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डॉ विदुषी शर्मा की के शोध लेख

कार्तिक मास का आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक पक्ष।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ कार्तिक मास का आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक पक्ष। ♦

आध्यत्मिक ऊर्जा एवं शारीरिक शक्ति संग्रह करनें में कार्तिक मास का विशेष महत्व है। इसमें सूर्य एवं चन्द्र की किरणों का पृथ्वी पर पड़ने वाला प्रभाव मनुष्य के मन मस्तिक को स्वस्थ रखता है।

कुछ रोचक तथ्य —

उत्सवों और त्योहारों का मास – कार्तिक मास —

हिन्दु पंचांग के अनुसार वर्ष का आठवां महीना *’कार्तिक मास‘* के नाम से जाना जाता है। पुरे माह में ब्रह्म मुहुर्त में स्नान, पाठ, तुलसी पूजन, व्रत कथा श्रवण दीपदान आदि का महात्मय बताया गया है। इसी मास में अधिकतम त्यौहार आते हैं जैसे:—

  • शरद पूर्णिमा
  • करवा चौथ
  • अहोई अष्टमी
  • रमा एकादशी
  • गोवत्स द्वादशी
  • नरक चर्तुदशी
  • तुलसी विवाह
  • हनुमान जयंति
  • दीपावली पर्व
  • अन्नकूट महोत्सव
  • गोवर्धन पूजा
  • भैया दूज
  • कार्तिक छठ पूजा
  • देवोत्थान एकादशी

जहाँ *’स्कंद पुराण‘* में इसे सबसे अच्छा महीना माना गया है वहीं *’पद्म पुराण‘* में कार्तिक मास को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष एवं भक्ति देने वाला मास कहा गया है।

• 7 नियम • —

पुराणों में कहा गया है कि भगवान नारायण ने ब्रह्मा जी को, ब्रह्मा जी ने नारद जी को और नारद जी ने राजा पृथु को कार्तिक मास के सर्वगुण संपन्न माहात्म्य के संदर्भ में बताया है। कार्तिक मास में 7 नियम प्रधान माने गए हैं।

• दीपदान • —

धर्म शास्त्रों के अनुसार कार्तिक मास में सबसे प्रमुख नियम दीप दान करना बताया गया है। इस महीने में नदी, पोखर, तालाब, मन्दिर एवं शयन कक्ष में दीपदान किया जाता है। ऐसा करने से जीवन से अज्ञानरूपी अंधकार दूर होता है एवं भक्ति, सुख, वैभव एवम् लक्ष्मी का शुभ आगमन होता है।

• श्री तुलसी पूजा • —

*श्री कृष्ण प्रेयसी* के नाम से भी सम्बोधन किया जाता है तुलसी जी को। वैसे तो हर महीने तुलसी जी की पूजा करनी चाहिए। परन्तु विशेष रूप से इस महीने में तुलसी जी की वन्दना और पूजा करने से इसका फल कई गुणा हो जाता है एवं *निश्चित ही श्री कृष्ण प्रेम की प्राप्ति होती है।* श्री तुलसी वन्दन, श्री तुलसी परिक्रमा एवं श्री कृष्ण नाम संकीर्तन तुलसी जी के पास बैठ कर उच्च स्वर से गान करने से तुलसी मैया अति प्रसन्न होती है।

• भूमि पर शयन • —

भूमि पर शयन-कार्तिक मास का तीसरा मुख्य नियम हैं। इससे मन में कोमलता आती है। अहम् का नाश होता है। विकार समाप्त होते हैं।

• तेल और दालें वर्जित • —

  • कार्तिक महीनें में केवल एक बार नरक चतुर्थी (कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी) के दिन ही तेल सेवन किया जाता है। कार्तिक मास में अन्य दिनों में तेल पकाना और लगाना दोनों नहीं किये जाते।
  • दलहन (दालों) खाना निषेध: कार्तिक महीने में द्विदलन अर्थात उड़द, मूंग, मसूर, चना, मटर, राई, तथा बैंगन नहीं खाना चाहिए।

• ब्रह्मचर्य का पालन • —

कार्तिक मास में ब्रह्मचर्य का पालन अति आवश्यक बताया गया है। इसका पालन नही करने पर पति – पत्नि को दोष लगता है और इसके अशुभ फल भी प्राप्त होते हैं।

• संयम रखें • —

कार्तिक मास का व्रत करने वालों को चाहिए कि वह तपस्वियों की भांति व्यवहार करें। कम बोलें, किसी की निंदा नहीं करें विवाद नहीं करें। मन पर संयम रखें।

इन सभी उपरोक्त नियमों से अलग “नित्य से कम से कम दुगना भजन, कथा श्रवण एवं वे सभी क्रियाएँ जिससे ठाकुर जी के प्रति प्रीति बढ़े एवं उनका स्मरण सभी पहर बना रहें। करते रहना चाहिए। प्रिया लाल जी को इस मास में भजन अत्यधिक प्रिय है।”

