Kmsraj51 की कलम से…..
♦ हिन्दी साहित्य में नाथ परम्परा। ♦
नाथ परम्परा का नाम सुनते ही हमारे मनो मस्तिष्क में भभूतधारी अवधूत हठ योगियों की कर्णभेदी और कुंडलधारी, जटाजुट युक्त मृगछालधारी तथा गले में रुद्राक्ष मालाधारी व कांख में खप्परधारी छवि का दर्शन हो जाता है। सिंगी, त्रिशूल और आधारी को सदैव अपने साथ धारण करने वाला वह वैरागी समुदाय हमारे अंतःकरण में चलचित्र की भांति प्रकट होता है, जो सांसारिक भय, वितराग, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, वासनाओं और विपरीत लिंगी आकर्षण इत्यादि से सदैव मुक्त रहा तथा समाज को इसी दिशा की और चलने की शिक्षा – दीक्षा देता रहा।
इतिहास के गहन में जाकर जब खंगालने की कोशिश करेंगे तो हमें पता चलता है कि यह समुदाय हिंदी साहित्य के क्षेत्र में तब कूदा था जब सिद्ध परंपरा के साहित्य के उपभोग एवं विलासिता की पराकाष्ठा समाज में विद्यमान हो चुकी थी। ठीक -ठीक तो बताया नहीं जा सकता परंतु अंदाजन यह कहना गलत नहीं होगा कि लगभग नौवीं शताब्दी के बीच में इस परंपरा ने हिंदी साहित्य में अपने पंथ की विचारधारा को कलमबद्ध करके सामाजिक कुरीतियों का खंडन करना शुरू किया था।
अब इसके पीछे चाहे सिद्ध परंपरा के साहित्य का विरोध आधार बना हो या फिर तत्कालीन परिपेक्ष्य में अरब देशों से होने वाले विभिन्न आक्रमणकारियों एवं आतताइयों की आक्रमण शैली से समाज को बचाने के लिए उनका प्रतिकार करना रहा हो। सर्वधर्म समभाव की परिकल्पना भी उनकी एक विशुद्ध भावना इस काल में रही है।
आतताइयों के संक्रमण का खंडन करने वाली पृष्ठभूमि का एक उदाहरण गुरु गोरखनाथ जी के शिष्य की एक रचना के अंश से स्पष्ट देखा जा सकता है, जिसमे धर्मगत विभक्तता से ऊपर उठकर यौगिक विशिष्टता बताई गई है:—
हिंदू मुसलमान खुदाई के बंदे, हम जोगी न कोई किस्से के छन्दे।
यह कतई नहीं नकारा जा सकता कि नाथ परंपरा ने हिंदी साहित्य में जो अपना योगदान हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रारंभिक दौर में प्रदान किया है, वह हिंदी साहित्य का आधार बन गया। यदि हम हिन्दी साहित्य के इतिहास को पढ़े तो पता चलता है कि हमारा हिंदी साहित्य का इतिहास विभिन्न काल खंडों में विभाजित किया गया है। हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल को आदिकाल के नाम से नामित किया गया है। उस आदिकाल के साहित्य को भी तीन वर्गों में बांटा गया है:—
- धार्मिक साहित्य।
- लौकिक साहित्य।
- इतर साहित्य।
इनमें से यदि नाथ परंपरा के साहित्य की बात की जाए तो यह साहित्य निश्चित ही धार्मिक साहित्य के अंतर्गत आता है। जिस कालखंड में नाथ परंपरा का साहित्य हिंदी साहित्य जगत में प्रकट हुआ, वह कालखंड निश्चित संक्रांति के दौर से गुजर रहा था। वहां जहां एक ओर से समाज सिद्ध परंपरा की भोग विलास पूर्ण साहित्य पद्धति का शिकार बनता जा रहा था तो वहीं दूसरी ओर विदेशी आक्रांताओं की आतंकपूर्ण जीवनशैली और भाषा वैविध्य के चक्रव्यू में भी निरंतर उलझता जा रहा था। इन सभी प्रकार के प्रपंचो से समाज को बाहर लाने के लिए नाथ परंपरा के साहित्यकारों ने अपनी साहित्यिक चमक को हिंदी साहित्य में प्रविष्ट करके भारतीय जनमानस को एक नई दिशा और गति दी।
