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सुखमंगल सिंह की रचनाएँ

नायक – नायिका।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ नायक – नायिका। ♦

भारत में युगों से महिलाओं का गौरव गान किया जाता है।

“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता।”

अर्थात:— जहां नारी का पूजन और सम्मान होता है वहां देवता निवास करते हैं।

महा राष्ट्रीय में कहा गया है कि —

‘नारी जनमांची पुण्याई ‘!

श्री हरि चरित्रामृत सागर, में आधारानंद स्वामी लिखते हैं कि सत्संग में महिलाएं भी बहुत उच्च स्तर की थीं।

स्वामीनारायण संप्रदाय में भक्ति धर्म बैरागी एवं ज्ञान से युक्त बहुत सी ऐसी स्त्री – भक्त थीं, जिनकी तुलना पौराणिक युग की स्त्री भक्तों से किया जा सकता है। अत्यंत ही प्रेम पूर्वक मानसी – पूजा करतीं और मार्ग में चलते समय किसी पुरुष के सामने दृष्टि नहीं करी थीं। (भक्त रत्न महिलाएं पृ १३ भाग ४)!

महिला शब्द का प्रयोग वयस्क स्त्रियों के लिए किया जाता है।

वेदों – पुराणों में कहा गया है कि —

“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रफला क्रिया।।”

जिस कुल में स्त्री की पूजा होती है उस कुल पर देवता प्रसन्न रहते हैं और जहां स्त्रियों की पूजा, वस्त्र भूषण, तथा मधुर वचन आदि से सत्कार नहीं किया जाता उस कुल का सभी कर्म विफल हो जाता है।

पुरुषों में आठ गुण ख्याति बढ़ाते हैं —

बुद्धि, कुशलता, इंद्रिय निग्रह, शास्त्र ज्ञान, पराक्रम, आधिक नहीं बोलना, शक्ति के अनुसार दान और कृतज्ञता।

‘अष्टौ गुणा: पुरुषं दीपयन्ति,
प्रज्ञा च कौल्यं च दम: श्रुतं च।
पराक्रम श्चाबहुभाषिता च,
दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च।।(विदुर नीति पृ २८)

वेद काल में नारी — वेद काल में नारियों की सभी कार्यों में भूमिका, पत्नी को सम्मान मिलता था। समान अधिकार प्राप्त था नारियों को।

ऋग्वेद काल में नारियों की दशा — ऋग्वेद काल में स्त्रियों को सर्वोच्च शिक्षा दी जाती थी। नारियां शास्त्र और कला के क्षेत्र में निपुणता की परिचायक होती थी।

प्रकांड विद्वान स्त्रियां — वैदिक काल में भारतीय नारियों में विदुषी लोप मुद्रा – जो अगस्त की पत्नी थीं।

विदुषी प्रीति येयी — जो महर्षि दाधीच की धर्मपत्नी थीं।

विदुषी सुलभा — यह जनक राज की विदुषी थीं। जिसने जनक को ही शास्त्रार्थ में हरा दिया था।

ब्रह्मवाहिनी रोमशा — बृहस्पति की पुत्री और भाव भव्य की धर्मपत्नी थीं। इन्होंने ज्ञान का व्यापक प्रचार किया।

ब्रह्म वादिनीं गार्गी — इन्होंने महान विद्वान ज्ञागबल्क को शास्त्रार्थ में हरा दिया।

ब्रह्म वादिनी वाक् — अमृण ऋषि कन्या थी जिन्होंने अंत में अनुसंधान किया और समाज को खेती करने के लिए अन्न दिया।

विदुषी तपती — आदित्य की पुत्री और सावित्री की छोटी बहन थीं। यह अति सुंदरी और प्रकांड विद्वान थी। इनका अयोध्या में संवरण जी से विवाह हुआ था।

शत रुपा, सांगली, मैं ना, स्वाहा, संज्ञा, अपाला आज महिलाओं के साथ-साथ अनुसुइया, सावित्री, तारामती, द्रोपदी जैसी सती जी के गुणों से आज भी विश्व जगत में प्रेरणा प्रदान कर रहे हैं।