॥श्री राधारमण समर्पण॥

इन्ही शुभकामनाओं के साथ — शुभमस्तु।

♦ डॉ विदुषी शर्मा जी – नई दिल्ली ♦

—————

  • ” लेखिका डॉ विदुषी शर्मा जी“ ने अपने इस लेख से, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से बखूबी समझाने की कोशिश की है — “कार्तिक मास” यह साल के 12 मासों में उत्तम मास माना गया है। इस महीने में की गई प्रार्थना और पूजन सीधे भगवान विष्णु तक पहुंचती है। इस महीने की सबसे अच्छी बात यह है कि इस माह में भगवान विष्णु धरती पर जल में निवास करते हैं। इसलिए प्राचीन काल से परंपरा रही है कि लोग सूर्योदय से पूर्व ही नदी या तालाब में जाकर स्नान करते हैं और वहीं पर तिल के तेल या घी से दीपक जलाकर भगवान विष्णु की पूजा करके दीप को दोने में रखकर जल में प्रवाहित कर देते हैं। यह सुंदर नजारा आज भी गांवों में देखने को मिल जाता है। आपके आस-पास नदी-तालाब नहीं है तो आप घर पर भी सूर्योदय पूर्व स्नान करते भगवान विष्णु की पूजा करें और दीप जलाएं। इससे भी पुण्य के भागी बनेंगे।

—————

यह लेख (कार्तिक मास का आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक पक्ष।) “डॉ विदुषी शर्मा जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी लेख / कवितायें सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे।

आपका परिचय आप ही के शब्दों में:—

मेरा नाम डॉ विदुषी शर्मा, (डबल वर्ल्ड रिकॉर्ड होल्डर) है। अकादमिक काउंसलर, IGNOU OSD (Officer on Special Duty), NIOS (National Institute of Open Schooling) विशेषज्ञ, केंद्रीय हिंदी निदेशालय, उच्चतर शिक्षा विभाग, शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार।

ग्रंथानुक्रमणिका —

  1. डॉ राधेश्याम द्विवेदी — भारतीय संस्कृति।
  2. प्राचीन भारत की सभ्यता और संस्कृति — दामोदर धर्मानंद कोसांबी।
  3. आधुनिक भारत — सुमित सरकार।
  4. प्राचीन भारत — प्रशांत गौरव।
  5. प्राचीन भारत — राधा कुमुद मुखर्जी।
  6. सभ्यता, संस्कृति, विज्ञान और आध्यात्मिक प्रगति — श्री आनंदमूर्ति।
  7. भारतीय मूल्य एवं सभ्यता तथा संस्कृति — स्वामी अवधेशानंद गिरी (प्रवचन)।
  8. नवभारत टाइम्स — स्पीकिंग ट्री।
  9. इंटरनेट साइट्स।

ज़रूर पढ़ें — साहित्य समाज और संस्कृति।

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जैसे शरीर के लिए भोजन जरूरी है वैसे ही मस्तिष्क के लिए भी सकारात्मक ज्ञान और ध्यान रुपी भोजन जरूरी हैं।-KMSRAj51

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“सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

“अगर अपने कार्य से आप स्वयं संतुष्ट हैं, ताे फिर अन्य लोग क्या कहते हैं उसकी परवाह ना करें।”~KMSRAj51

 

 

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भारतीय शिक्षा का प्राचीन स्वरूप : एक विवेचन।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ भारतीय शिक्षा का प्राचीन स्वरूप : एक विवेचन। ♦

भारतीय शिक्षा पद्धति, भारतीय ज्ञान-विज्ञान, भारतीय भाषाएं सदैव विश्व को ज्ञान देती आई है एवं हर दृष्टि से अग्रणी रही है। इसका प्रमाण हमें कई जगह पर दिखाई देता है। परंतु हमारी शिक्षा पद्धति लॉर्ड मैकाले की नीतियों पर ही आधारित है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी हम अपने ज्ञान को अपनी भाषा में स्थापित नहीं कर पाए हैं। परंतु यह सत्य है कि जितना ज्ञान, जितनी तकनीकी हमारे ग्रंथों में, हमारे उपनिषदों में है उतना किसी भी विदेशी भाषाओं में हो ही नहीं सकता।

हमारे चारों वेदों में दुनिया का ऐसा कोई विषय नहीं है जिसके बारे में इन में वर्णन ना मिलता हो। परंतु हम इस सत्य को स्वीकार नहीं करते हैं और यह ज्ञान सार्वजनिक ना होने के कारण हमारी युवा पीढ़ी यह समझती है कि विज्ञान और तकनीकी में विदेशी हमसे आगे हैं जबकि सत्य कुछ और है।

इसी का यह प्रमाण मैं साझा करना चाह रही हूं कि मैकाले के भारत आगमन के पूर्व अपने देश में विश्वविद्यालय और गुरुकुलों की व्यवस्था इतनी थी कि प्रत्येक जनपद में कम से कम एक गुरुकुल था। लगभग साढे सात लाख गुरुकुल देश में थे। मॉनिटोरियल सिस्टम से अध्यापन होता था और विदेशों से भी लोग पढ़ने के लिए भारत आते थे।

उस समय में भारत में लगभग 13 विश्वविद्यालय थे जिन की जानकारी इतिहास में उपलब्ध होती है यह 13 ज्ञात विश्वविद्यालय हैं…

प्राचीन भारत के 13 विश्वविद्यालय, जहां पढ़ने आते थे दुनियाभर के छात्र। तुर्की मुगल आक्रमण ने सब जला दिया। बहुत हिन्दू मंदिर लुटे गये। नहीं तो मेगस्थनीज अलविरुनी इउ एन सांग के ग्रंथों में अति समृद्ध भारत के वर्णन है।

वैदिक काल से ही भारत में शिक्षा को बहुत महत्व दिया गया है। इसलिए उस काल से ही गुरुकुल और आश्रमों के रूप में शिक्षा केंद्र खोले जाने लगे थे। वैदिक काल के बाद जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता गया। भारत की शिक्षा पद्धति भी और ज्यादा पल्लवित होती गई। गुरुकुल और आश्रमों से शुरू हुआ शिक्षा का सफर उन्नति करते हुए विश्वविद्यालयों में तब्दील होता गया। पूरे भारत में प्राचीन काल में 13 बड़े विश्वविद्यालयों या शिक्षण केंद्रों की स्थापना हुई।

