Kmsraj51 की कलम से…..
♦ गलियां गांव की। ♦
आज न सखी महफूज रही,
अब देख ये गलियां गांव की।
अब मत करना आश कहीं तू,
घनी धूप में इनसे छांव की।
ये उगल रही है दारुण दंश निशी – दिन अब,
किसी का किसी पे रहा न आज भरोसा।
रही न नज़रें अब मां – बेटी को देखने वाली,
हर आंखों में आज बस गोश्त ही परोसा।
आज न जाने कब किस गली से?
निकल आए कोई हवस का प्यासा।
अपनी हिफाजत अब आप करो तुम,
मत बन जाना टी वी चैनल में तमाशा।
आज न है सिर्फ निशाचर से ही खतरे,
दिनचर ही झाड़ रहे हैं धूली निज पांव की।
साफगोई से झाड़ते हैं पल्ला फिर अपना,
महफूज कहां है अब गालियां गांव की?
घटना घट जाने के बाद है करते,
हंगामा फिर कानून के रखवाले।
रसूखदारों के चमकीले चांदी के जूते,
जड़ देते हैं इनके मुंह पर फिर ताले।
अब कहां बहती है वे पावन पवने?
गांव के छबीले सुंदर गलियारों में।
यहां महफूज नहीं बहू – बेटियां रही,
दिन के उजाले में न रात के अंधियारे में।
♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦
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• Conclusion •
- “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — अब क्या गांव ? क्या शहर ? कही भी बहू – बेटियां महफूज नहीं। कब किधर से निकल आए कोई हवस का प्यासा, कुछ नहीं खा जा सकता। इंसान के रूप में शैतान है अब यहां। जिस भी बहू – बेटी के साथ गलत होता है उनके दिलों – दिमाग पर नकारात्मक यादों के रूप में मन पटल पर लम्बे समय तक साया बनी रहती है। जो उनके दुखी करती रहती है। अब कहां बहती है वे पावन पवने? गांव के छबीले सुंदर गलियारों में।
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यह कविता (गलियां गांव की।) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।
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