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KMSRAJ51-Always Positive Thinker

“तू ना हो निराश कभी मन से” – (KMSRAJ51, KMSRAJ, KMS)

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You are here: Home / Archives for सतीश शेखर श्रीवास्तव – परिमल

सतीश शेखर श्रीवास्तव – परिमल

इक प्रयास।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ इक प्रयास। ♦

इक प्रयास। / पार्ट – 3

इक प्रयास (एक प्रयास)।

कभी नहीं पाला मैनें, ‘परिमल’ ऐसा रोग,
दिल्लगी सबके साथ है, नेकी अपने लोग।

कटोरा जिसके हाथ में, घर-घर माँगे खाय,
जिसके हाथ कट गये, वे कहाँ हाथ फैलाय।

माने तो सब बावले, आशिक मजनूं हीर,
उन्हें पगला न कहिये, जाने उनके हृदय पीर।

आगार अपना तो भर लिया, लंबा मारा हात,
कहता सबसे फिरे, धरम करम की बात।

मैं थककर चूर हुआ, तू भी थककर चूर,
तेरा दर तो आ गया, मेरी मंजिल अभी दूर।

भव की चिंता वो करे, जिसको जग से प्यार,
मैं बेजार हो चुका सबसे, सब मुझसे हैं बेज़ार।

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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यह कविता (इक प्रयास। / पार्ट – 3) “सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल’ जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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©KMSRAJ51

जैसे शरीर के लिए भोजन जरूरी है वैसे ही मस्तिष्क के लिए भी सकारात्मक ज्ञान और ध्यान रुपी भोजन जरूरी हैं।-KMSRAj51

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“सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

“अगर अपने कार्य से आप स्वयं संतुष्ट हैं, ताे फिर अन्य लोग क्या कहते हैं उसकी परवाह ना करें।”~KMSRAj51

 

 

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Filed Under: 2023-KMSRAJ51 की कलम से, हिंदी कविता, हिन्दी-कविता Tagged With: kavi satish shekhar srivastava parimal, poem on life in hindi, Satish Shekhar Srivastava 'Parimal', इक प्रयास पार्ट – 3 – सतीश शेखर श्रीवास्तव परिमल, कवि सतीश शेखर श्रीवास्तव – परिमल, जीवन एक चुनौती पर कविता, जीवन मूल्य पर कविता, वर्तमान समाज पर कविता, संघर्षमय जीवन पर कविता, सतीश शेखर श्रीवास्तव – परिमल

मिले न मुझको सच्चे मोती।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ मिले न मुझको सच्चे मोती। ♦

वन शहर गाँवों में ढूँढ़ा मैनें,
खोजा सागर – तल की गहराई में।
बहुत मिले जन लोग – लुगाई,
पर मिले न मुझको सच्चे मोती।

सिंधु शहर में कोलाहल था,
थलचर जलथल में उछल रहे थे।
इक – दूसरे को निगल रहे,
सगे-संबंधी जीवन से खेल रहे थे।
निज स्वारथ के मनन का,
गठरी दिखी चिंतायें ढोती।

उलझे – उलझे जीव जनावर थे,
चिकनी – चिकनी संवादों में।
भागम – भाग दौड़ लगाती थी,
समर सिंधु के रहने वालों में।
खुद अपने में ही खोई थी,
हर प्राणी की जीवन – ज्योति।

खोज रहा था मैं भव-सुदामन से,
सुनहली चमकीली नग निकाली।
परन्तु सभी पाहन छलिया थी,
रूप – रंग से छलने वाली।
उद्विग्न – घायल आस रह गई,
मन सँजोती सपन धीरज खोती।

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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यह कविता (मिले न मुझको सच्चे मोती।) “सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल’ जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

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सूना-सूना दूर गगन है।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ सूना-सूना दूर गगन है। ♦

