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राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी

हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत। ♦

किसी भी देश के गौरव के वैभव की गाथा यदि समग्र रूप से कोई गा सकता है तो वह है उस देश की राष्ट्रभाषा का स्वरूप। बड़े खेद के साथ कहना पड़ता है कि हमारे भारत देश की आज दिन तक कोई राष्ट्रभाषा निर्धारित ही नहीं हो सकी। भारत देश को आजाद हुए आज 7 दशक से ज्यादा समय हो चुका है परंतु इस देश की विडंबना देखिए कि अभी तक हम इस देश के गौरव का गुणगान करने वाली इसकी मातृ भाषा हिंदी को न्याय नहीं दिला सके।

हिंदी भाषा को राजनीति का शिकार बना दिया।

सन 1949 में अगर इस दिशा में कार्य कुछ हुआ भी तो वह भी अधूरा ही हुआ। भारत के अधिकतर लोगों द्वारा बोली जाने वाली और समझी जाने वाली हिंदी भाषा को राजनीति का शिकार बना दिया गया और इसे इस देश की अपनी भाषा होने के बावजूद विदेशी भाषा अंग्रेजी के समकक्ष भारत की मात्र राजभाषा ही स्वीकार किया गया।

यह सत्य किसी से छुपा नहीं है कि जब आर्यवर्त या जंबूद्वीप की राष्ट्रभाषा संस्कृत हुआ करती थी तो इस देश का अपना एक समृद्ध साहित्य था और उस भाषा में लिखित नाना प्रकार की विधाओं के ज्ञान विज्ञान थे। उस भाषा के बल पर भारत विश्व गुरु की उपाधि से सुसज्जित था।

उस समस्त ज्ञान-विज्ञान का लाभ मात्र भारतवासी ही नहीं लेते थे बल्कि उनका लाभ प्राप्त करने के लिए हयुत्संग और फाह्यान जैसे लोग विदेशों से भारत के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने आते हैं। समय बदला ,परिस्थितियां बदली, भारत पर हूणों,मंगोलों,डचों,तुर्कों, अफगानों आदि ने अपने आक्रमण किए।

भारत के इस गौरवशाली वैभव को धीरे-धीरे तोड़ने मरोड़ने की कोशिश।

भारत के इस गौरवशाली वैभव को धीरे-धीरे तोड़ने मरोड़ने की कोशिश की गई। 1000 ईसवी के आसपास शौरसेनी और अर्धमाग्धी अपभ्रांशों से विकसित हिंदी का स्वरूप स्वतंत्र रूप से साहित्यिक क्षेत्र में दिखने लगा। साहित्य संदर्भों में प्रयोग होने वाली यही भाषाएं बाद में विकसित होकर आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के रूप में अभिहित हुई।

इस बीच भारत में मुगलों का आगमन हुआ। मुगल भारत में स्थाई रूप से बस गए। इससे पूर्व के आक्रमणकारी आक्रमण करते रहे और यहां से पुनः स्वदेश लौटते रहे। परंतु मुगल शासकों ने जिस तरह से भारतीय राजनीति को अपने हाथों में ले लिया, उससे भारत में अपभ्रंशों से विकसित एवं पलवित होने वाली हिंदी का स्वरूप हिंदुस्तानी में बदल गया।

यह सच है कि 1000 ईसवी के आसपास डिंगल पिंगल का बोलबाला भारतीय साहित्य में रहा हिंदी साहित्य का आदिकाल अधिकतर इसी दौर का है। मध्यकाल तक भक्ति साहित्य का वैभव हिंदी की विभिन्न उप भाषाओं ने कुछ यूं सुसज्जित कर दिया कि उसे चाह कर भी हम सदियों तक भुला नहीं सकते।

मिश्रित भाषा।

रीतिकाल तक आते-आते मुगल शासकों की शासकीय कामकाज की भाषा अरबी फारसी होने के कारण भारतीय जनमानस की आमजन भाषाएं उसमें मिश्रित हो गई जिस मिश्रित भाषा को हिंदुस्तानी का नाम दिया गया। जो भारतीय जनमानस की भाषा अपना एक राष्ट्रीय नया स्वरूप तैयार कर रही थी उसने एक नया मोड़ ले लिया। अर्यवर्त या जंबूद्वीप की राष्ट्रभाषा संस्कृत का प्रभाव धीरे- धीरे क्षीण होने लगा और हिंदुस्तानी ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया। जो हिंदी शौरसेनी और अर्धमाग्धी से 1000 ईस्वी के आसपास विकसित हुई थी उसको राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिल सका।

हिन्द – यूरोपीय भाषा।

हिन्द – यूरोपीय भाषा परिवार से होती हुई हिंदी – ईरानी, हिन्दी – आर्य, संस्कृत, केंद्रीय क्षेत्र (हिन्दी), पश्चिमी हिंदी , हिंदुस्तानी और खड़ी बोली से हिंदी का रूप लेने वाली वर्तमान हिंदी भाषा लगभग 18वीं शताब्दी में मूलतः अस्तित्व में आई। इस नव विकसित हिंदी भाषा के स्वरूप को देवनागरी में ही लिखा जाने लगा जो संस्कृत की मानक लिपि थी और है।

भारतेंदु और द्विवेदी युग।

भारतेंदु और द्विवेदी युग ने इस नव विकसित भाषा को और दृढ़ता प्रदान की। हिंदी भारतीय साहित्य की एक मानक भाषा उभर कर सामने आई। भारतीय जनमानस की इस भाषा ने धीरे – धीरे भारत के अधिकतर प्रांतों में अपना अधिकार जमाया। इस बीच भारत में शासन कर रहे अंग्रेजों ने भी अपनी राष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी के प्रचार – प्रसार में भारत में कोई कसर नहीं छोड़ी।

पुरातन वैदिक गुरुकुल परंपरा को खंडित कर नवीन शिक्षा नीति।

1936 में लार्ड मैकाले ने भारत की पुरातन वैदिक गुरुकुल परंपरा को खंडित कर नवीन शिक्षा नीति को इस उद्देश्य से स्थापित किया कि भारत के लोगों को न तो ठीक से हिंदी समझ में आ सके और न ही अंग्रेजी ही समझ में आ सके। अपने शासन को चलाने के लिए उन्हें सस्ते लिपिकों की जरूरत थी, जिन्हें तैयार करने में वे लगभग सफल भी हुए।

