Kmsraj51 की कलम से…..
♦ भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य संस्कृति का तुलनात्मक अध्ययन। ♦
उपरोक्त दोनों संस्कृतियों के तुलनात्मक अध्ययन से पहले यह जानना बहुत जरूरी है कि संस्कृति होती क्या है? आदरणीय भदंत आनंद कौसल्यायन के लेख “संस्कृति” के सार के आधार पर कहा जा सकता है कि संस्कृति शब्द अपने आप में इतना विशाल शब्द है, जिसका व्याख्यान करना आसान नहीं है। उसको सूक्ष्म शब्दों में बस इतना ही कहा जा सकता है कि मनुष्य को पीढ़ी दर पीढ़ी जो परंपरागत आंतरिक संस्कार, मानसिक उदगार और मनोभाव तथा भावात्मक एवं संकल्पनात्मक आयाम उत्तरोत्तर मिलते जाते हैं, उन्हें ही संस्कृति कहा जाता है।
यानी संस्कृति किसी समाज विशेष के मानव समुदाय का आंतरिक भावों से युक्त वह व्यवहार है, जो उसके बाह्य अचार व्यवहार में स्पष्ट नज़र आती है। इसे बाहरी तौर पर पुष्ट करने के तरीके व प्रसाधन सभ्यता है। पर जो सेवा, सत्कार और सामाजिक शिष्टत्व तथा मेजबानी के साथ-साथ लोकाचार के तौर तरीके होते हैं, वहीं संस्कृति है।
यानी संस्कृति मानव प्राणी का अन्तःकरण है और सभ्यता उसकी बाहरी जीवन शैली व प्रसाधन। ये आंतरिक संस्कार ये भाव किसी समाज विशेष के अपने होते हैं। इनके यूं एक समाज विशेष का लहदा-सा होने के कारण, यह उस समाज विशेष की संस्कृति को अपना नाम देते हैं। इसी सन्दर्भ में भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति के तुलनात्मक अध्ययन को निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है:—
भारतीय संस्कृति ज्ञानधर्मी है तो पाश्चात्य संस्कृति विज्ञानधर्मी।
भारत की संस्कृति सनातनी संस्कृति रही है। यह ऋषि – मुनि परंपराओं से उद्भासित और विकसित होने के साथ – साथ अनेकों आततायियों के अक्रमणों और कब्जों से भी लम्बे समय तक प्रभावित रही। यहां तक कि पश्चिम के देशों के कब्जे में भी रही।
परंतु इस संस्कृति की प्रधान बात यह रही कि इतना कुछ होने के बाबजूद भी इसने विश्वभर में अपना अस्तित्व अभी तक नहीं खोया। यह इस संस्कृति का ज्ञानधर्मी होने का नतीजा है। यहां जो भी अक्रांता आया, वह इस संस्कृति को नष्ट करने की हर सम्भव कोशिश करता गया पर इस संस्कृति ने अक्रांताओं की संस्कृति के आवश्यक गुणों को उल्टा अपने संस्कारों में समेट कर खुद की संस्कार सृजनाता में इज़फा ही किया। अपना कुछ नहीं खोया। अपना ज्ञान बढ़ाया ही है घटाया नहीं है।
मैकाले जैसे लोगों ने तो इस संस्कृति को नष्ट करने के लिए 1936 ई. में भारत की शिक्षा नीति तक बदल डाली। परन्तु इतना कुछ होने के बाबजूद भी भारतीय संस्कृति का वे कुछ नहीं बिगड़ पाए। इसके पीछे असलियत यह है कि संस्कृति आंतरिक विषय है यह कोई बाह्य विषय नहीं है, जिसे अपनी मर्जी से हम ढाल सके।
यह एक बार जिस तरह से जिस सांचे में ढल जाता है फिर उसी ढांचे में ही तब तक रहता है, जब तक उसी आचार व्यवहार के लोगों को छोड़ कर व्यक्ति कहीं दूर सदा के लिए नहीं चला जाता।