भारत पूरे विश्व में शिक्षा का सबसे बड़ा और प्रसिद्ध केंद्र था।

8 वी शताब्दी से 12 वी शताब्दी के बीच भारत पूरे विश्व में शिक्षा का सबसे बड़ा और प्रसिद्ध केंद्र था। गणित, ज्योतिष, भूगोल, चिकित्सा विज्ञान के साथ ही अन्य विषयों की शिक्षा देने में भारतीय विश्वविद्यालयों का कोई सानी नहीं था।

हालांकि आजकल अधिकतर लोग सिर्फ दो ही प्राचीन विश्वविद्यालयों के बारे में जानते हैं पहला नालंदा और दूसरी तक्षशिला। ये दोनों ही विश्वविद्यालय बहुत प्रसिद्ध थे। इसलिए आज भी सामान्यत: लोग इन्हीं के बारे में जानते हैं, लेकिन इनके अलावा भी ग्यारह ऐसे विश्वविद्यालय थे जो उस समय शिक्षा के मंदिर थे। आइए आज जानते हैं प्राचीन विश्वविद्यालयों और उनसे जुड़ी कुछ खास बातों को…

1. नालंदा विश्वविद्यालय (Nalanda University)

Nalanda University History in Hindi

यह प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। यह विश्वविद्यालय वर्तमान बिहार के पटना शहर से 88.5 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व और राजगीर से 11.5 किलोमीटर में स्थित था। इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज करा देते हैं।

सातवीं शताब्दी में भारत भ्रमण के लिए आए चीनी यात्री ह्वेनसांग और इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में जानकारी मिलती है। यहां 10,000 छात्रों को पढ़ाने के लिए 2,000 शिक्षक थे। इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम 450-470 को प्राप्त है। गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान जारी रखा। इसे महान सम्राट हर्षवर्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला। भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी यहां शिक्षा ग्रहण करने आते थे।

अंतरर्राष्ट्रीय ख्याति

इस विश्वविद्यालय की नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक अंतरर्राष्ट्रीय ख्याति रही थी। सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था। इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था। जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध भगवान की सुन्दर मूर्तियां स्थापित थीं। केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे।

इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। अभी तक खुदाई में तेरह मठ मिले हैं। वैसे इससे भी अधिक मठों के होने ही संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर की चौकी होती थी। दीपक, पुस्तक आदि रखने के लिए खास जगह बनी हुई है। हर मठ के आंगन में एक कुआं बना था। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष और अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे व झीलें भी थी। नालंदा में सैकड़ों विद्यार्थियों और आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल का एक विराट पुस्तकालय था। जिसमें लाखों पुस्तकें थी।

2. तक्षशिला विश्वविद्यालय (Takshashila University)

Takshashila University Story in Hindi

तक्षशिला विश्वविद्यालय की स्थापना लगभग 2700 साल पहले की गई थी। इस विश्विद्यालय में लगभग 10500 विद्यार्थी पढ़ाई करते थे। इनमें से कई विद्यार्थी अलग-अलग देशों से ताल्लुुक रखते थे। वहां का अनुशासन बहुत कठोर था। राजाओं के लड़के भी यदि कोई गलती करते तो पीटे जा सकते थे। तक्षशिला राजनीति और शस्त्रविद्या की शिक्षा का विश्वस्तरीय केंद्र थी। वहां के एक शस्त्रविद्यालय में विभिन्न राज्यों के 103 राजकुमार पढ़ते थे।

आयुर्वेद और विधिशास्त्र के इसमे विशेष विद्यालय थे। कोसलराज प्रसेनजित, मल्ल सरदार बंधुल, लिच्छवि महालि, शल्यक जीवक और लुटेरे अंगुलिमाल के अलावा चाणक्य और पाणिनि जैसे लोग इसी विश्वविद्यालय के विद्यार्थी थे। कुछ इतिहासकारों ने बताया है कि तक्षशिला विश्विद्यालय नालंदा विश्वविद्यालय की तरह भव्य नहीं था। इसमें अलग-अलग छोटे-छोटे गुरुकुल होते थे। इन गुरुकुलों में व्यक्तिगत रूप से विभिन्न विषयों के आचार्य विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करते थे।

3. विक्रमशिला विश्वविद्यालय (Vikramshila University)

Vikramshila University in Hindi

विक्रमशीला विश्वविद्यालय की स्थापना पाल वंश के राजा धर्म पाल ने की थी। 8 वी शताब्दी से 12 वी शताब्दी के अंंत तक यह विश्वविद्यालय भारत के प्रमुख शिक्षा केंद्रों में से एक था। भारत के वर्तमान नक्शे के अनुसार यह विश्वविद्यालय बिहार के भागलपुर शहर के आसपास रहा होगा।

कहा जाता है कि यह उस समय नालंदा विश्वविद्यालय का सबसे बड़ा प्रतिस्पर्धी था। यहां 1000 विद्यार्थीयों पर लगभग 100 शिक्षक थे। यह विश्वविद्यालय तंत्र शास्त्र की पढ़ाई के लिए सबसे ज्यादा जाना जाता था। इस विषय का सबसे मशहूर विद्यार्थी अतीसा दीपनकरा था, जो की बाद में तिब्बत जाकर बौद्ध हो गया।

