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काशी इतना शक्तिशाली क्यों है?

काशी कहां चली।

Kmsraj51 की कलम से…..

Kashi Kahan Chali | काशी कहां चली।

काशी संसार सागर से पार उतारने वाली भक्ति भावन नगरी है। काशी समीचीन यथार्थ सुदृढ़ शोत्रसम्मत् सर्वसिद्धि तपोभूमि है। काशी में जहां मरणोपरांत भक्ति मुक्ति मिलती है वही काशी में किये पुण्य अथवा पाप कर्म भी अक्षुण्ण होते हैं। मानव यूं तो बुद्धिजीवी है, फिर काशी की गरिमा पर कहीं प्रश्नचिन्ह न लगे, आंच न आवे ऐसे कार्यो से भावुक हो लोग तमाम अनैतिक कार्यों में लिप्त नजर जाने क्यों लोग दिखते हैं। इससे साफ जाहिर है जन – जन में वैभव, पराक्रम मनस्विता और जीवट, ओजस् तेजस् की कमी कहीं न कहीं हमारे अंदर अवश्य ही प्रभावित कर रही है। फाल्गुन मास में बरसाने वृंदावन – मथुरा होली के माहौल में जब रंग विरंगे रंगों से सरावोर रहती है वहीं काशी, काशी में बाबा भोले भी इस सुअवसर से अछूते क्यों रह जायेंगे।

आमल एकादशी 

आमल एकादशी को भोले भी भाव विह्वल हो स्नान करते हैं, सप्रेम भरी होली-रंगभरी के रंग से सराबोर होते हैं साथ ही अतिविशिष्ट शृंगार भी कराते हैं। इन्हीं दिनों सिद्धि चक विधानानुसार धर्म के अष्ट चिन्ह के पूजा विधान में भी लिखा गया है—

कार्तिक फाल्गुन अषाढ़ के अंत अठ दिन माहि।
नन्दीश्वर श्वर जात है, हम पूजे इह ठाहिं॥

अर्थात् — जैन श्रावक उक्त मास के अंतम आठ दिन शुक्ल पक्ष की अष्टमी से पूर्णिमा तक काल्पनिक रूप में इन्द्र इन्द्राणी देवता का विधानपूर्वक पूजन, भजन भी होता है। जब काशी का वर्णन हम कर रहे हों, वहां शिवलिंग का वर्णन न हो तो काशी का वर्णन संभवतः अधूरा प्रतीत होता है। वैगे तो मनुष्यों द्वारा कुछ भी पूर्ण कर पाना समीचीन नहीं हैं।

निराकार पार ब्रह्म परमेश्वर

पूर्ण तो मात्र ब्रह्म है जो निराकार पार ब्रह्म है जो निराकार पार ब्रह्मपरमेश्वर ही है। हम जिस ज्योतिर्लिंग का वर्णन यहां करने जा रहे हैं वह वही है जो आपकी आत्मा का स्वरूप है। जब बच्चा मां के गर्भ में आता है तो वही अंडाकार रूप धारण करता है जिस आकार में शिवलिंग होता है। मरणोपरांत अग्नि दहन के समय भी शनैः शनैः पुनः उन्हीं स्वरूप में ही, यह मानवीय रूपाकाया पंच भूतात्मा पंचतत्व में विलीन हो जाता है। शिव आनन्ददाता हैं। जिस दिन आप शिव में लीन होंगे और गंगा के पावन जल से परिपूर्ण हो जायेंगे उस दिन से कुछ शेष नहीं बचा। द्वंद नहीं निर्द्वद हो जायेंगे। विलक्षणता की अनुभूति होनी स्वभावतः हो जायेगी।

काशी में स्त्रैण और नगरी पुरुष को खोजते फिरते रहते हैं शायद उन्हें ज्ञात नहीं शिव अर्धनारीश्वर है। बांवले से सड़कों गलियों ऐसे में देखते ही होगें। आप में भी द्वंद्व होना स्वाभाविक है ही, क्योकि यह जगत ही द्वंद्व से निर्मित है। तो आप भी दो होंगे ही। इतना तो अवश्य ही है। द्वैत से अद्वैत में पहुंचने के मार्ग की आकांक्षा में आपको उस शिवलिंग की अपने घर में उपासना करनी होगी। जिसके द्वारा आप निर्द्वद्व हो जाय। वह तभी संभव होगी जब मेक्सिमम ६ अंगुल की ही मूर्ति विधान सहित स्थापित करने परांत आप के अन्दर ध्यान योग प्राणायाम अथवा अन्यान्य विधाओं से विह्वल विकल अति आतुरता आनन्द हो, जिस समय उस अलौकिक बोध गुदगुदाहट आलिंगन सा परम आनंद मिल जाये आप अनुभूति करें, काशी की एक रेखा तक पहुंच रहा हूँ।