तुलसीदास जी ने लिखा है कि —

‘मूढ तो हिं अतिशय अभिमाना,
नारि सिखावन करसि काना।

तुलसीदास जी का इस दोहे में कहने का तात्पर्य है कि यदि कोई आपके फायदे की बात करें तो उसे स्वीकार कर लेना चाहिए।

कबीर दास की दृष्टि में नारी — इन्होंने नारियों को दो प्रकार का बताया है।

  1. एक प्रकार की नारी साधना में बाधा नहीं पहुंचाती हैं और पतिव्रता होती हैं।
  2. दूसरी तरह की नारी साधना में अवरोध पैदा करती हैं ऐसी नारियों का कबीर ने विरोध नहीं किया है परंतु उनका तिरस्कार कर दिया है।

सूरदास की दृष्टि में नारी — यमन ऋषि की कथा राम बिलावल में, नवम स्कन्द में…

‘सुखदेव कह्यो, सुनौ हो राव!
नारी नागिन एक स्वभाव।
नागिन के कांटै विष होई,
नारी चितवन नर रहै भोई।
नारी सो नर प्रीति लगावै,
पै नारी तिहिं मन नहिं ल्यावै।
नारी संग प्रीति जो करै,
नारी ताहि तुरंत पंरिहरै॥

चाणक्य ने नारी के लिए कहा —

नारी में दया और विनम्रता होती है।
नारी धैर्य का पालन करती है।
समाज के निर्माण में नारी की विशेष भूमिका है।
नारी समाज की निर्माणकर्ता होती हैं।
नारी शरीर से दुर्बल होते हुए भी,
प्राण से वह पुरुष से भी अधिक शक्तिशाली होती है।

‘ जिनी सुंतत्र भए बिगरहिं ‘

जिस समय विरहणी स्वतंत्र हो जाती है। फिर उसके अलग-अलग रूप और कर्म देखे जाते हैं।

नायक कहता है कि —

गोरो गाल तिल तापे काला,
मोहन ‘मंगल’ कैसो जादू डाला।
वदन चंद्र सम मृगनयनी गोरी।
नैना चंचल दिखे चकोरी॥

अपने पति से प्रेमातुर स्त्री दुखी होकर कहती है —

मोसों ना बात बना चातुरी,
गोर सांवरिया माटी जब खोटो!
नायिका प्रीतम से रूठ कर लंदन चली जाती है।

नायक कहता है कि —

मेरी मालन खेलन जात बलैया,
मुंह मोड़ चली लंदन मा गोरी।
कैसो बनि गयो देखो कठोरी,
मान तज्यो अरमान लियो गोरी,
राधा रिसानी मनाय लायो कोई!
रितु की मार सहन नहीं होई॥

प्रेमातुर नायिका का भाव —

प्रिय प्रेम से बावरी,
सांवरो नाच नचायो।
उठि उठि जात पहर में,
भोरहरी ना उसे दिखाय।
सांवतिया काहें को जरि जाय,
सजनवा आपनो देख मुस्कात।
हमारी ओर देखा करो सांवरो,
नाहीं तो हम पीहर जाब॥

चंद्रमा को नहीं पता होता है कि उसकी चाहत में चकोरी अपना प्राण त्याग देगी। नायिका प्रेम में इतना विहवल हो, गयो है जानने और पहचानने की आवश्यकता नायक को करना चाहिए।

नई नवेली नायिका ससुराल में कहती है कि —

कुआं पानी भरन ना जैहों,
काला जादू नजर लगी तैहों।
रंगरेजवा रची रची रच्यो,
गरबीली बनो मोरिया अंगिया?
मोती मढायो पीहर चुनरिया,
बार-बार निखत दर्पण गोरिया।

गुण गर्विता होकर गुजरिया कहती है कि —

पिया तोरा पानी हम से भरा न जाए,
वह काया यह इसलिए नहीं बनायो!

