Kmsraj51 की कलम से…..
♦ शास्त्र सम्मत गुरु महिमा। ♦
श्री सद्गुरु देवं, परमानंद, अमर भक्ति अविनाशी।
निर्गुण निर्मूल, स्थूल जगत, काटत शूल भाव भारी॥
हिंदू धर्म एक जगत रहस्यों से परिपूर्ण धर्म है। इस धर्म नें सभी परंपराएं, रीति- रिवाज, सिद्धांत, दर्शन और ज्ञान-विज्ञान के रहस्य को अपने आप में समाहित है। हजारों हजार बरसो की परंपराओं में वैदिक, वैष्णव, शैव, शक्ति, नाथ, संत, स्मार्त, आदि अनेक संप्रदाय के मठ – मंदिर, सिद्धपीठ, ज्योतिर्लिंग और गुफाएं हैं। यह सभी स्थान पुनीत हैं। इन्ही पुनीत स्थानों में ध्यान, तप, भक्ति और क्रिया योग को मत दिया जाता है।
‘विश्वं तद् भद्रं यदवंति देवा:’ (१८.३.२४ अथर्व वेद)
अर्थात देवता जो करते हैं वह हमारे लिए शुभ है।
‘अजं जीवता ब्रहणे देयमाहु:!’ (९.५.७ वही)
जीवित मनुष्य को अपनी आत्मा विश्वास ईश्वरार्पण करनी चाहिए।
‘यदा मागन प्रथमजा ऋतुष्य।’ (९.१०.१५ अथर्ववेद)
सत्य का प्रथम प्रवर्तक परमात्मा भक्त को प्राप्त होता है।
भारत आध्यात्म की राजधानी प्राचीन काल से जी है।
चमत्कारी स्थानों में कुछ नाम इस प्रकार दिए गए हैं।
चमत्कारी स्थानों में कुछ नाम
अमरनाथ का शिवलिंग, अमरनाथ में बाबा की अमर कथा, बाबा अमरनाथ की कहानी, माता ज्वाला देवी, मध्य प्रदेश का काल भैरव, पुरी का चमत्कार मंदिर, मध्य प्रदेश में मैहर माता का मंदिर, केदारनाथ मंदिर, रामेश्वर का मंदिर, श्री राम सेतु के पत्थर, तटोत माता का मंदिर जहां बम का प्रभाव अक्षम हो गया आदि।
गुरु शब्द का अर्थ – गुरु शब्द का अर्थ प्रथम अक्षर गु का अर्थ है अंधकार। और दूसरे अक्षर रु का अर्थ है उसे हटाने वाला अर्थात प्रकाश। इस प्रकार जो अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर प्रेरित करें वह गुरु कहा जाता है। गुरु सच्चा मार्ग दिखाता है। यथार्थ गीता में श्री सद्गुरु देव भगवान की वंदना करते हुए कहा गया है कि —
भवसागर तारण कारण हे, रविनंदन बंधन खंडन से।
शरणागत किंकर मित मने, गुरुदेव दया कर दीन जने॥
—•—
जय सद्गुरु ईश्वर पापक से, भव रोग विकार विनाशक हे।
मन लीन रहे तव श्रीचरणे, गुरुदेव दया कर दीन जने॥
ईश्वर सभी भूत प्राणियों के हृदय में रहता है। वह अनन्य भक्ति के द्वारा प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से सुलभ है। जो महापुरुष परम तत्व को प्राप्त कर लेता है वह स्वयं में ही धर्म ग्रंथ है। भारत में जितने शास्त्र पुराण हैं उनके कुछ नियम बताएं गए हैं। हम सभी का धर्म है कि उन नियमों को पालन करें। गुरु का कार्य है आध्यात्मिक सामाजिक राजनीतिक समस्याओं का निराकरण करना और कराना।
विदुर कहता है कि —
राजन! ये दो प्रकार के पुरुष स्वर्ग से ऊपर स्थान पाते हैं। शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करने वाला और निर्धन होने पर भी दान देने वाला। आगे कहता है कि जो बहुत धन विद्या तथा ऐश्वर्य को पाकर इठलाता नहीं, वह पंडित कहलाता है। (पृष्ठ ६,२० विदुर नीति)
गुरु ब्रहमा गुरु विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर:।
गुरु साक्षात परम् ब्रह्म तस्मै गुरवे नमः॥
ऐसी श्लोक में गुरु को ईश्वर से भी ऊंचा पदवी दी गई। जबकि गुरु ईश्वर के विभिन्न रुपों जैसे – ब्रह्मा, विष्णु, एवं महेश्वर के रूप में स्वीकार्य है।
यही बनाने वाले हैं, यही पालन करता है, और यही संहार भी करते हैं।
जबकि लोक प्रचलन में है कि —
राम कृष्ण सबसे बड़ा
उनहूं तो गुरु कींन्ह।
तीन लोक के वे धनीं
गुरु आज्ञा अधीन॥
गुरु गुढ तत्व जानता है। सभी शास्त्र गुरु तत्व की प्रशंसा करते हैं। संपूर्ण जगत में गुरु के गुणों की व्याख्या विद्यमान है।
संत कबीर लिखते हैं कि —
हरि रुठे गुरु ठौर है,
गुरु रुठे नहीं ठौर।
