Kmsraj51 की कलम से…..
♦ बचपन। ♦
काश! लौट आते वे बचपन के दिन आज,
जिसमें, दादी चूमती भालों को।
माता, लोरी गा कर सहज सुलाती,
बहना, चटकारी देती गालों को।
वह बाबुल की बाहों का झूला होता,
सागर समझता नदी और नलों को।
कोरे कागज की वह कश्ती होती,
खेलता, काठ के कृपाण और भालों को।
माँ डांटती, मैं रुस कर छुप जाता,
आँगन में बाबुल की पीठ के पीछे।
माँ खंगालती, घर का कोना – कोना,
दादी देखती, हर पलंग के नीचे।
बाबा, मौन रह देते, साथ मेरा तब,
गमछे से ढांपते, ताकि तनिक न दिखे।
बहना खोलती, भ्रातृ भेद सारा तब,
माँ झुंझलाती, अच्छा! तो ये तुम्हारी सीखें?
काश! मिट्टी के वे घरौंदे होते,
बनाता, मिटाता, फिर से बनाता।
किशोर पड़ोसिन कमला की चुगली,
तोतली आवाज में दादा से लगाता।
डांट पड़ती देख दादा से उसको,
मेरा रूआंसा सा चेहरा, फिर से खिलखिलाता।
काश! लौट आते वे बचपन के दिन आज,
जिंदगी जीने का बड़ा मजा आता।
आज न जाने क्या हो गया ये?
आलीशान बंगलों का सुख भी न भाता।
आंगन में लगे हुए झूले पर झूल कर भी,
वह बाबुल की बाहों सा चैन न आता।
काश! हुआ न होता बड़ा अगर मैं,
तो आज ये बचपन का भाव न सताता।
आज है भार सब अपने ही कंधों पर,
जो उठाया करते थे, तब मेरे पिता और माता।
♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला – मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦
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- “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस कविता के माध्यम से समझाने की कोशिश की है — बचपन किसी भी इंसान के जीवन का बहुत ही महत्वपूर्ण समय होता है। बचपन में इतनी चंचलता और मिठास भरी होती है कि हर कोई फिर से उस बचपन को जीना चाहता है। बचपन में वह धीरे-धीरे चलना, गिर पड़ना कुछ देर के लिए रोना और फिर से उठकर दौड़ लगाना बहुत याद आता है। बचपन में दादी द्वारा प्यार से यूँ माथा को चूमना बहुत याद आता है। बचपन में पिताजी के कंधे पर बैठकर मेला देखने जाने का जो मजा होता था वह अब नहीं आता है। मां से डाट पड़ने पर पापा के पीछे यूँ छिप जाना, शरारत करने पर पिटाई के लिए खोजा जाना और दादा जी के पास छिप जाने का जो आनंद था उसका क्या कहना, बहन द्वारा पकड़वाना, फिर तो पिटाई होती थी। लेकिन आजकल के बच्चों का वह प्यारा सा बचपन तो कहीं खो ही गया। भावनात्मक या मन के स्तर पर मासूमों के पोषण की स्थिति दुनिया भर में बहुत ही बुरी है। भारत में हर दूसरा बच्चा वयस्कों की भावनात्मक प्रताड़ना का शिकार हो रहा है। खास बात यह है कि 83 फीसदी से ज्यादा मामलों में तो शोषण करने वाले खुद अपने मां-बाप होते हैं। बच्चों से उनका बचपन ना छीने, उन्हें उनका बचपन खुलकर जीने दे, तभी उनका सर्वांगीण विकास होगा।
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यह कविता (बचपन।) “हेमराज ठाकुर जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।
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