अश्लीलता और मानसिक भ्रष्टाचार से बाहर ला कर समाज को आंतरिक शुद्धि एवं पवित्रता की ओर अग्रसर किया। आत्म संयम तथा मानसिक संतोष के सद चरित्र वाले जीवन को जीने के लिए जो मार्ग नाथ परम्परा के साहित्य ने भारतीय समाज को प्रशस्त किये, वे आगे चलकर कबीरपंथी विचारधारा में भी अपना वर्चस्व बनाए रखते हुए नजर आते हैं। यह बात जरूर है कि नारी जीवन से दूर रहने की प्रवृत्ति के कारण तथा उनके साधना तथा ज्ञान मार्ग की नीरसता एवं शुष्कता के कारण कालांतर में यह परंपरा धीरे – धीरे समाज के मानस पटल पर अपना दीर्घकालीन प्रभाव छोड़ने में असमर्थ रही। अपने शिष्यों की कड़ी परीक्षा लेने के कारण भी इस परंपरा में आगे शिष्यों का निरंतर जुडना बाधित हो गया। परंतु इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इस परंपरा के नाथों और साहित्य ने तत्कालीन भारतीय जनमानस के अंतःकरण को आंदोलित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।
◊ नाथ परम्परा ◊
इससे पहले कि हम इस परंपरा के साहित्य की प्रवृत्तियों के बारे में बात करें; हमें नाथ परम्परा के बारे में संक्षिप्त रूप से जान लेना चाहिए। एक किंवदंती के अनुसार इस परंपरा के आरंभ की घटना उस पौराणिक आख्यान से जोड़ी जाती है जो भगवान शिव तथा माता पार्वती के अमर कथा संवाद के दौरान घटी थी। माना जाता है कि एक बार चलते – चलते भगवान शिव और माता पार्वती को किसी वन प्रदेश में रात हो गई। वे दोनों उस रात्रि को एक पेड़ के नीचे विश्राम करने के लिए रुक गए।
इसी विश्राम के दौरान माता पार्वती ने भगवान शिव से अमर कथा सुनाने का आग्रह किया। माता पार्वती के आग्रह पर भगवान शिव ने माता पार्वती को इस शर्त पर अमर कथा सुनाने की सहमति दी कि जब तक आप इस अमर कथा को सुनते – सुनते हुंकारा भरती रहेगी, तब तक मैं इस कथा को निर्बाध गति से सुनाता रहूंगा।जब हुंकारा बंद हो जाएगा तब मैं इस कथा को सुनाना बंद कर दूंगा। माता पार्वती ने भगवान शिव के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया और भगवान शिव समाधि में विलीन होकर अमर कथा को मां पार्वती को सुनाने लगे। इस बीच माता को अर्ध रात्रि के समीप नींद आ गई।
माता के बदले यह हुँकारा उस पेड की कोटर में एक शुक (तोते) के फटे हुए अण्डे के कुछ हिस्से में बचे हुए तरल पदार्थ से अमर कथा के प्रभाव से उत्पन्न शुक के बच्चे ने भरना शुरू किया। माना जाता है कि उस जीर्ण क्षीर्ण और परित्यक्त अण्डे के एक टुकड़े में जो भी तरल पदार्थ फटने के बाद शेष रह गया था, उसी से शुक के बच्चे का अमर कथा के प्रभाव से जन्म हुआ और उसी बच्चे ने मानवानुकर्ण करके माता के सोने के बाद अमर कथा का आनंद लेने हेतु हुंकारा भरना शुरू किया। जब प्रातः काल भगवान शिव ने अपने नेत्र खोले, तो पाया कि माता पार्वती तो सोई हुई है।
