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“तू ना हो निराश कभी मन से” – (KMSRAJ51, KMSRAJ, KMS)

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article by hemraj thakur

क्या लिव इन रिलेशनशिप ठीक है?

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ क्या लिव इन रिलेशनशिप ठीक है? ♦

समाज की युवा पीढ़ी यह जरूर पढ़े: —

प्रिय मित्रो हिंदुस्तान के माथे पर आज एक और कलंक आफताब और श्रद्धा की लिव इन रिलेशनशिप की कहानी के दर्दनाक अन्त से लगा है। साथियों आज के इस अंध आधुनिकता के दौर में हमारी युवा पीढ़ी पश्चिम की अति स्वतंत्रय प्रिय सभ्यता को अपनाने में उतारू है और उसी पागलपन के नशे में हमारे बच्चे विपरीत लैंगिक होते हुए भी लीव इन रिलेशनशिप के नाम पर बिना विवाह किए ही पति – पत्नी की तरह इकट्ठा रहने लगे हैं। एक तो यह परम्परा भारतीय परिवारवाद और समाजवाद की दृष्टि में पहले ही भद्दा एवम भुंडा कर्म है। ऐसी वृति को हमारे यहां पशु वृति की संज्ञा शास्त्रों में दी गई है।

उसके बावजूद भी यदि पश्चिमी सभ्यता के अंधा अनुकरण में नई पीढ़ी इस व्यवस्था में दैहिक विपासा के कारण रहना ही चाहती है और यह पीढ़ी इस व्यवहार को कोई पाश्विकता नहीं मानती बल्कि पश्चिमी देशों के कानून की तर्ज पर इसे अपना कानूनी अधिकार समझती है तो इसमें समाज उनकी दुर्दशा के लिए कहां तक जिम्मेदार है? खैर यह घटना आज जिरह की नहीं है बल्कि दिल को दहला देने वाली है। इस पर हर किसी को आफताब की करतूत पर गुस्सा आ रहा है और आना भी चाहिए। यह श्रद्धा की विकट मौत का ही वाक्य नहीं है बल्कि हिंदुस्तान की हर जाति, धर्म और सम्प्रदाय की नौजवान बहु – बेटियों की सुरक्षा का सवाल है।

पर बड़े दुख के साथ यह कहना पड़ रहा है कि आखिर क्या जरूरत है बिना शादी के लड़का – लड़की को सांसारिक व्यवहार में रहने की? हमारी भारतीय संस्कृति की व्यवस्था के मुताबिक 25 वर्ष तक का समय पढ़ने – लिखने का है और उस बीच दो लड़का – लड़की में प्रेम भी हो जाता है तो कोई गुनाह नहीं है। शर्त यह है कि वह प्रेमी जोड़ा विवाह पूर्व शारीरिक संबंध स्थापित न करें। हमारी संस्कृति के नौजवान अधिकांश भले ही सामाजिक लाज लपेट के चलते ही सही; इस नियम का पालन भी करते आए हैं। उसके पश्चात विवाह घर वालों की सहमति से करते हैं और सांसारिक जीवन का आनंद लेते हैं।

हमारी संस्कृति में बेटी जब एक बार ससुराल जाती थी तो उसे शिक्षा दी जाती थी कि कभी ससुराल को छोड़ कर वापिस पीहर मत आना। वह बेटी भी उसी शिक्षा का पालन करती थी। युग बदला परिस्थितियां बदली। अंग्रेज भारत में आए, उन्होंने भारतीय सामाजिक और वैवाहिक जीवन के ढर्रे को बदलने में अहम भूमिका निभाई। लोग दैहिक सुख को व्यक्तिक अधिकार समझने लगे। बड़े – बड़े घरानों के लोग इस बात को कोई बेगैरत नहीं बल्कि रईसी रसूख समझने लगे।

हमारी माताएं बहनें औरत/देवी से मैडम के पद पर पदच्युत हुई। उसी बीच बेदवा यानी डाइवर्स ने भी भारत में प्रवेश किया। हां तलाख तो मुगल काल में ही आ गया था पर भारत में डाइवर्स अंग्रेजों की देन हैं। क्योंकि यह पश्चिम की रीत थी। “वहां अत्यधिक स्वातंत्र्य के चलते शादी ज्यादा दिनों तक टिकती ही नहीं थी। यदि किसी की साल भर टिक गई तो सालगिरह मनाई जाती थी और 25 साल टिकी तो सिलवर जुबली मनाई जाती थी। यूं ही गोल्डन जुबली आदि। पर यह मौका पश्चिम में बहुत कम लोगों को मिलता था। भारत में ये कोई भी प्रक्रम मौजूद नहीं थे। यहां शादी का नाम एक वचन था, जिसे एक पवित्र रिश्ता एवम जीवन यज्ञ समझा जाता था। हम इसे जीवनपर्यंत हर हाल में निभाते थे। बाहरी संस्कृतियों के संक्रमण ने हमारी संस्कृति और समाज का तरीका बदला। हम पश्चिम का अनुकरण करने लगे और आज तलाक, डाइवर्स, सालगिरह आदि रस्मे हमारे समाज में आम प्रक्रियाएं हो गई है।”

खैर यह एक चर्चा का विषय था। पर मेन मुद्दा श्रद्धा की लाश को 35 टुकड़ों में काट कर अलग – अलग स्थलों में ले जा कर सबूतों को जड़ से मिटाने का तथा उस नव युवती की बेरहमी से की गई हत्या का है। प्रिय मित्रो आज भले ही हमारे देश के कई विद्वान और व्यक्तिक स्वातंत्र्य के प्रेमी लिव इन रिलेशनशिप के मुद्दे पर कड़ा कानून बनाने की बात कर रहे हो। पर मेरे विचार से लिव इन रिलेशनशिप जैसे कानून को भारत में कोई जगह नहीं दी जानी चाहिए।

क्योंकि हमारी सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था इतनी मजबूत और पवित्र है कि उसमें दम्पति से ले कर बच्चे और बूढ़े तक सुरक्षित है। यदि लिव इन रिलेशनशिप का कानून भारत में स्थान प्राप्त करता है तो भारतीय समाज हवस का शिकार हो जाएगा। न ही तो रिश्तों नातों की अहमियत रहेगी और न ही नारी जाति का सम्मान रहेगा।भविष्य की नई पीढ़ी और वृद्ध लोग असहज और असुरक्षित होंगे तथा इस प्रकार की श्रद्धा की कहानी जैसी कई घटनाएं सामने आएगी। इसमें मात्र लड़कियां ही घटना की शिकार नहीं होगी बल्कि लड़के भी इस लिव इन रिलेशनशिप के चंगुल में फंस कर शिकार होंगे।

यह हम सभी जानते हैं कि एक वक्त के बाद अक्सर हम स्त्री – पुरुष, पति- पत्नी व्यवहार में रह कर एक दूसरे से ऊब ही जाते हैं। वह तो हम लोक लाज और बच्चों की वजह से ताउम्र पति – पत्नी हो कर जिन्दगी भर साथ रह लेते हैं और रहना भी चाहिए। यदि लिव इन रिलेशनशिप हमारे समाज पर हावी हुआ तो महिलाओं का और बच्चों का घणा शोषण होगा। वह कैसे और क्यों? इसका जबाव समाज स्वयं जानता है। अधिकतर लोग विवाह से पूर्व ही दैहिक भोग को भोग कर एक दूसरे से ऊब कर किनारा कर लेंगे और यह सिलसिला समाज में आम हो जाएगा। नए – नए साथी के साथ रहने का शौक स्त्री पुरुष दोनों में जन्मेगा और सामाजिक ढांचा विकृत हो जाएगा। चरित्र नाम की बात बेईमानी हो जाएगी। बाकी सभी की अपनी – अपनी सोच है।