धीरे – धीरे तथाकथित अंग्रेजी शिक्षित भारतीयों के भीतर भी अंग्रेजी का ऐसा भूत सवार हुआ कि थोड़ी बहुत अंग्रेजी जान लेने के बाद वह अपने आपको अंग्रेजी का विद्वान समझने लगे और जो हिंदी बोलने वाला आम भारतीय था उसको तुच्छ एवम हेय समझने लगे। यह चलन भारत के आजाद होने तक इतना बढ़ गया था कि सरमायादार लोग दूर देशों में जाकर के अपने बच्चों को अंग्रेजी की तालीम लेने के लिए भेजने लगे।

फिर वे चाहे हिंदू थे या मुस्लिम। इस प्रक्रिया में सभी अपने देश की मातृभाषा हिंदी के वजूद को स्थापित करना ही भूल गए, जबकि भारत की आजादी के वक्त तक हिंदी में बहुत कुछ लिखा जा चुका था जो भारत के गौरव गान के लिए किसी भी दृष्टि से कम नहीं था। इस दृष्टि से शायद 1949 में हिंदी को राष्ट्रभाषा स्वीकार करने की मुहिम तेज हुई थी परंतु वहां हिंदी को पुनः राजनीति की भेंट चढ़ा दिया गया और हिंदी को मात्र राजभाषा का दर्जा दिया गया।

इसके पीछे साजिश शायद यह भी रही हो कि भारत के जो तथाकथित अंग्रेजी शिक्षित लोग मानसिक रूप से अभी भी अंग्रेजों के गुलाम ही थे, उन्होंने जानबूझकर यह चालाकी की हो कि हिंदी जानने और बोलने वाले लोगों के ऊपर राज करने के लिए यदि अंग्रेजी भाषा को हिंदी के समकक्ष रखा जाए तो अच्छा रहेगा। उससे उन तथाकथित अंग्रेजी शिक्षित सरमायादारों की संतानें भारत की हिंदी भाषी जनता पर शासन करती रही और भारत की हिंदी भाषी आम जनता उनकी सेवा करती रही।

भले ही अंग्रेज भारत से चले गए थे परंतु अंग्रेजी के मानसिक रूप से गुलाम ये भारतीय अंग्रेज लंबे समय तक भारत की इस हिंदी भाषी जनता को मूर्ख बनाने में कामयाब रहे। अब यदि यह कहा जाए कि आप की बात अतिशयोक्ति हो गई है तो मैं स्पष्टीकरण जरूर देना चाहूंगा।

क्यों राजभाषा होने के बावजूद भी भारत की न्यायिक व्यवस्थाओं के पत्राचार, राजस्व विभाग सम्बन्धी पत्राचार और चिकित्सीय व्यवस्था संबंधित शिक्षा प्रणाली हिंदी भाषा में न की गई? क्या यह एक सोचा समझा षड्यंत्र नहीं था? या फिर इसलिए कि आम जनमानस की जन भाषा में यदि इन व्यवस्थाओं की बातों को लिख दिया जाएगा या पढ़ा दिया जाएगा तो फिर तथाकथित अंग्रेजी शिक्षित लोग और उनकी संतान लोगों को मूर्ख बनाने में कामयाब कैसे हो पाएगी? उनकी रोजी रोटी कैसे चल पाएगी?

खैर कुछ भी हो, आज परिस्थितियां कुछ और ही है। आज हिंदी सिर्फ भारत के ही अधिकतर क्षेत्र में नहीं बोली जाती परंतु वैश्विक धरातल पर इसने अपनी एक विशेष पहचान बना ली है। इसलिए आज यह बहुत जरूरी हो जाता है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाए। यह सिर्फ आधारहीन एवं तथ्य से हटकर बात नहीं है बल्कि इसके पीछे एक बहुत लंबी – चौड़ी तथ्यपरक बातों की सूची है: —

  1. 2011 की भारतीय जनगणना के अनुसार भारत की 57.1% जनता हिंदी को बोल और समझ सकती है। जिसमें 43.63% भारतीयों ने तो हिंदी को अपनी मातृभाषा ही घोषित किया है। यह एक प्रबल आधार है कि भारत की अधिकतर जनता हिंदी बोलती है और समझती है। इस दृष्टि से हिंदी को अब भारत की राष्ट्रभाषा घोषित कर देना चाहिए ताकि भारत का आम नागरिक वैधानिक, प्रशासनिक, कार्मिक, व्यवहारिक और शैक्षिक आचार – विचारों को अपनी भाषा में प्राप्त कर सकें।
  2. हिंदी भाषा बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर के साथ – साथ उत्तर प्रदेश तथा दिल्ली आदि जनसंख्या बाहुल्य क्षेत्रों की मात्र संपर्क भाषा ही नहीं है बल्कि वाच बाहुल्य के साथ – साथ यहां इन क्षेत्रों की रोजमर्रा की व्यवसायिक भाषा भी है।
  3. आज हिंदी सिर्फ भारत में ही नहीं बोली जाती है परंतु भारत के साथ-साथ कई अन्य देशों में भी इसे बोलने और समझने वालों की संख्या कम नहीं है। एक आंकड़े के मुताबिक हिंदी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बोली जाने वाली भाषाओं में दूसरा दर्जा प्राप्त है। आज हिंदी पाकिस्तान, भूटान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव, मंयांमार, इंडोनेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड, चीन, जापान, ब्रिटेन, जर्मनी, न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रीका, मारीशस, यमन, युगांडा, त्रिनाड एण्ड टोबैगो, कनाडा, अमेरिका तथा मध्य एशिया आदि कई देशों में बोली जाती है और समझी जाती है। यदि देखा जाए तो आज हिंदी लगभग 80 करोड से ज्यादा लोगों के द्वारा बोली और समझी जाती है।
    — इन देशों में से चीन में 6, जर्मनी में 7, ब्रिटेन में 4, अमेरिका में 5, कनाडा में 3, रूस, इटली, हंगरी, फ्रांस और जापान में 2 – 2 विश्वविद्यालयों में आज हिंदी पढ़ाई जाती है। एक आंकड़े के मुताबिक लगभग 150 के करीब – करीब विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आज हिंदी को पढ़ाया जा रहा है। ऐसे में भारत को हिंदी को अपनी राष्ट्रीय भाषा घोषित करने में आखिर दिक्कत ही क्या है? भारत से बाहर के लोग आज हिंदी में कई सत्संग और अध्यात्म की चर्चाएं सुनने और समझने भारत में आते हैं और भारत से बाहर हमारे हिंदी भाषी मनीषियों को हिंदी में सत्संग और चर्चा परिचर्चा करने के लिए अपने देशों में ले जाते हैं। बहुत से विदेशी लोग बाहर से आकर भारत में भी हिंदी को समझने और जानने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे में निश्चित है की हिंदी में कुछ तो खास है जो इसे समझने की और जानने की इतनी लालसा गैर हिंदी भाषी लोगों में भी निरंतर बढ़ती जा रही है। फिर भारतवासी और भारत की राजनीतिक शक्तियां क्यों हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने से परहेज कर रही है?
  4. पाठकों की जानकारी के लिए यह भी बताना उचित समझ रहा हूं कि आज सरकार हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए तो प्रयास कर रही है परंतु अपने देश में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की ओर कोई भी ठोस कदम ठीक से नहीं उठाया जा रहा है।वैसे यूनेस्को की 7 भाषाओं में हिंदी पहले से ही शामिल है, परंतु फिर भी सरकार का इसे संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए प्रयास निरंतर जारी है।
  5. इतना ही नहीं विश्व आर्थिक मंच की गणना के अनुसार हिंदी विश्व की 10 शक्तिशाली भाषाओं में से एक है। यह बात भी अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक आचार व्यवहार की दृष्टि से हिंदी को राष्ट्रभाषा का सम्मान देने की पैरवी पुरजोर करती है। यदि हिंदी को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की भाषा में मानक रूप प्राप्त हो जाता है तो निश्चित ही भारत के व्यापार एवं आर्थिक मोर्चों में भी हिंदी अपनी अहम भूमिका निभाएगी। परंतु इसके लिए हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देना बहुत ही जरूरी है।
  6. एथ्नोलॉग के अनुसार हिंदी विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। यह बात भी हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने के लिए प्रबल सहयोग करती है। यह बात उन तथाकथित अवधारणाओं का भी खंडन करती है कि ‘अंग्रेजी विश्व की भाषा है, इसलिए इसे महत्व देना जरूरी है। हिन्दी तो कहीं स्टैण्ड ही नहीं करती।’इतना ही नहीं हिंदी व संस्कृत की लिपि को संगणकीय टंकण प्रणाली में वैज्ञानिक लिपि भी सिद्ध कर लिया गया है। ऐसे में हिन्दी को भारत में यूं नकारना कहीं से भी ठीक नहीं है।
  7. इधर आबूधाबी में हिंदी को 2019 में अपने वहां न्यायालय की तीसरी भाषा घोषित कर दिया गया है। परंतु एक भारत है कि अपने ही देश की मातृभाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने के मामले में संजीदगी नहीं दिखा रहा है।