4. वल्लभी विश्वविद्यालय (Vallabhi University)

Vallabhi University History in Hindi

वल्लभी विश्वविद्यालय सौराष्ट्र (गुजरात) में स्थित था। छठी शताब्दी से लेकर 12 वी शताब्दी तक लगभग 600 साल इसकी प्रसिद्धि चरम पर थी। चायनीज यात्री ईत- सिंग ने लिखा है कि यह विश्वविद्यालय 7 वी शताब्दी में गुनामति और स्थिरमति नाम की विद्याओं का सबसे मुख्य केंद्र था। यह विश्वविद्यालय धर्म निरपेक्ष विषयों की शिक्षा के लिए भी जाना जाता था। यही कारण था कि इस शिक्षा केंद्र पर पढ़ने के लिए पूरी दुनिया से विद्यार्थी आते थे।

5. उदात्त पुरी विश्वविद्यालय (Odantapuri University)

Odantapuri University History in Hindi

उदात्तपुरी विश्वविद्यालय मगध यानी वर्तमान बिहार में स्थापित किया गया था। इसकी स्थापना पाल वंश के राजाओं ने की थी। आठवी शताब्दी के अंत से 12 वी शताब्दी तक लगभग 400 सालों तक इसका विकास चरम पर था। इस विश्वविद्यालय में लगभग 12000 विद्यार्थी थे।

6. सोमपुरा विश्वविद्यालय (Somapura Mahavihara)

Somapura Mahavihara History in Hindi

सोमपुरा विश्वविद्यालय की स्थापना भी पाल वंश के राजाओं ने की थी। इसे सोमपुरा महाविहार के नाम से पुकारा जाता था। आठवीं शताब्दी से 12 वी शताब्दी के बीच 400 साल तक यह विश्वविद्यालय बहुत प्रसिद्ध था। यह भव्य विश्वविद्यालय लगभग 27 एकड़ में फैला था। उस समय पूरे विश्व में बौद्ध धर्म की शिक्षा देने वाला सबसे अच्छा शिक्षा केंद्र था।

7. पुष्पगिरी विश्वविद्यालय (Pushpagiri University)

Pushpagiri University History in Hindi

पुष्पगिरी विश्वविद्यालय वर्तमान भारत के उड़ीसा में स्थित था। इसकी स्थापना तीसरी शताब्दी में कलिंग राजाओं ने की थी। अगले 800 साल तक यानी 11 वी शताब्दी तक इस विश्वविद्यालय का विकास अपने चरम पर था। इस विश्वविद्यालय का परिसर तीन पहाड़ों ललित गिरी, रत्न गिरी और उदयगिरी पर फैला हुआ था।

नालंदा, तशक्षिला और विक्रमशीला के बाद ये विश्वविद्यालय शिक्षा का सबसे प्रमुख केंद्र था। चायनीज यात्री एक्ज्युन जेंग ने इसे बौद्ध शिक्षा का सबसे प्राचीन केंद्र माना। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि इस विश्ववविद्यालय की स्थापना राजा अशोक ने करवाई थी।

अन्य विश्वविद्यालय (Other Universities)

प्राचीन भारत में इन विश्वविद्यालयों के अलावा जितने भी अन्य विश्वविद्यालय थे। उनकी शिक्षा प्रणाली भी इन्हीं विश्वविद्यालयों से प्रभावित थी। इतिहास में मिले वर्णन के अनुसार शिक्षा और शिक्षा केंद्रों की स्थापना को सबसे ज्यादा बढ़ावा पाल वंश के शासको ने दिया।

8. जगददला विश्वविद्यालय (Jagaddala University)

पश्चिम बंगाल में पाल राजाओं के समय से भारत में अरबों के आने तक।

9. नागार्जुनकोंडा विश्वविद्यालय (Nagarjunakonda University)

आंध्र प्रदेश में।

10. वाराणसी विश्वविद्यालय (Varanasi University)

उत्तर प्रदेश में आठवीं सदी से आधुनिक काल तक।

11. कांचीपुरम विश्वविद्यालय (Kancheepuram University)

तमिलनाडु में।

12. मणिखेत विश्वविद्यालय (Manikhet University)

कर्नाटक में।

13. शारदा पीठ (Sharda Peeth)

कश्मीर में।

महर्षि वैदिक सेवा संस्थानम्
गीता भवन मन्दिर, पुण्डरीक तीर्थ पुण्डरी।

यह केवल 13 ही विश्वविद्यालयों की जानकारी है। इसके अतिरिक्त हमारे देश में इतना कुछ है वह हम एक जीवन में भी नहीं समझ पाएंगे। हमारा ज्ञान, हमारी संपदा, हमारी भाषाएं, हमारी बोलियां, हमारी आंचलिक सभ्यता-संस्कृति, हमारे संस्कार, हमारे मूल्य, हमारी नैतिकता हमारी धरोहर हैं जो दुनिया की किसी भी देश में नहीं पाई जा सकती। इसीलिए भारत सदैव अग्रगण्य रहा है और भविष्य में भी अग्रगण्य रहेगा।

अब तो सभी को भविष्य सामने नजर आ ही रहा है कि पूरे विश्व के सामने जिस तरह सभ्यता, संस्कृति, हमारे धर्म का प्रचार हमारी सरकार द्वारा किया जा रहा है, वह सराहनीय है। अपने मूल्यों को, अपनी पहचान को हम दुनिया के सामने बड़े ही आत्मविश्वास के साथ ला रहे हैं। यह हम सभी भारत वासियों के लिए गर्व की बात है। इसलिए हमें अपने भारतवासी होने पर गर्व होना चाहिए।