अब सवाल उठाते हैं कि :—

  1. क्या भारत में संस्कृति, सभ्यता और संस्कारों की शिक्षा स्कूलों में शुरू नहीं करनी चाहिए?
  2. क्या यह भारत की अति सहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षता का परिणाम है?
  3. क्या यह घटना लव जिहाद का मामला है?
  4. क्या भारत में डेटिंग एप जैसे समाज विरोधी सोशल मीडिया पर बैन लगाना चाहिए?
  5. क्या यह घटना हिन्दू – मुस्लिम भाईचारे और प्यार पर कलंक नहीं है?
  6. क्या लव जेहाद और धर्म परिवर्तन भारतीय समाज में राष्ट्र द्रोह के समक्ष जुर्म नहीं है?
  7. क्या एक देश एक विधान जरूरी नहीं है?
  8. क्या स्कूली पाठ्यक्रम में धार्मिक और सांस्कृतिक विषयवस्तु के साथ – साथ सभी धर्मों के सार तत्व मानवीय मूल्यों की शिक्षण सामग्री डलवाना जरूरी नहीं है?
  9. क्या इस्लामिक शिक्षा पद्धति के संस्थानों “मदरसों” को औपचारिक शिक्षा व्यवस्था से बाहर करके उन सभी मुस्लिम बच्चों को भी सामान्य भारतीय शिक्षा व्यवस्था के आम संस्थानों यानी सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाया जाना चाहिए? आखिर मदरसों की क्या जरूरत है?
  10. क्या निजी शिक्षण संस्थानों को बन्द करके सरकारी शिक्षण संस्थानों को और उन्नत कर के, उनमें संस्कारवान अध्यापक, अध्यापिकाओं की भर्ती कर एक देश एक शिक्षा व्यवस्था और एक ही पाठ्यक्रम की व्यवस्था नहीं होनी चाहिए?
  11. क्या अध्यापक भर्ती का पैरामीटर लिखित, मौखिक परीक्षाओं से हट कर उसकी जगह चारित्रिक आंकलन पर आधारित नहीं होना चाहिए? अध्यापक बनने वाले प्रार्थी का खानपान, रहन सहन, पहनावा, बातचीत, सेवा, सत्कार, संयम, साधना,
    त्याग, समाज और राष्ट्र के प्रति सोच और निस्वर्थता, ईमानदारी, शालीनता, गुरुत्व व गंभीरतव आदि पहलू चैक नहीं होने चाहिए क्या? मात्र सैलरी के लिए शिक्षक का कार्य करने वाला शिक्षक शिक्षिका क्या उचित शिक्षक हो सकते हैं क्या?
  12. स्कूली बच्चों को स्कूलों में अध्यापक द्वारा संस्कार स्थापित करने के लिए आंशिक डांट – फटकार और सजा देने का कानूनन प्रावधान नहीं होना चाहिए क्या?
  13. अत्यधिक स्वातंत्र्य शिक्षार्थी जीवन में ठीक है क्या?
  14. माता – पिता और अभिभावकों को भी कमाई से ज्यादा फिक्र अपने बच्चों के संस्कारों की नहीं करनी चाहिए क्या? जो हम उन्हे आवारा छोड़ देते हैं और सारा ठीकरा अध्यापक के सिर पर फोड़ते है, वह ठीक है क्या?
  15. क्या एक अध्यापक को भी अपने छात्र और छात्राओं के प्रति उतने ही चिन्तित और संवेदनशील नहीं होना चाहिए, जितना कि वह अपने बच्चों के प्रति होता है?
  16. क्या महिलाओं की निर्मम हत्या सिर्फ मुस्लिम समुदाय के पुरुष ही करते हैं या बाकी धर्मों ( हिन्दू धर्म, सिख धर्म और ईसाई आदि) के पुरुष भी करते हैं? और भी बहुत कुछ। पर कितना लिखे?

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला – मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस कविता के माध्यम से समझाने की कोशिश की है — “वहां अत्यधिक स्वातंत्र्य के चलते शादी ज्यादा दिनों तक टिकती ही नहीं थी। यदि किसी की साल भर टिक गई तो सालगिरह मनाई जाती थी और 25 साल टिकी तो सिलवर जुबली मनाई जाती थी। यूं ही गोल्डन जुबली आदि। पर यह मौका पश्चिम में बहुत कम लोगों को मिलता था। भारत में ये कोई भी प्रक्रम मौजूद नहीं थे। यहां शादी का नाम एक वचन था, जिसे एक पवित्र रिश्ता एवम जीवन यज्ञ समझा जाता था। हम इसे जीवनपर्यंत हर हाल में निभाते थे। बाहरी संस्कृतियों के संक्रमण ने हमारी संस्कृति और समाज का तरीका बदला। हम पश्चिम का अनुकरण करने लगे और आज तलाक, डाइवर्स, सालगिरह आदि रस्मे हमारे समाज में आम प्रक्रियाएं हो गई है।”

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यह कविता (क्या लिव इन रिलेशनशिप ठीक है?) “हेमराज ठाकुर जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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क्या सवर्ण आयोग की मांग वाजिब है?

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ क्या सवर्ण आयोग की मांग वाजिब है? ♦

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सोशल मीडिया में अगर देखें तो सवर्ण आयोग की मांग तूल पकड़ती जा रही है। इधर हिमाचल के शिमला से सवर्ण समाज ने बाबा भीमराव अंबेडकर जी की प्रतिमा के पास से आरक्षण की अर्थी को कंधा देकर के हरिद्वार तक उसकी पैदल शव यात्रा निकाल कर विरोध जताने की एक नई तकनीक अपनाई है। जिसके चलते यहां भीम आर्मी और दलित वर्ग के कई नेताओं और संगठनों ने इस बात का पुरजोर विरोध जताना शुरू कर दिया है और इन आंदोलनकारियों के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दायर करने की मांग की है। बात भले ही हिमाचल के गलियारों से निकल रही हो परंतु यह समस्या मात्र हिमाचल प्रदेश की ही नहीं समूचे हिंदुस्तान की समस्या है। न जाने हमारे पुरखों ने यह व्यवस्था क्यों और कैसे स्थापित की थी कि जिसे भिन्न-भिन्न जातियों और वर्गों का नाम देकर के छुआछूत का भेदभाव तैयार कर दिया। प्रकृति ने जब मनुष्य को जन्म दिया मेरे हिसाब से उसने मात्र दो ही जातियां बनाई। एक जाति का नाम नर है और एक जाति का नाम मादा। यह व्यवस्था प्रकृति ने मात्र मनुष्य योनि के लिए ही नहीं बनाई बल्कि संसार में जितनी भी योनियां जंगम प्राणियों की है, उन सब में एक नर और एक मादा का निर्माण प्रकृति या ईश्वर ने एक समान किया है। तर्क की कसौटी पर सिद्ध होता है कि संसार में मात्र दो ही जातियां हैं जिनमें एक नर है और दूसरी मादा। यूं ही अगर धर्मों की बात करें तो धर्म भी मात्र मानव धर्म है जो सबसे श्रेष्ठ धर्म माना जाता है। पशु पक्षियों के समाज के अपने अपने धर्म हो सकते हैं परंतु मनुष्य प्राणी के लिए यदि कोई धर्म प्रकृति ने निर्धारित किया है तो उस धर्म का नाम मानव धर्म है।

