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शिरडी वाले साईं बाबा : श्रद्धा का अटूट नाम।
जब हम पैदा होते हैं तो हमारी ना कोई जात होती है और ना ही कोई धर्म. मानव को बांटने का काम हम ही करते हैं. सामाजिक वर्गीकरण की इस दिवार में सबसे ज्यादा नुकसान समाज के उपेक्षित वर्ग को होता है. हमारे साधु-संतों और समाज सुधारकों ने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि समाज में एकता आए. समाज में इसी एकता के भाव को सदृढ़ करने की राह में उल्लेखनीय कार्य के लिए हम शिरडी के साईं बाबा को याद करते हैं.
शिरडी के साईं बाबा को कोई चमत्कारी तो कोई दैवीय अवतार मानता है लेकिन कोई भी उन पर यह सवाल नहीं उठाता कि वह हिंदू थे या मुसलमान. श्री साईं बाबा जाति-पांति तथा धर्म की सीमाओं से ऊपर उठ कर एक विशुद्ध संत की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं, जो सभी जीवात्माओं की पुकार सुनने व उनके कल्याण के लिए पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए.
“सबका मालिक एक है” के उद्घोषक शिरडी के साईं बाबा ने संपूर्ण जगत को सर्वशक्तिमान ईश्वर के स्वरूप का साक्षात्कार कराया. उन्होंने मानवता को सबसे बड़ा धर्म बताया और कई ऐसे चमत्कार किए जिनसे लोग उन्हें भगवान की उपाधि देने लगे. आज साईं बाबा के भक्तों की संख्या को लाखों-करोड़ों में नहीं आंका जा सकता. आज साईं बाबा का महासमाधि पर्व है. उन्होंने इसी दिन सन 1918 में अपना देह त्याग किया था.
साईं बाबा का जन्म 28 सितंबर, 1836 को हुआ था. हालांकि उनके जन्म स्थान, जन्म दिवस या उनके असली नाम के बारे में सही-सही कोई नहीं जानता है, लेकिन एक अनुमान के मुताबिक, साईं का जीवन काल 1836-1918 के बीच है. साई एक ऐसे आध्यात्मिक गुरु और फकीर थे, जो धर्म की सीमाओं में नहीं बंधे थे. सच तो यह है कि उनके अनुयायियों में हिंदू और मुसलमानों की संख्या बराबर थी. श्रद्धा और सबूरी यानी संयम उनके विचार-दर्शन का सार है. उनके अनुसार कोई भी इंसान अपार धैर्य और सच्ची श्रद्धा की भावना रखकर ही ईश्वर की प्राप्ति कर सकता है.
कहा जाता है कि सोलह वर्ष की अवस्था में साईं महाराष्ट्र के अहमदनगर के शिरडी गांव पहुंचे और जीवनपर्यन्त उसी स्थान पर निवास किया. कुछ लोग मानते थे कि साईं के पास अद्भुत दैवीय शक्तियां थीं, जिनके सहारे वे लोगों की मदद किया करते थे. लेकिन खुद कभी साईं ने इस बात को नहीं स्वीकारा. वे कहा करते थे कि मैं लोगों की प्रेम भावना का गुलाम हूं. सभी लोगों की मदद करना मेरी मजबूरी है. सच तो यह है कि साईं हमेशा फकीर की साधारण वेश-भूषा में ही रहते थे. वे जमीन पर सोते थे और भीख मांग कर अपना गुजारा करते थे. कहते हैं कि उनकी आंखों में एक दिव्य चमक थी, जो लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती थी. साई बाबा का एक ही मिशन था – लोगों में ईश्वर के प्रति विश्वास पैदा करना.
1918 में विजयादशमी के कुछ दिन पूर्व साईंनाथ ने अपने परमप्रिय भक्त रामचंद्र पाटिल से विजयादशमी के दिन तात्या के मृत्यु की भविष्यवाणी की. यहां यह जानना जरूरी है कि साईबाबा शिरडी की निवासिनी वायजाबाई को मां कहकर संबोधित करते थे और उनके एकमात्र पुत्र तात्या को अपना छोटा भाई मानते थे. साईनाथ ने तात्याकी मृत्यु को टालने के लिए उसे जीवन-दान देने का निर्णय ले लिया. 27 सितम्बर, 1918 से साईबाबा के शरीर का तापमान बढने लगा और उन्होंने अन्न भी त्याग दिया.
हालांकि उनकी देह क्षीण हो रही थी, लेकिन उनके चेहरे का तेज यथावत था. 15 अक्टूबर, 1918 को विजयादशमी के दिन तात्या की तबियत इतनी बिगड़ी कि सबको लगा कि वह अब नहीं बचेगा, लेकिन दोपहर 2.30 बजे तात्या के स्थान पर बाबा नश्वर देह को त्याग कर ब्रह्मलीन हो गए और उनकी कृपा से तात्या बच गए.
साईंबाबा अपनी घोषणा के अनुरूप 15 अक्टूबर, 1918 को विजयादशमी के विजय-मुहूर्त्त में शारीरिक सीमा का उल्लंघन कर निजधाम प्रस्थान कर गए. इस प्रकार विजयादशमी बन गया उनका महासमाधि पर्व.
कहते हैं कि आज भी सच्चे साईं-भक्तों को बाबा की उपस्थिति का अनुभव होता है.
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Krishna Mohan Singh(KMS)
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