Kmsraj51 की कलम से…..
♦ रंग बदलता इंसान। ♦
समय देख न जाने कितने रंग बदले इंसान,
फिर इस जहान में गिरगिट ही क्यों बदनाम।
कभी इश्क कभी विरह कभी प्रेम कभी नफरत में डूब जाए,
कुछ भी नजर न आए जब अहम के रंग में ये रंग जाए।
कभी साहिल बनता तो कभी खुद ही किश्ती को डुबोए,
अपनी खुशी की खातिर किसी को आसुओं के सैलाब में भिगोए।
एक उंगली के सहारे से देता कभी किसी का साथ,
जब मंजिल करीब हो तो छिटक देता अपनों का हाथ।
पर्दे के पीछे के उन कलाकारों को क्यूं भूल जाए,
जिनकी मेहनत से वो मंच पर सिर ऊंचा उठाए।
इंसान कदम-कदम पर इस कदर बदले रंग हजार,
कुदरत के रंग बदलना भी कर देता बिल्कुल पार।
भांति-भांति के रंग चढ़ा कर असली रंग की खो दी पहचान,
मस्तक ऊंचा कर बैठा इतना भर लिया अभिमान।
इस जमीं से जुड़े रहने को ही सार्थक रहने दे इंसान,
गुणों को ही समाहित कर केवल रख इंसानियत का मान।
♦ सुशीला देवी जी – करनाल, हरियाणा ♦
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- “श्रीमती सुशीला देवी जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस कविता के माध्यम से समझाने की कोशिश की है — जब आप किसी से नाराज हो जाते हैं तो उसे कोसते हुए बोलते है कि ये गिरगिट की तरह रंग बदलता है। आखिर आपने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों होता है। अचानक से गिरगिट हरा रंग से लाल और पीला से सफेद हो जाता है। लेकिन आजकल का इंसान गिरगिट से भी ज्यादा रंग बदलता है, स्वार्थी हो गया है आज का इंसान, हर कर्म उसका स्वार्थ से भरा है। अपने स्वार्थ के लिए किसी को भी हानि पहुंचने से हिचकिचाता नहीं आज का इंसान। अपने सनातन भारतीय संस्कृति, संस्कार और सभ्यता को क्यों भूलता जा रहा है इंसान?
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यह कविता (रंग बदलता इंसान।) “श्रीमती सुशीला देवी जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे।
आपका परिचय आप ही के शब्दों में:—
मेरा नाम श्रीमती सुशीला देवी है। मैं राजकीय प्राथमिक पाठशाला, ब्लॉक – घरौंडा, जिला – करनाल, में J.B.T.tr. के पद पर कार्यरत हूँ। मैं “विश्व कविता पाठ“ के पटल की सदस्य हूँ। मेरी कुछ रचनाओं ने टीम मंथन गुजरात के पटल पर भी स्थान पाया है। मेरी रचनाओं में प्रकृति, माँ अम्बे, दिल की पुकार, हिंदी दिवस, वो पुराने दिन, डिजिटल जमाना, नारी, वक्त, नया जमाना, मित्रता दिवस, सोच रे मानव, इन सभी की झलक है।
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