कई बातें हैं जो हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत को स्पष्ट करती है।

ऐसी कई बातें हैं जो हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत को स्पष्ट करती है परंतु यह सब भारत की राजनीतिक शक्तियों की इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है। आज भारतवासियों की हालत यह हो गई है कि भले ही हम अंग्रेजी में एम ए क्यों ना हो परंतु जब बात करने की बारी हो तो वह हिंदी में ही की जाती है। यह जरूर है कि कुछ लोग अपना रौब झाड़ने के लिए उस हिंदी में अंग्रेजी मिक्स कर देते हैं परंतु वह खिचड़ी न ही तो ठीक से हिंदी का मान – सम्मान कर पाती है और न ही तो अंग्रेजी का। बात यह नहीं है कि हमें अंग्रेजी से नफरत है।

अंग्रेजी को भी पढ़ा जाना चाहिए और समझा जाना चाहिए। हर भाषा का मान – सम्मान करना हमारे देश की संस्कृति रही है परंतु किसी भी देश के उत्थान एवं विकास के लिए उस देश की अपनी राष्ट्रभाषा का होना नितांत आवश्यक होता है। देश कितनी भी तरक्की कर लें, परंतु जब तक उसके पास अपनी राष्ट्रभाषा नहीं है तब तक उस तरक्की का कोई औचित्य नहीं रह जाता।

Conclusion:

अपने राष्ट्र के गौरवशाली इतिहास को ही न भूल बैठे।

कहीं ऐसा न हो कि हम हिंदी का तिरस्कार करते – करते अपने राष्ट्र के गौरवशाली इतिहास को ही भूल बैठे। यदि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत नहीं है तो फिर क्यों वे सारे कारोबार हिंदी में किए जाते हैं जिनसे राष्ट्रीय खजाने में निरंतर बढ़ोतरी होती रहती है।

उदाहरण के लिए फिल्मी कारोबार हिंदी में ही किया जाता है। आम जनमानस से संपर्क साधने के लिए राजनीतिक पार्टियां हिंदी में ही अपनी बातचीत करती है।अधिकतर समाचार पत्र – पत्रिकाएं तथा चैनल सब हिन्दी में ही कार्य करते हैं। बस हिंदी में अगर कुछ होता नहीं है तो वह सरकारी कार्यालयों का पत्राचार नहीं होता है। न जाने क्यों इतना महत्व सरकारी पत्राचार में अंग्रेजी को दिया जाता है जब कि हिंदुस्तान आज आजाद हो चुका है।

हमारे भारत के जन समुदाय में एक ट्रेंड सा बन चुका है कि पड़ोसी का बच्चा अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने जा रहा है तो मैं भी अपने बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में ही पढ़ाऊंगा। भले ही वह वहां कुछ सीखे या न सीखे परंतु सोसाइटी की नकल करना हमारी आदत बन गई है। जबकि सत्य यह है कि बच्चा जो कुछ अपनी मातृभाषा में सीखता है वह किसी दूसरी भाषा में नहीं सीख सकता परंतु एक हम है कि अपनी जिद पर अड़े हुए हैं।

हां वर्तमान सरकार ने एक मेहरबानी जरूर की है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में अंग्रेजी को पांचवी तक मात्र एक विषय के रूप में पढ़ाने का प्रावधान किया है न कि माध्यम के रूप में। परंतु क्या हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए बिना इस प्रकार के प्रयासों का भी कोई महत्व सिद्ध हो सकेगा या नहीं? इस बात पर हमें आत्म चिंतन और मंथन करने की नितांत आवश्यकता है।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — अंग्रेजो से आजादी के इतने वर्षों बाद भी हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा की मान्यता आधिकारिक रूप से क्यों दर्ज नही हुआ, हिंदी को उसका सम्मान क्यों नहीं मिला? हिन्दी राष्ट्रभाषा के महत्व, गुणों और प्रभाव को बताया है। हिन्दी हर भारतीय के दिल से निकलने वाली भाषा हैं। हिन्दी भाषा दिल को दिल से जोड़ने का कार्य करती है। एकलौती हिन्दी भाषा ही है जिसमे अपनापन है दुनिया की किसी भी अन्य भाषा अपनापन का स्थान नहीं।

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यह लेख (हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत।) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने की राह में कौन बना है रोड़ा?