ऐसे में उन्होंने देखा कि उनके द्वारा सुनाई गई अमर कथा को तो एक शुक का बच्चा सुन गया। भगवान शिव ने विचार किया कि यह शुक पुत्र तो अमर हो जाएगा। तब उन्होंने त्रिशूल लेकर उस शुक पुत्र का पीछा किया। आगे-आगे शुक पुत्र और पीछे-पीछे भगवान शिव। आगे किसी झरने में महर्षि वेद व्यास जी की धर्म पत्नी प्रातः काल सनान कर रही थी। उसने कूला करने के नियमित मुंह खोला था कि वह शुक पुत्र शरण लेने हेतु उनके मुंह में घुसकर ऋषि पत्नी के गर्भ में छिप गया।
भगवान शिव को पीछा करते हुए जब महर्षि वेद व्यास जी ने देखा और पीछा करने का कारण पूछा तो मुस्करा दिए। जब भगवान शिव ने क्रोधित स्वर में व्यास जी से मुस्कराने का कारण पूछा तो व्यास जी ने मुस्कराते हुए ही जबाव दिया कि हे प्रभु ! इसीलिए तो आपको भोलेनाथ कहा जाता है। हे प्रभु! जिस जीव ने साक्षात स्वयं आपके श्री मुख से अमर कथा का श्रवण किया हो, उसे भला कौन मृत्यु दे सकता है।इसलिए हे प्रभु! गुस्सा त्याग दो और लौट जाओ। यह जो शुक पुत्र का पीछा आप इसके प्राण हरण के नियमित कर रहे हैं, यह व्यर्थ है।
यह सुनकर भगवान शिव प्रसन्न होकर लौट जाते हैं। वह शुक का बच्चा 12 वर्ष तक बाह्य माया के डर से ऋषि पत्नी के गर्भ में पड़ा रहा। 12 वर्ष बाद वेद व्यास जी ने उससे बाहर आने की प्रार्थना की, हे पुत्र ! यह संसार के नियम के विरुद्ध है। अब आप अपनी मां के गर्भ से बाहर निकलो। आपकी मां को अतिशय कष्ट हो रहा है। तो तब उस गर्भस्थ शुक पुत्र ने अंदर से आवाज दी कि हे पिताश्री मैं एक ही शर्त पर बाहर आऊंगा यदि आप अपने सिद्धि बल से जगतपति प्रभु से यह प्रार्थना करें कि जिस क्षण तक मैं संसार में प्रविष्ट होने की प्रक्रिया से गुजरूं, उस क्षण तक अपनी योग माया को वे संसार में प्रभावहीन कर दें।
◊ 84 सिद्ध 9 नाथ ◊
माना जाता है कि महर्षि वेद व्यास ने प्रभु से प्रार्थना की और प्रभु ने अपनी योग माया का प्रभाव क्षण भर के लिए संसार में रोक लिया। ठीक इसी क्षण शुकदेव के साथ-साथ 93 अन्य जीवात्माओं ने भी जन्म लिया। इस प्रकार उस माया हीन प्रभाव के क्षण में इस संसार में 94 जीवात्माएं पैदा हुई। उनमें 84 सिद्ध 9 नाथ और एक स्वयं शुकदेव जी महाराज उत्पन्न हुए। ये नौ नाथ निम्नलिखित माने जाते हैं:—
- आदिनाथ (स्वयं सदा शिव)।
- मच्छेंद्र नाथ या मत्स्येंद्र नाथ (गोरखनाथ के गुरु)।
- गुरु गोरखनाथ (नाथ साहित्य परंपरा के प्रवर्तक)।
- गहिणीनाथ।
- चर्पटनाथ।
- चौरंगीनाथ।
- जालंधर नाथ।
- भरथरी नाथ या भर्तृनाथ।
- गोपीचंद नाथ।
◊ नाथ संप्रदाय का आविर्भाव ◊
इस घटनाक्रम से भी नाथ पंथ या नाथ संप्रदाय को जोड़ा जाता है, जिसमें तर्क यह भी दिया जाता है कि भगवान सदा शिव उसी मायाहीन घड़ी में संसार में अपने पंथ का प्रादुर्भाव करने की इच्छा से लीला रूप में आए थे। इसके विपरीत यदि हिंदी साहित्य के इतिहास को खंगाले तो नाथ संप्रदाय का उद्भव हिंदी साहित्य में गुरु गोरखनाथ जी से उद्भूत हुआ मिलता है। गुरु गोरखनाथ जी के विषय में अगर इतिहास में देखें तो कुछ लोग उन्हें आठवीं सदी का मानते हैं तो कुछ 10वीं /11वीं या तेरहवीं सदी का मानते हैं। हालांकि गुरु गोरखनाथ जी का साहित्य लगभग 16वीं शताब्दी में सामने आता है। यह भी माना जाता है कि नाथपंथियों ने लगभग 40 ग्रंथों की रचना की। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने तो नौवीं शताब्दी के मध्य में नाथ पंथ का प्रादुर्भाव माना है। डॉ पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ने गोरखनाथ का काल 10 वीं शताब्दी में निर्धारित किया है। यदि डॉ श्रीनिवास शर्मा की माने तो उक्त दोनों विद्वानों की टिप्पणियों के आधार पर उन्होंने नाथ संप्रदाय का आविर्भाव नौवीं शताब्दी के मध्य भाग में माना है।
यदि उक्त टिप्पणियों के साथ – साथ समग्र हिंदी साहित्य के इतिहास का गहन अन्वेषण किया जाए तो कहना न होगा कि नाथ साहित्य परंपरा का प्रभाव लगभग 9वीं सदी से 14वीं सदी तक हिंदी साहित्य में बना रहा। नाथ परंपरा ने इस कालखंड में भारतीय जनमानस पर साहित्य और धर्म का शासन किया।
यदि राहुल सांकृत्यायन जी की बात को माना जाए तो निश्चित रूप से नाथ परंपरा सिद्ध परंपरा की वज्रयान शाखा की सहज मार्गी परंपरा से विकसित हुई एक परम्परा है। इधर एक मत यह भी है कि नाथ संप्रदाय पर बौद्ध धर्म के महायान की तंत्र परंपरा का प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से देखने को मिलता है।
इस परम्परा के प्रादुर्भाव को स्पष्ट करते हुए सोशल मीडिया के कुछ आलेखों में पढ़ने को मिलता है की नाथ संप्रदाय का प्रादुर्भाव ना + थ से हुआ है। ‘ना’ का अर्थ ‘अनादि रूप है ‘ अर्थात सदाशिव तथा ‘थ’ का अर्थ वह अनादि धर्म है, जो भूवनत्रय की स्थिति का कारण है। नाथ – वह तत्व है जो मोक्ष प्रदान करता है।
इस परम्परा में नाथ एक उपाधि मानी जाती थी। जब कोई शिष्य गुरु परम्परा में कड़ी परीक्षा के बाद सफल सिद्ध होता था तो उसे यह नाथ की उपाधि प्रदान की जाती थी और वह शिष्य अपने नाम के पीछे नाथ शब्द का उपाधि सूचक शब्द लगाकर समाज में विशिष्ट व्यक्तित्व प्राप्त कर लेता था। ये अपने गुरु को ही भगवान मानते थे।
◊ नाथ परम्परा का हिंदी साहित्य को योगदान ◊
इस परम्परा का आदि गुरु भगवान शिव स्वयं काे माना जाता है। अर्थात आदिनाथ के रूप में भगवान शिव को ही इस परम्परा में स्थान प्राप्त है।
नाथ परम्परा का हिंदी साहित्य को योगदान :—…
हिंदी साहित्य को आदिकाल से आधुनिक काल तक एक दृष्टि से जब देखा जाए तो यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हिंदी साहित्य के क्षेत्र में जो शिष्टता, आंतरिक शुद्धि, इंद्रिय निग्रह, वैचारिक पवित्रता,अष्टांग साधना, कुंडलीनी जागरण तथा उसके साथ – साथ प्राण शोधन तथा हठयोग इत्यादि मानसिक संयमों का प्राकाट्य यदि सर्वप्रथम किसने किया था, तो वह इस नाथ परम्परा ने ही किया था।उसके पीछे पृष्ठभूमि भले ही कुछ भी रही हो। या फिर कारण कोई भी रहा हो। परंतु व्यक्तिक सद-चरित्रता का संदेश प्रथम बार हिंदी साहित्य में यदि किसी परंपरा ने दिया है तो वह निश्चित तौर से नाथ साहित्य परंपरा से प्राप्त होता है। इस साहित्य परंपरा की प्रमुख प्रवृतियां निम्नलिखित रही है:—