प्रथम पूज्य देवाधिदेव – भोले के सुपुत्र गौरी के लाल गणेश जी

हमें काशी का वर्णन करते समय प्रथम पूज्य देवाधिदेव भोले के सुपुत्र गौरी के लाल गणेश जी को नहीं भूलना होगा जिसकी प्रतिमूर्ति बड़ा गणेश में प्रतिष्ठापित है। बड़ा गणेश जी को भी हमें हर शुभ कार्य में प्रथम सादर याद करना चाहिए। यहां गणेश चतुर्थी के दिन सैलानियों की भीड़ स्वाभाविक हर्षानुभूति कराता है। गणेश जी के लिए यह भी कहना अतिशयोक्ति न होगी—

सुख समृद्धि का जब आयेगा नया दौर।
गणपति गजबदना को पूजेंगे लोग॥

यहीं; मंगल ने कहा है—

  • मांगो न और काहू से याचक बन काशी में चातुर्मास बिताय रहतु ना एकै द्वार लेत न हाय वहां सव तीरथराज देवगण चरवन लेत चबाय चहु और महिमा काशी में।
  • पंचाक्षरी मंत्र पढ़ महिमा तन की काशी त्रिलोचन लोचन कर्णघंटा घंटा बजत गिरजानन्दन शिवयाचक वनि हो काशी में।

आज हम अध्यात्म, नैतिकता, संस्कृति पश्चिम से लेते जा रहे हैं। हमें याद करना होगा स्वामी विवेकानन्द जी के मुख, मुखार परमार्थ तप, सेवा को भी, हमें याद करना होगा, स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी के उपदेशों को, कबीरदास के कर्मयोग, राजर्षि विश्वामित्र के ‘तप’ को, मीरा का प्रेम, राजा मान्धाता के ‘त्याग’ और राजा हरिश्चंद्र का ‘सत्य’, लक्ष्मीबाई के शौर्य को भी हमें नहीं भूलना होगा। आज काशी में ही क्या सारी पृथ्वी बोझ से दबी जा रही है। हमें मिटाना है काशी के साथ सारी धरती के क्लेश को?

गंगा में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है—

सद्भावना पूर्ण वातावरण का हम सब जन मिल निर्माण करें। काशी के हाथीघाट, शिवाला घाट वह स्थान है जहां राजा विजयानगरम् का हाथी आता था। इस घाट की बनावट ऐसी थी कि जो लोग तैरना नहीं जानते थे वे इस घाट पर कमर भर पानी में नहा सकते थे परंतु आज यहां कीचड़ का अम्बार रहता है इसलिए नहीं कि गंगा का बालू एकत्र हो गया है। बलात गंगा में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। चूंकि अंग्रेजों के समय में कस्साई बाड़ा के जो जानवरों का खून पहले गंगा जी में नहीं आता था आज खून शाम होते ही रंग बिरंगे रंगों में कभी लाल, कभी हरा, कभी बैगनी, कभी काला एवं मटमैले कलर की धार बन कर सम्वत् २०४६ से गंगा में अनवरत आ रहा है।

यही नहीं रंगाई के कारखानों का रंग एवं हजारों लीटर केमिकल तथा लगभग सौ लीटर खून डायरेक्ट गंगा में प्रतिदिन अनवरत बहाया जाता है। प्रतिदिन लोहता भिटारी के बीच बने नाले से भी केमिकल निरर्थक वरुणा नाले से होकर अनवरत वरुणा नदी में बहाया जा रहा है। वरुणा नदी भी उसे बेहिचक गंगा को अर्पित कर देती है। आज गंगा जी के दंडी घाट से गुलेरी घाट तक मनुष्य क्या बन्दर व गाय भी पानी पीने से दूर नहा सकने में भी हिचकिचाहट कर रहे हैं। इन घाटों को भैंसा घाट कहा जाय तो भी अतिशयोक्ति न होगी।