पति पर भरोसा कर नायिका कहती है कि —

अपने राजा में हमरो भरोसो,
बसे पिया आंख में आंजन भयो!
मोरा बिनु सांवरो जिया न जाय,
पास पड़ोस घूमि घरवा आवै।
प्रेम से मिल कर गले लगा ले,
निक निक बतिया से दुलरावै॥

‘जेष्ठा और स्त्री कनिष्ठा ‘—

जिसे पिया चाहे वही सुहागिन,
जाहि स्त्री अधिक चाहे सो जेष्ठा।
कम चाहे जेहि नारी वही कनिष्ठा॥
दोउ लड़ी लड़ी बात बनायो,
पिए को रहि रहि दोऊ समझावैं।
मोहिं काहे को ब्याहे है लायो,
हमरौ आंचल में आगि लगायों॥

मुग्धा भाव —

भौंरा लुभाय रह्रियों कलियन संग,
गगरी ना छलके गोरिया धीरे चलो।
सारी बहोर लहरियों तारों डगरिया,
मारो मन मारि रह्यो संग संवरिया॥

यौवन से अनजान नायिका —

सरकत जाती कहां हे मोर घाघरो,
हुलसित तन मन ओर सांवरो॥

यौवना नायिका —

सतायो जनि सैया,
भरी लेहु मोंहिं बहियां!
सवतन संग जाई रह्यो,
बोलहु नहीं मोसो सैयां।
जाए मनायो सौतन को,
बात बनायो ना हमसो॥

मध्य धीरा नायिका —

मोरा सैयां बेदर्दी,
दर्द ना ही जानै!
तीज त्योहार मा भी,
परदेसवा मां बितावै।
कहा जाता है कि मछली की तड़प का पता समुद्र को नहीं होता है।

मुग्धा नायिका —

भय और लाज से रति न चाहने वाली नायिका मुग्धा नायिका कहलाती है।

कहती –
मोरी बहिया ना पकड़ो,
श्याम गिरधारी!
गल बहिंया ने डारो रे,
ओ बेदर्दी बालमा।

मध्या नायिका —

जिस नारी के तन में मर्यादा और लाज दोनों समान होते हैं वह मध्या नारी कहीं जाती है!

नैना लजाय दिल नहीं मानै,
मोहिं त धीरे जगाए लेना।
हाउ तोहरा ओसारी रे,
जरा अखियां पानी लगा लेना।

विश्रब्धनवोड़ा मुग्धा नायिका —

वह नायिका, जो किंचित भय और लज्जा से रति नहीं चाहने वाली होती है।

मोरा छोड़ दो अचरवा,
मैं प्यार मां झूलूंगी!
आसपास में मेरे लोगवा,
हरि संग प्रीति में खेलूंगी॥

मध्या धीरा नायिका —

अपने पति से आदर युक्त व्यंग कोप जताने वाली।

आयो हमरी अंखियां,
बोलो ना हमसे पिया!
उनको
हमसे ना बोलो पिया?
रात रात निंदिया न आवै!
हरि आज ऊं घी में आवै,
निंदिया गवांय डाली,
भोर भयो आयो अंगना॥

मध्या अधीरा नायिका —

वह नायिका जो पति से अनादर युक्त क्रोध जाने वाली हो, मध्या अधीरता होती हैं।

का हौ करते, कैसो करवावत।
पानी यों कर्यो छिप ना पावर॥

प्रौढ़ धीरा —

अपने पति को डर दिखाकर रति से उदास रहा मानवती स्त्री।

ज्यों पति कुछ बोल्यो,
ललाई बाबा नैना।
मुंह फेरि चल्यो मचल,
36 अंक सो आगे बढ़॥

परकीया नायिका —

वह नायिका जो पराई (पराय) पुरुष से प्रेम करती है।

घर बालम छोड़ी आयो,
बितायिब इहवां रसिया!
मुह हमारा यौहिं ओकरा,
ललचाई नजरों में रतिया॥

प्रौढ़ा नायिका —

वह नायिका दो अत्यंत काम रखती है परंतु कुछ कुछ लज्जा लिए।

प्यारे बलम तोहैं जाने ना दूंगी,
श्याम मोरे नैना का तारा रे !