यदि इस बात को मनाने के लिए वर्तमान में समाज के किसी धर्म या जाति संप्रदाय विशेष के मनुष्य समुदाय को समझाने की चेष्टा करें तो कहना न होगा कि समझाने वाले को मुंह की खानी पड़ेगी। हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी जैसे नाना प्रकार के धर्म वैश्विक धरातल पर देखने को मिलते हैं। समझ ही नहीं आता कि सभी धर्मों के लोग इस एक छोटी सी बात को क्यों नहीं समझते हैं कि परमेश्वर ने या फिर इस प्रकृति ने हमें यूं धर्मों में बंटने के लिए नहीं बनाया था। उसने सृष्टि के घटना चक्र को निरंतर प्रवाहित रहने के लिए यह पवित्र व्यवस्था बनाई थी। आखिर कब इस बात का संपूर्ण ज्ञान मानव प्राणी के मानव मस्तिष्क में अंगीकार होगा? सदियों दर सदियों यही जाति और धर्म के झगड़े निरंतर मानवता के रास्ते का रोड़ा बनते आए हैं और बनते ही जा रहे हैं।

— मनुस्मृति में कहीं भी जातिवाद की व्यवस्था का समर्थन नहीं —

इधर एक मत इस बात के लिए मनुस्मृति को कसूरवार ठहराता है। उन्हें मैं बता दूं कि मनुस्मृति में कहीं भी जातिवाद की व्यवस्था का समर्थन नहीं किया है। हां यह जरूर है कि वहां वर्ण व्यवस्था की बात की गई है। परंतु वहां मात्र चार वर्णों की व्यवस्था थी। वे वर्ण थे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। मैं हैरान हूं कि जब मनुस्मृति में साफ शब्दों में यह लिखा है कि इन वर्णों की व्यवस्था भी कोई स्थाई नहीं थी। यदि शुद्र के घर में भी कोई ब्राह्मण बुद्धि का व्यक्ति पैदा होता था तो उसे शुद्र नहीं बल्कि ब्राह्मण कहा जाता था। अर्थात यह व्यवस्था मनुष्य के बौद्धिक धरातल के आधार पर और कार्यक्षमता के आधार पर निर्धारित की गई थी। छुआछूत का इस व्यवस्था में लेश मात्र भी नहीं था। ब्राह्मण और क्षत्रिय यदि शिक्षा और सुरक्षा का काम करते थे तो वैश्य वस्तु विनिमय के द्वारा पूरे समाज के लालन-पालन की व्यवस्था का जिम्मा उठाए रहता था। इधर जो शुद्र वर्ण के लोग होते थे, वही इन तीनों वर्णों के लोगों के घरों में सेवादारी का काम करते थे। यहां तक कि यही शूद्र इन तीनों वर्णों के घरों में खाना पीना बनाने का काम करते थे और इन तीनों वर्ण के साथ बैठकर भोजन बनाया और खाया करते थे।

— यह धर्मगत और जातिगत भेदभाव क्यों? —

एकाएक न जाने यह कैसा परिवर्तन भारतीय सामाजिक परंपरा में प्रचलन में आया कि जो जिस वर्ण में पैदा होता गया, वह उसी वर्ण का समझा जाने लगा और निरंतर यह वर्ण व्यवस्था विकृत होती गई। जो बाद में विकृत होकर के नाना प्रकार की जातियों के नाम से विभाजित हो गई। ऊंच नीच और उत्कृष्टता तथा निकृष्ठता की व्यवस्था भारत में कब से प्रारंभ हुई? इस बात का ठीक से प्रमाण नहीं मिलता। यह एक शोध का विषय है। इसे समझने के लिए हमें ऐतिहासिक एवं प्रागैतिहासिक तथ्यों के साथ चिंतन मनन करना होगा। परंतु भारत की इस कुत्सित व्यवस्था को देखकर एक प्रश्न सबके मन मस्तिष्क में जरूर कौंधता है कि जब सभी जातियों और धर्मों के लोगों के शरीरों की बनावट एक जैसी है, उनकी सभी अंग एक समान है, उनके संसार में पैदा होने का तरीका एक जैसा है, तो फिर यह धर्मगत और जातिगत भेदभाव क्यों?

विशेषकर भारतीय समाज में यह जाति व्यवस्था आखिर किस आधार पर अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं? इस संदर्भ में दूसरे मतावलंबियों का कहना यह है कि जातियां और धर्म हमने नहीं बनाए। यह तो भगवान के द्वारा बनाई गई व्यवस्थाएं है। इसलिए निम्न जाति वालों को इस व्यवस्था को भगवान के आदेशानुसार मानना चाहिए। ऐसा विचार प्रकट करने वालों की मानसिकता सचमुच हमें कितनी वीभत्स लगती है? इसके विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। उनसे मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि आप यह बताएं कि क्या जाति पाती की व्यवस्था भगवान ने मात्र भारत में ही बनाई? विश्व के अन्य देशों में यह व्यवस्था भारत के ही समकक्ष क्यों नहीं बनाई गई है? यह बात भी सच है कि विश्व के हर देश में ऊंच-नीच की एक अपनी व्यवस्था है। कहीं काले गोरे का भेद है तो कहीं किसी अन्य व्यवस्था के द्वारा समाज के उच्च एवं निम्न वर्ग को प्रदर्शित किया जाता है। परंतु यह भी सत्य है कि सब प्रकृति जन्य या परमेश्वर जन्य व्यवस्थाएं नहीं है। ये सभी मानव मस्तिष्क की खुरापात का प्रतिफल है।

— सवर्ण आयोग आंदोलन का कारण और औचित्य क्या है? —

विश्व एक बहुत बड़ा फलक है। आइए हम मात्र भारत के बारे में ही इस विषय के ऊपर जानने की कोशिश करेंगे। आज भारत देश के एक छोटे से प्रांत हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से आरक्षण के विरुद्ध जो आंदोलन सवर्ण आयोग का गठन करने के पक्ष में सरकार पर दबाव बनाने के लिए शुरू हुआ है, आखिर उस आंदोलन का कारण और औचित्य क्या है? इस बात पर एक सटीक, निष्पक्ष और तथ्य पूर्ण चर्चा होना बहुत जरूरी है। पूर्व में क्या घटनाएं और परिस्थितियां रही होगी? उन्हें न ही तो समझा जा सकता है और न ही तो दोहराया जा सकता है। वर्तमान संदर्भ की अगर बात करें तो आज समूचा विश्व एक परिवार की तरह हो गया है। आज के मानव प्राणी ने शिक्षा के क्षेत्र में और विज्ञान के क्षेत्र में जो विकास किया है, वह किसी से छिपा नहीं है। परंतु इतना कुछ होने के बावजूद भी यदि हमारी मानसिकता इन तथाकथित कुत्सित व्यवस्थाओं के चंगुल में ही फंसी रहेगी तो यह देश की उन्नति के पथ पर कोई ठीक संकेत नहीं है। आज यदि जातिगत आरक्षण सवर्ण समाज के भीतर सवर्ण आयोग के गठन का विचार पैदा करता है तो प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि क्या मात्र सवर्ण आयोग का गठन करने से यह लंबे समय से चली आ रही सामाजिक कुरीति समाप्त हो जाएगी?

— निष्पक्ष और तथ्य पूर्ण चर्चा —

अभी यहां संक्षेप में यदि सवर्ण समाज और दलित समाज की दलीलों को सोशल मीडिया के प्लेटफार्म से आंकलित करके लिया जाए तो कहना न होगा कि दोनों पक्ष अपनी अपनी जगह सही है। जहां एक ओर दलित समाज दलील देता है कि हमें सवर्ण समाज ने सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी शोषित किया है और हमें निरंतर घनघोर प्रताड़नाओं का दंश झेलना पड़ा। अब यदि हमें संविधान में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी ने यदि आरक्षण की व्यवस्था देकर के मान सम्मान का जीवन प्राप्त करने की पैरवी की है तो इसमें सवर्ण समाज को दिक्कत ही क्या है?

