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हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत

हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत। ♦

किसी भी देश के गौरव के वैभव की गाथा यदि समग्र रूप से कोई गा सकता है तो वह है उस देश की राष्ट्रभाषा का स्वरूप। बड़े खेद के साथ कहना पड़ता है कि हमारे भारत देश की आज दिन तक कोई राष्ट्रभाषा निर्धारित ही नहीं हो सकी। भारत देश को आजाद हुए आज 7 दशक से ज्यादा समय हो चुका है परंतु इस देश की विडंबना देखिए कि अभी तक हम इस देश के गौरव का गुणगान करने वाली इसकी मातृ भाषा हिंदी को न्याय नहीं दिला सके।

हिंदी भाषा को राजनीति का शिकार बना दिया।

सन 1949 में अगर इस दिशा में कार्य कुछ हुआ भी तो वह भी अधूरा ही हुआ। भारत के अधिकतर लोगों द्वारा बोली जाने वाली और समझी जाने वाली हिंदी भाषा को राजनीति का शिकार बना दिया गया और इसे इस देश की अपनी भाषा होने के बावजूद विदेशी भाषा अंग्रेजी के समकक्ष भारत की मात्र राजभाषा ही स्वीकार किया गया।

यह सत्य किसी से छुपा नहीं है कि जब आर्यवर्त या जंबूद्वीप की राष्ट्रभाषा संस्कृत हुआ करती थी तो इस देश का अपना एक समृद्ध साहित्य था और उस भाषा में लिखित नाना प्रकार की विधाओं के ज्ञान विज्ञान थे। उस भाषा के बल पर भारत विश्व गुरु की उपाधि से सुसज्जित था।

उस समस्त ज्ञान-विज्ञान का लाभ मात्र भारतवासी ही नहीं लेते थे बल्कि उनका लाभ प्राप्त करने के लिए हयुत्संग और फाह्यान जैसे लोग विदेशों से भारत के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने आते हैं। समय बदला ,परिस्थितियां बदली, भारत पर हूणों,मंगोलों,डचों,तुर्कों, अफगानों आदि ने अपने आक्रमण किए।

भारत के इस गौरवशाली वैभव को धीरे-धीरे तोड़ने मरोड़ने की कोशिश।

भारत के इस गौरवशाली वैभव को धीरे-धीरे तोड़ने मरोड़ने की कोशिश की गई। 1000 ईसवी के आसपास शौरसेनी और अर्धमाग्धी अपभ्रांशों से विकसित हिंदी का स्वरूप स्वतंत्र रूप से साहित्यिक क्षेत्र में दिखने लगा। साहित्य संदर्भों में प्रयोग होने वाली यही भाषाएं बाद में विकसित होकर आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के रूप में अभिहित हुई।

इस बीच भारत में मुगलों का आगमन हुआ। मुगल भारत में स्थाई रूप से बस गए। इससे पूर्व के आक्रमणकारी आक्रमण करते रहे और यहां से पुनः स्वदेश लौटते रहे। परंतु मुगल शासकों ने जिस तरह से भारतीय राजनीति को अपने हाथों में ले लिया, उससे भारत में अपभ्रंशों से विकसित एवं पलवित होने वाली हिंदी का स्वरूप हिंदुस्तानी में बदल गया।

यह सच है कि 1000 ईसवी के आसपास डिंगल पिंगल का बोलबाला भारतीय साहित्य में रहा हिंदी साहित्य का आदिकाल अधिकतर इसी दौर का है। मध्यकाल तक भक्ति साहित्य का वैभव हिंदी की विभिन्न उप भाषाओं ने कुछ यूं सुसज्जित कर दिया कि उसे चाह कर भी हम सदियों तक भुला नहीं सकते।