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने की राह में कौन बना है रोड़ा? ♦

भारत के हिन्दी भाषी क्षेत्रों के अधिकांश पढ़े-लिखे लोग भी यही मानते है कि भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी है। यह जरूर है कि भारतीयों ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा मान लिया है परंतु हमें शायद यह ज्ञान नहीं है कि संवैधानिक तौर पर हिन्दी आज भी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है। भले ही समूचे विश्व में हिन्दी को जानने वाले लोगों की तादाद 200 करोड़ से अधिक हो चुकी है, पर हिन्दी को अपने देश में न्याय नहीं मिल पाया है।

इतना ही नहीं संस्कृत भाषा की तकनीक को संगणकीय पृष्ठभूमि पर खरा पाए जाने के कारण आज हिन्दी को वैश्विक भाषा के रूप में प्रतिस्थापित किए जाने की मुहिम शुरू हो चुकी है क्योंकि संस्कृत तो अब अधिकतर चलन की भाषा नहीं रही, पर उससे उद्भूत हिन्दी को यह सम्मान दिए जाने की पूरी पैरवी की जा रही है। पर भारत में हिन्दी नगण्य क्यों है? इसके लिए हमें इतिहास से लेकर वर्तमान तक को एक नजर में जरूर देखना होगा।

इतिहास से लेकर वर्तमान तक को एक नजर में।

भारतीय इतिहास का ज्ञान रखने वाले प्रत्येक भारतीय को यह पूरी तरह से मालूम है कि हजारों वर्ष तक भारत की भाषाएं राजकाज के कार्यों से विदेशी आक्रांताओं की शासकीय पकड़ के चलते नदारद रही। मुगल शासन काल में राजकाज की भाषा अरबी और फारसी रही और उसके बाद अंग्रेजी शासन काल में यह स्थान अंग्रेजी ने लिया। भारत को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाने के लिए आजादी की लड़ाई लड़ने वालों का एक लंबा चौड़ा इतिहास है।

उसी इतिहास में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एक विशेष स्थान रखते हैं। उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए विशेष प्रयास किए थे। इसी के चलते उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने के लिए सन 1917 में भरूच (गुजरात) में पहली बार हिंदी को राष्ट्रभाषा का नाम दिया था। इस मुहिम में नेहरू जी ने भी गांधी जी का साथ दिया था, यह भी पढ़ने को मिलता है। इसी के चलते आजादी के बाद इस मुद्दे पर भारतीय नेताओं के दो गुट बने, जिसके चलते संविधान सभा ने 14 सितंबर 1949 को मुंशी आयंगर समझौते के तहत हिन्दी को संस्कृत की लिपि देवनागरी में टंकित किए जाने और राजभाषा का दर्जा दिए जाने की बात स्वीकार की।

भारतीय संविधान में केवल दो ऑफिशियल भाषाओं को स्थान।

भारतीय संविधान में केवल दो ऑफिशियल (राजभाषा भाषाओं) भाषाओं (अंग्रेजी और हिंदी) को स्थान दिया गया है। वहां किसी भी राष्ट्रभाषा का जिक्र न होने के कारण शायद हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने के संदर्भ में एक बहुत बड़ा अड़ंगा बन गया है। इसमें यह भी जिक्र किया गया था की 26 जनवरी 1950 को भारत के संविधान के लागू होने से लेकर 26 जनवरी 1965 तक धीरे-धीरे अंग्रेजी का प्रयोग शासकीय कार्य में कम किया जाएगा और 15 सालों के बाद हिन्दी में ही भारत के शासकीय कार्य किए जाने हैं।

1950 में संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के तहत देवनागरी लिपि में हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया। ये राजभाषा संबंधी प्रावधान संविधान में अनुच्छेद 343 से 351 तक अंकित किए गए हैं। 14 सितंबर 1953 को राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के अनुरोध पर पहली बार हिंदी दिवस मनाया गया था। धीरे-धीरे हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की मुहिम और तेज होने लगी। इसमें हिन्दी के पक्षधर नेता बालकृष्ण और पुरुषोत्तम दास टंडन के आंदोलनों ने विशेष भूमिका निभाई।

1960 में राष्ट्रपति के आदेश पर इस संबंध में एक आयोग बना। 1963 में राजभाषा अधिनियम पारित हुआ जिसके तहत राजभाषा के प्रयोग से सम्बन्धित तीन क्षेत्र क, ख, ग बनाए गए। इस अधिनियम में यह तय किया गया कि हिन्दी और अंग्रेजी के अलावा अन्य भाषा में किए गए पत्राचारों के जवाब:-

1. क क्षेत्र के राज्यों को हिन्दी में ही दिए जाएंगे।
2. ख क्षेत्र से प्राप्त अन्य भाषाई पत्रों का जवाब 60% हिन्दी और अंग्रेजी में तथा बाकी 40% सिर्फ अंग्रेजी में ही दिए जाएंगे।
3. ग क्षेत्र से प्राप्त ऐसे पत्राचारों का जवाब 40% हिन्दी और अंग्रेजी में और बाकी सिर्फ अंग्रेजी में दिया जाएगा।

ये प्रावधान संविधान में निर्दिष्ट संविधान लागू होने की 15 सालों के बाद हिन्दी को अधिमान दिए जाने के तहत किए गए।

द्विभाषी पद्धति को मान्यता।

1965 में जब कांग्रेस सरकार ने पूरे भारत में हिंदी के प्रयोग को सर्वत्र अनिवार्य किए जाने पर चर्चा की तो तमिलनाडु में इसके विरोध में हिंसक प्रदर्शन हुए। भले ही ये प्रदर्शन राजनीति प्रेरित थे, परंतु कांग्रेस वर्किंग कमिटी ने इन प्रदर्शनों को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय लिया कि जब आजादी के 15 साल बाद भी पूरे भारत के सभी राज्य हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में ग्रहण करने को तैयार नहीं है तो यह फैसला वापस ले लेना चाहिए। इसी के चलते सन 1967 मैं पुनः 1963 के राजभाषा अधिनियम को संशोधित किया गया और पुनः शासकीय कार्य में राजभाषा के रूप में द्विभाषी पद्धति को मान्यता प्रदान की गई। ये दो भाषाएं वहीं पूर्व की अंग्रेजी और हिन्दी थी।

1971 मैं क्षेत्रीय भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में जोड़ने की कवायद तेज हुई। इसमें आजादी के समय में तो 14 भाषाएं जोड़ी गई थी। बाद में ये 17 हुई और अब 2007 तक इनकी संख्या 22 हो चुकी है। एक यह भी मुहिम चली कि इन्हें भी राजभाषा का दर्जा दिया जाना चाहिए। ये भारतीय संविधान में भाषा अधिनियम के तहत भाषाएं तो स्वीकारी गई परंतु राजभाषा का दर्जा इन्हें पूर्ण तौर से नहीं दिया गया शायद।