1. उलटवासियों का प्रयोग: नाथ संप्रदाय के नाथों एवं कवियों ने साहित्य के क्षेत्र में अपनी अंतरतम गहन साधना के रहस्य को भाषा के माध्यम से जिन छंदों और प्रतीकों के माध्यम से प्रकट किया है, उन्हें उल्टवासियों के नाम से जाना जाता है। यह रहस्य ऐसी शब्दावली के प्रयोग से प्रकट किया गया होता है कि आम जनमानस की समझ से कई बार परे हो जाता है ।उदाहरण के रूप में गुरु गोरखनाथ जी के गुरु मत्स्येंद्र नाथ की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत है : –
जल कुंच है माछली, खण कुंचा है मोर।
सेवक चाहे राम कूं, ज्यौं ध्यंतवत चंद चकोर॥
इसी प्रकार से गुरु गोरखनाथ जी के काव्य संग्रह – “गोरख वाणी“ का एक उदाहरण है:-
यह मन सकती यहु मन सीव।
यहु मन पांच तत का जीव॥
इन उलटवासियों का प्रभाव आगे चलकर संत साहित्य में भी विशेषकर कबीर पंथ में साफ – साफ दिखाई देता है। इसकी पुष्टि करता हुआ एक उदाहरण देखें : –
नाथ बोले अमृत वाणी, बरिषै कंवली भीजेगा पांणी।
कउवा की डाली पीपल बासै, मूसा के सबद बिलइया नासै॥
नाथों का साहित्य अधिकतर साधनापरक है, इसलिए उसमें अधिकतर काव्य तत्वों की सरसता का पर्याप्त अभाव है।
2. हठयोग एवं अष्टांग मार्ग का प्रतिपादन : नाथ परंपरा में हठयोग का विशेष महत्व रहा है, जिसका प्रभाव नाथ साहित्य में भी साफ- साफ नजर आता है। हठयोग से अभिप्राय नाथ परंपरा में – ‘ह’ से सूर्य और ‘ठ’ से चंद्र से है। अर्थात सूर्य और चंद्र स्वर की संयुक्त साधना जो शिव स्वर तन्त्र में त्रिनाड़ी तंत्र के अंतर्गत आती है; उस योग को हठयोग का नाम दिया गया है। कुछ लोग अपवाद स्वरूप इस को जबरदस्ती किया जाने वाला योग मार्ग भी कह देते हैं।जबकि यह नितांत गलत है। ध्यान से अगर हम नाथ साहित्य को पढ़ें तो स्वत: ही स्पष्ट हो जाता है कि महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग में जो साधना पद्धति बताई गई है, नाथ पथियों का हठयोग भी उसी से मेल खाता है। उदाहरण के लिए नाथ साहित्य के कुछ अंश इस प्रकार है : –
१ . आसण बैसिवा पवन निरोधिवा वान मान सब धंधा।
बदंत गोरखनाथ आतमा विचारत ज्यूँ लज लज दीसै चंदा॥
२ . ईडा मारग चन्द्र मणीजै प्यगुला मारग मानं।
सुषमनां मारग वांणी बोलिए त्रिय मूल अस्थानं॥
३ . भोगिया सूते अजहुं न जागे भोग नहींज रे रोग अभागे।
अतः कहा जा सकता है कि नाड़ी शोधन में इडा, पिंगला, सुषुम्ना नाडियों का प्रयोग, षडचक्र में मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनहद, विशुद्ध और आज्ञा चक्र के साथ-साथ सहस्रार कमल या शुन्य समाधि स्थल का वर्णन भी नाथ साहित्य में मिलता है।कुंडली जागरण के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहना और शुन्य समाधि स्थल में पहुंचकर अपनी साधना के चरम को प्राप्त करना नाथ पंथियो का मोक्ष कहलाता है।
3. गुरु की महिमा : इस परंपरा में गुरु को साक्षात भगवान का दर्जा दिया जाता है। इतना ही नहीं इस परंपरा के सभी साधकों का मानना यह था की मुक्ति और निवृत्ति गुरु कृपा से ही संभव है। उदाहरण के लिए नाथ साहित्य का एक अंश देखा जा सकता है : –