प्रेम के धागे टूटे, टूटा रक्त का संबंध,
बोलते मुखड़े पर, सूना-सूना दूर गगन है।

रुनझुन गाती भोर है,
दालान की साँझ सुहानी।
कच्ची गलियाँ गाँवों की,
बन गई बिसरी कहानी।
घनी छाँव पीपल की,
ढूँढ़ता श्रापित मन है।

रसभरी अमराईयों की,
वेदना प्राणों में जन्मती।
रह गये आँखों में अश्रु अकेले,
खोजती अँखियां नेह प्रीति।
हाय! बेचैनियाँ अधरों पर,
मोह यादों की चुभन है।

रहा मानस के जंगल में,
पहन स्वांगों के मुखौटे।
हर दिन ताजा चोट लेकर,
किंवाड़ पीछे साँझ लौटे।
कुहासों में घुली साँस है,
घावों की थकन पाँव में है।

निरर्थक सी जिंदगी को,
जी रही गुमसुम उदासी।
श्याम-शित पन्थों पर भटकती,
पी कोलाहल की आशा प्यासी।
अनुरक्ति में कसमसाता वह,
आज तक लड़कपन है।

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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बीते काल की थकन।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ बीते काल की थकन। ♦

तू चल नये आगाज,
मिटा अपने तन-मन की थकन;
कर कथन अपने मन,
क्षुधा लिप्सा को कर अंतर्मन।
रे पंछी! न परवाज कर,
छोड़ अपने नीड़-चमन।

इस सृष्टि का कहीं न अन्त,
तू विश्राम कर आना – जाना।
पंखों को ले अपने समेट,
थकन तू अपनी ले मिटा।
रे तरंग! न सहला चल,
तू गुदगुदाते अपने पन्थ।

दिखे सब में प्रीति नेह विश्वास,
तटनी की भूल भुला दे।
वो कौन एक है जो,
छोड़े अपने शीलपन।
रे पवन! न हहर चल तू,
मौन हो संग-संग।

जग द्रोह से है भरा,
मोह तू छोड़ जरा।
ज्ञान-विज्ञान के लिये लड़ा,
क्यूँ जीवन – प्राण से भिड़ा।
प्रचंड प्रज्वलित रहा,
खुद में आनंद प्रसन्न रहा।
रे अंतस्! न विलासी तू,
तापस अंग को सुसुप्त कर।

जीवन का सकल आसय,
न ढो अब भ्रमित भाव से।
निष्कर्ष तू निकाल अभी,
मन को न तोल हार-जीत से।
अनगन न कर,
महा-वृन्त तू बन।
रे स्वरूप! न बिगाड़ तू,
संवार निरता का कर सृजन।

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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मैं तो बस इक बूँद हूँ।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ मैं तो बस इक बूँद हूँ। ♦

छलके हृदय में अमृत कलश,
अंत: करण में बहता गरल है।
मैं तो बस इक बूँद हूँ जग में,
क्षुद्र बस इस भव समुद्र का।

देखता मुख धवल पूरणमासी का,
उल्लासित हो उठी उमंगें।
उछली आतुर हो नीलगगन तक,
मधुर मिलन को तरल तरंगें।
जन्मों – जन्म की पिपासा लिये हूँ,
तृष्णा जीवन भर का।

अश्रुकण – सा मेरा जीवन सारा,
भरा खारापन इसमें इसलिये है।
पीकर मैंने कई अग्नि-शिखायें,
भू – धात्री पर जीवन दिये हैं।
अखिल सृष्टि को द्रवित पाशों से,
दिये अनुपम मणि सौंदर्य का।

जीवन लहरों में भरा कोलाहल है,
तलहटी पर मंडलाकार भँवर चलते।
डूबते उतराते रहते हैं इसमें,
हृदय में अनगिनत सपने पलते रहते।
हमनें व्यथा व्यक्त की हर पल,
गर्जन – तर्जन कर भूमण्डल का।