फिर 1976 में राजभाषा अधिनियम की धारा 4 के तहत राजभाषा संसदीय समिति बनाई गई, जिसने राष्ट्रपति की अनुशंसा पर राजभाषा नीति बनाकर लागू की। अब राजभाषा विभाग मासिक, त्रैमासिक और अर्धवार्षिक सतत निगरानी व विश्लेषण भी करता है और समेकित रिपोर्ट 30 सदस्यों वाली (जिसमें 10 सदस्य राज्यसभा तथा 20 सदस्य लोकसभा के होते हैं) संसदीय राजभाषा समिति को सौंपता है। यह संसदीय समिति अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपती है।

हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने के संबंध में गुजरात हाईकोर्ट में भी एक याचिका दायर की गई थी। 25 जनवरी 2010 को इस याचिका का फैसला सुनाते हुए हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता की दलीलों के आधार पर यह निर्णय दिया था कि जो दलीलें भारत में अधिकतर लोग हिन्दी भाषा बोलने और जानने वाले हैं आदि – आदि के आधार पर दी जा रही है। वे कहीं भी किसी रिकॉर्ड में अंकित नहीं है और न ही इसका कोई स्पष्ट आंकड़ा किसी रिकॉर्ड में अंकित है। इसके अलावा संविधान में भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने की बात अंकित नहीं है। अतः यह पैरवी निराधार है। कोर्ट की इस टिप्पणी के बाद यह मामला पुनः ठंडे बस्ते में चला गया।

मुख्यतः चर्चित विवाद।

रही बात हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने वाले गुट और न देने वाले गुट की तो उसमें मुख्यत ये विवाद चर्चित रहे:-

1. हिन्दी का विरोध करने वाले गुट का यह मानना है कि जब भारत के 29 में से 20 राज्यों में हिन्दी बोलने वाले लोग बहुत ही कम है, तो फिर हिंदी को ही राष्ट्रभषा का दर्जा क्यों दिया जाए? राष्ट्रभाषा तो वह होनी चाहिए जिसे समूचे देश के अधिकतर भागों के लोग जानते, बोलते और समझते हो।

2. जो राज्य हिन्दी भाषी चिन्हित किए भी गए हैं, उनमें भी अधिकतर क्षेत्रों में जनजातिय और क्षेत्रीय भाषाएं बोली और समझी जाती है। ऐसे में उन्हें भी हिन्दी भाषी चिन्हित करना न्याय संगत नहीं है।

3. हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने वालों की यह दलील कि देश की पूर्ण जनसंख्या का 50% हिस्सा हिंदी बोलता और समझता है तथा शेष गैर हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लोगों का भी 20% हिस्सा हिन्दी समझता है। ऐसे में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा मिला ही चाहिए।
उस पर विरोधी विद्वान टिप्पणी करते हैं कि जिन 50% लोगों की आप बात करते हैं, उनमें से अधिकतर जनजातिय और क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग करते हैं। तो फिर वे हिन्दी भाषी कैसे सिद्ध हुए?

4. हिन्दी विरोधी विद्वानों का तर्क यह भी है कि भारत में हिंदी से भी पुरानी तमिल, कन्नड़, तेलुगू , मलयालम, मराठी, गुजराती, सिंधी, कश्मीरी ओड़िया, बंगला, नेपाली और असमिया जैसी भाषाएं हैं। तो ऐसे में इनसे कहीं बाद दिल्ली के आसपास की चर्चित खड़ी बोली से विकसित हिन्दी को कैसे राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाए?

तर्क – वितर्क का यह सिलसिला तो तब तक चलता ही रहेगा जब तक किसी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिल जाता। चर्चा में तो यह भी एक विषय उठता है कि संविधान सभा के समक्ष नेहरू जी ने यह भी प्रस्ताव रखा था कि हिन्दी और अंग्रेजी दोनों को ही राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाए, परंतु वह प्रस्ताव भी खारिज कर दिया गया था। खैर कुछ भी हो। किसी भी राष्ट्र की निजी पहचान और उन्नति के लिए उसकी अपनी राष्ट्रभाषा का होना बहुत जरूरी होता है। इस संबंध में हमारा भारत देश आज तक बौना है। एन डी ए सरकार ने 2014 में अपने मंत्रियों और अधिकारियों को सारे शासकीय कार्य हिन्दी में करने की हिदायत जरूर दी थी, परंतु हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के संदर्भ में वह भी चुप्पी साधे है।

मानसिक रूप से आज भी हम अंग्रेजी के गुलाम है।

बड़े हैरत में डालता है संविधान समिति का वह निर्णय, जिस निर्णय ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं बल्कि राजभाषा का दर्जा दिलाया। सब जानते हैं कि एक लंबी जद्दोजहद के बाद भारत मुश्किल से अंग्रेजों की गुलामी से छुटकारा प्राप्त करता है। असल में यह गुलामी आज भी बरकरार है। यह सत्य है कि भारत का प्रत्येक नागरिक शारीरिक रूप से आज अंग्रेजी हुकूमत से आजाद हो चुका है, परंतु इस सत्य को भी झूठलाया नहीं जा सकता कि मानसिक रूप से आज भी हम अंग्रेजी के गुलाम है।

14 सितंबर 1949 को हमारे संविधान में हिंदी को राजभाषा का दर्जा तो दिया गया, परंतु हिंदी की हालत आज भी ऐसी है कि मानो अपने ही घर में अपनी ही मां के साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा हो। न्यायालय की बड़ी-बड़ी टिप्पणियां, बहसें और न्याय प्रक्रिया के बाद आने वाले निर्णय के लिखित प्रारूप, चिकित्सा व्यवस्था की सारी लिखित और मौखिक जानकारी, शिक्षा व्यवस्था के वैज्ञानिक पहलुओं का लिखित एवं मौखिक ढांचा तथा अधिकतर उच्च प्रतियोगिताओं की परीक्षा भाषा आज भी अंग्रेजी ही बनी हुई है।

इतना ही नहीं, ये सब प्रारूप इतने जटिल और दुरूह होते हैं कि इन व्यवसायों और प्रक्रियाओं पर जिसने शिक्षा प्राप्त नहीं कर रखी है, उस शिक्षित व्यक्ति को भी इन प्रारूपों और व्यवस्थाओं की भाषा शैली को समझाने के लिए, इन्हीं व्यवसायों में काम करने वाले लोगों के पास जाना पड़ता है।

भले ही इन व्यवसायों के अंतर्गत काम न करने वाला व्यक्ति कितना ही पढ़ा लिखा क्यों न हो? या यूं कहें कि उसे अंग्रेजी का कितना ही अच्छा ज्ञान क्यों न हो फिर भी उसे इन प्रारूपों और व्यवस्थाओं को समझने में कहीं न कहीं दिक्कत आ ही जाती है। ऐसे में उसे पढ़ा – लिखा होने के बावजूद भी कई बार लाखों का खर्चा मात्र इन चीजों को समझने और समझाने के लिए ही मुफ्त में करना पड़ता है।

प्रायोजित साजिश तो नहीं है?

