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भारत की संस्कृति

साहित्य समाज और संस्कृति।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ साहित्य समाज और संस्कृति। ♦

शोध सारांश —

साहित्य समाज का दर्पण है और समाज का निर्माण संस्कृति से होता है। वास्तव में साहित्य समाज और संस्कृति तीनो ही एक दूसरे के अनुपूरक कहे जा सकते हैं, क्योंकि किसी एक का भी अस्तित्व दूसरे के बिना संभव हो ही नहीं सकता।

इतिहास इस बात का साक्षी है कि मानव ने किस प्रकार आदिम युग से लेकर आज तक के वैज्ञानिक युग का सफर तय किया है। वह जंगल और गुफाओं से होता हुआ आज अंतरिक्ष तक पहुंच गया है।

विज्ञान की उपलब्धि में जहां उसका मस्तिष्क, अभिप्रेरणा, प्रयास उसका आधार बने हैं वही अपनी मानव सुलभ भावनाओं को संतुष्ट करने के लिए, हृदय में उठने वाले भावों को अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए उसे अनेक साहित्यिक विधाओं का आश्रय भी लेना पड़ा है। यहीं से आरंभ होता है “सृजन”। जिसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से झलक होती है उसकी भाषा (मातृभाषा) की। यह अटल सत्य है।

आप किसी भी देश का साहित्य उठाकर देख लीजिए, उसमें जो विशेषता होगी, वह वहां की मिट्टी की सुगंध लिए होगी, मातृभाषा की झंकार उस में व्याप्त होगी। क्योंकि बिना मातृभाषा के साहित्यिक रचनाओं में मौलिकता का गुण आ ही नहीं सकता। किसी भी साहित्यिक रचना में वो भाव, वो प्रेरणा, वो समर्पण, वो सच्चाई, वो मौलिक चिंतन, अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम यह सब कुछ साहित्यिक रचना के प्राण होते हैं।

प्रस्तुत शोध पत्र में हम यह सार्थक प्रयास करने का यत्न करेंगे कि “साहित्य समाज और संस्कृति” के अंतर्संबंधों का पूर्णतया सारगर्भित विश्लेषण किया जा सके तथा संगोष्ठी के अन्य उपविषयों से भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रस्तुत शोध पत्र की परस्पर निर्भरता सिद्ध की जा सके।

परिचय —

“भाषा समाज और संस्कृति” संगोष्ठी का एक ऐसा विषय है जो समग्रता लिए हुए है। वास्तविक अर्थों में आजकल के समाज, साहित्य और भाषा की जो स्थिति है वह सही नहीं है। संस्कारों से भाषा में अपेक्षित सुधार हो सकता है, भाषा से संस्कृति का सुधार संभव है और संस्कृति से समाज में अपेक्षित परिवर्तन हो सकता है।

और जब इन तीनों में ही अवश्यमेव सुधार होंगे तो उससे हमारा देश सुधर सकता है, विश्व सुधर सकता है, आने वाली पीढ़ियों का भविष्य, उनकी मानसिकता, उनके मूल्य, उनकी नैतिकता, उनका चारित्रिक बल, धार्मिकता, सामाजिकता संबंधी आचरण सुधर सकते हैं और हम सब का यही तो कर्तव्य है और प्रबुद्ध वर्ग की यही तो चिंता है कि किन उपायों से इन सब में सार्थक सुधार लाया जा सके।

आज जिस तरह हिंदी सिनेमा और सोशल मीडिया की भाषा और संस्कृति हमारे समाज को दिन – प्रतिदिन विकृत किए जा रहे हैं, हमारी युवा पीढ़ी को पथभ्रष्ट कर रहे हैं वह चिन्तनीय है। वर्तमान में हमारे समाज की यह स्थिति है कि —

“आज दिवस में तिमिर बहुत है, जैसे हो सावन की भोर,
मानव तो आकाश की ओर, मानवता पाताल की ओर”।