युग – युगान्तों के नवीन संवेदनायें,
चुभते रहे कंटक आँचल में।
अनन्त्य महाविल के इस छाया में,
सजीले रेखाओं के आलेख्य सिमटने में।
सौंदर्यता तो नश्वर है, रहा है कौन अनश्वर सृष्टि का।

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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क्षुधा और असंतुष्ट हो गई।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ क्षुधा और असंतुष्ट हो गई। ♦

उपवन-उपवन के कोंछे में,
तपते अधर पिपासु बन चूमें।
क्षुधा और असंतुष्ट हो गई,
रद् कलियों को जब-जब चूमे।

अधिवासित अलि मदिर अंक में,
बिखरा हुआ मधुर पुष्प-पराग।
जागृत हो उठता गातों में,
ले अँगड़ाई प्रीति अनुराग।
सुधबुध खोई रोम-रोम बहार,
मृदुल प्रमादमयी सुगंधों में।

बार-बार हुआ मन आहत,
लुके – छिपे अनछुये शूलों से।
चुलबुल हृदय हुआ है घायल,
उच्छवासित कलियों से।
तकते-तकते अवलुंचित तितलियाँ,
यह अभिवाँछित चाहें झूमें।

चिर-परिचित कामदूती ये राहें,
करने लगी मन को मोहित नवेली।
उनकी ओर बढ़े कदमों में मैनें,
जन्म-जन्मांतर की वेदनायें झेली।

बिखरे आभास ताकते रहते,
अविरल गिरते आँसू में।
क्षुधा और असंतुष्ट हो गई,
रद् कलियों को जब-जब चूमें।

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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साथी चलता चल।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ साथी चलता चल। ♦

हृदय में ठंडी – ठंडी आहें,
सर पर खुली धूप सुलगती।
नुकीले शूलों से बिंधते पग और,
सीने में तीक्ष्ण कंटक चुभती।
भीग चुका उद्यम फुहारों से,
बिंध-बिंध शूलों के आँचल।

अनन्त अभिशापित पगडंडी है,
कहाँ होगा नया सवेरा।
अंतस् भयाकुल सन्नाटा चिघाड़े,
चेतना काट रही गहन अँधेरा।
कौन बँधाये धीरज उर को,
कौन देगा कदमों को संबल।

रूक्ष कंठों से तपे अधर तक,
श्वांस – श्वांस में जलती ज्वाला।
मिली नहीं मरु में स्रोतस्विनी,
जो कंठों को दे इक बूँद का प्याला।
दिखा नहीं कहीं आशाओं को,
मधुर तृप्ति की बूँद मधुल।

बस बची थोड़ी अँजुल भर राख,
जले सपनों की मेरे पास।
डसती है झूठी कसमें,
अंतस् को अपनों की पल-पल आस।
बह रहा खाली आँखों से,
कतरा-कतरा जल निश्चल।

दूर-दूर तक फैल दुर्गम राहों पर,
शूल – कंटक भरे जंगल।
हर पाँव यहाँ है घायल,
पथ कहे साथी चलता चल।
रुके नहीं बढ़ते चलता चल,
साथी गम की राहों पर अकेला चल।

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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राखी-साखी।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ राखी-साखी। ♦

काव्य : अनुराग उल्लास।

आती है अब तो सज कर बाजार में राखी,
सजकर बड़े प्रीति से बुलाती है मन साखी।
सुनहली पीली लाल बैंगनी अनार सी राखी,
रेवती रोहिणी की बनी अनुपम अनोखी है राखी,
सलोनी सुंदर-सुंदर-सी अनूठी मनोरम है राखी।

उज्जवलित है, कुसुमाकर हेमा और निहार भी,
इतराती मुस्कुराती जाती मुक्तामणि और रेशम भी।
खेल तमाशा कोलाहल कलरव में हर्षित होकर,
वेदना व्यथा पीड़ा को भुला दुआ छागे का देखती,
इंदुरत्नों में पिरोयी प्रीति के तार की राखी।

