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कविताएं हिंदी में लिखी हुई

धर्म की उन्नति कैसे होगी।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ धर्म की उन्नति कैसे होगी। ♦

लिखी बहुत रचनाएं ‘मंगल,’
बहुत लिखा है तभी बिहार।
लिखने को तो बहुत कुछ पर,
लिखो लोक में जय जय कार।

सोचा कि मनुष्य धर्म में उन्नत करें,
पर इच्छानुसार वह करता नहीं।
फिर उसको सत्य पथ पर कैसे लाऊं,
धर्म पथ का उपदेश कहां जा सुनाउं।

लोगों के लिए धर्मों पदेश छपवाया,
नियम संयम का बड़ा पाठ पढ़ाया।
दूर-दूर तक धर्मों का प्रचार कराया,
प्रचार से भलाई का मार्ग दिखाया।

सड़क किनारे नए ग्रोथ के वृक्ष लगाया,
पशुपालन की बड़ी योजना लाया।
शहर नगर सड़कों का जाल बिछाया,
धर्म स्थलों का पुनरुद्धार कराया।

सन्यासी और गृहस्थ को यत्न बताया,
भिन्न-भिन्न पथ के हित का ध्यान किया।
गरीब प्रजा को उसका सम्मान दिया,
गांव गरीब तक विद्युत प्रबंध कराया।

धर्म धारण करने की पूर्ण कला जानू ,
दया दान सत्य और पवित्रता को मानू।
उपकार और भलाई से उन्नति होती,
निंदा लालच पर धन संग्रह अवनति देती।

मनुष्य में धर्म की उन्नत दो तरह से होती,
स्थिर नियम उत्तेजित धर्म विचार करा दी।
दोनों भागों में कठोर नियम ठीक नहीं होता,
हृदय को उत्तेजित करना प्रभावित होता।

पशुओं के बध निषेध का नियम बना लूंगा,
सूर्य चंद्रमा जब तक हैं पालन करवा लूंगा।
इस पथ पर चलने वाले लोक परलोक में सुख पाते हैं,
दया दान सत्य पवित्रता धर्म की उन्नति कराते हैं।

सुख मंगल देश में सुख शांति रहे ऐसा गीत सुनाते हैं,
देश के कोने-कोने से लोगों को आपस में मिलाते हैं।
सतरंगी किरण की आभा जंगल – जंगल फैलाते हैं,
विश्व बंधुत्व के नारे से विश्व चलेगा यही बताते हैं।

♦ सुखमंगल सिंह जी – अवध निवासी ♦

—————

  • “सुखमंगल सिंह जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से, कविता के माध्यम से बखूबी समझाने की कोशिश की है – इस कविता में कवि ने बताया है की कितनी बड़ी विडम्बना है की इंसान भौतिक उन्नति तो खूब कर रहा है लेकिन धर्म की प्रगति कैसे होगी, इस बारे में कोई क्यों नहीं बोलता? धर्म की उन्नति न करने के कारण इंसान संस्कार, संस्कृति, आदर, सत्कार में पिछड़ जाता है। उसके अंदर दया, करुणा, प्रेम, श्रद्धा दूर – दूर तक नहीं होता। हम सभी को धर्म की उन्नति कैसे हो? इस बारे में सोचना है, और हम सभी को मिलकर धर्म की उन्नति करना हैं।

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यह कविता (धर्म की उन्नति कैसे होगी।) “सुखमंगल सिंह जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी कविताओं और लेख से आने वाली पीढ़ी के दिलो दिमाग में हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम बना रहेगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे, बाबा विश्वनाथ की कृपा से।

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शरीर से परम तत्व प्राप्त।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ शरीर से परम तत्व प्राप्त। ♦

है शरीर यह एक वृक्ष,
जीवन रूपी पक्षी जिसमें,
घोंसला बनाकर रहता।

कट जाता जब वृक्ष,
उसे छोड़ पक्षी उड़ जाता।

शरीर की दिन-रात आयु
क्षण – क्षण क्षीण है करता।

वह गूढ़ रहस्य जो जानता
परम तत्व का ज्ञान पाता।

शुभ फलों का मानव शरीर
मूल प्राप्ति आधार होता।

साधु भक्त स्वयं धैर्यवान
सत्कर्म – सदविचार करता।

अनुकूलता स्मरण की होने पर
लक्ष्य की दिशा में वह बढ़ता।

कर्म- ज्ञान और भक्ति योग,
से मन परमात्म चिंतन करता।

नियंत्रण नियम अपनाकर,
अपराधी प्रवृत्ति से बचता।

प्रकृति शरीर और सृष्टि का,
क्रमवार चिंतन जो करता।

सृष्टि चिंतन में लय भरता,
दुख बुद्धि रूपी पदार्थ छोड़।

शांति में मन जा कर रमता,
परमात्मतत्व प्राप्त करता।

♦ सुखमंगल सिंह जी – अवध निवासी ♦

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  • “सुखमंगल सिंह जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से, कविता के माध्यम से बखूबी समझाने की कोशिश की है – इस कविता में कवि ने बताया है की यह शरीर एक वृक्ष की तरह है, जैसे वृक्ष का जड़ जब काट दिया जाता है तब वृक्ष मुरझाकर सुख जाता हैं। वैसे ही परम तत्त्व आत्मा इस शरीर से बाहर निकल जाता है जब यह शरीर किसी काम का नहीं रहता हैं। यह शरीर मिला है, अपने आपको पहचान कर, सत्य मार्ग पर चलकर, उस महान परम तत्त्व परमात्मा से मिलन के लिए।

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