उधर पश्चिम की संस्कृति विज्ञानधर्मी है। उसे तो बात – बात पर प्रयोग चाहिए। बिना प्रयोग के वह किसी बात को मानने को तैयार ही नहीं है। परन्तु यह एक शाश्वत सत्य है कि दुनियां की कई बाते ऐसी है, जो मात्र ज्ञान से ही समझ में आती है। वे विज्ञान के प्रयोगवाद का हिस्सा न कभी थी, न आज है और न ही तो कभी होगी।
भारतीय संस्कृति योगधर्मी और पाश्चात्य संस्कृति प्रयोगधर्मी।
यह पूरी दुनियां जानती है कि भारत की भूमि तप और त्याग की भूमि रही है। विश्वभर की प्राच्य विद्याओं का उद्गम स्थल यही आर्य क्षेत्र ही इतिहास में भी बताया जाता है। यहां की संस्कृति योगधर्मी रही है। यहां मनुष्यता को जांचने और मापने का पैमाना तो सदियों से योग रहा ही रहा है पर समृद्ध और खुशहाल जीवनयापन का सशक्त साधन भी यही योग माना जाता आ रहा है। इतना ही नहीं यह एक सटीक और कारगर सूत्र भी सिद्ध हो चुका है। वरना पूरी दुनियां आज भारत की इस विद्या का अनुसरण क्यों करती?
उधर पश्चिम में जीवनयापन और मनुष्यता के मूल्यांकन का आधार प्रयोगवाद है। प्रयोगवाद स्वार्थ आधारित होता है। जब तक कोई व्यक्ति या वस्तु हमारे काम की है, तब तक तो उससे हम जुड़े रहते हैं और जब वह हमारे लिए बेकार हो जाती है, उस वक्त हम उसे उसी के हाल पर छोड़ देते हैं। यह व्यवस्था पारिवारिक विघटन, वृद्ध जीवन अव्यवस्था और सामाजिक विघटन की पैरोकार है।
भारतीय संस्कृति संस्कारधर्मी है और पाश्चात्य संस्कृति विकारधर्मी है।
भारत की आद्य संस्कृति में संस्कारों का जो प्रावधान बनाया गया था, वे संस्कार आज भी उतनी ही अहमियत हमारे समाज में रखते हैं। ये संस्कार 16 संस्कारो के नाम से जाने जाते हैं। गर्भाधान से ले कर मृत्यु संस्कार तक इन संस्कारों में एक क्रमिक व्यवस्था है और एक पवित्र प्रावधान है।
जन्म, मुंडन, उपनयन, विवाह, मृत्यु इत्यादि संस्कार विशेष महत्व के हैं। हमारे यहां प्रेम भी विवाह के बाद ही होता है जबकि पश्चिमी संस्कृति विकार के हिसाब से चलती है।
जैसे मानव शरीर में विकार आता है वैसे ही वह सांसारिक सुखों को भोगने की पैरोकारी करती है। कोई संयम साधना नहीं। भले ही फिर चाहे समय से पूर्व ही व्यक्ति इन भौतिक सुख सुविधाओं से विमुख हो कर निराशा और हताशा में ही क्यों न चले जाए।
किसी आयु विशेष में किसी कार्य को करने का कोई उचित क्रम व प्रावधान पश्चिमी संस्कृति में नहीं है, जिसके कारण पश्चिमी संस्कृति के लोग समय से पहले ही जीवन के कई क्षणों का उपभोग करके परेशान होते हैं और भारतीय योग साधना की शरण में आते हैं।
भारतीय संस्कृति अध्यात्मवादी है और पश्चिमी संस्कृति भौतिकतावादी है।
यह सर्वविदित है कि भारत पुरातन काल से ही अध्यात्म का पैरोकार रहा है और उसी लीक पर चल रहा है। भारतीय संस्कृति बाह्य भौतिक संसार की अपेक्षा आंतरिक आध्यात्मिक जगत की ओर ज्यादा ध्यान देती है, जो इस संस्कृति का मुख्य आकर्षण भी है और ताकत भी।
इसी आकर्षण और ताकत को तोड़ने के लिए मैकाले जैसे लोगों ने भी आधुनिक शिक्षा प्रणाली का प्रारम्भ कर के यहां की गुरुकुलीय व्यवस्था को विलुप्त करवाने की योजना बनाई। इसमें वे लोग कामयाब भी हुए। चलो वैश्विक धरातल पर यह व्यवस्था एक अच्छी व्यवस्था है पर इससे भारत की पुरातन कई विद्याएं समाप्त हो गई। हमारे यहां सूक्ष्म शरीरों द्वारा स्थूल शरीर से बाहर निकल कर लोक लोकोतर की यात्रा करने की गुप्त विद्याओं का प्रचलन गुरुकुलों में था।
