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उदासी पर कविता

श्यामता।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ श्यामता। ♦

काव्य  : विदेह

मैं बसंत बहार की कादंबरी उदास,
फैले हुए कंचन की नृप वल्लभा हूँ।
मैं हरियाली की तुहिन गिर तीर की,
भूली हुई सपन कथा आभा हूँ।

माँ की मैं अपनी बाँयी भौंह,
मर्यादा की हूँ धोमय साया।
मैं आकुल गोधुलि राग करुण,
मैं म्लान आभा की माया।

मैं शीर्णभास मैं वधित-प्रभा,
इस समय भिखारन अलमस्ता।
भग्नावशेष में शोध रही खुद को,
अवासित सौभाग्य की हूँ अरुनता।

मैं निषक्त-भूमिल की धर्म-अम्बा,
मेरे अंगज का विराट ज्ञान।
मेरी महिजा ने दिया लोक की,
जो ललिता को व्याख्या दान।

मैं वैशाली के सन्निकट,
बैठी नित्य अर्म में अनजान।
श्रवण करती सजल नयन अपने,
निच्छवि योद्धाओं के सुयश गान।

अघोष शर्वरी में चक्रकीनद प्रांजल,
देती कर मेरे प्राण विभोर।
मै ठढ़ी मंजुल पर सुनती हूँ,
कविवर की कविता के गान मधुर।

इंद्रनील-मेघ घोष गर्जना कर बरसे,
झिम-झिम झिम-झिम कर बहुत से।
हिलोरें गुनगुन करती राग बिहाग,
क्यूं रूठ गये मोहन कौन सी चूक भई मोसे।

कौमुदी मध्य वैभव भूमि में,
हरी-भरी बन झूमती हूँ।
कुछ-कुछ आती याद बावरी दौड़ी,
मैं तौलिहवा को जाती हूँ।

अस्त-व्यस्त केश अश्रुजल छलक रहे,
मैं बिचरती हूँ मारी – मारी।
कतरा-कतरा में शोध रही अपनी,
खोई अपार निधान सारी।

मैं वीरान वाटिका की मालिनी,
उठती मेरे उर में विषम वेदन।
शारदी नहीं इस निकुञ्ज अभ्यांतर में,
रुक-रुककर बीती-स्मृति करती कूजन।

मैं बसंत बहार की कादंबरी उदास,
फैले हुए कंचन की नृप वल्लभा हूँ।
मैं हरियाली की तुहिन गिर तीर की,
भूली हुई सपन कथा आभा हूँ।

अर्थ: श्यामता = उदासी, शीर्णभास = कमजोर रौशनी, वधित = हत्या,
अरुनता = लालिमा, निषक्त = बाप, महिजा = देवपुत्री,
शर्वरी = रात, शारदी = कोयल, अर्म = टूटा फूटा मकान (खंडहर)

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव `परिमल` जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

—————

  • “सतीश शेखर श्रीवास्तव `परिमल`“ जी ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — प्रकृति की सुंदरता देखते ही बनती है हरी-भरी प्रकृति के कारण ही हमारा जीवन इतना अच्छा सरल सुन्दर है। मन की मन: स्तिथि खुद ही उलझती सुलझती रहती है, जो रख दी बातें सामने अपनों के मन का बोझ कर हल्का वो स्वछंद फिरा करती है। जो बातें रह गई दबी मन में, मन को व्याकुल कर सदा वो तनाव पैदा करती है। उलझनें हो लाख चाहे, दिख रही हो राह कोई सामने उस वक्त ही तो मन पर कस के लगाम लगानी पड़ती है। जो पा लिया काबू उस दौर पे, सुलझ जाएगी उलझनें सारी गर्त से बाहर आयेगा बस संयम की ज्योति जगानी पड़ती है।

—————

यह कविता (श्यामता।) “सतीश शेखर श्रीवास्तव `परिमल` जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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