मिश्रित भाषा।

रीतिकाल तक आते-आते मुगल शासकों की शासकीय कामकाज की भाषा अरबी फारसी होने के कारण भारतीय जनमानस की आमजन भाषाएं उसमें मिश्रित हो गई जिस मिश्रित भाषा को हिंदुस्तानी का नाम दिया गया। जो भारतीय जनमानस की भाषा अपना एक राष्ट्रीय नया स्वरूप तैयार कर रही थी उसने एक नया मोड़ ले लिया। अर्यवर्त या जंबूद्वीप की राष्ट्रभाषा संस्कृत का प्रभाव धीरे- धीरे क्षीण होने लगा और हिंदुस्तानी ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया। जो हिंदी शौरसेनी और अर्धमाग्धी से 1000 ईस्वी के आसपास विकसित हुई थी उसको राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिल सका।

हिन्द – यूरोपीय भाषा।

हिन्द – यूरोपीय भाषा परिवार से होती हुई हिंदी – ईरानी, हिन्दी – आर्य, संस्कृत, केंद्रीय क्षेत्र (हिन्दी), पश्चिमी हिंदी , हिंदुस्तानी और खड़ी बोली से हिंदी का रूप लेने वाली वर्तमान हिंदी भाषा लगभग 18वीं शताब्दी में मूलतः अस्तित्व में आई। इस नव विकसित हिंदी भाषा के स्वरूप को देवनागरी में ही लिखा जाने लगा जो संस्कृत की मानक लिपि थी और है।

भारतेंदु और द्विवेदी युग।

भारतेंदु और द्विवेदी युग ने इस नव विकसित भाषा को और दृढ़ता प्रदान की। हिंदी भारतीय साहित्य की एक मानक भाषा उभर कर सामने आई। भारतीय जनमानस की इस भाषा ने धीरे – धीरे भारत के अधिकतर प्रांतों में अपना अधिकार जमाया। इस बीच भारत में शासन कर रहे अंग्रेजों ने भी अपनी राष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी के प्रचार – प्रसार में भारत में कोई कसर नहीं छोड़ी।

पुरातन वैदिक गुरुकुल परंपरा को खंडित कर नवीन शिक्षा नीति।

1936 में लार्ड मैकाले ने भारत की पुरातन वैदिक गुरुकुल परंपरा को खंडित कर नवीन शिक्षा नीति को इस उद्देश्य से स्थापित किया कि भारत के लोगों को न तो ठीक से हिंदी समझ में आ सके और न ही अंग्रेजी ही समझ में आ सके। अपने शासन को चलाने के लिए उन्हें सस्ते लिपिकों की जरूरत थी, जिन्हें तैयार करने में वे लगभग सफल भी हुए।

धीरे – धीरे तथाकथित अंग्रेजी शिक्षित भारतीयों के भीतर भी अंग्रेजी का ऐसा भूत सवार हुआ कि थोड़ी बहुत अंग्रेजी जान लेने के बाद वह अपने आपको अंग्रेजी का विद्वान समझने लगे और जो हिंदी बोलने वाला आम भारतीय था उसको तुच्छ एवम हेय समझने लगे। यह चलन भारत के आजाद होने तक इतना बढ़ गया था कि सरमायादार लोग दूर देशों में जाकर के अपने बच्चों को अंग्रेजी की तालीम लेने के लिए भेजने लगे।

फिर वे चाहे हिंदू थे या मुस्लिम। इस प्रक्रिया में सभी अपने देश की मातृभाषा हिंदी के वजूद को स्थापित करना ही भूल गए, जबकि भारत की आजादी के वक्त तक हिंदी में बहुत कुछ लिखा जा चुका था जो भारत के गौरव गान के लिए किसी भी दृष्टि से कम नहीं था। इस दृष्टि से शायद 1949 में हिंदी को राष्ट्रभाषा स्वीकार करने की मुहिम तेज हुई थी परंतु वहां हिंदी को पुनः राजनीति की भेंट चढ़ा दिया गया और हिंदी को मात्र राजभाषा का दर्जा दिया गया।