जयतु संस्कृतम्, जयतु भारतम्।
संकलन एवं विश्लेषण।

हर हर महादेव…….हर हर महादेव

इन्ही शुभकामनाओं के साथ — शुभमस्तु।

♦ डॉ विदुषी शर्मा जी – नई दिल्ली ♦

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  • ” लेखिका डॉ विदुषी शर्मा जी“ ने अपने इस लेख से, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से बखूबी समझाने की कोशिश की है — यह केवल 13 ही विश्वविद्यालयों की जानकारी है। इसके अतिरिक्त हमारे देश में इतना कुछ है वह हम एक जीवन में भी नहीं समझ पाएंगे। हमारा ज्ञान, हमारी संपदा, हमारी भाषाएं, हमारी बोलियां, हमारी आंचलिक सभ्यता-संस्कृति, हमारे संस्कार, हमारे मूल्य, हमारी नैतिकता हमारी धरोहर हैं जो दुनिया की किसी भी देश में नहीं पाई जा सकती। इसीलिए भारत सदैव अग्रगण्य रहा है और भविष्य में भी अग्रगण्य रहेगा।

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यह लेख (भारतीय शिक्षा का प्राचीन स्वरूप : एक विवेचन।) “डॉ विदुषी शर्मा जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी लेख / कवितायें सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे।

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मेरा नाम डॉ विदुषी शर्मा, (डबल वर्ल्ड रिकॉर्ड होल्डर) है। अकादमिक काउंसलर, IGNOU OSD (Officer on Special Duty), NIOS (National Institute of Open Schooling) विशेषज्ञ, केंद्रीय हिंदी निदेशालय, उच्चतर शिक्षा विभाग, शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार।

ग्रंथानुक्रमणिका —

  1. डॉ राधेश्याम द्विवेदी — भारतीय संस्कृति।
  2. प्राचीन भारत की सभ्यता और संस्कृति — दामोदर धर्मानंद कोसांबी।
  3. आधुनिक भारत — सुमित सरकार।
  4. प्राचीन भारत — प्रशांत गौरव।
  5. प्राचीन भारत — राधा कुमुद मुखर्जी।
  6. सभ्यता, संस्कृति, विज्ञान और आध्यात्मिक प्रगति — श्री आनंदमूर्ति।
  7. भारतीय मूल्य एवं सभ्यता तथा संस्कृति — स्वामी अवधेशानंद गिरी (प्रवचन)।
  8. नवभारत टाइम्स — स्पीकिंग ट्री।
  9. इंटरनेट साइट्स।

ज़रूर पढ़ें — साहित्य समाज और संस्कृति।

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“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

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साहित्य समाज और संस्कृति।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ साहित्य समाज और संस्कृति। ♦

शोध सारांश —

साहित्य समाज का दर्पण है और समाज का निर्माण संस्कृति से होता है। वास्तव में साहित्य समाज और संस्कृति तीनो ही एक दूसरे के अनुपूरक कहे जा सकते हैं, क्योंकि किसी एक का भी अस्तित्व दूसरे के बिना संभव हो ही नहीं सकता।

इतिहास इस बात का साक्षी है कि मानव ने किस प्रकार आदिम युग से लेकर आज तक के वैज्ञानिक युग का सफर तय किया है। वह जंगल और गुफाओं से होता हुआ आज अंतरिक्ष तक पहुंच गया है।

विज्ञान की उपलब्धि में जहां उसका मस्तिष्क, अभिप्रेरणा, प्रयास उसका आधार बने हैं वही अपनी मानव सुलभ भावनाओं को संतुष्ट करने के लिए, हृदय में उठने वाले भावों को अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए उसे अनेक साहित्यिक विधाओं का आश्रय भी लेना पड़ा है। यहीं से आरंभ होता है “सृजन”। जिसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से झलक होती है उसकी भाषा (मातृभाषा) की। यह अटल सत्य है।

आप किसी भी देश का साहित्य उठाकर देख लीजिए, उसमें जो विशेषता होगी, वह वहां की मिट्टी की सुगंध लिए होगी, मातृभाषा की झंकार उस में व्याप्त होगी। क्योंकि बिना मातृभाषा के साहित्यिक रचनाओं में मौलिकता का गुण आ ही नहीं सकता। किसी भी साहित्यिक रचना में वो भाव, वो प्रेरणा, वो समर्पण, वो सच्चाई, वो मौलिक चिंतन, अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम यह सब कुछ साहित्यिक रचना के प्राण होते हैं।

प्रस्तुत शोध पत्र में हम यह सार्थक प्रयास करने का यत्न करेंगे कि “साहित्य समाज और संस्कृति” के अंतर्संबंधों का पूर्णतया सारगर्भित विश्लेषण किया जा सके तथा संगोष्ठी के अन्य उपविषयों से भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रस्तुत शोध पत्र की परस्पर निर्भरता सिद्ध की जा सके।

परिचय —

“भाषा समाज और संस्कृति” संगोष्ठी का एक ऐसा विषय है जो समग्रता लिए हुए है। वास्तविक अर्थों में आजकल के समाज, साहित्य और भाषा की जो स्थिति है वह सही नहीं है। संस्कारों से भाषा में अपेक्षित सुधार हो सकता है, भाषा से संस्कृति का सुधार संभव है और संस्कृति से समाज में अपेक्षित परिवर्तन हो सकता है।