इस प्रकार वाराणसी के छः घाट उक्त प्रदूषण से जहां प्रभावित हैं वही राजेंद्र प्रसाद घाट, मर्णिकर्णिका घाट भी प्रदूषण से क्यों अछूता रह जाय। अस्सी घाट का पूछना ही क्या है। नाला द्वारा हजारों लीटर गन्दा पानी गंगा में बहाने से नगर निगम आखिर क्यों नहीं बाज आता। इससे साफ जाहिर होता है कि केंद्र अथवा राज्य द्वारा चलाई गई सफाई निर्मलीकरण योजना सफेद हाथी का सा रूप धारण कर रखा है। मणिकर्णिका, हरिश्चंद्र घाट से आज भी अधजले शव गंगा में बहाकर ही नहीं अपितु पशुओं के शव को गंगा में प्रवाह कर गंगा में हम सड़ान्ध क्यों पैदा कर रहे हैं? पुलिस प्रशासन भी मूक दर्शक आखिर क्यों बनी रहती है? ऐसे में अधिक अपराध के युग का श्रीगणेश भी इस दशक को कहने से लेखक नहीं चुकेगा। बशर्ते नाबालिग बच्चों का शव धार्मिक परम्परानुसार जल प्रवाह की अवधारणा जब तक नहीं बदलेगी। हम धार्मिक परम्परा का जिक्र कर रहे हैं तो धर्माचार्य का जो सत्य निष्ठा से आज का मानव जीव कल्यार्णाथ यज्ञ, हवन, पूजन, प्रवचन, हरिभजन, शिवअर्चन, चण्डी जाप, नाम जपन, भजन पर भी हमें जिक्र करना मुनासिब होगा। आप काशी में कम नहीं पायेंगे।

ज्ञान, भक्ति, अध्यात्म तीर्थों का भी तीर्थस्थल काशी है।

ज्ञान, भक्ति, अध्यात्म और सर्व प्रेम का प्रतीक यह तीर्थों का भी तीर्थ है। आध्यात्मिक, धार्मिक तथा भक्तिभाव प्रेरक धार्मिक सांस्कृतक लोक उन्नायक आयोजनों का यह तीर्थस्थल काशी है। काशी में नास्तिक विचारधारा से युक्त जो प्राणी आता है रमण भ्रमण करने, वह भी शिवमय हो रम जाता है। भोला भूदेवी, भवानी, भगवती, जगदम्बा में कारण शास्त्रों में वर्णित है।

भोला काशी परिक्षेत्र चौदह कोश में आने वाले प्राणी को रमणीय कर देते हैं। कारण स्पष्ट है। यहां प्रतिदिन गंगा में मणिकर्णिका घाट पर दो घड़ी उपरान्त दोपहर में समस्त देव गण देवलोक से स्नान करने आते ही रहते हैं। काशी में देवताओं का आना अनवरत समस्त युगों से रहा है तो क्या हिंदू/सिक्ख/इसाई अथवा मुसलमान जिनमें एक सा पंच तत्वों से बनी बुद्धि विवेक प्रभु ने दे रखी है, हम उस गंगा मां को जिसने देवलोक से हाहाकार कर हमारे पूर्वजों का तारंतार किया, कर रही है, हम पवित्र क्यों नहीं रख सकते हैं?

♦ सुख मंगल सिंह जी – अवध निवासी ♦

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— Conclusion —

  • “सुख मंगल सिंह जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस लेख में समझाने की कोशिश की है — काशी जहां स्वयंभू भोलेनाथ माता पार्वती व गणपति सहित अनंत काल से विराजमान है। पतित पावनि माँ गंगा को अपनी जटाओ से धीरे-धीरे मध्यम जल धारा के रूप में मानव कल्याण के लिए छोड़ा है, लेकिन आज का मानव पतित पावनि माँ गंगा को बहुत ज्यादा प्रदूषित कर रखा है। अब भी सुधर जाओ और पतित पावनि माँ गंगा को स्वच्छ करो, इसे प्रदूषित करना बंद करो। ज्ञान, भक्ति, अध्यात्म और सर्व प्रेम का प्रतीक यह तीर्थों का भी तीर्थ है। आध्यात्मिक, धार्मिक तथा भक्तिभाव प्रेरक धार्मिक सांस्कृतक लोक उन्नायक आयोजनों का यह तीर्थस्थल काशी है। काशी में नास्तिक विचारधारा से युक्त जो प्राणी आता है रमण भ्रमण करने, वह भी शिवमय हो रम जाता है। भोला भूदेवी, भवानी, भगवती, जगदम्बा में कारण शास्त्रों में वर्णित है।

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यह लेख (काशी कहां चली।) “सुख मंगल सिंह जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें, व्यंग्य / लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी कविताओं और लेख से आने वाली पीढ़ी के दिलो दिमाग में हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम बना रहेगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे, बाबा विश्वनाथ की कृपा से।

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