हम तो अपना सदियों पुराना वंचित अधिकार प्राप्त कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर सवर्ण समाज की दलील यह रहती है कि हमें किसी के सुखचैन से किसी प्रकार की दिक्कत नहीं है। हमारा मानना यह है कि जब आरक्षण नाम की व्यवस्था बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी ने संविधान बनाने के समय मात्र 10 वर्ष के लिए प्रस्तावित की थी तो उसे निरंतर च्विंगम की तरह ये राजनीतिक पार्टियां क्यों खींचती चली आई? यदि यही क्रम बना रहा तो हम भी अपने हक के लिए लड़ रहे हैं। सरकारें सवर्ण समाज के बारे में भी सोचे और सवर्ण आयोग का गठन करें। हम किसी के खिलाफ नहीं है बस अपना हक मांग रहे हैं। वहीं सवर्ण समाज का यह भी कहना है कि क्यों न जातिगत आरक्षण व्यवस्था को खत्म किया जाए और आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था बनाई जाए। इस मामले में अगर सवर्ण समाज के नेताओं से कोई मीडिया कर्मी कारण जांचने की कोशिश करता है तो उनका कहना स्पष्ट होता है कि जातिगत आरक्षण व्यवस्था खुद उन निम्न जाति के लोगों के लिए ही न्याय नहीं कर पाती तो सवर्ण समाज के लिए वह क्या न्याय करेगी?

सवर्ण समाज के नेताओं का कहना है कि संपन्न परिवार के निम्न जाति के लोगों का तो निरंतर इस आरक्षण व्यवस्था से भला हो रहा है। वे इस आरक्षण व्यवस्था के माध्यम से बड़े-बड़े पदों पर स्वयं भी विराजमान है और अपनी संतानों को भी निरंतर उन पदों तक पहुंचाने के लिए लाभ ले रहे हैं। परंतु जो एक गरीब, असहाय एवं दलित निम्न जाति का नुमाइंदा है। उसे न ही तो खुद इस आरक्षण व्यवस्था के माध्यम से लाभ मिल पा रहा है और न ही तो उसकी संतानों को ठीक से मिल पा रहा है। वे लोग मात्र राशन पानी की व्यवस्था तक ही इस व्यवस्था का लाभ उठा पाते हैं। बड़े बड़े पद और सरकारी नौकरियां साधन संपन्न लोगों के हाथ में ही लगती है। यह बात एक कड़वी सच्चाई भी जान पड़ती है। इस बात की पुष्टि मात्र सवर्ण नेता ही नहीं करते बल्कि दलित समाज का निम्न वर्ग भी इस बात की तस्दीक करता है।

निष्कर्ष के तौर पर कहा जाए तो ……

अब यदि दोनों समाजों की बातों को ध्यान में रखकर के निष्कर्ष के तौर पर कहा जाए तो कहना न होगा कि दोनों समाज अपने स्वार्थ की लड़ाई लड़ रहे हैं। समाज के सरोकारों और प्राकृतिक व्यवस्था की किसी को कोई चिंता नहीं है। यह बात सच है कि हमारे भारतीय समाज में कई ऐसी पुरातन रूढ़ियां है जिनका खात्मा होना नितांत आवश्यक है। इस बात को समझने के लिए हमें इस पहलू से थोड़ा हटकर के विचार करना होगा। हमारा भारतीय समाज देवी देवताओं के प्रभाव से पूरी तरह से बंधा हुआ है। विडंबना देखिए कि उन देवताओं की मूर्तियां, उन देवताओं के मंदिर और उन देवताओं के सारे साज बाज सभी कुछ इन्हीं निम्न जाति के लोगों के द्वारा सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी बनाए जाते आ रहे हैं। परंतु सब कुछ कर देने के बाद अंततः एक सवर्ण समाज का व्यक्ति किसी ब्राह्मण के मुख से मंत्रोच्चारण की ध्वनियों के साथ इन सब चीजों को शुद्ध करवा करके इन मूर्तियों और मंदिरों को पूजने का अधिकारी बन जाता है। आखिर ऐसा अब इन उच्च जाति के लोगों ने उनमें क्या डाला कि अब उच्च जातियों के सिवा कोई उन्हे छू ही नहीं सकता?

— एक अभिशाप —

जिन्होंने ये सब कलाकारियाँ अपने हाथों से की, उन्हें उन मंदिरों और देवताओं की मूर्तियों को छूने तक का अधिकार फिर नहीं दिया जाता। यह सचमुच एक निंदनीय एवं अमान्य परंपरा है। इसी पीड़ा के दंश को बाबा साहब ने झेला था। इसीलिए तो उन्होंने संविधान में मात्र 10 वर्ष तक ही आरक्षण की व्यवस्था की बात कही थी। उन्हें मालूम था कि भविष्य में यदि यह व्यवस्था यूं ही बनी रही तो यह जातिवाद खत्म नहीं होगा बल्कि भारत देश के विकास के लिए एक बहुत बड़ा नासूर पैदा हो जाएगा। आज यदि कुछ घटित हो रहा है तो सचमुच ऐसा ही हो रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की अगर कहीं फजीहत होती है तो वह इसी जातिगत व्यवस्था के कारण होती है। अलग-अलग धर्मों के मिश्रण को फिर भी लोग कहीं न कहीं पचा लेते हैं। पर यह जातिगत व्यवस्था सचमुच हमारे समाज के लिए एक अभिशाप बनती जा रही है। निरंतर ऐसी व्यवस्था अगर बनी रहे तो छुआछूत भारत के समाज में घटेगी नहीं बल्कि दिन दुगनी रात चौगुनी प्रगति करेगी। इससे बड़े और समृद्ध निम्न जाति के लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता।

— पैसे वालों का अधिमान —

क्योंकि इस संसार मैं पैसे वालों का अधिमान पूर्व काल से ही रहा है और रहेगा। निम्न जाति का यदि कोई नेता या बड़ा अधिकारी होगा तो उससे सवर्ण समाज के लोग भी कोई छुआछूत नहीं करते। फर्क अगर पड़ता है तो गरीब और सर्वहारा निम्न जाति के लोगों को। उनके हाथ का दिया हुआ पानी सवर्ण जाति के लोग नहीं पीते। उन्हें अपने घरों में घुसने नहीं देते। उन्हें देव मंदिरों में जाने नहीं देते। उन्हें सार्वजनिक धार्मिक स्थलों और कार्यक्रमों में प्रवेश निषेध है। पल पल तिरस्कार का जीवन जीने वाले वे लोग कब इस भुंडी व्यवस्था से बाहर आएंगे? यह सवाल अपने आप में बहुत बड़ी विडंबना है। हम जैसे लेखकों और समाज चिंतकों को इन दलित एवं शोषित लोगों की इस पीड़ा का बड़ा दुख होता है परंतु सत्य यह भी नहीं झुठलाया जा सकता कि जब तक संवैधानिक रूप से जातियों के प्रमाण पत्र बनते रहेंगे और बंटते रहेंगे, तब तक इस जाती पाती की व्याधि का ठीक से इलाज हो पाना असंभव है।