गुरु कीजै गहिला, निगुरा न रहिला।
गुरु बिन ग्यांन न पाइलर रे भाइला॥
गुरु के बिना ज्ञान की प्राप्ति असंभव है। इस बात की पुष्टि करती हुई ये पंक्तियां अपने आप उस युग के साक्ष्य को देती है कि नाथ पंथ गुरु के प्रति कितना समर्पित था।
4. परंपरागत रूढ़ियों एवं बाह्य आडम्बरों का विरोध : यह बात ऊपर ही पुष्ट कर दी गई है कि जिस काल में नाथ संप्रदाय का साहित्य समाज के सामने उद्घाटित हुआ। वह संक्रांति काल था। उस समय मुस्लिमों के आगमन के कारण तथा सिद्ध पंथियो के विलासितापूर्ण साहित्यिक भावबोध से समाज नवीन नाथ परंपरा के साहित्य की ओर अग्रसर हो रहा था। समाज उस वक्त नाना प्रकार की कर्मकांडी प्रक्रियाओं से गुजर रहा था। वे सभी स्थितियां एवं क्रियाएं अधिकतर बाह्या अडम्बरों से परिपूर्ण थी। ऐसी परिस्थिति में इन सभी परिस्थितियों का विरोध करता हुआ एक नया संप्रदाय समाज के सामने अपने साहित्य को लेकर आता है, जो नाथ परंपरा के नाम से जाना जाता है। गुरु गोरखनाथ जी की गोरख वाणी में तो इन आडम्बरों का विरोध हुआ ही, हुआ है बल्कि उनके आगे भी इस परंपरा में बाह्य आडंबर का निरंतर विरोध होता रहा। इन्होंने सहज, सरल एवं निश्छल जीवन को जीने की शिक्षा के साथ-साथ शोषण मुक्त समाज की परिकल्पना साकार करने की शिक्षा भी तत्कालीन समाज को अपने साहित्य के माध्यम से देने की पूरी- पूरी कोशिश की।
5. चित्त शुद्धि और सदाचार में विश्वास : इस परंपरा के संपूर्ण साहित्य में हमें निरंतर आत्म शुद्धि, आंतरिक पवित्रता, मानसिक संयम एवं तप, पवित्र दृष्टि और पावन व्यवहार इत्यादि का चित्रण देखने को मिलता है। यह बात अलग है कि इन लोगों का बाह्य हुलिया आम जनमानस को देखने में भले ही ठीक नहीं लगता होगा। परंतु इनका अंतः करण और इनका जीवन व्यवहार जिस तरह से पवित्र था, उसी तरह की बातें इनके द्वारा लिखे गए साहित्य में संपूर्ण समाज को सदाचार की शिक्षा देती हुई नजर आती है। इंद्रिय निग्रह, कुंडलीनी जागरण, चित्त शुद्धि आदि-आदि बातें इनकी जीवन शैली में साक्षात नजर आती है और उन्हीं का परिणाम इनके साहित्य में भी फलीभूत हुआ है।
6. गृहस्थ जीवन के प्रति नकारात्मकता : यह बात सही है कि सिद्ध साहित्य की तरह नाथ साहित्य में नारी जीवन और गृहस्थ जीवन के प्रति आस्था नजर नहीं आती, परंतु फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि नाथों का दृष्टिकोण नारी के प्रति और गृहस्थी के प्रति पूर्ण रूप से प्रतिकूल था। हां यह सत्य है कि इस ओर नाथ पंथियों की नकारात्मक दृष्टि जरूर थी। नाथ परंपरा में यह विचारधारा जरूर पुष्ट थी कि चारित्रिक पतन का कारण नारी रहती है और इसलिए वह हमेशा नारी से दूरी बनाए रखने की सलाह अपने शिष्य परंपरा में देते रहते थे। यही वह मुख्य कारण था जिसके चलते कालांतर में यह परंपरा समाज में अपना प्रभाव धीरे – धीरे खोती गई। कुछ विद्वानों का मानना यह भी है कि यह विचारधारा गुरु गोरखनाथ जी में तब घर कर गई थी, जब उन्होंने बौद्ध बिहारों में बौद्ध भिक्षुणियों के व्यवहार को देखा होगा।
हिंदी साहित्य के आगामी कालो पर नाथ साहित्य का प्रभाव : –