समझ ही नहीं आता कि आखिर क्यों इन व्यवस्थाओं को आजादी के आज 74 साल बाद भी अंग्रेजी में प्रारूपित किया जाता है? किया भी जाता है तो फिर भी सवाल उठता है कि क्यों इतना जटिल भाषा शैली में यह सब लिखा जाता है? और देखिए! राजस्व विभाग की भाषा शैली आज भी मुगलिया सल्तनत के दौर की ही बरकरार है। फिर तो जहन में सवाल कौंधे गा ही कि कहीं यह एक सोची-समझी और प्रायोजित साजिश तो नहीं है?

भारत की अधिकांश जनता हिन्दी बोलती है, हिन्दी जानती है और हिन्दी समझती है। उसके बावजूद भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा आज तलक प्राप्त नहीं हो सका। राजभाषा होने के बावजूद भी राजकाज के अधिकतर कार्य आज तक अंग्रेजी में ही संपादित किए जाते हैं। सबसे बड़ी हैरत तो तब होती है, जब एक छोटे से छोटे कार्यालय का सामान्य दस – बारह पढ़ा-लिखा बाबू भी बड़े रूआब से जवाब देता है, “सर अंग्रेजी में बोलिए अंग्रेजी में, हिन्दी मुझे लिखनी नहीं आती।”

भले ही उसे अंग्रेजी समझ नहीं आती हो पर चिट्ठी वह भी अंग्रेजी में ही लिखता है। फिर चाहे उसे उसके लिए नकल ही क्यों ना मारनी पड़े? फिर हर कार्यालय में वही रटी रटाई अंग्रेजी की प्रारूपित चिट्ठियां अंग्रेजों के जमाने से आज तक प्रचलित है। कोई कुछ नया अपनी मौलिक शब्द शक्ति के साथ करना चाहे, तो कार्यालय के बड़े अधिकारी पुनः ड्राफ्टिंग करवाते हैं। यानी नकल करो बस। नया बिल्कुल भी न सोचो। यह उनका दोष नहीं है। यह तो हमारी अंग्रेजी मानसिकता का दोष है।

अंग्रेजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने का भूत।

आज के दौर में तो एक और नया भूत लोगों पर सवार हुआ है। अंग्रेजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने का भूत। बड़े-बड़े कान्वेंट स्कूल में तो व्यवस्था यह भी है कि बच्चों को दाखिल करवाने से पहले उनके अभिभावकों का टेस्ट होता है। यदि उन्हें अंग्रेजी बोलनी और समझनी न आए तो उनके बच्चों को इन कॉन्वेंट स्कूलों में दाखिला नहीं दिया जाता। ऐसी स्थिति में उन अभिभावकों को मायूस होना पड़ता है। आखिर इसमें बच्चों का क्या दोष?

भले ही हिन्दी स्कूल कितना ही अच्छा क्यों न हो? वहां पर कितने ही पढ़े लिखे और प्रशिक्षित अध्यापक क्यों न हो? फिर भी लोगों की मानसिकता शटर में चलने वाले अंग्रेजी स्कूलों के प्रति इतनी दृढ़ है कि जिसे तोड़ पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।

जब किसी कारोबार की बात होती है तो तब सारा का सारा बड़ा कारोबार हिन्दी में किया जाता है। राजनीति की भाषा (भाषण)हिन्दी। फिल्मी कारोबार की भाषा हिन्दी। प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की अधिकतम भाषा हिन्दी।

अरे भाई जब अंग्रेजी इतनी महत्वपूर्ण है तो फिर ये सब कारोबार भी अंग्रेजी में ही क्यों नहीं करते हो? सवाल तो बनता है। शायद इसलिए कि इन कारोबारों का उपभोक्ता या मतदाता आम व्यक्ति है, जिसे अंग्रेजी नहीं आती। कमाई तो उसी से करनी है। कमाने के लिए हिंदी और भुनाने के लिए अंग्रेजी। वाह! यह कैसी आजादी और कैसी व्यवस्था?

संत श्रेष्ठ तुलसीदास जी।

हमें याद है कि संत श्रेष्ठ तुलसीदास जी ने संस्कृत की अधिकृतता को चुनौती देते हुए अवधि में जब रामायण को लिखना शुरू किया था तो लोगों ने उनकी प्रतिलिपि को ही पानी में फेंक दिया था। क्योंकि संस्कृत को जानने वाले वर्ग के भीतर एक खासा आक्रोश था, कि कहीं यह महान ग्रंथ आम जन भाषा में संपादित हो गया तो हमारी प्रतिष्ठा और रोटी को बट्टा लग सकता है।

जिस तरह से वे नहीं चाहते थे कि आम जनता को इस समूची महाविद्या का सरल ज्ञान हो जाए, ठीक उसी तरह आजाद भारत का एक तथाकथित प्रतिष्ठित और शारीरिक रूप से आजाद तथा मानसिक रूप से अंग्रेजी का गुलाम वर्ग भी शायद यह नहीं चाहता कि भारत की आम जनता को उसकी जन भाषा में उपरोक्त सभी जटिल भाषाई पहलुओं के साथ जटिल विषयों का ज्ञान प्राप्त हो जाए। यदि ऐसा हुआ तो सभी व्यक्ति कानून के अच्छे खासे जानकार हो जाएंगे। सभी को चिकित्सा संबंधी और राजस्व संबंधी सूक्ष्म से सूक्ष्म जानकारियां स्वयं प्राप्त हो जाएगी।

आम जनता का मेहनती और बुद्धिमान बच्चा बड़े-बड़े ओहदों को प्राप्त कर लेगा। जनता इतनी चालाक हो जाएगी कि वह हुक्मरानों, अफसरानों और बड़े – बड़े कारोबारियों के नको दम कर देगी। अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। इसके बिना आज की दुनियां में जीना असंभव है। आदि – आदि बातें इतनी ज्यादा सशक्त नहीं है, जीतने की इन तथाकथित अंग्रेजी मानसिकता के गुलाम लोगों के निजी स्वार्थ है।