अनुराग से भरी सावन की पूर्ण-करी ये पावन,
इंदिरा के बहार के कर सजाने ढूंढती फिरती साखी।
घूम-घूम फिरे बाजार-बाजार खोजे नयन बार-बार,
ढूढ़े नजर हर तार के बाजार सुनहरी पीली संसार,
बांधे भैया के हाथों ममता दुलार राखी।

हुई है शोभित सुंदरता और भरपूर हो राखी में,
किन्तु तुमसे अब चैतन्य है कुसुम फूले वो कुछ राखी।
अनुरागी बबूले देख ललिता लगी चुनने तिनके,
सजी हाथों में मेंहदी ने अँगुलियों से नाखूनों तक,
फुलवारी उपवन की बगिया हरियाली की राखी।

अंदाज़ से हाथ उठने में फूल राखी के जो हिलते हैं,
देखने वालों के उर में न जाने कितने फूल खिलते हैं।
यह पहुँचे कहाँ ये कोमल रंग कहाँ मिलते हैं,
सावन की साख पर चमन के हर्ष फूल खिलते हैं,
सद्गुण है चंचल सुमन के कपोल से हैं राखी।

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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  • “सतीश शेखर श्रीवास्तव `परिमल`“ जी ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस कविता के माध्यम से समझाने की कोशिश की है — रक्षाबंधन का त्योहार भाई बहन के पवित्र प्यार का प्रतिक है, जिसे राखी का त्योहार भी कहा जाता है। रक्षा बंधन पर बहन, भाई की कलाई पर राखी बांधती है और उसके दीर्घायु व सुखी जीवन की प्रार्थना करती है। इसके साथ ही बहन अपने भाई से अपनी सुरक्षा का वचन लेती है, की जीवन में जब भी उस पर कोई मुसीबत आएगा उसका भाई उसकी मदद के लिए आ जायेगा। कृष्ण ने फर्ज निभाया भाई का, द्रोपदी बहन की लाज बचाने को। राखी की शक्ति देखो, कृष्ण दौड़े, दुष्टों को मजा चखाने को। रक्षाबंधन हिन्दुओं का प्रमुख त्योहार है, जिसे पूरे भारत समेत अन्य देशों में भी मनाया जाता है।

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यह कविता (राखी-साखी।) “सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल’ जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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“अगर अपने कार्य से आप स्वयं संतुष्ट हैं, ताे फिर अन्य लोग क्या कहते हैं उसकी परवाह ना करें।”~KMSRAj51

 

 

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श्रीगन्ध बयार।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ श्रीगन्ध बयार। ♦

देखो आई श्रीगन्ध बयार रे,
किस दूरागत अनजान दिश से,
अलीयों की बहीर रे,
देखो आई श्रीगन्ध बयार रे।

असन्नद्ध आरस स्मित जोबन सिन,
मदिर शैया पर आसक्त बेजान।
कंपित कुसुमरेणु सा अवसन्न,
पसर गई विभावती चिकुरों की,
मंजरी भरी लर रे।

सार बूंदों का कोमल परस ले,
तिमिरारपु दग्ध फुलवा मुकुलों के,
बिखरा सौरभ का आलोक रे,
पल्लवन अबोध खड़ी सपनों की,
अमल वहती के कूल रे।

वनदेवी के नूतन वनांचल के अनुहार,
हिल रहा धरुण धवल शून्य तिमिर।
खुला धाराधर काल मिहिर-मयंक अनुहार,
कांत-निसर्ग प्राण बन कितने लुढ़क रहे।
क्षीर-वीर्य रे, देखो आई श्रीगन्ध बयार रे।