रतिप्रीका नायिका —

विशेष रति की चाह वाली प्रौढ़ा नायिका।

मोहिं डर लागे अकेला रे,
रात पिया जागत रहियो!
प्रीतम नूपुर मोर ना उतारो,
सांग में अखिल विचार्यौ॥

प्रौढ़ा अधीरता नायिका —

पति त्याग – ताड़ना, कोप जनाने वाली नारी प्रौढ़ा अधीरा कही जाती है।

मैं नहीं जाती पास सैंया के पैंया,
मछरियां बिंदिया लै गई मोर!
मुझ पर डार गयो सारे रंग गागर।

नोट: यहां नायक और नायिका के रूप में वर्णन किया गया। इससे किसी को भी, किसी भी प्रकार का आघात पहुंचाने का कोई मकसद नहीं है। यह एक शोधकर्ता की भाति शोध है। जिसका सूत्र पुस्तकों में अलग-अलग तरह से मिल सकता है।

♦ सुखमंगल सिंह जी – अवध निवासी ♦

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— Conclusion —

  • “सुखमंगल सिंह जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस लेख में समझाने की कोशिश की है — स्त्रियां कई रूप में होती है ज्ञान व गुणों, लोक-लज्जा तथा व्यवहार के आधार पर। इस लेख में नायक व नायिका के माध्यम से लेखक ने विस्तार से बताया है की कैसे व किस-किस प्रकार की स्त्रियां इस संसार में होती है। जैसे – मुग्धा भाव वाली नायिका, यौवन से अनजान नायिका, यौवना नायिका, मध्य धीरा नायिका, मुग्धा नायिका, मध्या नायिका, विश्रब्धनवोड़ा मुग्धा नायिका, मध्या धीरा नायिका, मध्या अधीरा नायिका, प्रौढ़ धीरा, परकीया नायिका, प्रौढ़ा नायिका, रतिप्रीका नायिका, प्रौढ़ा अधीरता नायिका, इत्यादि प्रकार के नायिका के माध्यम से समझाया हैं। यह एक शोधकर्ता की भाति शोध है। इस लेख के माध्यम से किसी को भी किसी बी तरह का आघात पहुंचाने का कोई इरादा नही हैं।

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यह लेख (नायक – नायिका।) “सुखमंगल सिंह जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें, व्यंग्य / लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी कविताओं और लेख से आने वाली पीढ़ी के दिलो दिमाग में हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम बना रहेगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे, बाबा विश्वनाथ की कृपा से।

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संसार सागर में परमात्मा।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ संसार सागर में परमात्मा। ♦

ईश्वर कहते है कि मुझे जानकर बहुत लोग भजन करके तर जाते हैं। ईश्वर के विषय का यथार्थ ज्ञान ही तप है। जाे ईश्वर को भजता है उसे ईश्वर भक्त कहते हैं। संसार के लोगों ने जिसे मूल्यवान समझा वाे उसे ही याद करते हैं। क्या पता कौन किस समय काम आ जाए इसका ध्यान नहीं रखते हैं।

“कहा जाता है कि अंगद ने हनुमान जी से कहा की हनुमान समय-समय पर मेरी याद भगवान को दिलाते रहना जिसे भगवान याद करते हैं उसका बड़ा भारी भाग्य होता है।“

भरत जी से भारद्वाज मुनि ने कहा सारी दुनिया भगवान को भजती है और तुम्हें भगवान भजते हैं। मानव का जन्म दिव्य है। लेकिन भगवान की तरह पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं है कुछ अंतर है भगवान जैसी पूर्ण शक्ति नहीं है। भगवान का संसार में आना हित हेतु हितकारी होता है। लेकिन मनुष्य भगवान की आज्ञा से ही आता है।

• भगवान में हर समय मन को रमाएं रहना कल्याणकारी •

ज्ञानी पुरुषों का कर्म मनुष्य की अपेक्षा दिव्य होता है। भगवान के भजन के प्रभाव से कल्याण होता है उसी प्रकार भगवान के हाथों से मरने पर उस जीव की मुक्ति हो जाती है। भगवान का नाम जप करें अथवा भजन करें या सत्संग करें ऐसे जीव का कल्याण होता है।

महापुरुषों का भी दर्शन मुक्ति देने वाला होता है। भगवान में हर समय मन को रमाएं रहना कल्याणकारी होता है। भगवान से प्रेम हो जाने पर शेष गौण हो जाता है। शरीर क्रिया करें अथवा न करें परंतु निश्चित रूप से संसार में रहकर ईश्वर का भजन मनन करना कल्याणकारी कदम है।