शिक्षा संबंधी एक बार खड़ी करना चाहते हैं।

ये लोग जानबूझकर आम जनमानस और विशिष्ट जनमानस के बीच में शिक्षा संबंधी एक बार खड़ी करना चाहते हैं ताकि इनकी और इनके परिवारों की प्रतिष्ठा और विशिष्टत्व बना रहे। बाकी जनमानस इनके आगे हाजिर सलामी करता रहे। यदि ऐसा नहीं है तो फिर विश्व के अनेक विकसित देशों के लोग अपनी भाषा को महत्व देकर तरक्की क्यों कर रहे हैं।

उदाहरण के तौर पर हमारे पड़ोसी देश चीन को ही लिया जाए। क्या वह वैश्विक धरातल पर खड़ा नहीं हुआ है? खड़ा होना ही नहीं बल्कि उसे तो वैश्विक धरातल पर दौड़ना आता है।

यह बात अलग है कि आज वह करोना, सीमा विवादों, तथा कूटनीतिक राजनीतिक हलचलों के चलते चौतरफा घिरा हुआ है, परंतु इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि उसने आज जो तरक्की प्राप्त की है वह अपनी भाषा के बलबूते ही प्राप्त की है।

उसने सूक्ष्म से सूक्ष्म विज्ञान को अपनी जन भाषा में लोगों को मुहैया करवाया और प्रत्येक व्यक्ति को इतना दक्ष बनाया कि वह छोटे से लेकर बड़ा प्रोडक्ट तैयार करने के लिए सक्षम है।

हमारे भारत में हमारे बच्चों की आधी जिंदगी तो अंग्रेजी सीखने में ही गुजर जाती है। जब उसे अंग्रेजी का थोड़ा बहुत ज्ञान होता है तो तब वह कहीं वैज्ञानिक पहलुओं को समझने लगता है। जितने को वह इन वैज्ञानिक पहलुओं की थोड़ी सी समझ तैयार करता है, उतने को उसकी जिंदगी ढल चुकी होती है।

मुझे राष्ट्रभाषा का दर्जा दो।

हमारी तो आज हालत यह है कि हम न तो अंग्रेजी के हो पा रहे हैं और न ही हिन्दी के रह गए हैं। हिंदी ने हर भाषा को अपने भीतर समेटा। तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशी आदि विशाल शब्दकोश के साथ अब हमारे सामने खड़ी है। हमें पुकार रही है कि “मैं तुम्हारे हिसाब से हर तरह से ढलने को तैयार हूं, पर तुम मेरा दर्द समझो और मुझे राष्ट्रभाषा का दर्जा दो। मुझे हजारों सालों से आक्रांताओं के द्वारा कुचलने की पूरी कोशिश की गई, पर मैं तुम्हारे लिए आज तक जिंदा हूं।”

दुख तब होता है जब आजादी के इतने लंबे दौर के बाद भी हम अपने देश की जन भाषा को राष्ट्रभाषा का सम्मान नहीं दे पा रहे हैं। माना कि उस दौर में सब कुछ अंग्रेजी में और मुगलिया सल्तनत की भाषा शैली में प्रारूपित था। उस सब को एकदम से तब्दील नहीं किया जा सकता था।

परंतु आज तक तो धीरे-धीरे सब कुछ बदला जाना चाहिए था ना। फिर क्यों नहीं बदला गया? क्या यह एक साजिश है? ऐसे बहुत सारे सवाल आज की नई पीढ़ी के भीतर घर कर रहे हैं। हमारी हालत आज ऐसी हो गई है कि एक वाक्य में यदि चार शब्द हम अंग्रेजी के रूआब झड़ने के लिए बोलना शुरू करते हैं तो हर पांचवा शब्द हिन्दी का बोलना ही पड़ता है।

यह हालत बड़े से बड़े तथाकथित विद्वानों की भी कई बार हो जाती है। ऐसे में क्यों फिर यह बवंडर बना कर रखा है? क्यों न हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्रदान करके भारतीय जनमानस के शैक्षिक धरातल पर प्रस्तुत किया जाता है? ताकि आम व्यक्ति लूटने से बचे और अपने भारत के पुरातन विज्ञान को अपनी जन्म भाषा में खंगाल कर भारत को पुनः विश्व गुरु के स्थान पर स्थापित कर सकें।

विश्व में शिक्षा के क्षेत्र में एजुकेशन हब।

हम इतिहास को जानते है। हमें यह मालूम है कि एक समय भारत और चीन दो ऐसे देश थे जो पूरे विश्व में शिक्षा के क्षेत्र में एजुकेशन हब माने जाते थे। भारत की तक्षशिला और नालंदा यूनिवर्सिटी पूरे विश्व में शिक्षा के लिए विख्यात थी।

क्या वहां पर उस दौर में अंग्रेजी में शिक्षा दी जाती थी? नहीं ऐसा नहीं है। यदि उस दौर में हमारी जन भाषा में या फिर संस्कृत में शिक्षा ग्रहण करने लोग बाहर से हमारे देश में आते थे, तो आज भी आ सकते हैं।

परंतु इस सब के लिए राजनीतिक दृढ़ इच्छाशक्ति का होना और भारतीय जनमानस को अंग्रेजी मानसिकता की गुलामी से मुक्त करवाना बहुत जरूरी है। चीन ने तो अपनी भाषा को आज तक बनाए रखा है, इसीलिए वह आज विकसित की श्रेणी में है शायद। और एक हम हैं कि अपनी भाषा को तवज्जो ही नहीं देना चाहते।

आज लोग अधिकतर मैकाले को ही हिन्दी की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। मैं कहूंगा इसमें न तो अंग्रेजी का दोष है और न ही तो मैकाले का। वे दोनों सन 1947 में भारत छोड़कर चले गए थे। फिर क्यों आजाद भारतीयों ने उनके द्वारा स्थापित किए गए मापदंडों को हारिल की लकड़ी की तरह पकड़ के रखा?