और जब इन तीनों में ही अवश्यमेव सुधार होंगे तो उससे हमारा देश सुधर सकता है, विश्व सुधर सकता है, आने वाली पीढ़ियों का भविष्य, उनकी मानसिकता, उनके मूल्य, उनकी नैतिकता, उनका चारित्रिक बल, धार्मिकता, सामाजिकता संबंधी आचरण सुधर सकते हैं और हम सब का यही तो कर्तव्य है और प्रबुद्ध वर्ग की यही तो चिंता है कि किन उपायों से इन सब में सार्थक सुधार लाया जा सके।

आज जिस तरह हिंदी सिनेमा और सोशल मीडिया की भाषा और संस्कृति हमारे समाज को दिन – प्रतिदिन विकृत किए जा रहे हैं, हमारी युवा पीढ़ी को पथभ्रष्ट कर रहे हैं वह चिन्तनीय है। वर्तमान में हमारे समाज की यह स्थिति है कि —

“आज दिवस में तिमिर बहुत है, जैसे हो सावन की भोर,
मानव तो आकाश की ओर, मानवता पाताल की ओर”।

हम सभी को यह सार्थक प्रयास करने होंगे, इस प्रकार उपाय किए जाएं कि “समाज और संस्कृति के बीच अंत: संबंध” स्थापित हो सके। और वह ऐसे कौन से यत्न किये जाने चाहिए, कौन से ऐसे प्रबंध होने चाहिए कि जिन्हें “समाज और संस्कृति के अंत: सूत्रों” की संज्ञा दी जा सके।

समय – समय पर सरकार द्वारा, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों द्वारा इस बात पर निरंतर चिन्तन किया जाता रहा है कि “सत्ता, भाषा और समाज’ में टकराव की स्थिति उत्पन्न होने के स्थान पर ऐसी व्यवस्था की जाए, जिससे सत्ता भाषा और समाज के मिलन की एकरूपता, समरसता की स्थिति कायम की जा सके।

इन्हीं सब उपायों को अपनाकर ही हम “भाषा, समाज और संस्कृति के द्वारा राष्ट्रीय एकता” कायम करने में कामयाब सिद्ध हो सकते हैं।

इस प्रकार हमने देखा कि संगोष्ठी का मुख्य विषय तथा उसके सारे उप विषय किस प्रकार एक दूसरे पर आश्रित हैं, अंतर संबंधित हैं, और अंत में सभी का एक ही लक्ष्य है “राष्ट्रीय एकता”।

साहित्य का स्वरूप, भाषा, समाज और संस्कृति —

भाषा, समाज, सभ्यता और संस्कृति के संबंध में पाश्चात्य विद्वान “ग्रीन” का मत दर्शनीय है —

“एक संस्कृति तभी सभ्यता बनती है जबकि उसके पास एक लिखित भाषा, दर्शन विशेषीकरण युक्त श्रम विभाजन, एक जटिल विधि और राजनीतिक प्रणाली हो”।

इस संदर्भ में एक और विद्वान का मत।

“जिसबर्ट” के अनुसार, सभ्यता बताती है कि, ‘हमारे पास क्या है’, और संस्कृति यह बताती है कि, ‘हम क्या हैं’।

साहित्य क्या है? इसका स्वरूप क्या है? यह समाज से किस प्रकार संबंधित है? और यह संस्कृति को किस प्रकार अपने अंदर समेटे हुए है? तथा किस प्रकार संस्कृति को प्रभावित करता है? एवम किस प्रकार यह संस्कृति से प्रभावित होता है? यह सब महत्वपूर्ण बिंदु है।

किसी भी प्रकार के साहित्य की मूल चेतना या भावना, मुख्य आधार, मानव समाज की चहुँमुखी उन्नति ही होती है। प्रत्येक प्रकार के साहित्य का यह उद्देश्य होता है कि मानव हर प्रकार के राग, द्वेष, घृणा, ईर्ष्या, शोषण, कलुषित विचार आदि दुर्भावनाओं को त्याग कर, उस परमपिता परमेश्वर, सर्वशक्तिमान ईश्वर की सत्ता को, उसकी शक्ति को जानने का प्रयास करता हुआ, “आत्मवत सर्व भूतेषु” यानी सभी को अपने समान समझने का प्रयास करे तथा “सर्वे भवंतु सुखिन:” का भाव लेकर “परमार्थ” “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” के सिद्धान्त को अपने जीवन में उतार ले।

यह अकाट्य सत्य है कि जितना साहित्य हमारे भारत में है, जितना विषय वैविध्य हमारे साहित्य में है, उतना किसी भी अन्य देश के साहित्य में हो ही नहीं सकता। हमारा तो एक-एक ग्रंथ ही सर्वकालिक Timeless है कि जिसके सिद्धांत आज से हजारों वर्ष पूर्व भी उतने ही प्रासंगिक थे, जितने आज है।

सिर्फ एक ग्रंथ “श्रीमद्भगवद्गीता” को ही लीजिए जो विश्व प्रसिद्ध है। सिर्फ यदि इसी एक ग्रंथ को ही आत्मसात कर लिया जाए तो मानव मात्र का जीवन सुधर सकता है, तो फिर अन्य साहित्य की तो बात ही क्या है।

हमारा साहित्य हमें धार्मिकता, नैतिकता, सामाजिकता, नीति राजनीति, आर्थिकता आदि सभी गुण सिखाता हैं। हमारे साहित्य में ज्ञान है, वैराग्य है, नीति है, श्रृंगार है, भक्ति है, प्रेम है, वात्सल्य है, करुणा है, ओज है, वीरता है, प्रकृति प्रेम है, जीव प्रेम है।