— आर्थिक आधार पर आरक्षण व्यवस्था —

सवर्ण समाज के लोगों को अगर समझाने की कोशिश करें तो वे दो टूक शब्दों में यही कहते हैं कि जब हम अपनी जातिगत श्रेष्ठा के आधार पर आरक्षण जैसे समाज विरोधी नियम का शिकार हुए हैं तो फिर आरक्षण का लाभ लेने के लिए खुशी खुशी जाति का प्रमाण पत्र बनाने वाले निम्न जाति के लोगों को जाति सूचक शब्द हमारे मुंह से सुनने में क्या दिक्कत होनी चाहिए? फिर उन्हें छुआछूत का उसी पुरानी व्यवस्था के अनुसार पालन करने में क्या दिक्कत है? हम नहीं कहते कि हम छुआछूत को बनाए रखेंगे और निम्न जाति के लोगों को जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करके अपमानित करेंगे। परंतु इसके लिए संविधान से जातिसूचक शब्दों को हमेशा के लिए हटा देना चाहिए और जातिगत आरक्षण व्यवस्था का खात्मा करके आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए। इतना ही नहीं सवर्ण समाज के नेताओं का यह भी मानना है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था भी वंशानुगत नहीं होनी चाहिए। वह भी किसी व्यक्ति के जीवन की व्यवस्था एवं सुविधाओं को ध्यान में रखकर के उसे एक बार प्रदान की जानी चाहिए। जब उसे उस आर्थिक आधार पर आरक्षण व्यवस्था के माध्यम से सरकारी नौकरी इत्यादि में लगने का अवसर मिल जाता है तो उस व्यक्ति को उस आरक्षण व्यवस्था से हटाकर नए पात्र उम्मीदवार को वहां स्थान मिलना चाहिए।

परंतु ऐसा कुछ नहीं है। जो गरीब है वह निरंतर गरीब ही बनता जा रहा है। चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का क्यों ना हो? और जो अमीर है वह निरंतर अमीर ही बनता जा रहा है। सच तो बहुत कड़वा है लेकिन इस कड़वाहट को दूर करने के लिए किसी न किसी को तो अपने स्वार्थ का परित्याग करना ही पड़ेगा। यदि किसी चुनावी सीट से कोई दलित नेता लड़ता है तो वह पीढ़ी दर पीढ़ी लड़ता रहता है। यदि निकाय चुनावों की बात करें तो वहां हर पांच साल बाद रोस्टर बदलता रहता है। फिर क्यों न विधानसभा और लोकसभा के आरक्षित चुनाव हलकों में भी यह रोस्टर बदलना चाहिए? ताकि एक और नए दलित एवं कमजोर बुद्धिमान व्यक्ति को आर्थिक रूप से संपन्न होने का मौका मिल सके। क्यों नहीं कोई समृद्ध दलित नेता अपने आप ही अपने किसी गरीब दलित बुद्धिमान भाई को अपनी सीट छोड़ देता? यह अगर स्वार्थ की लड़ाई नहीं है तो और क्या है? सब समृद्ध लोग सभी गरीब लोगों को अपने-अपने जाति और संप्रदाय के तहत भीड़ में इकट्ठा करके बेवकूफ बनाते हैं और लाभ स्वयं ही खाते हैं। बेचारे गरीब जनता भवावेश में अपनी जाति और संप्रदाय के नेताओं की विरोध रैलियों में मात्र भीड़ के सिवा और कोई महत्व नहीं रखती।

यह बात सच है कि चाहे वह सवर्ण समाज हो या फिर दलित समाज। दोनों ही समाजों में यदि आरक्षण को लेकर के जंग छिड़ी है तो उसका मुख्य कारण उनके व्यक्तिगत स्वार्थ है। अब यहां यदि इस बात निष्कर्ष की ओर ले जाने की कोशिश की जाए तो हमें कहना होगा कि यदि बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की बात को हमारे राजनीतिक दलों ने स्वीकार किया होता तो आज यह परिस्थिति पैदा ही न होती। लोगों के लिए संविधान में लिखी गई बात का हवाला देकर के शांत करने की औषधि मिल जाएगी और समाज के सुधार का एक प्रबल आधार मिल जाता। यदि 10 साल से आगे इस व्याधि को न बढ़ाते, वोट बैंक की राजनीति न करते, ध्रुवीकरण का काम न करते तो आज हमारी निम्न और उच्च जाति के सभी लोगों की बहू बेटियां और बेटे आपस में एक दूसरे के साथ शादियां करके इस कुचक्र से बाहर निकल गए होते।

— पुष्ट और दुरुस्त मानव समाज बन गया होता। —

आज भारतीय समाज जातिगत विडंबना से न उलझ रहा होता। आज वह एक पुष्ट और दुरुस्त मानव समाज बन गया होता। यह बात जरूर है कि आज राजनीतिक पार्टियां पुनः इस बात के मायने समझाने की कोशिश कर रही है। परंतु उसके पीछे भी उनकी वहीं राजनीतिक मंशा है न कि सामाजिक उत्थान एवं कल्याण की भावना। यह परम सत्य है कि बड़े लोगों के लिए न ही तो आज तक कोई जाति, धर्म या संप्रदाय आड़े आया है और न ही तो आएगा। इसका शिकार यदि कोई बनते हैं तो निम्न और मध्य वर्ग के लोग। मध्य वर्ग के लोगों में भी निम्न मध्यवर्गीय लोग सबसे ज्यादा इस व्याधि का शिकार होते हैं। उच्च मध्यवर्गीय लोग तो इस जात पात की व्यवस्था से अछूते ही रह जाते हैं।

— संविधान से जातिगत आरक्षण की व्यवस्था को हटा दिया जाए —

हमारे भारत के अधिकतर राजनीतिक लोग इसी उच्च मध्यवर्गीय परिप्रेक्ष्य से आते हैं। अब यदि सचमुच हम लोग जातिवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ना चाहते हैं तो हमें सवर्ण समाज और दलित समाज का नकाब उतार करके फेंकना पड़ेगा तथा मिलकर के इस जंग को लड़ना पड़ेगा। एट्रोसिटी एक्ट तो महज एक बहाना है। असली बात तो यह है कि हमें भारत से जातिवाद की सदियों पुरानी विकृत व्यवस्था को हटाना है। क्यों न उच्च मध्यवर्गीय निम्न जाति के लोग स्वयं ही जातिगत व्यवस्था के विरुद्ध और जातिगत आरक्षण के विरुद्ध आंदोलन शुरू करते? एक सुर में वे मिलकर यह आवाज उठाएं कि हमें न ही तो आरक्षण चाहिए और न ही तो जाति के आधार पर बंटने वाले सर्टिफिकेट। संविधान से जातिगत आरक्षण की व्यवस्था को हटा दिया जाए और जातियों के आधार पर अधिकारियों को जो सर्टिफिकेट बांटने की अथॉरिटी दी गई है, उसे भी तुरंत प्रभाव से निरस्त किया जाए।

प्रश्न पैदा होता है कि…

इतना ही नहीं हमें किसी भी मंदिर और सार्वजनिक स्थान पर जाने से कोई न रोक सके तथा हमारे साथ कोई छुआछूत का व्यवहार अमल में न लाएं। जो आरक्षण व्यवस्था को हटाने के बाद भी हमें जातिसूचक शब्दों से पुकारने की कोशिश करेगा या फिर हमारे साथ छुआछूत का व्यवहार करने की कोशिश करेगा, उसे सीधा फांसी की सजा दी जाए। क्योंकि दकियानूसी विचार सवर्ण जाति के लोगों में भी कम नहीं है। देव समाज के नाम से हमारे सवर्ण जाति के लोग सचमुच एक डर का व्यवसाय सदियों से करते आ रहे हैं। जिसके नाम पर निम्न जाति के लोगों को छुआछूत व्यवस्था को अपनाए रखने के लिए वे डरा डरा कर विवश करते हैं । इतना ही नहीं इस डर के व्यवसाय में भारतीय देव समाज में देवताओं के कार्यकर्ताओं द्वारा पशु बलि प्रथा का चलन भी आज तक विद्यमान है। जरा सोचिए कि देवता किसी की जान को बचाने के लिए किसी दूसरे जीव की जान क्यों लेगा? यह भी प्रश्न पैदा होता है कि जो देवता पशुओं की बलि लेकर प्रसन्न होता है, क्या वह देवता हो सकता ?

