Kmsraj51 की कलम से…..
♦ प्रगीत और संगीत तत्व। ♦
साहित्य और संगीत का वांछनीय संबंध,
साहित्यकार की पद शैली में सदा रहती।
पद साहित्य – परंपरा पीछे छूटने पर भी,
साहित्यकार – संबंध में संगीत बना रहता॥
मानव भावानुभूति का सहज साधन संगीत,
प्रगीतों में निश्चल विद्यमान रहती अनुभूति।
अपने ही चरम ऐश्वर्य को प्राप्त करता,
जब वह सांगीतिक वैभव से परिपुष्ट होता॥
गायन वादन नृत्य को आदर प्रदान करती,
प्रेमानुभूति अभिव्यक्ति की संचित सुविधा दी।
तत्कालीन कविता में इतिवृत्तात्मकता और,
रचनात्मकता – रस आत्मकता काव्य होता॥
रीति काल की ध्रुपद धमार शैली सशक्त रही,
जो पर्याप्त रूप से पीछे छूटने लगी।
दादरा – ठुमरी – ख्याल इत्यादि में श्रृंगारिक,
शैली से प्रगीतकारों ने नाता तोड़ा॥
प्रगीत काव्य में प्रथम ग्राम – गीत और,
लोकगीत का भावनात्मक प्रमुख स्थान है।
दोनों हमारी संस्कृति और भावनात्मक,
अक्षर भंडार – कलापरक मूल संगीत उत्सव है॥
सोहर, घोड़ी, बन्नी, सुहाग, सावन सुमधुर गीत,
लोकाचार व्यवहार सामाजिक अवदान है।
पुरुषों द्वारा भी ग्राम गीतों की रचना होती,
अधिकांश गीतों की रचना स्त्रियां रचती॥
बिरहा कजरी रसिया आदि गीतों की रचना,
पुरूषों द्वारा रचा और गाया जाता है।
राग – ताल और शास्त्रीय जकड़ बंदी इनमें,
कला परक विशेषता का प्रतिबंध कम होता॥
यह गीत प्रायः कहरवा, दादरा जैसे हल्की,
लोकधुन, चलती हुई घुन पर आधारित होती।
जब कला परक संगीत – श्रृंगार से नियमन होता,
लोकगीत ही नूतन रूप – रंग में मिलता॥
♦ सुखमंगल सिंह जी – अवध निवासी ♦
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- “सुखमंगल सिंह जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस कविता में बताया है, साहित्य और संगीत का सम्बन्ध आरंभिक समय से ही है। साहित्य और संगीत एक दूसरे के पूरक है। जब कला परक संगीत – श्रृंगार से नियमन होता, लोकगीत ही नूतन रूप – रंग में मिलता।
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यह कविता (प्रगीत और संगीत तत्व।) “सुखमंगल सिंह जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें / लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी कविताओं और लेख से आने वाली पीढ़ी के दिलो दिमाग में हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम बना रहेगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे, बाबा विश्वनाथ की कृपा से।
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