Kmsraj51 की कलम से…..
War of Science and Knowledge | विज्ञान और ज्ञान की जंग।
विज्ञान और ज्ञान की जंग मानव समाज में बहुत पुरानी है। भारतीय पौराणिक कथाओं को पढ़े तो सुरों – असुरों या देव – दानवों की मुख्य लड़ाई ही शायद विज्ञान और ज्ञान की थी। सुर या देव जहां ज्ञान आधारित जीवन पद्धति के समर्थक थे तो असुर या दानव विज्ञान आधारित जीवन पद्धति के समर्थक थे शायद। ज्ञानाधारित जीवन पद्धति यदि मर्यादाओं, शालिंताओं, आस्थाओं और विश्वासों पर टिकी थी तो उसका मनोबल और नैतिक चरित्र भी उतना ही दृढ़ और उन्नत था।
उदाहरणार्थ — ऋषि मुनियों का जीवन देखा जा सकता है। वहीं आसुरी सिद्धांत की परम्परा इसके विपरित थी। वे स्व को महत्व देते थे तथा पुरुषार्थ को ही सब कुछ मानते थे। ज्ञानाधारित शिक्षा पद्धति परमार्थ प्रधान थी तो विज्ञानाधारित शिक्षा पद्धति स्वार्थ प्रधान थी। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि आसुरी सिद्धांत “वीर भोग्य वसुन्धरा” की सूक्ति पर चलता था।
असुर चमत्कार को प्रणाम करते थे तो देव और मानव भगवान को। तब सुरा, सुन्दरी, मांस, मदिरा का सेवन आसुरी प्रवृति का द्योतक था तो आज इनके सेवन से रहित प्राणी को गवार समझा जा रहा है। आज समाज की दशा और दिशा अलग होती जा रही है। आज पश्चिम की विज्ञानधारित शिक्षा पद्धति ने भारतीय समाज को पूरी तरह से जकड़ लिया है। जिसके चलते आज का मानव चालाक तो बहुत हो गया है पर मानसिक रूप से कमजोर और मलिन बहुत हो गया है। अब तो जबरन कहना पड़ता है:-
अपने ही देश में, अपनी ही सभ्यता संस्कृति बेगानी हो गई।
बस इसी के ही चलते, पश्चिम को घुसने में आसानी हो गई।
यह बात भी झुठलाई नहीं जा सकती कि संस्कारों, व्यवहारों तथा प्रतिकारों की जद्दोजहद नई और पुरानी पीढ़ी में हमेशा से चलती आई है और यह चलती रहनी चाहिए। क्योंकि परिवर्तन प्रकृति का नियम है और परिवर्तन संघर्ष धर्मी प्रक्रिया है।
सकारात्मक परिवर्तन सामाजिक विकास के लिए जरूरी है फिर भले ही पुरानी पीढ़ी चाहे उसका प्रतिकार ही क्यों न करती रहे। हां नकारात्मक परिवर्तन का प्रतिकार नई पीढ़ी को भी स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि हम मानव प्राणी है और मानव प्राणी होने के कारण हमे मानव समाज के हित के लिए प्रतिस्थापित नीति और नियमों को सहेज कर रखना चाहिए।
फिर भले ही वे नियम अवैज्ञानिक या अप्राकृतिक ही क्यों न हो। यदि ऐसा न किया गया तो सदियों से संस्कृति और सभ्यता की मर्यादाओं में बंधा मानव समाज पढ़ा लिखा पशु समाज बन जाएगा; जिसमें न ही तो दया शेष रहेगी और न ही लाज शर्म।
वह जंगली जीवन की तरह कामुक और शक्ति आधारित हो जाएगा। जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। वह एक मनमुखी समाज को जन्म देगा, जो मानव समाज के लिए सुखद अनुभव नहीं होगा।
हमारी शिक्षा पद्धति भक्ति प्रधान थी तो आज हम पर संचालित मैकाले माडल की पश्चिमी शिक्षा आसक्ति और शक्ति आधारित हो गए है। यही कारण है कि आज समाज मानसिक रूप से तो अपवित्र होता जा रहा है पर शारीरिक तौर पर पवित्र और सुन्दर बनने की कोशिश कर रहा है। फिर वह बाह्य पवित्रता चाहे कासमैटिक फुहड़ता आधारित ही क्यों न हो।
आज सचमुच मानवीय मूल्यों का निरन्तर पतन होता जा रहा है। यह सब काम विज्ञान आधारित शिक्षा ने खराब किया है। हमारी ज्ञान आधारित शिक्षा बहुत उन्नत थी, है और रहेगी। हमारे यहां योग को महत्व दिया जाता है और उनके पश्चिम में प्रयोग को महत्व दिया जाता है। हमारे यहां प्यार को महत्व दिया जाता है तो उनके वहां विकार को महत्व दिया जाता है। हमारे यहां सम्भोग को दर्शन की दृष्टि से देखा जाता है तो उनके वहां सम्भोग को प्रदर्शन की दृष्टि से देखा जाता है शायद। यदि ऐसा नहीं है तो वर्तमान समाज में युवा पीढ़ी में फिल्मी जगत से प्रभावित हो कर अंग प्रदर्शन और अल्प वस्त्रीकरण की अवधारणा क्यों कर उत्पन हुई? क्या यह पछुआ का प्रभाव है या फिर कुछ और?