प्रश्न वाजिब है…

ऐसी बहुत सारी कुरीतियां है जो समाज ने अपने मनगढ़ंत तरीके से चलाई हुई है। इनका न ही तो कोई भावगत आधार है और न ही तो कोई विज्ञानगत आधार है। इधर हिंदू लोग गाय का मांस नहीं खाते और उधर मुस्लिम लोग सूअर का मांस नहीं खाते। बाकी सब कुछ खा जाते हैं। मुस्लिमों का कहना है कि यदि हिंदू लोग गाय को दूध देने के कारण माता समझ कर के उसका मांस नहीं खाते हैं तो दूध तो भेड़ और बकरियां भी देती है। फिर उनका मांस क्यों खाते हैं? प्रश्न वाजिब है। यही प्रश्न कोई हिंदू मुस्लिम से करता है कि मेरे भाई तुम भी तो सब कुछ खा जाते हो फिर सूअर का मांस क्यों नहीं खाते हो? आखिर वह भी तो एक जानवर है? ऐसे कई अनगिनत सवाल हर धर्म और हर जाति संप्रदाय के भीतर बिना किसी आधार के चलते आ रहे हैं, जिनका निराकरण होना बहुत मुश्किल है। कबीर साहब जैसे लोगों ने चीख चीख कर इन कुरीतियों को दूर करने की वकालत की परंतु इस भुंडे समाज ने किसकी एक न सुनी। एक ऐसा भी वर्ग है जो मांसाहार के पीछे एक बड़ा तर्क देता है।

क्या यह तर्क उचित है?

उसका कहना है कि इससे सृष्टि का संतुलन बना रहता है और इसके साथ – साथ समाज की जो सब्जी की व्यवस्था है वह व्यवस्था भी कहीं न कहीं पूरी होती है। वरना सोचो यदि लोग मांसाहार न करते तो कितनी सब्जी की किल्लत झेलनी पड़ती? ऐसे लोगों के तर्कों पर हंसी भी आती है और तरस भी आता है। अरे भाई अगर तुम्हारी बात को मान भी लिया जाए कि इससे सृष्टि चक्र में संतुलन बना रहता है। तो फिर इस धरती पर इतनी मानव जनसंख्या हो गई है कि वह असंतुलित होती जा रही है। उसकी व्यवस्था करना हमारे शासन एवं प्रशासन को मुश्किल हो रहा है। आए दिन कहीं न कहीं कोई न कोई बलात्कार, दंगा फसाद और धर्म एवं संप्रदाय से संबंधित झड़प हमें अखबारों एवं समाचार चैनलों में सुनने को मिलते हैं। यह समस्या सिर्फ एक देश की नहीं समूचे विश्व की है। तो फिर तो संतुलन बनाने के लिए यहां भी बीच-बीच में से मनुष्य को काट देना चाहिए और उनका मांस पका करके सब्जी की व्यवस्था की समस्या भी दूर हो जाएगी।

खैर छोड़िए यह भी एक अभद्र बात हो गई। शायद यह कुछ ज्यादा ही बड़ा तर्क हो गया। मैं तो यह भी कहता हूं कि जब कोई मनुष्य अपनी सहज मौत मरता है तो उसके बाद उसे तब जलाने दफनाने की कोई जरूरत नहीं। जो लोग मांसाहार करते हैं, उसका शरीर उनके हवाले कर देना चाहिए ताकि वह अपना मांसाहार भी प्राप्त कर ले और उसके मृत शरीर का निपटान भी हो जाए। पाप भी नहीं लगेगा, क्योंकि मुर्दे को तो यूं भी किसी न किसी तरह निपटाना है। इसके साथ-साथ सब्जी की किल्लत का प्रश्न भी खत्म हो जाएगा। नहीं ना। ऐसा कोई नहीं करेगा। पर क्यों? यह भी सत्य है कि एक समय हमारे भारत में नर बलि का भी प्रावधान था। वह भी एक डर का व्यवसाय था। जब लोग जागरूक हुए तो उन्होंने उस व्यवस्था का विरोध किया और नरबलि को खत्म किया।

नरबलि — एक मनोवैज्ञानिक धंधा था।

फिर कहां गए वे देवता या दानव जो नरबलि न देने के कारण समाज में दारुण दंश भरते थे। इस बलि को न देने के कारण ही देवता समाज में खलबली मचा देते थे। आखिर यह सिद्ध हुआ कि यह एक मनोवैज्ञानिक धंधा था। ताकि समाज में एक डर का माहौल बना रहे और जो देवताओं को पूजने वाले कार करिंदे होते थे उनका एक टेरर बना रहे। कोई देवी देवता किसी पशु या पक्षी को नहीं खाता। यह सब व्यवस्था मनुष्य ने अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए मांस भक्षण की लालसा से तैयार की थी और अब निरन्तर चली आ रही है। विडंबना यह है कि मांसाहार को चाहने वाले लोगों की संख्या समाज में हमेशा से अधिक रही है और इसीलिए इस गंदी परंपरा को निरंतर आगे बढ़ाते आ रहे हैं। जो लोग इस व्यवस्था की कुरीति को समझते हैं, उनकी संख्या कम है और वे कुछ कर नहीं सकते। यह डर अगर एक पीढ़ी तक जबरदस्ती रोक लिया जाए आने वाली पीढ़ी के भीतर से यह डर अपने आप ही चला जाएगा और कोई किसी देवता के मंदिर में बलि नहीं चढ़ाएगा।

निष्कर्ष — Conclusion :

अब आप कहेंगे कि यह विषय यहां क्यों लिया गया? मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि इस तरह की बहुत सारी कुव्यवस्थाएं हमारे भारत में आज भी विद्यमान है। जो हमें भारत के वैभव को गाने से निरंतर रोकती और टोकती रहती है। इतना ही नहीं अंतरराष्ट्रीय धरातल पर भी इन्हीं कुव्यवस्थाओं के चलते हमें अपमानित और शर्मिंदा होना पड़ता है। वरना भारत की गौरवशाली गाथा का वैभव विश्व में किसी से नहीं छुपा है। यह भारत एक समय यूं ही विश्व गुरु के पद पर आसीन नहीं था। इस बीच में ये जाति पाती, धर्म संप्रदाय और बलि प्रथा इत्यादि कुप्रथाओं ने भारत के दामन पर दाग लगा दिया और इसे वैश्विक पटल पर गवार सिद्ध कर दिया। अभी भी वक्त है। यदि आज भी हम लोग अपनी भौतिक लालसाओं को छोड़ कर के और व्यक्तिगत स्वार्थों को छोड़ कर के एकजुट होकर भारत के वैभव को बचाने की कोशिश करते हैं तो वह दिन दूर नहीं जिस दिन भारत पुनः विश्व गुरु के पद पर विराजमान होगा।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — सारी कुव्यवस्थाएं हमारे भारत में आज भी विद्यमान है। जो हमें भारत के वैभव को गाने से निरंतर रोकती और टोकती रहती है। इतना ही नहीं अंतरराष्ट्रीय धरातल पर भी इन्हीं कुव्यवस्थाओं के चलते हमें अपमानित और शर्मिंदा होना पड़ता है। वरना भारत की गौरवशाली गाथा का वैभव विश्व में किसी से नहीं छुपा है। यह भारत एक समय यूं ही विश्व गुरु के पद पर आसीन नहीं था। इस बीच में ये जाति पाती, धर्म संप्रदाय और बलि प्रथा इत्यादि कुप्रथाओं ने भारत के दामन पर दाग लगा दिया और इसे वैश्विक पटल पर गवार सिद्ध कर दिया। अभी भी वक्त है। यदि आज भी हम लोग अपनी भौतिक लालसाओं को छोड़ कर के और व्यक्तिगत स्वार्थों को छोड़ कर के एकजुट होकर भारत के वैभव को बचाने की कोशिश करते हैं तो वह दिन दूर नहीं जिस दिन भारत पुनः विश्व गुरु के पद पर विराजमान होगा।

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यह लेख (क्या सवर्ण आयोग की मांग वाजिब है?) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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आखिर कहां जा रही है भारत की शिक्षा व्यवस्था?