वह जाता रहा। रही अध्यात्म की बात तो वह तो आस्था का विषय है। उसी का परिणाम है कि भारतीय संस्कृति में झाड़ – झांखड़ में भी देवी देवताओं के प्रतिरूप विद्यमान होते हैं, और उनके प्रति भी लोगों की वही आस्था व विश्वास होता है, जो बड़े मंदिरों में रहने वाले देवी देवताओं के प्रति होता है।
उधर पश्चिमी संस्कृति में अन्तरिक जीवन शैली की अपेक्षा बाह्य सुख सुविधाओं पर अधिक ध्यान दिया जाता है। इस बाह्य जीवन समृद्धि की दौड़ में पश्चिमी संस्कृति का समाज आंतरिक रूप से विद्रुप सा हो गया है, क्योंकि असली सुख बाहर नहीं अंदर मिलता है।
भारतीय संस्कृति अस्थावादी है और पश्चिमी संस्कृति विरास्तवादी।
भारत की संस्कृति आंतरिक भावनाओं से सम्बन्ध रखने वाली एक विशुद्ध संस्कृति है। इसमें जीवन का हर रिश्ता आस्था और विश्वास पर ही टिका है। हमारे आपसी व्यवहार और क्रियाव्यपार आस्था पर आधारित है।
भारतीय समाज में बजुर्गों के पास कुछ हो या नहीं पर फिर भी जीवन की आस्था के आधार पर हम उनके प्रति पूर्ण जबावदेह रहते हैं। पश्चिमी संस्कृति में यह जवाबदेही मात्र विरासत के आधार पर सुनिश्चित होती है।
भारतीय संस्कृति संतोषवादी है और पश्चिमी संस्कृति मदहोशवादी।
भारतीय संस्कृति का जनमानस स्थिरीकरण और संतोष का पक्षधर है। यहां की मानवीय भावना थोड़े में ही गुजर कर संतोष करने वाली है। अनावश्यक भ्रमण के खिलाफ और एक जगह ठहराव करके संतोष करने वाली संस्कृति है। पश्चिमी संस्कृति निरन्तर भ्रमण प्रिय और मदहोशवादी है।
भारतीय संस्कृति सतरकतावादी है और पश्चिमी संस्कृति तर्कतावादी।
भारतीय संस्कृति सतरकतावादी संस्कृति है। यहां की मानव प्रकृति अपने जीवन के उद्धार के लिए हमेशा सतर्क रहती है। पाप – पुण्य का ख्याल क्षण-क्षण यहां के मानव मस्तिष्क को झकझोरता रहता है।
पश्चिमी संस्कृति के लोगों का मस्तिष्क हर बात को तर्क की कसौटी पर तोलता रहता है। बिना तर्क के उस संस्कृति में कुछ भी नहीं किया जाता।
भारतीय संस्कृति समष्टि वादी है और पाश्चात्य संस्कृति व्यष्टि वादी है।
भारतीय संस्कृति वसुधैव कुटुंबकम् की समष्टि वादी सोच को रखने वाली है। इसमें ” परहित सरिस धर्म न ही भाई,” की भावना से कार्य किया जाता है और पश्चिमी संस्कृति व्यक्तिवादी विचारधारा की पक्षधर है। वहां अस्तित्ववाद का विशेष महत्व है।
भारतीय संस्कृति आदर्शवादी है और पाश्चात्य संस्कृति यथार्थवादी है।
भारतीय संस्कृति आदर्शवादी है। हमारे यहां कोई न कोई जीवन का आदर्श बनाया जाता है और हम उस आदर्श का अनुसरण करके अपने जीवन के चरित्र को उद्घाटित करते हैं।
वहां पश्चिम में आदर्श के स्थान पर यथार्थ को महत्व दिया जाता है। यथार्थ भी वे भौतिक संसार को ही मानते हैं। भारतीय संस्कृति के वेदान्तिक यथार्थ को नहीं।
निष्कर्ष—Conclusion
