Kmsraj51 की कलम से…..
♦ क्या निजीकरण का विरोध जायज है? ♦
आजकल जिस तरह से सरकारी कर्मचारी की हालत हुई है। उस लिहाज से निजीकरण बहुत जरूरी है। काम करने को कहे तो लाख बहाने और कानून बताते हैं। जब तनखाओं की बात आती है तो उस के लिए तो सड़कों में उतरते हैं। एफसीलाखों की तनख्वाह चाहिए पर काम करना ही नहीं चाहते हैं। मुफ्त में चाहिए। जब कोई ऐसा कहे कि काम करो भाई तुम्हे इसकी तनख्वाह मिलती है। तो कहते हैं इसके लिए हमने दिन रात कड़ी मेहनत की है और ऊंची पढ़ाई की है। तब जाकर इस पद पर पहुंचे है। यूं ही नहीं मिली है नौकरी। जैसे उन्हे नौकरी लगने की प्रतियोगिता को पास करने के ईनाम के रूप में जिंदगी भर मोटी तनख्वाह देने का अनुबंध सरकार ने हस्ताक्षरित किया हो। जैसे टेस्ट पास कर के उन्होंने जनता पर बड़ा एसान किया हो। इतनी पढ़ी लिखी जनता बेरोजगारी से जूझ रही है और परेशान हैं। उसका शोषण हो रहा है। वह किसी को नहीं दिखता।
बस निजीकरण न हो। ठेकेदारी न हो। क्यों? जब लोग कुली के काम में भी ईमानदारी से काम करना ही नहीं चाहते हैं तो फिर तो ठेका जरूरी है। वहां प्रोग्रेस भी मिलती है और काम भी हो जाता है। रही गुणवाता की गड़बड़ी की बात तो उसके लिए फिर से सरकारी अधिकारी और कर्मचारी ही दोषी हैं। जो घूंस खाकर ठेकेदारों के कामों को पास करते हैं। यदि ठेकेदार घूस न दे तो वे बिल ही पास नहीं करते। ऐसे में ठेकेदारों को भी गुणवत्ता में गड़बड़ करनी पड़ती है। यानी सरकारी सेक्टर में जो भी लगा समझो की पावर और कानूनों का दूर-उपयोग करना उसका निजी अधिकार बन जाता है।
जनता अपने-अपने काम को निकालने के चक्कर में और किसी से बुरा न बनने के चक्कर में घूस देने को विवश हो जाती है और अब धीरे-धीरे जनता को भी भ्रष्टाचार की लत लग गई है। सिखाई किसने? सरकारी अधिकारी और कर्मचारी वर्ग ने। छोटे से छोटा बाबू भी बिना घूस के फाइल नहीं सरकाता। चपरासी तक भ्रष्ट हैं, और तो और मनरेगा के मजदूरों से भी जबाव मिलता है कि जब सब खा रहे हैं तो हमारे लिए प्रोग्रेस क्यों? हम भी सारा दिन अपनी मर्जी का काम करेंगे और 203 रुपए पूरा दिन लेंगे। यदि वह तकनीकी लोगों ने कम आंका तो पंचायत प्रतिनिधि की खाल उधेड़ देते हैं। या तो प्रोग्रेस के बदले में दुगना तिगुना दिन मांगते हैं। अब वहां एडजस्टमेंट करनी पड़ेगी।
उस एडजस्टमेंट को कानूनी रूप से तकनीकी लोग या ओहदेदार लोग कानूनन गलत ठहराते हैं। ऐसे में पंचायत प्रतिनिधियों को ही नुकसान झेलना पड़ता है और हर तरफ से समझौता करना पड़ता है। लोगों को प्रोग्रेस के चक्कर में दुगना तिगुना दिन देना पड़ता है और तकनीकी तथा ओहदेदार लोगों को घूस खिलानी पड़ती है। ऐसे में कार्य की गुणवत्ता यदि लानी हो तो घाटा होगा नहीं तो गुणवत्ता से भी समझौता करना पड़ता है। अब दोषी कौन?