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ आखिर कहां जा रही है भारत की शिक्षा व्यवस्था? ♦

दिल्ली सिर्फ देश की राजधानी ही नहीं है। वह राजधानी होने के साथ-साथ हिंदुस्तान का दिल और एक महानगर भी है। देश का हर कोई छोटा बड़ा नागरिक अपने बच्चों को यहां के सरकारी शिक्षण संस्थानों में दाखिला लेने के लिए बेताब रहता है। हो भी क्यों ना? हर कोई चाहता है कि मेरे बच्चे को एक अच्छी और किफायती शिक्षा प्राप्त हो। वह शिक्षा किसी अच्छे संस्थान में और अच्छे स्थान में प्राप्त हो।

सबकी सोच होती है कि मेरा बच्चा सेंट्रल यूनिवर्सिटी के अधीन आने वाले शिक्षण संस्थानों में दाखिला लेकर शिक्षा ग्रहण करें। परंतु उन बच्चों और अभिभावकों का सपना तब चूर- चूर हो जाता है जब सेंट्रल यूनिवर्सिटी के अंतर्गत आने वाले सभी शैक्षणिक संस्थानों में बी ए ऑनर्स राजनीतिक शास्त्र, अर्थशास्त्र आदि में भी 100% का कट ऑफ प्रथम सूची में लगाया जाता है। 2015 में यह कट ऑफ कंप्यूटर साइंस में पहली बार लगाया गया था अब तो तकरीबन – तकरीबन सभी विषयों में यह कट ऑफ लगाया जा रहा है।

सवाल यह खड़ा होता है कि…

सवाल यह खड़ा होता है कि यदि 100% ही कट ऑफ लगाया जाएगा तो क्या इससे भी आगे कोई और अंक प्राप्त होते हैं क्या? प्रतिस्पर्धा के इस दौर में गरीब, मजबूर और मेहनती तथा परिश्रमी वह बच्चा तब निराश होता है जब उसके 99.9 प्रतिशत अंक होने पर भी इन संस्थानों में दाखिला नहीं मिलता। तब तो और भी ज्यादा परेशान होता है जब आस – पड़ोस के लोग अपने 100% अंक प्राप्त किए हुए बच्चे का दाखिला इन संस्थानों में करवातें हैं और पड़ोस के 99.9 प्रतिशत अंको को प्राप्त करने वाले बच्चों को या अभिभावकों को चिढ़ाने का काम करते हैं कि मेरे बच्चे का दाखिला तो उस कॉलेज में हो गया है आपके बच्चे का नहीं हुआ क्या?

मजबूरन निजी संस्थानों में दाखिला लेना।

समझ ही नहीं आता कि हमारे देश की शिक्षा प्रणाली किस ढर्रे की ओर चली जा रही है? 100% कट ऑफ लिस्ट कहां तक जायज है? सभी जानते हैं कि सेंट्रल यूनिवर्सिटी के अंतर्गत आने वाले इन कॉलेजों में दूसरी, तीसरी या चौथी कट ऑफ लिस्ट बहुत ही कम निकलती है। यदि निकल भी गई तो उसमें भी 97% अंक प्राप्त करने वाले को ही स्थान मिलेगा।

परंतु जो 90% से ऊपर के अंको को प्राप्त किए हुए अन्य प्रखर बुद्धि के छात्र है, जिनका सपना इन प्रतिष्ठित संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करने का रहा है, वे कहां जाएंगे? उन्हें मजबूरन निजी संस्थानों में दाखिला लेना पड़ता है, जहां लाखों की डोनेशन दे कर के बड़ी महंगी शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती है। आखिर आजादी के 74 साल बाद भी वे क्यों इस खर्चीली शिक्षा व्यवस्था में उलझ कर अपने साथ – साथ अपने परिवार वालों का भी नुकसान करें।

1965 में कोठारी कमीशन।

1965 में कोठारी कमीशन की अनुशंसाओं ने भारत सरकार को भारतीय शिक्षा प्रणाली पर देश की जी डी पी का 6% खर्च करने की अनुशंसा की थी। परंतु कमीशन की एक न मानी गई। वही पुराना शैक्षणिक ढर्रा अद्यतन आजादी के बाद अपनाया जाता रहा है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020

आज राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 लागू जरूर की गई है, जिसमें देश की जी डी पी का 6% शिक्षा पर खर्च करने का दावा भी केंद्र सरकार द्वारा किया जा रहा है। परंतु जनता को न्याय तब तक नहीं मिलेगा जब तक यह सारी बातें जमीनी स्तर पर हकीकत में क्रियाशील नहीं होती।

मात्र घोषणा करवाना और किसी व्यवस्था में प्रावधान करवा देना किसी बात को पूर्ण रूप से फलीभूत होने का प्रमाण नहीं होता। किसी बात की पूर्णता के लिए उसका विधिवत धरातल पर घटित होना बहुत जरूरी होता है।

प्रश्न उठता है…

सवाल खड़े होते हैं कि इतने लंबे अरसे के बाद भी आखिर क्यों देश की राजधानी में सरकारी शिक्षण संस्थानों की बढ़ोतरी नहीं हो पाई? क्यों हर सरकारें ‘थोथा चना बाजे घना ‘वाला राग आलापती रही?

संस्थान वही, संस्थानों में सीटें वही और उस पर छात्रों की तादात निरंतर बढ़ती जा रही है। बढ़ती छात्र तादात के हिसाब से सरकारों को शिक्षण संस्थानों का विकास करना चाहिए था और इन संस्थानों में सीटों की अभिवृद्धि करनी चाहिए थी। परंतु ऐसा नाम मात्र को ही देखने में मिला है।

प्रश्न उठता है क्या सरकार जानबूझकर के भारतीय शिक्षा व्यवस्था को निजी शिक्षण व्यवस्था की झोली में डालने के चक्कर में है या फिर उसे अपने देश में जी रहे नव शिक्षार्थियों की कोई चिंता ही नहीं है?

देश के मानव संसाधन को संचालित करना, व्यवस्थित करना और उनकी सुविधाओं के प्रावधानों को प्रबंधित करना राज्य एवं केंद्र सरकार का संयुक्त दायित्व होता है। परंतु इस मुद्दे पर सब के सब अपना पल्ला झाड़ते हुए से नजर आ रहे हैं। 100% की कटऑफ कहां तक तर्क संगत और न्याय संगत है? इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

सवाल भारतीय शिक्षा व्यवस्था के मूल्यांकन ढांचे पर।

इसमें तो सवाल भारतीय शिक्षा व्यवस्था के मूल्यांकन ढांचे पर भी खड़े होते हैं कि क्या सारे की सारी परीक्षाएं वस्तुनिष्ठ विधि से ही करवाई जाती है? क्या स्कूली शिक्षा प्रणाली के मूल्यांकन में व्याख्यात्मक और सरांशात्मक परीक्षाओं का कोई स्थान नहीं है? यदि है तो फिर 100 में से 100 अंक प्राप्त होने का सवाल ही खड़ा नहीं होता?