हम सभी को यह सार्थक प्रयास करने होंगे, इस प्रकार उपाय किए जाएं कि “समाज और संस्कृति के बीच अंत: संबंध” स्थापित हो सके। और वह ऐसे कौन से यत्न किये जाने चाहिए, कौन से ऐसे प्रबंध होने चाहिए कि जिन्हें “समाज और संस्कृति के अंत: सूत्रों” की संज्ञा दी जा सके।

समय – समय पर सरकार द्वारा, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों द्वारा इस बात पर निरंतर चिन्तन किया जाता रहा है कि “सत्ता, भाषा और समाज’ में टकराव की स्थिति उत्पन्न होने के स्थान पर ऐसी व्यवस्था की जाए, जिससे सत्ता भाषा और समाज के मिलन की एकरूपता, समरसता की स्थिति कायम की जा सके।

इन्हीं सब उपायों को अपनाकर ही हम “भाषा, समाज और संस्कृति के द्वारा राष्ट्रीय एकता” कायम करने में कामयाब सिद्ध हो सकते हैं।

इस प्रकार हमने देखा कि संगोष्ठी का मुख्य विषय तथा उसके सारे उप विषय किस प्रकार एक दूसरे पर आश्रित हैं, अंतर संबंधित हैं, और अंत में सभी का एक ही लक्ष्य है “राष्ट्रीय एकता”।

साहित्य का स्वरूप, भाषा, समाज और संस्कृति —

भाषा, समाज, सभ्यता और संस्कृति के संबंध में पाश्चात्य विद्वान “ग्रीन” का मत दर्शनीय है —

“एक संस्कृति तभी सभ्यता बनती है जबकि उसके पास एक लिखित भाषा, दर्शन विशेषीकरण युक्त श्रम विभाजन, एक जटिल विधि और राजनीतिक प्रणाली हो”।

इस संदर्भ में एक और विद्वान का मत।

“जिसबर्ट” के अनुसार, सभ्यता बताती है कि, ‘हमारे पास क्या है’, और संस्कृति यह बताती है कि, ‘हम क्या हैं’।

साहित्य क्या है? इसका स्वरूप क्या है? यह समाज से किस प्रकार संबंधित है? और यह संस्कृति को किस प्रकार अपने अंदर समेटे हुए है? तथा किस प्रकार संस्कृति को प्रभावित करता है? एवम किस प्रकार यह संस्कृति से प्रभावित होता है? यह सब महत्वपूर्ण बिंदु है।

किसी भी प्रकार के साहित्य की मूल चेतना या भावना, मुख्य आधार, मानव समाज की चहुँमुखी उन्नति ही होती है। प्रत्येक प्रकार के साहित्य का यह उद्देश्य होता है कि मानव हर प्रकार के राग, द्वेष, घृणा, ईर्ष्या, शोषण, कलुषित विचार आदि दुर्भावनाओं को त्याग कर, उस परमपिता परमेश्वर, सर्वशक्तिमान ईश्वर की सत्ता को, उसकी शक्ति को जानने का प्रयास करता हुआ, “आत्मवत सर्व भूतेषु” यानी सभी को अपने समान समझने का प्रयास करे तथा “सर्वे भवंतु सुखिन:” का भाव लेकर “परमार्थ” “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” के सिद्धान्त को अपने जीवन में उतार ले।

यह अकाट्य सत्य है कि जितना साहित्य हमारे भारत में है, जितना विषय वैविध्य हमारे साहित्य में है, उतना किसी भी अन्य देश के साहित्य में हो ही नहीं सकता। हमारा तो एक-एक ग्रंथ ही सर्वकालिक Timeless है कि जिसके सिद्धांत आज से हजारों वर्ष पूर्व भी उतने ही प्रासंगिक थे, जितने आज है।

