कई पत्रिकाओं के सम्पादक रहे। इस रूप में वे हिन्दू आदर्शों, सनातन धर्म तथा संस्कारों के पालन द्वारा राष्ट्र-निर्माण की पहल की थी। इस दिशा में प्रयाग हिन्दू सभा की स्थापना कर समसामयिक समस्याओं के संबंध में विचार व्यक्त करते रहे। सन १८८४ ई० में वे हिन्दी उद्धारिणी प्रतिनिधि सभा के सदस्य, सन १८८५ ई० में इण्डियन यूनियन का सम्पादन, सन १८८७ ई० में भारत-धर्म महामण्डल की स्थापना कर सनातन धर्म के प्रचार का कार्य किया। सन १८८९ ई० में हिन्दुस्तान का सम्पादन, १८९१ ई० में इण्डियन ओपीनियन का सम्पादन कर उन्होंने पत्रकारिता को नई दिशा दी। इसके साथ ही सन १८९१ ई० में इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत करते हुए अनेक महत्वपूर्ण व विशिष्ट मामलों में अपना लोहा मनवाया था। सन १९१३ ई० में वकालत छोड़ दी और राष्ट्र की सेवा का व्रत लिया ताकि राष्ट्र को स्वाधीन देख सकें।
यही नहीं वे आरम्भ से ही विद्यार्थियों के जीवन-शैली को सुधारने की दिशा में उनके रहन-सहन हेतु छात्रावास का निर्माण कराया। सन १८८९ ई० में एक पुस्तकालय भी स्थापित किया।
इलाहाबाद में म्युनिस्पैलिटी के सदस्य रहकर सन १९१६ तक सहयोग किया। इसके साथ ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य के रूप में भी कार्य किया।
सन १९०७ ई० में बसन्त पंचमी के शुभ अवसर पर एक साप्ताहिक हिन्दी पत्रिका अभ्युदय नाम से आरम्भ की, साथ ही अंग्रेजी पत्र लीडर के साथ भी जुड़े रहे।
पिता की मृत्यु के बाद पंडित जी देश-सेवा के कार्य को अधिक महत्व दिया। १९१९ ई० में कुम्भ-मेले के अवसर पर प्रयाग में प्रयाग सेवा समिति बनाई ताकि तीर्थयात्रियों की देखभाल हो सके। इसके बाद निरन्तर वे स्वार्थरहित कार्यो की ओर अग्रसर हुए तथा महाभारत, महाकाव्य के निम्नलिखित उदाहरण को अपना आदर्श जीवन बनाया –
न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं न पुनर्भवम ।
कामये दुःख तप्तानाम प्राणिनामार्तनाशनम ॥
उनका यह आदर्श बाद में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की पहचान बनी।
कामये दुःख तप्तानाम प्राणिनामार्तनाशनम ॥
उनका यह आदर्श बाद में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की पहचान बनी।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का निर्माण।
पं० मदन मोहन मालवीय जी के व्यक्तित्व पर आयरिश महिला डाॅ० एनीबेसेण्ट का अभूतपूर्व प्रभाव पड़ा, जो हिन्दुस्तान में शिक्षा के प्रचार-प्रसार हेतु दृढ़प्रतिज्ञ रहीं। वे वाराणसी नगर के कमच्छा नामक स्थान पर सेण्ट्रल हिन्दू काॅलेज की स्थापना सन १८८९ ई० में की, जो बाद में चलकर हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का केन्द्र बना। पंडित जी ने तत्कालीन बनारस के महाराज श्री प्रभुनारायण सिंह की सहायता से सन १९०४ ई० में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का मन बनाया। सन १९०५ ई० में बनारस शहर के टाउन हाल मैदान की आमसभा में श्री डी०एन०महाजन की अध्यक्षता में एक प्रस्ताव पारित कराया।
सन १९११ ई० में डाॅ० एनीबेसेण्ट की सहायता से एक प्रस्तावना को मंजूरी दिलाई जो २८ नवम्बर १९११ ई० में एक सोसाइटी का स्वरूप लिया। इस सोसायटी का उद्देश्य दि बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी की स्थापना करना था। २५ मार्च १९१५ ई० में सर हरकोर्ट बटलर ने इम्पिरीयल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में एक बिल लाया, जो १ अक्टूबर सन १९१५ ई० को ऐक्ट के रूप में मंजूर कर लिया गया।
४ फरवरी, सन १९१६ ई० (माघ शुक्ल प्रतिपदा, संवत १९७२) को दि बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, की नींव डाल दी गई। इस अवसर पर एक भव्य आयोजन हुआ। जिसमें देश व नगर के अधिकाधिक गणमान्य लोग, महाराजगण उपस्थित रहे।
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