लोगों की नजरों में ठेकेदार या पंचायत प्रतिनिधि खा गए आदि-आदि, का भाव होता है और खाने वालों की एक लम्बी कतार होती है। यह सचाई सब जानते हैं पर मुंह कोई नहीं खोलना चाहते। अन्ना आंदोलन ने आवाज उठाई जरूर थी परन्तु वह भी समय और व्यवस्था की गर्त में दब गई। फिर ठेकेदारी प्रथा से नफरत क्यों? जब लोग ही मिलकर इसका विरोध नहीं करना चाहते तो सरकार का क्या कसूर?
गरीबों के काम तो कतई नहीं होते। इतनी तनख्वाह लेने के बाबजूद भी हर काम के लिए रिश्वत मांगते हैं। हद हो गई है अब तो। हां सेना के मामले में, पुलिस के मामले में ठेका सही नहीं है। बाकी देश के विकास के लिए सब जायज है। अध्यापक तनख्वाह लेने के बाबजूद भी क्लास को नहीं जाना चाहते और जाता है तो गाइडों से पढ़ाना शुरू करता है। कौन पढ़ता है आज किताबें? कौन जाता है आज लाइब्रेरी? जो काम करते हैं उन्हे उल्टा क्रश किया जाता है। उन्हे पफोन्नत नहीं मिलती पर वरिष्टता के हिसाब से पदोन्नति मिलती है।
सभी विभागों के कर्मचारी रिश्वत बिना काम नहीं करना चाहते। फिर क्या गलत है? सरकारी सेक्टर की तरह निजी में नहीं होता। वहां प्रोग्रेस के पैसे मिलते हैं न कि ओहदे और डिग्री के बल पर पास किए टेस्ट के। वहां पदोन्नति भी काम के हिसाब से होती है न कि सिनियोर्टी के आधार पर। तब इस क्षेत्र को बढ़ावा दिया जाना कहां से गलत है? या तो लोग अपनी मानसिकता को सुधारे या फिर निजीकरण को स्वीकारें।
निजीकरण के सकारात्मक प्रभाव :
- सरकारी ऋण में कमी : निजीकरण के मुख्य आशावादी प्रभावों में से एक यह है कि इसने संघीय सरकार के पैसे को कम कर दिया है।
- बेहतर सेवाएं।
- नए-नए तरह के उत्पाद।
- कोई राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं।
- प्रतियोगी दरें।
घोषणा :- यह मेरी मौलिक और स्वरचित रचना (विचार) है।
♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला – मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦
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- “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — गरीबों के काम तो कतई नहीं होते। इतनी तनख्वाह लेने के बाबजूद भी हर काम के लिए रिश्वत मांगते हैं। हद हो गई है अब तो। हां सेना के मामले में, पुलिस के मामले में ठेका सही नहीं है। बाकी देश के विकास के लिए सब जायज है। अध्यापक तनख्वाह लेने के बाबजूद भी क्लास को नहीं जाना चाहते और जाता है तो गाइडों से पढ़ाना शुरू करता है। सभी विभागों के कर्मचारी रिश्वत बिना काम नहीं करना चाहते। फिर क्या गलत है? सरकारी सेक्टर की तरह निजी में नहीं होता। वहां प्रोग्रेस के पैसे मिलते हैं न कि ओहदे और डिग्री के बल पर पास किए टेस्ट के। वहां पदोन्नति भी काम के हिसाब से होती है न कि सिनियोर्टी के आधार पर। तब इस क्षेत्र को बढ़ावा दिया जाना कहां से गलत है? या तो लोग अपनी मानसिकता को सुधारे या फिर निजीकरण को स्वीकारें।
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यह कहानी (क्या निजीकरण का विरोध जायज है?) “हेमराज ठाकुर जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।
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