सिर्फ एक ग्रंथ “श्रीमद्भगवद्गीता” को ही लीजिए जो विश्व प्रसिद्ध है। सिर्फ यदि इसी एक ग्रंथ को ही आत्मसात कर लिया जाए तो मानव मात्र का जीवन सुधर सकता है, तो फिर अन्य साहित्य की तो बात ही क्या है।

हमारा साहित्य हमें धार्मिकता, नैतिकता, सामाजिकता, नीति राजनीति, आर्थिकता आदि सभी गुण सिखाता हैं। हमारे साहित्य में ज्ञान है, वैराग्य है, नीति है, श्रृंगार है, भक्ति है, प्रेम है, वात्सल्य है, करुणा है, ओज है, वीरता है, प्रकृति प्रेम है, जीव प्रेम है।

हिंदी साहित्य के इतिहास को इन्हीं गुणों के आधार पर विभक्त किया गया है, जैसे —

वीरगाथा काल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिक काल।

जिस काल में जिस भाव, जिस प्रकार के साहित्य की प्रधानता रही, उसे उसी के नाम से संबोधित किया गया है। यही साहित्य, स्वस्थ सभ्यता एवं संस्कृति का निर्माण करने में सहायक है, जो हमारी पहचान है, भारतीयता की पहचान है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि हमारे साहित्य में एक और जहां विष्णु शर्मा जी ने पंचतंत्र के माध्यम से ज्ञान, जीव प्रेम, प्रकृति प्रेम, पारिस्थितिकीय संतुलन आदि का संप्रेषण किया जो सभी के लिए हर युग में प्रासंगिक है तथा पर्यावरण संरक्षण, शाकाहार की भावना को पोषण प्रदान करता है जो कि वर्तमान की एक समस्या तथा आवश्यकता बन चुकी है।

साहित्य, साहित्यकार, समाज और संस्कृति —

साहित्य समाज का दर्पण है, यह हम सब जानते हैं। आत्मा और शरीर का जो संबंध है वही संबंध साहित्य और समाज का है। यह शाश्वत सत्य है कि साहित्य की अपेक्षा समाज पहले जन्म लेता है। समाज से ही साहित्यकार जन्म लेते हैं।

साहित्यकार के व्यक्तित्व की पहचान अलग होती है। सच्चे साहित्यकार गंभीर, चिंतनशील, संवेदनशील, दूरदृष्टा, व्यापक दृष्टिकोण रखते हुए भावना और सम्वेदनाओं से परिपूर्ण होते हैं। क्योंकि अपनी लेखनी से वो जिस साहित्य का निर्माण करते हैं, सृजन करते हैं, वह भविष्य में समाज का, संस्कृति का निर्माण करता है।

इसलिए प्रत्येक साहित्यकार यह प्रयास करता है कि वह जिस विषय पर साहित्य का सृजन करे, उसकी जड़ें समाज से, उसकी समस्याओं से गहराई से जुड़ी हुई हों।ज्वलंत मुद्दों पर भी अपनी बात कहने से पूर्व उक्त सामाजिक विषय से संबंधित पूर्ण जानकारी प्राप्त करना अनिवार्य है, क्योंकि साहित्यकार की कलम से निकला एक-एक शब्द समाज में परिवर्तन लाने में सक्षम है।

‘कलम के सिपाही’ सामाजिक जन चेतना लाने का कार्य करते रहे हैं। अतः लेखक अथवा कवि (साहित्यकार) अपने समाज की हर गतिविधि, हर परिस्थिति में ही जीता है, उनसे प्रभावित होता रहा है। वह किसी भी रुप से समाज से अलग नहीं हो सकता। वह इसी समाज में ही रहकर इसके प्रभावों को, इन परिवर्तनों को, इन समस्याओं को जानता है, क्योंकि वह भी तो एक सामाजिक प्राणी ही है।