हिंदी साहित्य के इतिहास को इन्हीं गुणों के आधार पर विभक्त किया गया है, जैसे —

वीरगाथा काल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल।

जिस काल में जिस भाव, जिस प्रकार के साहित्य की प्रधानता रही, उसे उसी के नाम से संबोधित किया गया है। यही साहित्य, स्वस्थ सभ्यता एवं संस्कृति का निर्माण करने में सहायक है, जो हमारी पहचान है, भारतीयता की पहचान है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि हमारे साहित्य में एक और जहां विष्णु शर्मा जी ने पंचतंत्र के माध्यम से ज्ञान, जीव प्रेम, प्रकृति प्रेम, पारिस्थितिकीय संतुलन आदि का संप्रेषण किया जो सभी के लिए हर युग में प्रासंगिक है तथा पर्यावरण संरक्षण, शाकाहार की भावना को पोषण प्रदान करता है जो कि वर्तमान की एक समस्या तथा आवश्यकता बन चुकी है।

साहित्य, साहित्यकार, समाज और संस्कृति —

साहित्य समाज का दर्पण है, यह हम सब जानते हैं। आत्मा और शरीर का जो संबंध है वही संबंध साहित्य और समाज का है। यह शाश्वत सत्य है कि साहित्य की अपेक्षा समाज पहले जन्म लेता है। समाज से ही साहित्यकार जन्म लेते हैं।

साहित्यकार के व्यक्तित्व की पहचान अलग होती है। सच्चे साहित्यकार गंभीर, चिंतनशील, संवेदनशील, दूरदृष्टा, व्यापक दृष्टिकोण रखते हुए भावना और सम्वेदनाओं से परिपूर्ण होते हैं। क्योंकि अपनी लेखनी से वो जिस साहित्य का निर्माण करते हैं, सृजन करते हैं, वह भविष्य में समाज का, संस्कृति का निर्माण करता है।

इसलिए प्रत्येक साहित्यकार यह प्रयास करता है कि वह जिस विषय पर साहित्य का सृजन करे, उसकी जड़ें समाज से, उसकी समस्याओं से गहराई से जुड़ी हुई हों।ज्वलंत मुद्दों पर भी अपनी बात कहने से पूर्व उक्त सामाजिक विषय से संबंधित पूर्ण जानकारी प्राप्त करना अनिवार्य है, क्योंकि साहित्यकार की कलम से निकला एक-एक शब्द समाज में परिवर्तन लाने में सक्षम है।

‘कलम के सिपाही’ सामाजिक जन चेतना लाने का कार्य करते रहे हैं। अतः लेखक अथवा कवि (साहित्यकार) अपने समाज की हर गतिविधि, हर परिस्थिति में ही जीता है, उनसे प्रभावित होता रहा है। वह किसी भी रुप से समाज से अलग नहीं हो सकता। वह इसी समाज में ही रहकर इसके प्रभावों को, इन परिवर्तनों को, इन समस्याओं को जानता है, क्योंकि वह भी तो एक सामाजिक प्राणी ही है।

साहित्य, समाज और संस्कृति अन्योन्याश्रित —

प्रत्येक समाज का एक सांस्कृतिक आधार भी होता है। प्रत्येक संस्कृति, उस समाज की आत्मा, उसकी पहचान होती है, जिस प्रकार किसी भी प्रकार की सभ्यता एवं संस्कृति में व्याप्त अच्छाई और बुराई को हम सब देखते हैं, महसूस करते हैं कि यह हमारे समाज में किस प्रकार फैल रही है, समाज को दूषित कर रही है, संस्कारों का हनन कर रही है।

उसी प्रकार साहित्यकार इन सब को देखते हुए, इन सब पर अपनी व्याख्या प्रदान करते हुए, समाज में परिवर्तन लाने का प्रयास करते हैं, और यह कार्य करना अपना कर्तव्य समझते हैं, क्योंकि —

“केवल मनोरंजन ही न कवि का कर्म होना चाहिए ,
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए”।

इतिहास साक्षी है कि मानव सभ्यता के विकास में साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। नवीन विचारों ने साहित्य को जन्म दिया तथा साहित्य ने मानव की विचारधाराओं में गतिशीलता प्रदान करते हुए उसे सभ्य बनाने का कार्य किया है।किसी भी राष्ट्र या समाज में आज तक जितने भी परिवर्तन आए हैं, वो सब साहित्य और संस्कृति के माध्यम से ही आए हैं।

साहित्यकार समाज में फैली कुरीतियों, विकृतियों, विसंगतियों, अभावों, विषमताओं व असमानताओं आदि के बारे में अपने विचार, सुझाव, उपाय आदि प्रस्तुत करता है। इन सब के प्रति जनसाधारण को जागरुक करने का प्रयास करता है।

वर्तमान में साहित्य को ज्ञानवर्धक, मूल्यवर्धन, मनोरंजक बनाने के लिए सोशल मीडिया, सिनेमा का आश्रय लिया जा रहा है जो कुछ – कुछ हद तक उचित भी है, क्योंकि लिखित साहित्य में ज्ञान, मूल्य, नीति, संस्कार आदि सब कुछ तो है परंतु मनोरंजक तत्व नहीं।