विज्ञान के मतानुसार संतानोत्पत्ति के लिए एक स्त्री और एक पुरुष चाहिए। वे आपस में रति क्रीड़ा करके दैहिक आनंद भी ले सकते हैं और संतान भी पैदा कर सकते हैं। उनके अनुसार यही प्राकृतिक नियम है। इसलिए मानव जाति को अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए भौतिक, रासायनिक और जैविक जरूरतों को पूरा करना कोई अपराध नहीं है।
जैसे पशु समाज में नर – मादा संयोग ही उत्पत्ति का आधार होता है। फिर वे नर – मादा सगे भाई – बहन हो या फिर मां – बेटा या पिता – पुत्री। पूरी तरह से ऐसी तो नहीं पर कुछ ऐसी ही आजादी आज की युवा पीढ़ी चाहती है शायद। यदि उन्हे उनके मन माफिक आजादी मिली तो वह दिन भी दूर नहीं है, जिस दिन मानव और पशु समाज के संतानोत्पत्ति के क्रिया व्यापार एक जैसे हो जाएंगे। कोई नाता रिश्ता नहीं रहेगा। वे रति क्रीड़ा, व्यसनीय क्रीड़ा और सौंदर्य प्रदर्शन में, अंग प्रदर्शन की पूर्ण स्वतंत्रता चाहते हैं। इस प्रणाली में अमर्यादा में जीना ही मानव जीवन का उद्देश्य समझा जाता है शायद। यहां चरित्र नाम की कोई चीज नहीं होनी चाहिए, ऐसी अवधारणा है।
जबकि हमारी संकृति ज्ञानाधारित शिक्षा की समर्थक है। यहां संतानोत्पत्ति के लिए एक पति और एक पत्नी मानव समाज में होना जरूरी है। यहां नातों रिश्तों की मानवीय सामाजिक नियमावली का बड़ा महत्व है। जो मानव समाज में बहुत ही जरूरी है। यहां पड़ोस की लड़की को भी लड़का बहन कहता है और लड़की उसे दिल से भाई कहती है। पर हां पछुआ रीत जब से आई है अब यह रिवायत बदलती जा रही है। बहन का स्थान मैडम और भाई का स्थान सर ने ले लिया है।
अब स्त्री – पुरुष एक दूसरे को भाई – बहन कहने से कतराते हैं। यहां पर स्त्री को बुरी नजर से देखना और पर पुरुष को बुरी नजर से देखना घोर अपराध समझा जाता हैं।यहां मर्यादा का पालन करना मानव जीवन का उद्देश्य समझा जाता है। यहां चारित्रिक पवित्रता की प्रधानता को महत्व दिया जाता है।
वहां पश्चिम में सब विपरीत है। हमारे गर्ल फ्रेंड या बॉय फ्रेंड की अवधारणा ही नहीं है और आज यह चलन भारतीय समाज में आम हो गया है। प्रेमी – प्रेमिका का रिश्ता हमारे यहां मुखर था और वह कुछ यूं था कि वे एक दूसरे के लिए मर मिटने वाले होते थे। प्रेमी के मृत्यु को प्राप्त होने पर प्रेमिका कई बार जौहर तक कर लेती थी। यह उनका पवित्र प्रेम और समर्पण था।
पर वहां पश्चिमी रिवायत में इसे तर्क की कसौटी पर कसा जाता है और इसे कोरी मूर्खता और नारी का शोषण कहते हैं। ठीक है कि यह नारी के ही साथ क्यों होता था।पत्नी की मृत्यु पर फिर पुरुषों को भी जौहर करना चाहिए था। पर यह भी झुठलाया नहीं जा सकता है कि जो माताएं बहनें जौहर करती थी, वे मानसिक रूप से कितनी दृढ़ और समर्पित रही होगी?