साहित्य, समाज और संस्कृति अन्योन्याश्रित —

प्रत्येक समाज का एक सांस्कृतिक आधार भी होता है। प्रत्येक संस्कृति, उस समाज की आत्मा, उसकी पहचान होती है, जिस प्रकार किसी भी प्रकार की सभ्यता एवं संस्कृति में व्याप्त अच्छाई और बुराई को हम सब देखते हैं, महसूस करते हैं कि यह हमारे समाज में किस प्रकार फैल रही है, समाज को दूषित कर रही है, संस्कारों का हनन कर रही है।

उसी प्रकार साहित्यकार इन सब को देखते हुए, इन सब पर अपनी व्याख्या प्रदान करते हुए, समाज में परिवर्तन लाने का प्रयास करते हैं, और यह कार्य करना अपना कर्तव्य समझते हैं, क्योंकि —

“केवल मनोरंजन ही न कवि का कर्म होना चाहिए ,
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए”।

इतिहास साक्षी है कि मानव सभ्यता के विकास में साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। नवीन विचारों ने साहित्य को जन्म दिया तथा साहित्य ने मानव की विचारधाराओं में गतिशीलता प्रदान करते हुए उसे सभ्य बनाने का कार्य किया है।किसी भी राष्ट्र या समाज में आज तक जितने भी परिवर्तन आए हैं, वो सब साहित्य और संस्कृति के माध्यम से ही आए हैं।

साहित्यकार समाज में फैली कुरीतियों, विकृतियों, विसंगतियों, अभावों, विषमताओं व असमानताओं आदि के बारे में अपने विचार, सुझाव, उपाय आदि प्रस्तुत करता है। इन सब के प्रति जनसाधारण को जागरुक करने का प्रयास करता है।

वर्तमान में साहित्य को ज्ञानवर्धक, मूल्यवर्धन, मनोरंजक बनाने के लिए सोशल मीडिया, सिनेमा का आश्रय लिया जा रहा है जो कुछ – कुछ हद तक उचित भी है, क्योंकि लिखित साहित्य में ज्ञान, मूल्य, नीति, संस्कार आदि सब कुछ तो है परंतु मनोरंजक तत्व नहीं।

अतः साहित्य को दृश्य, श्रव्य भाव के साथ मनोरंजक भी बनाते हुए जनमानस तक पहुंचाने का कार्य एक अनूठा प्रयास रहा है। इससे समाज में गहरा परिवर्तन देखने को मिला है। 80 के दशक में रामानंद सागर द्वारा लिखित और निर्देशित धारावाहिक “रामायण” तथा बी आर चोपड़ा द्वारा निर्देशित धारावाहिक “महाभारत” का नाम इस श्रेणी में लिया जा सकता है जिन्होंने समाज में सकारात्मक परिवर्तन किए, जनमानस को भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का दर्शन कराया, मानवीय मूल्यों से अवगत कराया तथा वर्तमान पीढ़ी को सामाजिक, नैतिक, मानवीय मूल्यों को परोक्ष भाव में ही सिखा दिया।

साहित्य के विकास की कहानी उतनी ही पुरानी है जितनी कि मानव सभ्यता। अतः यह नितांत आवश्यक है कि साहित्य लेखन, संशोधन, परिवर्द्धन निरंतर जारी रहना चाहिए। अन्यथा सभ्यता का विकास ही अवरुद्ध हो जाएगा।

भारत की अपनी विशिष्ट सभ्यता एवं संस्कृति रही है। “भा” का अर्थ हुआ प्रकाश। “रत” का अर्थ है संलिप्तता। यानि “भारत” का अर्थ हुआ प्रकाश में दत्तचित्त होकर अनुष्ठान करने से संप्राप्त संस्कार, और संपन्नता। यही भारतीय संस्कृति है। यही संस्कृति समाज से, साहित्य से अनादि काल संपोषित होती चली आ रही है और आगे भी इसी तरह संपोषित, संवर्धित होती रहेगी।