क्या हमारे आजाद देश की राजनीति, व्यवस्था और जनता इतने आलसी हो गए कि आजादी के 74 साल बीत जाने के बाद भी उन अंग्रेजों और मुगलों द्वारा प्रतिस्थापित किए गए मापदंडों को हटाकर हिंदी में प्रतिस्थापित नहीं कर सके? यह दोष न मुगलों का है और न ही तो अंग्रेजों का है।

यह हमारी राजनैतिक और व्यवस्था जनक साजिशों का परिणाम है। आज पार्टियां भले ही एक दूसरे के सिर पर इस बात का ठीकरा फोड़ती हो। परंतु यह कटु सत्य है कि ये सब पार्टियां सत्ता में बारी बारी से आ चुकी है। सब का यही परिणाम है। इसके लिए जनता भी कम उत्तरदाई नहीं है।

विदेशों में प्रतिष्ठित लोगों के घरों में भी अपनी भाषा की पत्रिकाएं और समाचार पत्र पढ़ने को मिलेंगे। एक हमारा देश है, जिसमें बड़े – बड़े घरानों में अपनी भाषा के पत्र – पत्रिकाओं के स्थान पर अंग्रेजी भाषा के अखबार या पत्रिकाएं पढ़ने को मिलेंगे। हमारे भारत के उच्च मध्यवर्गीय या फिर उच्च वर्गीय लोग तो इसको अपनी शान समझते हैं और हिन्दी में कुछ पढ़ना – लिखना अपनी तौहीन समझते हैं।

यह भी सत्य है।

यह भी सत्य है कि देश की सत्ता और व्यवस्था में इन्हीं लोगों का सिक्का चलता है। आम जनता का उसमें कोई लेना-देना नहीं होता। वह तो महज वोटर थी, है और रहेगी शायद।

फिर क्यों जनाक्रोश का बहाना बनाकर हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया जाता? यदि ये तीन समुदाय के लोग अपनी एंठ और राजनैतिक स्वार्थ छोड़ दें, तो भारत के किसी भी प्रांत और किसी भी धर्म, जाति तथा संप्रदाय के लोग हिंदी को राष्ट्रभाषा स्वीकार करने से कभी मना नहीं करेंगे।

समूची शिक्षा प्रणाली भारतवर्ष में हिंदी होना चाहिए।

वैश्विक धरातल पर आज हिंदी का बोलबाला धीरे-धीरे हो रहा है। हमारे कई कवि महोदय और धर्मगुरु विदेशों में अपने धर्म का प्रचार – प्रसार और कविताओं का प्रचार – प्रसार करने जाते हैं।

करोड़ों की तादात में लोग विदेशों में भी उनके अनुयाई बन चुके हैं, तो फिर हमारी सरकारें और व्यवस्थाएं यह कैसे कह सकती है कि हिन्दी वैश्विक धरातल पर प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकती? अंग्रेजी पूरे विश्व की भाषा है, इसलिए इसे महत्व देना ही होगा।

इन प्रचार – प्रसारों से यह स्वयं ही सिद्ध हो जाता है कि हिन्दी कमजोर नहीं है, कमजोर है तो वह है हमारी अपनी मानसिकता। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनने की राह में यदि कोई रोड़ा है तो वह हमारी अंग्रेजी की गुलाम मानसिकता ही है, दूसरा कोई नहीं है।

अंग्रेजी बुरी नहीं है और न ही तो कोई दूसरी भाषा बुरी है। परंतु मेरे कहने का अर्थ यह है कि इन भाषाओं को मात्र एक विषय के रूप में, अन्य भाषाओं को सीखने की दृष्टि से स्कूलों कालेजों में पढ़ाया जाना चाहिए।

न कि इन्हें समूची शिक्षा प्रणाली का माध्यम बनाना चाहिए। समूची शिक्षा प्रणाली का यदि कोई माध्यम हो, तो भारतवर्ष में वह हिंदी होना चाहिए। मुझे नहीं लगता कि ऐसा करने से देश को कोई घाटा होगा बल्कि उल्टा मुनाफा होगा।

नई शिक्षा नीति।

आज जो नई शिक्षा नीति भारत में अधिसूचित की गई है उसमें प्रारंभिक स्तर पर स्थानीय भाषाओं को महत्त्व जरूर दिया गया है, परंतु हिन्दी को पूर्ण मान – सम्मान वहां भी नहीं मिल पाया है।

उच्च शिक्षाओं की किताबे फिर से उन्हीं जटिल भाषा और शिल्प में ही पढ़नी पड़ेगी। एक लंबे अरसे के बाद बड़ी जद्दोजहद के बाद भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने इस मसौदे को मंजूरी दी। पर उस मंजूरी में भी हिन्दी को न्याय नहीं मिल सका। प्रारंभिक स्तर में तो पहले भी ऐसी व्यवस्था थी।

हम लोगों ने अंग्रेजी पांचवी या छठी के बाद पढ़ी है। मेरे हिसाब से यह हिन्दी के लिए कुछ ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं हो पाया है। महत्वपूर्ण तो तब होता जब उच्च शिक्षा व्यवस्था में भी हिन्दी भाषा में ही शिक्षा देने का प्रावधान किया जाता। परंतु यह हमारे देश के शिक्षाविदों को और सत्ता धारियों को रास नहीं आया शायद।

आजादी से आज तक निरंतर राष्ट्रभाषा हिन्दी बनने का सपना बहुतों ने संजोया और वह अभी तक संजोया हुआ ही रह गया है। बस उम्मीद बाकी है कि एक न एक दिन यह सपना जरूर पूरा होगा। अब देखना यह है कि इस मुद्दे पर कौन कब क्या करता है? मेरे देश की आम जनता को कब न्याय मिलता है?

नोट: यह आर्टिकल बड़ा है, अगर आप एक बार में पूरा आर्टिकल नहीं पढ़ पा रहे है तो घबराये नही, आर्टिकल के लिंक को अपने लैपटॉप या कंप्यूटर / स्मार्टफोन के ब्राउज़र पर बुकमार्क कर ले, जिससे आप इस आर्टिकल को दो से तीन बार में पूरा पढ़ ले।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

—————

  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से बखूबी समझाने की कोशिश की है – हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने की राह में आखिर कब तक रुकावट आता रहेगा। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का कब और किसके द्वारा क्या प्रयास हुआ, इसका विस्तार से वर्णन किया है। हिन्दी भाषा के महत्व को भी समझाया है, सभी जानते है की भारत देश में एकमात्र हिंदी भाषा ही राष्ट्रभाषा बनने लायक हैं। आखिर क्यों हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं बनाया जा रहा है। क्यों हम अंग्रेजो की बनाई हुई नीति को आज तक ढ़ो रहे है। अपने आप से हम सभी क्यों प्रश्न नहीं करते की – मानसिक रूप से आज भी हम अंग्रेजी के गुलाम क्यों है। बहुत जल्द हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना ही होगा, इसके अलावा और कोई चारा नहीं है। किसी भी देश के विकास के लिए एक राष्ट्रभाषा का होना बहुत जरूरी है।

—————

यह लेख (हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने की राह में कौन बना है रोड़ा?) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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