अर्थ: श्रीगन्ध = चंदन, अलीयों = भौंरा, बहीर = भीड़, कुसुमरेणु = केसर,
चिकुर = बाल(केश), वहती = नदी, धरुण = आग,
क्षीर-वीर्य = आत्मबल, परस = स्पर्श, स्मित = अधखिला पुष्प

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव `परिमल` जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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  • “सतीश शेखर श्रीवास्तव `परिमल`“ जी ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — प्रकृति की सुंदरता देखते ही बनती है हरी-भरी प्रकृति के कारण ही हमारा जीवन इतना अच्छा सरल सुन्दर है। बहती नदी के पानी का कलकल की आवाज मन को सुकून देता है। प्रकति के बीच रहने पर चंदन सा सुगन्धित जीवन व आत्मबल भी तेज होता है। सदैव रंग बदलती यह प्रकृति हर पल मन को भाए, नभ में कभी बादल तो कभी नीला आसमां हो जाए, जो मन को भाये, रूप तेरा (प्रकृति) देख कर हर किसी का मन मोहित हो जाए। प्रकृति हमें सब से प्रेम करना सिखाए। सुन्दर पक्षियों की मधुर आवाज मन को सदैव ही प्रफुल्लित कर जाये।

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यह कविता (श्रीगन्ध बयार।) “सतीश शेखर श्रीवास्तव `परिमल` जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

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कामना।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ कामना। ♦

कामना – पिपासा द्वितीय।

पात रहा श्रीहत पिंडज, अब्धि में निराश्रित,
मेघ पलक में अस्तित् था, रश्मियों का संङ्घात।
कृति का अभिषंङ्ग दिवस, से कर रहा छल छंद,
पुष्पप्रिये का स्नेह संहृति, हो चला अब बंद।

चढ़ रही थी श्यामता कंजई दिगंत से हीन,
मिलता अन्त्य विक्रांत द्युतिमा कंचन दीन।
यह अनाढ्य संधान रहा जोग इक दया लोक,
रंज भर विजन आगार से छूटते थे कोक।

मनुज अभी तक चिंतन करते थे लगाये ध्यान,
कृत्य के संवाद से ही भर रहे थे कान।
यहाँ सदन में इकट्ठे थे करण दावेदार,
मोहना कीलाल या शस्य का होने लगा संञ्चार।

नूतन पिपासा खींच लाती पाहुन का संकेत,
विचल रहा था सुगम प्रभुत्व युक्त उत्तम रुचि समेत।
ताकते थे बाहुल – शाख से उत्कंठा संसृष्ट,
मानव अचंभित यथार्थ प्रारब्ध का खेले अंदु – अवेष्ट।

अर्थ : कंजई = मिट्टी का रंग, द्युतिमा= प्रकाश, कोक= चकवा,
मोहना= घास, कीलाल= जानवर, शस्य= अन्न,
बाहुल = आग, अंदु= बंधन,

आगे…

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव `परिमल` जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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  • “सतीश शेखर श्रीवास्तव `परिमल`“ जी ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — किसान अच्छी फसल से अच्छे पैदावार के लिए सदैव ही कामना करता है। मौसम के मार से डरते हुए, सदैव ही प्रभु से यही प्रार्थना करता है की फसल तैयार होने तक कोई भी प्राकृतिक आपदा न आये प्रभु, हम आपके बच्चे है हम पर दया करे, कोई गलती हुई हो हमसे तो, हमें क्षमा करें। क्योकि हम अपने परिवार के साथ – साथ और भी मनुष्यों का पेट भरने का कार्य कर रहे है दिन रात एक कर। जहां एक ओर किसान चिंतित भी है तो वहीं दूसरी तरफ प्रभु का ध्यान भी कर रहा हैं। प्रभु सदैव ही सभी का अच्छा ही करते है, सभी को अपने – अपने कर्मो का भुगतान तो करना ही हैं।

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यह कविता (कामना – पिपासा द्वितीय) “सतीश शेखर श्रीवास्तव `परिमल` जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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