कहने का तात्पर्य है कि एक बार गुरु रुठ जाए तो कहीं जगह नहीं मिल सकती है। परंतु ईश्वर के रुठ जाने पर सद्गुरु रास्ता बना देता है और धर्म मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है।
‘सज्जन अंगीकृत कियो,
ताकों जेहिं निबाहि।
राखि कलंकी कुटिल ससि,
त उ सिव तजत न ताहि॥
(पृष्ठ १७, सुबोध दोहे 47कवि वृंद)
सज्जन पुरुष जिसे अपना लेता है, उसे वह सदा निभाता है।
चंद्रमा को शिव जी कभी त्यागते नहीं, यद्यपि वह कलंकित हैं।
गुरु का कर्तव्य है कि वह अपने भक्तों को सभी शिक्षा में पारंगत करें। यद्यपि गुरु ज्ञान को विकसित करता है। वह धर्म शास्त्रों के अनुसार अस्त्र शास्त्र विद्या में पारंगत करता है। योग साधना और यज्ञ से वातावरण को शुद्ध करने का उपाय करता है।
‘अयं यज्ञो गातुविद् नाथविद् प्रजावित्’
(अथर्व वेद ११.१.१५ )
यह यज्ञ मार्गदर्शक, शरणदाता और सुसन्तति दाता है।
यह यज्ञ सारे संसार का केंद्र है तथा –
‘अयं यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभि:’!
और आचार्य स्वयं संगम से रहकर शिष्यों को चाहता है।
यथा – आचार्यों ब्रम्हचर्येण ब्रह्मचारिण मिच्छते। (वेदा अमत पृष्ठ 324)
संगृह्याभि भूत आ भर। (वही 325)
तेजस्वी शिक्षक ज्ञान संग्रह करके शिशु में भर देता है।
प्राचीन काल में शिक्षक को ही आचार्य अथवा गुरु कहा जाता रहा है। उस काल के लोग 8 वर्ष से 25 वर्ष तक गुरुकुल में रहकर शिक्षा ग्रहण करते थे। शिक्षा प्राप्ति के समय ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। सभी वर्गों को शिक्षा का अधिकार होता था।
एक रचना प्रस्तुत है —
ध्वज आरोहण कर रहा,
वाणी में अमृत भर रहा।
ढाढस देता शिशिर सिंधु,
कण कण सिंचित ईश इंदु।
देवर्षि आकर स्वर दिया,
वेदोक्त में ऐसा लिखा।
क्षण विलंब अनर्थ न हो,
पूर्णिमा यह व्यर्थ ना हो।
जिस प्रकार विश्व विष्णु से व्याप्त है। वैसे ही सर्व शास्त्र पुराण आदि 10 अक्षरों से व्याप्त है। यथा —
मन भय जर संत गल,
सहित दश अक्षर इन्हीं सोहिं।
सर्व शास्त्र व्यापित लखौं,
देश्व विष्णु से ज्योंहि॥
(काव्य प्रभाकर, जगन्नाथ प्रसाद जगन्नाथ प्रसाद भानु कवि पृष्ठ 14)
शास्त्रों में माता-पिता गुरु आचार्य और अतिथि, इसको देव तुल्य माना गया है। उपनिषदों में कहा गया है कि—
मातृ देवोभाव:
पितृ देवो भव:
आचार्य देवो भव:
अतिथि देवो भव:
यानी माता पिता तथा गुरु और आचार्य इस संसार में प्रत्यक्ष चार देव रूप हैं। इनका स्थान क्रमानुसार बताया गया है।
कथन में कदाचित आता है कि शास्त्र अध्ययन में नारी को वंचित किया गया है तो यहां वाल्मीकि आश्रम में लव कुश के साथ आत्रेयी नामक स्त्री ने भी शिक्षा ग्रहण की तो कैसे कहा जा सकता है कि स्त्रियों को शास्त्र पढ़ने से वंचित किया गया था।
पुराणों में स्त्रियों के बारे में कहा गया — पुराणों में सुजाता, प्रमद्वरा, रहु, कद्योत, आदि की कथाएं भी वर्णित हैं।
कहा गया है कि आश्रमों में बालक और बालिका एक साथ पढ़ते थे। उनका विवाह उचित समय पर होता था। गुरुकुल में शास्त्र और शस्त्र की शिक्षा भी दी जाती थी, साथ ही साथ वेदों का भी अध्ययन कराया जाता था।
सद्गुरु की खोज में कवि अखा — अहमदाबाद के जेतलपुर गांव का विक्रम संवत 1604 या 1653 में पैदा हुए इनके बारे में लिखा गया है। ‘ज्ञाति से सुनार, कुल धर्म से वैष्णव, विद्या व्यासंग से वेदांती, और नयसर्गिक रसिका के कवि था।’ ( पृ० ४, अखा की हिंदी कविता)
सद्गुरु की खोज में जमीन जागीर बेचकर एक कमरा सुरक्षित छोड़कर सतगुरु की खोज में निकल पड़ा। (वही पृष्ठ 5)
अखा पर एक रचना प्रस्तुत करता हूं —
पर्याप्त द्रव्य लेकर, आस पास खोजा।
मन नहीं माना, दूर यात्रा धामों में चला।
साधुओं की जमात की, तीर्थों में घूम रहा।
भजन कीर्तन करता, मन भजन में रमाते।
घुमा गोकुल, गोकुलनाथ शरण पहुंचा।
संप्रदाय में करूं साधना, सिद्धि की आस लिए वेदना।
