Kmsraj51 की कलम से…..
♦ पुरखे जागे – तुम जागो। ♦
कल तक पुरखे जाग रहे थे,
जागो अब, तुम जागो।
आंगन मेरा ही है श्रृंगार,
जिसमें विविध पुष्पों का बहार।
विदीर्ण न हो आनंद कानन,
जागो फिर, तुम जागो।
आत्म निरीक्षण तुम करना,
धरा आलोकित अपनी रखना।
अनंत प्राकृतिक संपदा की,
रक्षा तुम्हीं को है करना।
मन के दिन मणि प्रेम प्रकाश,
पांव बढ़ाओ जागो।
बाहें अंगणित बढ़ने वाली,
बढ़ो बढ़ – छांटो पाश।
यदि हो आंगन आश,
रण में बिछा दो दुश्मन लाश।
होगी नहीं पूरी अभिलाषा,
बजा दो उनके ताशा।
नहीं पता है उसको आज,
बांधे सपने रक्खे ख्वाब।
व्यग्र निगाहें उचक उचक कर,
ढूंढ रही सूनी राह।
जागो तुम फिर जागो,
कल तक पुरखे जाग रहे थे।
♦ सुखमंगल सिंह जी – अवध निवासी ♦
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— Conclusion —
- “सुखमंगल सिंह जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस कविता में समझाने की कोशिश की है — अभी तक घर के पुरखे ( वृद्ध ) लोग घर से लेकर बाहर तक सबकुछ देखते संभालते आ रहे थे अब तुम सम्भालो। अब तुम्हारी जिम्मेवारी है सब देख रेख करने का। अब तुम्हारे कंधो पर भविष्य की जिम्मेवारी है, जैसे को तैसा जवाब देने की बारी है।
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यह कविता (पुरखे जागे – तुम जागो।) “सुखमंगल सिंह जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें / लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी कविताओं और लेख से आने वाली पीढ़ी के दिलो दिमाग में हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम बना रहेगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे, बाबा विश्वनाथ की कृपा से।
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