‘भगवान ने कहा है कि तू केवल मेरा भजन कर’। जिस प्रकार हिम्मत करने वाला व्यक्ति उद्देश्य तक जल्दी पहुंच जाता है कम हिम्मत करने वाला पछताता रहता है; रोता रहता है उसी प्रकार मन की चंचलता जब छूट जाती है तो ईश्वर अर्थात भगवान को पाने में देरी नहीं होती धीरे-धीरे ही सही वह ईश्वर तक पहुंच जाता है।

• मन से धनवान धरा पर बहुत थोड़े •

कहां जाता है कि परमात्मा की प्राप्ति बहुत ही सहज है। परोपकार में किया गया खर्च खुले हाथ से करना होगा। उदारता का भाव अपने पास रखना उत्तम होता है। आपके पास यदि ऐसा लगे कि कुछ भी नहीं है तो भी लोगों के समक्ष मीठी वाणी बोली बोलना ज्यादा लाभप्रद होता है। हमारा लक्ष्य होना चाहिए और मन से धनवान धरा पर बहुत थोड़े ही मिलते हैं।

जीवन में काम करना चाहिए बड़ाई की चाहत नहीं रखनी चाहिए। अच्छे कार्यों के संपन्न होने के बाद भी उसे प्रकाशित करने से क्या लाभ यदि प्रकाशित करते हैं तो वह बड़ा नहीं कही जाएगी। मनुष्य अपनी बुरे काम को छुपाता है, छुपाने की चेष्टा करता है। वही आप उत्तम काम करके प्रकट किए बिना रह नहीं सकते हैं। यदि आप उत्तम कार्य करते हैं तो आप का उद्धार होने में विलंब नहीं होता है। परमात्मा की प्राप्ति की इच्छा वाले मनुष्य को दंभ – पाखंडी, मान – बड़ाई की इच्छा को छोड़ देना उत्तम होता है।

• भगवान खेवनहार है। •

दिखावा करना, गलती को छुपाना, आलस्य का आना, पापों को छिपाने जैसा कृत्य है। कल्याण व्याकुलता से होता है व्याकुलता भगवान के लिए करनी पड़ती है। संसार समुद्र तट की भांति ही है साधन की कमी का रोना नहीं रोना चाहिए। भगवान खेवनहार है। जिस प्रकार समुद्र में डूबते हुए व्यक्ति के हाथ में यदि कोई रस्सी लग जाती है तो उसे नहीं छोड़ता उसी प्रकार संसार सागर में ईश्वर की भक्ति को नहीं छोड़ना चाहिए।

हमेशा चिंतन करनी चाहिए साधन तेज, मनुष्य को चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए। चिंता दुख का कारण होता है और चिंतन से ही ईश्वर की प्राप्ति होती है। प्रेम और भय से होता है। धार्मिक देश में जन्म बहुत कठिन तपस्या के बाद होता है और उत्तम कुल में जन्म या उत्तम सत्संग मिलना बहुत कठिन कार्य है। यदि मिल जाए तो मनुष्य को उस समय को नहीं गंवाना चाहिए। परमात्मा के तत्व को जानने वाला जीव संसार के सारे कार्यों को मिट्टी के समान समझने लगता है।

• मृत्यु के उपरांत •

संसार सागर में जो कुछ हो रहा है परमात्मा तत्व जानने के बाद चिंता नहीं होना चाहिए। आपने इस संसार में जो कुछ बनवाया है जिसे आप कहते हैं कि हमने अमुक कार्य किया है वह मृत्यु के उपरांत किस काम का। आपको यह भी नहीं पता है कि आपका आगे का जन्म कहां और किस तरह में होगा।

न जाने कितनी बार मनुष्य का जन्म हुआ होगा; अगर मनुष्य उस जन्म काल में परमात्मा को जान लिया होता तो फिर अगला जन्म ही क्यों होता। परमात्मा की प्राप्ति 33 करोड़ मनुष्यों में किसी एक को होती है। धरा पर जीव करोड़ों के करोड़ों गुना हैं। परंतु उसमें से सबको मुक्ति नहीं मिलती है। इसलिए सर्वस्व निछावर कर देना चाहिए; सब कुछ चले जाने के बाद भी ईश्वर से प्रेम करना चाहिए।