आखिर क्यों हमारे देश के शिक्षाविद इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हैं? खैर सरकार और राजनीतिज्ञों से तो इस मामले में बात करना ही बेकार है। एक शिक्षक होने के नाते मैं यह बड़े दावे के साथ कह सकता हूं कि स्कूली शिक्षा में 100 में से 100 अंक प्राप्त करना वर्तमान मूल्यांकन प्रणाली की विश्वसनीयता और वैधता पर कहीं ना कहीं सवाल जरूर खड़े करता है।

क्या एक भी बिंदी की गलती बच्चा नहीं कर रहा है? क्या एक भी सवाल या फिर एक भी शब्द बच्चों से गलत नहीं हो रहा है? इतना ही नहीं भाषा, राजनीतिक शास्त्र, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और गणित जैसे कई विषयों में कहीं ना कहीं बच्चों से जरूर चूक हो जाती है। उन सब चूकों को नजरअंदाज करके 100 में से 100 अंक बच्चों को प्रदान करना कहीं से भी उचित नहीं जान पड़ता।

शिक्षा प्रणाली की और व्यवस्थाओं की तारतम्यता का ना होना।

इससे हम बच्चे को अहम और वहम के चक्रव्यू में डालते जा रहे हैं। और इसके साथ – साथ प्रतिस्पर्धात्मक बुद्धि को रखने वाले छात्रों और अभिभावकों को निराशा और हताशा की ओर धकेलते जा रहे हैं। अधिक से अधिक अंक प्राप्त करना आज के बच्चों और अभिभावकों का एक शौक और फैशन बन गया है।

यदि सर्वाधिक अंक किसी अभिभावक का बच्चा नहीं लाता है तो वह पड़ोसी के बच्चे का उदाहरण देकर उस पर अधिक से अधिक अंक प्राप्त करने का दबाव बनाता है। प्रतिस्पर्धा की इस घिनौनी लड़ाई में वह बच्चा कई बार कम नंबर आने पर आत्महत्या जैसे कदम उठा लेता है, जो कहीं से भी तर्कसंगत और ठीक सिद्ध नहीं होता। इन सब बातों के पीछे मुख्य कारण शिक्षा प्रणाली की और व्यवस्थाओं की तारतम्यता का ना होना ही होता है।

भारत के बच्चे -बच्चे को सरकारी शिक्षण संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करने का पूरा-पूरा अधिकार प्राप्त हो।

जनसंख्या की दृष्टि से शिक्षण संस्थान और उनकी सीटें निरंतर बढ़ती जानी चाहिए न कि स्थिर रहनी चाहिए। कट ऑफ लिस्ट भी 100% कहीं से भी न्याय संगत नहीं हो सकती। निजी शिक्षण संस्थानों के चंगुल से भारतीय शिक्षा व्यवस्था को बाहर निकाल करके भारत के बच्चे -बच्चे को सरकारी शिक्षण संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करने का पूरा-पूरा अधिकार प्राप्त होना चाहिए।

भारत के शिक्षार्थी और अभिभावक का शोषण किसी भी हालत से नहीं होना चाहिए। इन्हीं सब बातों का प्रावधान करना देश की और राज्य की सरकारों का सामूहिक दायित्व होता है। परंतु सरकारें ऐसा कुछ भी नहीं कर रही है। आजादी के इतने दिनों के बाद भी देश में नाम मात्र को ही शिक्षण संस्थानों में वृद्धि की गई है और उन शिक्षण संस्थानों में सीटों के निर्धारण में भी नाम मात्र की ही वृद्धि हुई है।

देश का होनहार छात्र निराश – हताश।

ऐसे में देश का होनहार छात्र निराश – हताश होकर के गलत कदम नहीं उठाएगा तो और क्या करेगा? यहां यह भी स्पष्ट किया जाना जरूरी है कि 90% अंक प्राप्त करने वाला छात्र भी कोई कमजोर नहीं होता। वह भी एक तीव्र बुद्धि और प्रखर व्यक्तित्व होता है। ऐसे में उसे निराश और हताश होने की कोई जरूरत नहीं है बल्कि उसे अपने अस्तित्व को बनाए रखना चाहिए और निरंतर व्यवस्थाओं के साथ संघर्ष करके अपने भविष्य को संवार कर देश के भविष्य को संवारने की कोशिश करनी चाहिए।

निराशा और हताशा में गलत कदम उठाने की अपेक्षा विपरीत परिस्थितियों का सामना करके अपने लिए सफलता के नए रास्ते गढ़ना मानव जीवन का सबसे बड़ा कर्तव्य है। अतः देश के हर नौजवान को इन चुनौतियों से घबराना नहीं चाहिए बल्कि इनको उल्टी चुनौती देकर के इन्हें हराना चाहिए।

समाज की मानसिकता में बदलाव लाने की जरूरत।

समाज की मानसिकता को भी अपने आप में बदलाव लाने की जरूरत है। यदि आपके बच्चों ने सर्वाधिक अंक प्राप्त कर भी लिए हैं तो ऐसे में दूसरों को चिढ़ाने और जलील करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए बल्कि एक अच्छे नागरिक होने के नाते और एक अच्छा पड़ोसी होने के नाते या फिर एक अच्छा रिश्तेदार होने के नाते हमें एक दूसरे को निरंतर प्रोत्साहित करना चाहिए।

अंतरराष्ट्रीय सर्वे में हमारे देश की शिक्षा प्रणाली।

सवाल यह भी खड़ा होता है कि यदि 100% अंक प्राप्त करने योग्य प्रतिभाएं निखारने की क्षमता हमारे देश की शिक्षा प्रणाली रखती है तो फिर वैश्विक शिक्षण पायदान पर अपने आप को लड़खड़ाता हुआ सा महसूस क्यों करती है? क्यों अंतरराष्ट्रीय सर्वे में हमारे देश की शिक्षा प्रणाली को विशेष स्थान प्राप्त नहीं होता?

किसी अमीर धनवान और रसूखदार घर आने का बच्चा तो निजी शिक्षण संस्थानों में शिक्षा ग्रहण कर भी ले परंतु मध्यवर्ग और गरीब सर्वहारा वर्ग का होनहार छात्र इस 100% कटऑफ की व्यवस्था वाली शिक्षा प्रणाली में पिछड़ जाएगा।

.001 प्रतिशत से कटऑफ सूची में दाखिला ना मिलने के कारण एक तो वह बेचारा सरकारी शिक्षण संस्थानों से न्यारा रहेगा और उधर पैसों की तंगी के चलते उसे निजी स्कूलों से भी बाहर ही रहना पड़ेगा। ऐसे में उसकी अभिलाष, उसकी प्रतिभा और उसका स्वाभिमान सबका सब चोटिल हो जाता है।

सैद्धांतिक शिक्षा प्रणाली से हटकर प्रायोगिक शिक्षा प्रणाली की जरूरत।

समय रहते ही यदि देश की सरकारों ने इस दिशा की ओर ध्यान नहीं दिया तो देश में कुंठा और अराजकता का वातावरण धीरे – धीरे बढ़ता चला जाएगा। सैद्धांतिक शिक्षा प्रणाली से हटकर प्रायोगिक शिक्षा प्रणाली पर जब तक जोर नहीं दिया जाएगा तब तक राष्ट्रीय शिक्षा नीति का समूचा मसौदा भी बेकार ही सिद्ध होगा।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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Conclusion:

  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से बखूबी समझाने की कोशिश की है – सैद्धांतिक शिक्षा प्रणाली से हटकर प्रायोगिक शिक्षा प्रणाली पर जब तक जोर नहीं दिया जाएगा तब तक राष्ट्रीय शिक्षा नीति का समूचा मसौदा भी बेकार ही सिद्ध होगा। 100% कटऑफ की व्यवस्था वाली शिक्षा प्रणाली को हटाना होगा।

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यह लेख (आखिर कहां जा रही है भारत की शिक्षा व्यवस्था?) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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