Kmsraj51 की कलम से…..
♦ शोर मचाती जब-तब। ♦
गा रहे पल हरदम,
गुनगुनाती सी शाम है।
उजाले में कशमशा कर,
मचाती शोर जब-तब।
दूर किसी झरोखे से झाँक,
देख रही सदा ये जिंदगी।
कानों में आ-आकर,
कहती कथा कोई पुरागी।
रहती ओट में सदा,
लुक-छिपकर कोलाहल करती है।
अंत:करण की मूक आवाजें,
कलरव करती साँसों में।
थम-थम सी जाती धमनियों को,
चेता जाती आती-जाती आहों में।
खामोश रहती चुपचुप,
गुमसुम-सी चंचल रहती है।
झुरमुट की झँझरी छिदी-छिदी,
झरझर हो गई प्रत्याशा।
क्षणभंगुर-सा जीने को,
राग वेदना गाती शाशा।
सरगम के सुर-तालों में,
वेदना व्यथा बतलाती है।
नोट: शाशा – मनमुख(मन), पुरागी – दफन।
(ये शब्द मैनें कबीलाई भाषा से ली है।)
♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦
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यह कविता (शोर मचाती जब-तब।) “सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल’ जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।
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