इसके पीछे साजिश शायद यह भी रही हो कि भारत के जो तथाकथित अंग्रेजी शिक्षित लोग मानसिक रूप से अभी भी अंग्रेजों के गुलाम ही थे, उन्होंने जानबूझकर यह चालाकी की हो कि हिंदी जानने और बोलने वाले लोगों के ऊपर राज करने के लिए यदि अंग्रेजी भाषा को हिंदी के समकक्ष रखा जाए तो अच्छा रहेगा। उससे उन तथाकथित अंग्रेजी शिक्षित सरमायादारों की संतानें भारत की हिंदी भाषी जनता पर शासन करती रही और भारत की हिंदी भाषी आम जनता उनकी सेवा करती रही।

भले ही अंग्रेज भारत से चले गए थे परंतु अंग्रेजी के मानसिक रूप से गुलाम ये भारतीय अंग्रेज लंबे समय तक भारत की इस हिंदी भाषी जनता को मूर्ख बनाने में कामयाब रहे। अब यदि यह कहा जाए कि आप की बात अतिशयोक्ति हो गई है तो मैं स्पष्टीकरण जरूर देना चाहूंगा।

क्यों राजभाषा होने के बावजूद भी भारत की न्यायिक व्यवस्थाओं के पत्राचार, राजस्व विभाग सम्बन्धी पत्राचार और चिकित्सीय व्यवस्था संबंधित शिक्षा प्रणाली हिंदी भाषा में न की गई? क्या यह एक सोचा समझा षड्यंत्र नहीं था? या फिर इसलिए कि आम जनमानस की जन भाषा में यदि इन व्यवस्थाओं की बातों को लिख दिया जाएगा या पढ़ा दिया जाएगा तो फिर तथाकथित अंग्रेजी शिक्षित लोग और उनकी संतान लोगों को मूर्ख बनाने में कामयाब कैसे हो पाएगी? उनकी रोजी रोटी कैसे चल पाएगी?

खैर कुछ भी हो, आज परिस्थितियां कुछ और ही है। आज हिंदी सिर्फ भारत के ही अधिकतर क्षेत्र में नहीं बोली जाती परंतु वैश्विक धरातल पर इसने अपनी एक विशेष पहचान बना ली है। इसलिए आज यह बहुत जरूरी हो जाता है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाए। यह सिर्फ आधारहीन एवं तथ्य से हटकर बात नहीं है बल्कि इसके पीछे एक बहुत लंबी – चौड़ी तथ्यपरक बातों की सूची है: —