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि संस्कृति कोई भी बुरी नहीं होती है, परन्तु जिस संस्कृति में मानवता, प्रेम, करुणा, एकता, समग्रता के गुणों के साथ – साथ वैविध्य में भी एकत्व का समग्र भाव विद्यमान हो; वह संस्कृति अधिक उदात्त और विशाल समझी जाती है। इन सभी गुणों का समावेश भारतीय संस्कृति में ही देखने को मिलता है।
यहां, शकों, हुणों, डचों, मंगोलों से लेकर अंग्रेजों तक के आक्रमणों और साम्राज्यवादों के चलते कई बार व्यवस्थाएं विदेशी हाथों में गई और उन्ही व्यवस्थाओं के चलते भारतीय संस्कृति ने अपने सर्वग्रही स्वभाव के चलते उन सभी संस्कृतियों का भी बहुत कुछ अपने आप में शामिल कर लिया।
भले ही आज भारत स्वतंत्र राष्ट्र है पर फिर भी उन सभी संस्कृतियों का समावेश भारतीय संस्कृति में आज भी विद्यमान मिलता है। यही समावेश भारतीय लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता का समूचे विश्व में एक सशक्त उदाहरण है। इसी के चलते आज भारत पुनः विश्वगुरु होने की ताकत रखता है।
♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦
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- “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से बखूबी समझाने की कोशिश की है – संस्कृति होती क्या है? भारतीय संस्कृति, पाश्चात्य संस्कृति में क्या – क्या मुख्य फर्क है, किसी भी समाज के लिए संस्कृति क्यों जरूरी है। योग और ध्यान का हमारे जीवन में क्या महत्व है, संस्कृति मानव प्राणी का अन्तःकरण है और सभ्यता उसकी बाहरी जीवन शैली व प्रसाधन क्यों हैं। भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य संस्कृति का बहुत ही अच्छे से तुलनात्मक व्याख्या किया है। भारतीय संस्कृति वसुधैव कुटुंबकम् की समष्टि वादी सोच को रखने वाली है। इस लेख के माध्यम से आने वाली अगली पीढ़ी को भारतीय संस्कृति को समझने में आसानी होगी। उन्हें गर्व होगा अपने ज्ञान और योग से पूर्ण महान भारतीय संस्कृति पर। आपने कम शब्दो में सभी मुख्य फर्क है को सरलता पूर्व समझाया हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है इस लेख से जनमानस का कल्याण होगा।
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यह लेख (भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य संस्कृति का तुलनात्मक अध्ययन।) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।
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“सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)
इंसान says
अंतरजाल पर कुछ खोजते मैं यहाँ आ पहुँच श्री हेमराज ठाकुर जी की रचना, भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य संस्कृति का तुलनात्मक अध्ययन, से प्रभावित हुआ हूँ | अवश्य ही हम घर की दहलीज पर खड़े और बाहर की ओर मूह किये एक दूसरे को
सदैव ऐसे ही कहते आये हैं लेकिन घर की की दहलीज पर खड़े, हम मुड़ कर जब घर के भीतर की ओर झांकते हैं तो निश्चय ही हमारा आचरण उस प्पवन संस्कृति कि विरुद्ध पाया गया है | क्यों ?
kmsraj51 says
Thanks for your valuable feedback Ji.