श्री गोकुलनाथजी वैष्णवी दीक्षा, ब्रह्म संबंध की मिली भिक्षा।
भांति – भांति परिचित हुआ, मिली भक्ति में मस्ती।
तत्व ज्ञान की जिज्ञासा, शांति की मन में लिए आशा।
शांति फिर भी नहीं मिली, काशी जाने की उपजी जिज्ञासा।
मणिकर्णिका घाट पर पहुंचा, छोटे आश्रम में क्षमता देखा।
संत देव देख मन में जिज्ञासा, यही ब्रह्म ज्ञानी मीटावेंगे निराशा।
मधुर वाणी का रसपान हुआ, झंकृत वाणी गुण गान किया।
दीवार की ओट में रात्रि बिताया, यही मेरे गुरु हैं कहकर आया।
मानसी दीक्षा लिया और चला, ब्रह्मानंद को जपता रहा।
निज गुरु फिर मान लिया, ब्रह्मानंद सरस्वती से ज्ञान लिया।
स्पष्ट नाम निर्देशित नहीं किया, गुरु के कृपा ने जीवन जिया।
(स्वरचित रचना साभार पृष्ठ 5 से 10 तक अखा की हिंदी कविता)
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गुरु रूप गोस्वामी तुलसीदास ग्रंथावली में वर्णित कुछ पंक्तियां —
भवानी शंकरौ वंदे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।
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वंदे बोधगम्यं नित्यं गुरुं शंकर रुपिणं।
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वंदे विशुद्ध विज्ञानौ कवीश्वर कपीश्वरौ।
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वंदेहं तमशेषकारण, परं रामाख्यमीशं हरि।
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भक्तवर सूरदास के सुबोध पद से वंदना प्रस्तुत है —
चरण कमल बंदौं हरि राई।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै,
आंध र कों सब कुछ दरसाई।
बहिरो सुनै मूक पुनि बोलैं,
रंक चले सिर छत्र धराई।
सूरदास स्वामी करुणामय, बार बार बंदौं तेहि पाई।।
गुरु ज्ञान को देने वाला है गुरु सम्मान को दिलाने वाला है गुरु महान है। गुरु ज्ञाता होता है। गुरु सर्वदाता होता है। गुरु देवताओं से साक्षात्कार कराता है। गुरु समाज में उन्नति दिलाता है। गुरु उन्नति के मार्ग पर ले जाता है। इसलिए मनुष्य जाति को सद्गुरु की शरण में रहना चाहिए। सद्गुरु सर्व ज्ञाता होता है।
♦ सुखमंगल सिंह जी – अवध निवासी ♦
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— Conclusion —
- “सुखमंगल सिंह जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस लेख में समझाने की कोशिश की है — प्राचीन काल में शिक्षक को ही आचार्य अथवा गुरु कहा जाता रहा है। उस काल के लोग 8 वर्ष से 25 वर्ष तक गुरुकुल में रहकर शिक्षा ग्रहण करते थे। शिक्षा प्राप्ति के समय ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। सभी वर्गों को शिक्षा का अधिकार होता था। इस संसार में प्रथम गुरु तो माँ ही हैं। गुरु हमें जिंदगी में एक जिम्मेदार और अच्छा इंसान बनाने में हमारी सहायता करते हैं। वही हमें जीवन जीने का असली तरीका सिखाते हैं; और वही हमें जीवन के राह पर ता-उम्र सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं। गुरु हमें अंधकार भरे जीवन से निकालकर प्रकाश की ओर ले जाते हैं। गुरु एक दीपक की भांति होता है जो अपने शिष्यों के जीवन को प्रकार से भर देते हैं। विद्यार्थी जीवन में गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
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यह लेख (शास्त्र सम्मत गुरु महिमा।) “सुखमंगल सिंह जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें, व्यंग्य / लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी कविताओं और लेख से आने वाली पीढ़ी के दिलो दिमाग में हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम बना रहेगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे, बाबा विश्वनाथ की कृपा से।
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