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Man Khoj Rahii Kasturi | मन खोज रही कस्तूरी।
महक रही नस-नस में रजनीगंधा,
मन वन – वन खोज रही कस्तूरी।
पिपासित उर को न तृप्त कर पाती,
प्यासी – प्यासी साँझ अधूरी।
मुग्धित शर्मिली सिंधुसुता-सी,
नैनों की मादकत और अलसायापन।
उच्छवासों-सी तपित तरलता,
शीतल चंद्रज्योत्स्ना सम्मोहन।
सुनहली हर भोर हो गई,
अधिवासित साँझ ढली सिंदूरी।
मुखड़ा-माणिक-सा तापित कर जाते,
यामिनी के निमंत्रण का आमंत्रण।
तन-मन अंतर्मन में शम्पा भर जाते,
मीठे सपने पीते उन्मादक वो क्षण।
अंग – अंग खिलने लगते,
पर रत जगी और रातें अधूरी।
भुजपाशों की कोमल परिधियाँ,
जग रही भर आलिंगन में।
लगे सुलगने फिर कनक-किंशुक के वन,
मदहोशित रही आमुदित श्वांसों में।
स्कंधों को श्रापित-सी लगती,
अंग पुर से पल दो पल की दूरी।
महक रही नस-नस में रजनीगंधा,
मन वन – वन खोज रही कस्तूरी।
♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦
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यह कविता (मन खोज रही कस्तूरी।) “सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल’ जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख/दोहे सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।
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