निष्कर्ष —

निष्कर्षत: यही कहा जा सकता है कि वास्तव में हर देश का साहित्य उस देश की लौकिक सभ्यता एवं संस्कृति, मातृभाषा, लोक गीत, लोक भाषाओं, (जन भाषाओं) तथा तत्कालीन परिस्थितियों (सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, राजनीतिक) को भी उजागर करता है। साहित्य एक राष्ट्र की धरोहर है, उसका अभिमान है, गौरव है, पहचान है।

प्रत्येक युग का साहित्य उस युग की पहचान, उस युग का वैशिष्टय बताता है। अब इससे अधिक और क्या कहा जाए कि प्राचीन वैदिक साहित्य भारत के उन्नत और गौरवशाली समाज का प्रमाण है। इस साहित्य में “विश्व मानव” (वैश्विक एकता) और “वसुधैव कुटुंबकम” की जो भावना है, वह विशुद्ध भारतीय संस्कृति की महानता, विशालता, नि: स्वार्थपरता, लोक कल्याणकारी भावनाओं की परिचायक है।

हमारा साहित्य समाज को न केवल ज्ञान, बोध और मूल्य प्रदान करता है अपितु एक चिंतन की दिशा भी प्रदान करता है ताकि हम सभी यथासंभव प्रयास कर सके जिससे कि भारतीय मूल्य, भारतीय सभ्यता एवम संस्कृति, भारतीय साहित्य का विश्व में सदैव उच्चस्थ स्थान बना रहे तथा भारत पुन: “जगदगुरु” (विश्वगुरु) की उपाधि ग्रहण करे वो भी अपने अक्षय साहित्य, विशुद्ध सभ्यता एवं अलौकिक संस्कृति के बल पर।

इन्ही शुभकामनाओं के साथ — शुभमस्तु।

ज़रूर पढ़ें — नारी : इच्छा शक्ति ज्ञान शक्ति कर्म शक्ति।

♦ डॉ विदुषी शर्मा जी – नई दिल्ली ♦

—————

  • ” लेखिका डॉ विदुषी शर्मा जी“ ने अपने इस शोध लेख से, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से बखूबी समझाने की कोशिश की है – वास्तव में हर देश का साहित्य उस देश की लौकिक सभ्यता एवं संस्कृति, मातृभाषा, लोक गीत, लोक भाषाओं, (जन भाषाओं) तथा तत्कालीन परिस्थितियों (सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, राजनीतिक) को भी उजागर करता है। साहित्य एक राष्ट्र की धरोहर है, उसका अभिमान है, गौरव है, पहचान है।

—————

यह शोध लेख (साहित्य समाज और संस्कृति।) “डॉ विदुषी शर्मा जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी लेख / कवितायें सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे।

आपका परिचय आप ही के शब्दों में:—

मेरा नाम डॉ विदुषी शर्मा, (वर्ल्ड रिकॉर्ड होल्डर) है। अकादमिक काउंसलर, IGNOU OSD (Officer on Special Duty), NIOS (National Institute of Open Schooling) विशेषज्ञ, केंद्रीय हिंदी निदेशालय, उच्चतर शिक्षा विभाग, शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार।

ग्रंथानुक्रमणिका —

  1. डॉ राधेश्याम द्विवेदी — भारतीय संस्कृति।
  2. प्राचीन भारत की सभ्यता और संस्कृति — दामोदर धर्मानंद कोसांबी।
  3. आधुनिक भारत — सुमित सरकार।
  4. प्राचीन भारत — प्रशांत गौरव।
  5. प्राचीन भारत — राधा कुमुद मुखर्जी।
  6. सभ्यता, संस्कृति, विज्ञान और आध्यात्मिक प्रगति — श्री आनंदमूर्ति।
  7. भारतीय मूल्य एवं सभ्यता तथा संस्कृति — स्वामी अवधेशानंद गिरी (प्रवचन)।
  8. नवभारत टाइम्स — स्पीकिंग ट्री।
  9. इंटरनेट साइट्स।

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