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विरह की दुनिया

विरह की दुनिया।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ विरह की दुनिया। ♦

ये संसार भी अजब गजब बातों का मेला।
भीड़ में रहकर भी हर इंसान है अकेला॥

जग एक है पर इसमें दुनिया बसी अनेक।
अपना एक अलग ही संसार बसाए है हरेक॥

कहीं खुशी, कहीं सपनों की, कहीं दुनिया गम की।
कहीं हँसी की, कहीं आँसुओं से आँखें नम की॥

कहीं अरमानों की, कहीं जज्बातों की।
कहीं पर शबाब में डूबी रातों की॥

इच्छाओं की माया नगरी का कितना सुंदर रूप।
जो पल – पल बदले अपने कितने स्वरूप॥

आओं एक ऐसी दुनिया की बात बताते है।
जिसकी मंजिल नही फिर क्यूँ राह बनाते है॥

यहाँ विरह का संसार बिल्कुल ही निराला।
रोने की पुकार नही लगा जुबाँ पर ताला॥

विरह की वेदना तो इंसान को खाये।
जब दुख सहा भी न जाये, कहा भी न जाये॥

जब दिल में बसी हो विरह की वेदना।
क्यूँ खत्म हो जाये सब अंतर्मन की चेतना॥

जो चांदनी हर वक्त रही शीतलता बरसाये।
अब वही नागिन जैसी डसने को आये॥

आँखों में हो जाता आसुंओ का बसेरा।
न जाने कहाँ खो जाता खुशी का सवेरा॥

विरह से तो फूलों की भी बदले बहार।
खुशी भी दिखाए फिर अपने नखरे हजार॥

जब विरह बिछोड़े का दिल में समाये।
सारी दुनिया ही बेमानी हो जाये॥

सबसे ज्यादा विरह की अग्नि वो तड़पाये।
जब इंसान पास रहकर भी दूर हो जाये॥

सच ही है जो हर पल नजर आए हसीन।
नजरिया ही बदल जाये जब दिल हो गमगीन॥

विरह की अग्नि दिल को पल-पल झुलसाय।
फिर किसी जल से ये बुझने न पाए॥

बस ऐसे विरह को तो रब ही दूर करे।
जब मिलन के किसी अहसास को दिल से भरे॥

कभी ये बिछोड़ा किसी के जीवन में न आये।
जो भूख – प्यास की सुध – बुध दे भुलाये॥

विरह को अपनी जिंदगी में न बसाना इस कदर।
काट डाले जो इंसान की खुशियों के पर॥

♦ सुशीला देवी जी – करनाल, हरियाणा ♦

—————

  • “श्रीमती सुशीला देवी जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस कविता के माध्यम से समझाने की कोशिश की है — आजकल के मानव एक ही परिवार में रहते हुए भी सभी परिवार के सदस्य एक दूजे से काफी दूर हो गए हैं। मोबाइल इंटरनेट की वर्चुअल दुनिया में इस कदर डूब गए हैं की उनके आसपास क्या हो रहा है उन्हें बिलकुल भी नही पता हैं। आधुनिकता के दौड़ में इस कदर अंधे हो गए है की सही व गलत का फर्क भी नही कर पाते, काम वासना के वशीभूत होकर अपना, परिवार का व समाज और अपने देश का सर्वनाश कर रहे हैं। अगर इसी तरह चलता रहा तो एक सदी के अंदर ही – संस्कार, संस्कृति व सभ्यता, सत्य कर्म, धर्म बिलकुल ही ख़त्म हो जायेगा। सब के सब धर्मभ्रष्ट व कर्मभ्रष्ट, विकारी हो जायेंगे। चारों तरफ पूरी पृथ्वी पर त्राहिमाम-त्राहिमाम होगा, सभी मन से पूर्ण अशांत होंगे। अब भी समय हैं हे मानव सुधर जाओ वर्ना, पछताने के अलावा कुछ भी नहीं बचेगा।

—————

यह कविता (विरह की दुनिया।) “श्रीमती सुशीला देवी जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे।

आपका परिचय आप ही के शब्दों में:—

मेरा नाम श्रीमती सुशीला देवी है। मैं राजकीय प्राथमिक पाठशाला, ब्लॉक – घरौंडा, जिला – करनाल, में J.B.T.tr. के पद पर कार्यरत हूँ। मैं “विश्व कविता पाठ“ के पटल की सदस्य हूँ। मेरी कुछ रचनाओं ने टीम मंथन गुजरात के पटल पर भी स्थान पाया है। मेरी रचनाओं में प्रकृति, माँ अम्बे, दिल की पुकार, हिंदी दिवस, वो पुराने दिन, डिजिटल जमाना, नारी, वक्त, नया जमाना, मित्रता दिवस, सोच रे मानव, इन सभी की झलक है।

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