हिंदी साहित्य के इतिहास को जब हम पढ़ते हैं तो नाथ साहित्य का सीधा – सीधा प्रभाव भक्ति काल में निर्गुण मार्गी शाखा में दिखाई पड़ता है। निर्गुण मार्गी शाखा में भी ज्ञानाश्रयी कबीर पंथ पर इस साहित्य परंपरा का प्रभाव स्पष्ट नजर आता है। उक्त की सारी प्रवृतियां तथा उलटवासियों की वही नाथपंथी शब्दावली कबीर मार्गी शाखा में साफ – साफ देखी जा सकती है। आचरण की शुद्धता की ओर अग्रसर कबीर पंथ को यदि नाथ साहित्य के साथ जोड़ कर देखा जाए तो बहुत सारी बातें इन दोनों पंथों की आपस में कहीं न कहीं मेल खाती है।
निष्कर्ष (Conclusion) : –
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि नाथ परंपरा हिंदी साहित्य के इतिहास में आदिकाल के प्रारंभिक चरण में नवी शताब्दी के आसपास विकसित हुई और निरंतर चौदहवीं सदी के आसपास तक समाज में अपना धार्मिक और साहित्यिक प्रभाव बनाए रखने में कामयाब हुई। इस पंथ की साहित्य परंपरा ने हिंदी साहित्य में जिस तरह से अपना प्रभाव छोड़ा है, वह अपने आप में अद्वितीय है। अतीत के संस्कृत साहित्य की गहन एवं गुप्त रहस्यमई घटनाओं को आम जनमानस की भाषा में उद्घाटित करने का कार्य हिंदी साहित्य में नाथपंथी परंपरा ने ही किया था। समाज के चारित्रिक उत्थान तथा मानसिक विकास का आधार यही परंपरा हिंदी साहित्य में बनी। अष्टांग योग के रहस्य को जनभाषा में प्रस्तुत करने की परिकल्पना नाथ संप्रदाय ने ही हिंदी साहित्य को प्रदान की। जिसका प्रभाव आगे चलकर कबीर पंथ में भी नजर आता है। गुरु के महत्व को और बाहरी आडंबर के खंडन को नाथ पंथियों की विचारधारा का स्वस्थ एवं पुष्ट पक्ष कहा जा सकता है। अतः कहा जा सकता है कि जब तक साहित्य की दुनिया में हिंदी साहित्य का पठन-पाठन होता रहेगा। तब तक नाथ साहित्य के महत्व को भुलाया नहीं जा सकता।
♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦
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- “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — इस पंथ की साहित्य परंपरा ने हिंदी साहित्य में जिस तरह से अपना प्रभाव छोड़ा है, वह अपने आप में अद्वितीय है। अतीत के संस्कृत साहित्य की गहन एवं गुप्त रहस्यमई घटनाओं को आम जनमानस की भाषा में उद्घाटित करने का कार्य हिंदी साहित्य में नाथपंथी परंपरा ने ही किया था। समाज के चारित्रिक उत्थान तथा मानसिक विकास का आधार यही परंपरा हिंदी साहित्य में बनी। अष्टांग योग के रहस्य को जनभाषा में प्रस्तुत करने की परिकल्पना नाथ संप्रदाय ने ही हिंदी साहित्य को प्रदान की। आजकल की पीढ़ी आधुनिकता के नाम पर भूलते जा रहे है अपनी ही प्राचीन संस्कृति, संस्कार व सभ्यता को। “याद रखें- हवा में उड़ने वाले हर परिंदे को भी तो आखिर में, थक हार कर किसी न किसी शाख पर टिकना है।”
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यह लेख (हिन्दी साहित्य में नाथ परम्परा।) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।
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