अतः साहित्य को दृश्य, श्रव्य भाव के साथ मनोरंजक भी बनाते हुए जनमानस तक पहुंचाने का कार्य एक अनूठा प्रयास रहा है। इससे समाज में गहरा परिवर्तन देखने को मिला है। 80 के दशक में रामानंद सागर द्वारा लिखित और निर्देशित धारावाहिक “रामायण” तथा बी आर चोपड़ा द्वारा निर्देशित धारावाहिक “महाभारत” का नाम इस श्रेणी में लिया जा सकता है जिन्होंने समाज में सकारात्मक परिवर्तन किए, जनमानस को भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का दर्शन कराया, मानवीय मूल्यों से अवगत कराया तथा वर्तमान पीढ़ी को सामाजिक, नैतिक, मानवीय मूल्यों को परोक्ष भाव में ही सिखा दिया।

साहित्य के विकास की कहानी उतनी ही पुरानी है जितनी कि मानव सभ्यता। अतः यह नितांत आवश्यक है कि साहित्य लेखन, संशोधन, परिवर्द्धन निरंतर जारी रहना चाहिए। अन्यथा सभ्यता का विकास ही अवरुद्ध हो जाएगा।

भारत की अपनी विशिष्ट सभ्यता एवं संस्कृति रही है। “भा” का अर्थ हुआ प्रकाश। “रत” का अर्थ है संलिप्तता। यानि “भारत” का अर्थ हुआ प्रकाश में दत्तचित्त होकर अनुष्ठान करने से संप्राप्त संस्कार, और संपन्नता। यही भारतीय संस्कृति है। यही संस्कृति समाज से, साहित्य से अनादि काल संपोषित होती चली आ रही है और आगे भी इसी तरह संपोषित, संवर्धित होती रहेगी।

निष्कर्ष —

निष्कर्षत: यही कहा जा सकता है कि वास्तव में हर देश का साहित्य उस देश की लौकिक सभ्यता एवं संस्कृति, मातृभाषा, लोक गीत, लोक भाषाओं, (जन भाषाओं) तथा तत्कालीन परिस्थितियों (सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, राजनीतिक) को भी उजागर करता है। साहित्य एक राष्ट्र की धरोहर है, उसका अभिमान है, गौरव है, पहचान है।

प्रत्येक युग का साहित्य उस युग की पहचान, उस युग का वैशिष्टय बताता है। अब इससे अधिक और क्या कहा जाए कि प्राचीन वैदिक साहित्य भारत के उन्नत और गौरवशाली समाज का प्रमाण है। इस साहित्य में “विश्व मानव” (वैश्विक एकता) और “वसुधैव कुटुंबकम” की जो भावना है, वह विशुद्ध भारतीय संस्कृति की महानता, विशालता, नि: स्वार्थपरता, लोक कल्याणकारी भावनाओं की परिचायक है।

हमारा साहित्य समाज को न केवल ज्ञान, बोध और मूल्य प्रदान करता है अपितु एक चिंतन की दिशा भी प्रदान करता है ताकि हम सभी यथासंभव प्रयास कर सके जिससे कि भारतीय मूल्य, भारतीय सभ्यता एवम संस्कृति, भारतीय साहित्य का विश्व में सदैव उच्चस्थ स्थान बना रहे तथा भारत पुन: “जगदगुरु” (विश्वगुरु) की उपाधि ग्रहण करे वो भी अपने अक्षय साहित्य, विशुद्ध सभ्यता एवं अलौकिक संस्कृति के बल पर।

इन्ही शुभकामनाओं के साथ — शुभमस्तु।

ज़रूर पढ़ें — नारी : इच्छा शक्ति ज्ञान शक्ति कर्म शक्ति।

♦ डॉ विदुषी शर्मा जी – नई दिल्ली ♦

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  • ” लेखिका डॉ विदुषी शर्मा जी“ ने अपने इस शोध लेख से, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से बखूबी समझाने की कोशिश की है – वास्तव में हर देश का साहित्य उस देश की लौकिक सभ्यता एवं संस्कृति, मातृभाषा, लोक गीत, लोक भाषाओं, (जन भाषाओं) तथा तत्कालीन परिस्थितियों (सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, राजनीतिक) को भी उजागर करता है। साहित्य एक राष्ट्र की धरोहर है, उसका अभिमान है, गौरव है, पहचान है।

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यह शोध लेख (साहित्य समाज और संस्कृति।) “डॉ विदुषी शर्मा जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी लेख / कवितायें सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे।

आपका परिचय आप ही के शब्दों में:—

मेरा नाम डॉ विदुषी शर्मा, (वर्ल्ड रिकॉर्ड होल्डर) है। अकादमिक काउंसलर, IGNOU OSD (Officer on Special Duty), NIOS (National Institute of Open Schooling) विशेषज्ञ, केंद्रीय हिंदी निदेशालय, उच्चतर शिक्षा विभाग, शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार।

ग्रंथानुक्रमणिका —

  1. डॉ राधेश्याम द्विवेदी — भारतीय संस्कृति।
  2. प्राचीन भारत की सभ्यता और संस्कृति — दामोदर धर्मानंद कोसांबी।
  3. आधुनिक भारत — सुमित सरकार।
  4. प्राचीन भारत — प्रशांत गौरव।
  5. प्राचीन भारत — राधा कुमुद मुखर्जी।
  6. सभ्यता, संस्कृति, विज्ञान और आध्यात्मिक प्रगति — श्री आनंदमूर्ति।
  7. भारतीय मूल्य एवं सभ्यता तथा संस्कृति — स्वामी अवधेशानंद गिरी (प्रवचन)।
  8. नवभारत टाइम्स — स्पीकिंग ट्री।
  9. इंटरनेट साइट्स।

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