  1. 2011 की भारतीय जनगणना के अनुसार भारत की 57.1% जनता हिंदी को बोल और समझ सकती है। जिसमें 43.63% भारतीयों ने तो हिंदी को अपनी मातृभाषा ही घोषित किया है। यह एक प्रबल आधार है कि भारत की अधिकतर जनता हिंदी बोलती है और समझती है। इस दृष्टि से हिंदी को अब भारत की राष्ट्रभाषा घोषित कर देना चाहिए ताकि भारत का आम नागरिक वैधानिक, प्रशासनिक, कार्मिक, व्यवहारिक और शैक्षिक आचार – विचारों को अपनी भाषा में प्राप्त कर सकें।
  2. हिंदी भाषा बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर के साथ – साथ उत्तर प्रदेश तथा दिल्ली आदि जनसंख्या बाहुल्य क्षेत्रों की मात्र संपर्क भाषा ही नहीं है बल्कि वाच बाहुल्य के साथ – साथ यहां इन क्षेत्रों की रोजमर्रा की व्यवसायिक भाषा भी है।
  3. आज हिंदी सिर्फ भारत में ही नहीं बोली जाती है परंतु भारत के साथ-साथ कई अन्य देशों में भी इसे बोलने और समझने वालों की संख्या कम नहीं है। एक आंकड़े के मुताबिक हिंदी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बोली जाने वाली भाषाओं में दूसरा दर्जा प्राप्त है। आज हिंदी पाकिस्तान, भूटान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव, मंयांमार, इंडोनेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड, चीन, जापान, ब्रिटेन, जर्मनी, न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रीका, मारीशस, यमन, युगांडा, त्रिनाड एण्ड टोबैगो, कनाडा, अमेरिका तथा मध्य एशिया आदि कई देशों में बोली जाती है और समझी जाती है। यदि देखा जाए तो आज हिंदी लगभग 80 करोड से ज्यादा लोगों के द्वारा बोली और समझी जाती है।
    — इन देशों में से चीन में 6, जर्मनी में 7, ब्रिटेन में 4, अमेरिका में 5, कनाडा में 3, रूस, इटली, हंगरी, फ्रांस और जापान में 2 – 2 विश्वविद्यालयों में आज हिंदी पढ़ाई जाती है। एक आंकड़े के मुताबिक लगभग 150 के करीब – करीब विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आज हिंदी को पढ़ाया जा रहा है। ऐसे में भारत को हिंदी को अपनी राष्ट्रीय भाषा घोषित करने में आखिर दिक्कत ही क्या है? भारत से बाहर के लोग आज हिंदी में कई सत्संग और अध्यात्म की चर्चाएं सुनने और समझने भारत में आते हैं और भारत से बाहर हमारे हिंदी भाषी मनीषियों को हिंदी में सत्संग और चर्चा परिचर्चा करने के लिए अपने देशों में ले जाते हैं। बहुत से विदेशी लोग बाहर से आकर भारत में भी हिंदी को समझने और जानने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे में निश्चित है की हिंदी में कुछ तो खास है जो इसे समझने की और जानने की इतनी लालसा गैर हिंदी भाषी लोगों में भी निरंतर बढ़ती जा रही है। फिर भारतवासी और भारत की राजनीतिक शक्तियां क्यों हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने से परहेज कर रही है?
  4. पाठकों की जानकारी के लिए यह भी बताना उचित समझ रहा हूं कि आज सरकार हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए तो प्रयास कर रही है परंतु अपने देश में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की ओर कोई भी ठोस कदम ठीक से नहीं उठाया जा रहा है।वैसे यूनेस्को की 7 भाषाओं में हिंदी पहले से ही शामिल है, परंतु फिर भी सरकार का इसे संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए प्रयास निरंतर जारी है।
  5. इतना ही नहीं विश्व आर्थिक मंच की गणना के अनुसार हिंदी विश्व की 10 शक्तिशाली भाषाओं में से एक है। यह बात भी अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक आचार व्यवहार की दृष्टि से हिंदी को राष्ट्रभाषा का सम्मान देने की पैरवी पुरजोर करती है। यदि हिंदी को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की भाषा में मानक रूप प्राप्त हो जाता है तो निश्चित ही भारत के व्यापार एवं आर्थिक मोर्चों में भी हिंदी अपनी अहम भूमिका निभाएगी। परंतु इसके लिए हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देना बहुत ही जरूरी है।
  6. एथ्नोलॉग के अनुसार हिंदी विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। यह बात भी हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने के लिए प्रबल सहयोग करती है। यह बात उन तथाकथित अवधारणाओं का भी खंडन करती है कि ‘अंग्रेजी विश्व की भाषा है, इसलिए इसे महत्व देना जरूरी है। हिन्दी तो कहीं स्टैण्ड ही नहीं करती।’इतना ही नहीं हिंदी व संस्कृत की लिपि को संगणकीय टंकण प्रणाली में वैज्ञानिक लिपि भी सिद्ध कर लिया गया है। ऐसे में हिन्दी को भारत में यूं नकारना कहीं से भी ठीक नहीं है।
  7. इधर आबूधाबी में हिंदी को 2019 में अपने वहां न्यायालय की तीसरी भाषा घोषित कर दिया गया है। परंतु एक भारत है कि अपने ही देश की मातृभाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने के मामले में संजीदगी नहीं दिखा रहा है।

कई बातें हैं जो हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत को स्पष्ट करती है।