• ईश्वर की शरण में… •

सांसारिक उन्नति देखकर मनुष्य प्रसन्न हो जाता है किंतु साधन के अभाव में घर जल जाता है। मनुष्य परमेश्वर से प्रार्थना करें कि ईश्वर उसे सद्बुद्धि दे; ज्ञान दे। भगवान की शरण में जो जाता है उसका प्रभु त्याग नहीं करता। ईश्वर की शरण में जाने के बाद; उससे जो लोग कुछ मांग नहीं करते, उसकी सुनवाई भगवान जल्दी करता है।

समय बहुत मूल्यवान होता है एक-एक पल वृथा नहीं खोना चाहिए। करोड़ों जन्मों के उपरांत मनुष्य का एक बार जन्म मिलता है। मोह से राग द्वेश रूपी द्वंद उत्पन्न होता है। द्वंद की स्थिति में मनुष्य मोहित हो जाता है। मोह हो जाने पर बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। मोह ईश्वर से करना होगा। बासुदेव में निरंतर भ्रमण करते रहना चाहिए जो प्राणी भजन कीर्तन और भगवान की भक्ति की चर्चा करते हैं भगवान के गुण और प्रभाव सहित कथन करके संतुष्ट होते हैं वह ईश्वर के करीब होते हैं।

“प्रभु कार्य किए बिना मोहि कहां विश्राम”

समर्पित भाव से समस्त कार्यों को ईश्वर को समर्पित करना सर्वथा उचित है।

‘येषा म् न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।

ऐसे लोग पृथ्वी पर भार स्वरूप हैं जिनके अंदर विद्या, तप, दान, ज्ञान अच्छे आचरण, सद्गुण नहीं है। मनुष्य का शरीर पाकर जो कर्तव्य पालन करते हैं उन्हीं को धन्यवाद है।

किसी बात की परवाह करना ही मुक्ति में बाधक होता है। भेजें बेटे – बेटी, नाती – पोता कमाने के लायक हो जाए तो भी ठीक है वह आपको कुछ दे रहे हैं अथवा नहीं दे रहे हैं इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए। सहनशीलता उत्तम होती है कायरता उत्तम नहीं है, उद्दंडता खराब है वीरता प्राप्त करने के उपरांत उद्दंडता नहीं किया जाना चाहिए।

अच्छे व्यक्तियों को ढिंढोरा पीटकर पढ़ाई नहीं करनी चाहिए। अधिकांश लोग ढोंग करते हैं। शास्त्र के अनुकूल कार्य में बेपरवाह नहीं रहना चाहिए। बेपरवाह होने को गफलत कहते हैं। गफलत बिल्कुल ही नहीं करनी चाहिए। मनुष्य का जन्म अनन्य भक्ति करने के लिए मिलता है।

♦ सुखमंगल सिंह जी – अवध निवासी ♦

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— Conclusion —

  • “सुखमंगल सिंह जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस लेख में समझाने की कोशिश की है — यह मनुष्य जन्म मिला हैं भगवन भजन करने के लिए न की भोग विलाष के लिए। भगवान केवल उन भक्तों का उद्धार करते हैं जो सच्चे मन से सम्पूर्ण समर्पण के साथ प्रेम से याद करते है उन्हें, सच्चे मन से पूर्ण प्रेम से भजन करते है जो भगवान का उनका सदैव ही ख्याल रखते हैं भगवान भी। हम मनुष्यों को भगवान का मनन और चिंतन करना है, चिंता बिलकुल भी नहीं करना है। ऐसे लोग पृथ्वी पर भार स्वरूप हैं जिनके अंदर विद्या, तप, दान, ज्ञान अच्छे आचरण, सद्गुण नहीं है। मनुष्य का शरीर पाकर जो कर्तव्य पालन करते हैं उन्हीं को धन्यवाद है।

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यह लेख (संसार सागर में परमात्मा।) “सुखमंगल सिंह जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें, व्यंग्य / लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी कविताओं और लेख से आने वाली पीढ़ी के दिलो दिमाग में हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम बना रहेगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे, बाबा विश्वनाथ की कृपा से।

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“अगर अपने कार्य से आप स्वयं संतुष्ट हैं, ताे फिर अन्य लोग क्या कहते हैं उसकी परवाह ना करें।”~KMSRAj51

 

 

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