ऐसी कई बातें हैं जो हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत को स्पष्ट करती है परंतु यह सब भारत की राजनीतिक शक्तियों की इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है। आज भारतवासियों की हालत यह हो गई है कि भले ही हम अंग्रेजी में एम ए क्यों ना हो परंतु जब बात करने की बारी हो तो वह हिंदी में ही की जाती है। यह जरूर है कि कुछ लोग अपना रौब झाड़ने के लिए उस हिंदी में अंग्रेजी मिक्स कर देते हैं परंतु वह खिचड़ी न ही तो ठीक से हिंदी का मान – सम्मान कर पाती है और न ही तो अंग्रेजी का। बात यह नहीं है कि हमें अंग्रेजी से नफरत है।

अंग्रेजी को भी पढ़ा जाना चाहिए और समझा जाना चाहिए। हर भाषा का मान – सम्मान करना हमारे देश की संस्कृति रही है परंतु किसी भी देश के उत्थान एवं विकास के लिए उस देश की अपनी राष्ट्रभाषा का होना नितांत आवश्यक होता है। देश कितनी भी तरक्की कर लें, परंतु जब तक उसके पास अपनी राष्ट्रभाषा नहीं है तब तक उस तरक्की का कोई औचित्य नहीं रह जाता।

Conclusion:

अपने राष्ट्र के गौरवशाली इतिहास को ही न भूल बैठे।

कहीं ऐसा न हो कि हम हिंदी का तिरस्कार करते – करते अपने राष्ट्र के गौरवशाली इतिहास को ही भूल बैठे। यदि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत नहीं है तो फिर क्यों वे सारे कारोबार हिंदी में किए जाते हैं जिनसे राष्ट्रीय खजाने में निरंतर बढ़ोतरी होती रहती है।

उदाहरण के लिए फिल्मी कारोबार हिंदी में ही किया जाता है। आम जनमानस से संपर्क साधने के लिए राजनीतिक पार्टियां हिंदी में ही अपनी बातचीत करती है।अधिकतर समाचार पत्र – पत्रिकाएं तथा चैनल सब हिन्दी में ही कार्य करते हैं। बस हिंदी में अगर कुछ होता नहीं है तो वह सरकारी कार्यालयों का पत्राचार नहीं होता है। न जाने क्यों इतना महत्व सरकारी पत्राचार में अंग्रेजी को दिया जाता है जब कि हिंदुस्तान आज आजाद हो चुका है।

हमारे भारत के जन समुदाय में एक ट्रेंड सा बन चुका है कि पड़ोसी का बच्चा अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने जा रहा है तो मैं भी अपने बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में ही पढ़ाऊंगा। भले ही वह वहां कुछ सीखे या न सीखे परंतु सोसाइटी की नकल करना हमारी आदत बन गई है। जबकि सत्य यह है कि बच्चा जो कुछ अपनी मातृभाषा में सीखता है वह किसी दूसरी भाषा में नहीं सीख सकता परंतु एक हम है कि अपनी जिद पर अड़े हुए हैं।

हां वर्तमान सरकार ने एक मेहरबानी जरूर की है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में अंग्रेजी को पांचवी तक मात्र एक विषय के रूप में पढ़ाने का प्रावधान किया है न कि माध्यम के रूप में। परंतु क्या हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए बिना इस प्रकार के प्रयासों का भी कोई महत्व सिद्ध हो सकेगा या नहीं? इस बात पर हमें आत्म चिंतन और मंथन करने की नितांत आवश्यकता है।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — अंग्रेजो से आजादी के इतने वर्षों बाद भी हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा की मान्यता आधिकारिक रूप से क्यों दर्ज नही हुआ, हिंदी को उसका सम्मान क्यों नहीं मिला? हिन्दी राष्ट्रभाषा के महत्व, गुणों और प्रभाव को बताया है। हिन्दी हर भारतीय के दिल से निकलने वाली भाषा हैं। हिन्दी भाषा दिल को दिल से जोड़ने का कार्य करती है। एकलौती हिन्दी भाषा ही है जिसमे अपनापन है दुनिया की किसी भी अन्य भाषा अपनापन का स्थान नहीं।

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यह लेख (हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत।) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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