यही वे कारण थे जिनसे विदेशी उपनिवेशकों को भारतीय संस्कृति और सभ्यता को नष्ट करने की विचारणा जागी। उन्हे लगा कि यदि भारतीय संस्कृति और सभ्यता के शैक्षिक ढर्रे को पश्चिमी रीत में नहीं बदला गया तो इनका मनोबल तोड़ना बहुत ही मुश्किल होगा। जो उनके उपनिवेशवाद की राह में निरन्तर रोड़ा बनता जा रहा था।
हमारे भारत में गुरुकुल शिक्षा पद्धति थी। जिसमें अर्थोपार्जन की शिक्षा बाद में दी जाती थी, पहले सामर्थ्य उपार्जन और जनोपार्जन की शिक्षा दी जाती थी। हमारे यहां शिक्षार्थी को सरकारी सेवाओं में तैनात होने की शिक्षा बाद में दी जाती थी। पहले उसे मानव बनने की शिक्षा दी जाती थी। ऐसा नहीं है कि भारतीय शिक्षा प्रणाली में विज्ञान नहीं था। ऐसा विज्ञान था कि सुन कर सब दंग रह जाए। हमारे यहां शरीर छोड़ कर आत्मा को आकाश में भ्रमण कराने की विद्या आती थी।
पढ़े योग वशिष्ठ, जिसमें महर्षि वशिष्ठ भगवान राम को उस विद्या से परिचित करवाते हैं। भगवान शिव को मनुष्य का सिर काटकर पर जीवो का शीश स्थापित करने की विद्या भी आती थी। उदाहरण श्री गणेश जी और प्रजापति दक्ष के सिरों का पुनर्स्थापन है। पर यह विद्या अपात्र अर्थात स्वार्थी लोगों को नहीं दी जाती थी। यदि यह अपात्र को दी भी गई होती तो अनर्थ हो गया होता।
आज भले ही वे परम गोपनीय विज्ञानाधारित रहस्य हमारे पुरखों के साथ दफ़न हो गए हो। पर वह अपने आप में एक परम विज्ञान था। यदि ऐसी कला आज के वैज्ञानिक युग में हमे आ जाती तो हम तो अपने आप को ही हिरण्याक्षिपु की तरह भगवान कहलवाने लगते। अपनी ही संतानों के दुश्मन बन बैठते। छुटपुट उदाहरण तो फिर भी ऐसे देखने को आज भी मिल ही जाते हैं।
भारत में आज भी ऐसे वैद्य विद्यमान हैं, जो नाड़ी पकड़ कर आदमी का सारा एम आर आई, सी टी स्कैन तथा एक्स रे कर दे। मानो वे चलती फिरती सजीव पारदर्शी मशीनें हैं। पर उस सामर्थ्य उपार्जन वाली कड़ी साधना वाली विद्या को कोई क्यों सीखे और उसे कोई विज्ञान क्यों कहे? क्योंकि वह विद्या अनुशासन प्रधान है और आज आदमी अनुशासन चाहता ही नहीं है।
यह परम सत्य है कि 84 लाख योनियों से भटकता – भटकता मुश्किल से जीव अन्त में कहीं मनुष्य योनि में जन्म लेता है। बाकी सारी योनियां पशु योनियां या जड़ योनियां हैं। ऐसे में पाश्विकता का मनुष्य में रहना स्वभाविक है। पर वह पाश्विकता हमारे व्यवहार में दिखे, इसका मानव समाज में प्रतिकार अनादि काल से होता आ रहा है और होना भी चाहिए।
सभी जानते हैं कि विवाह करने के पश्चात पति – पत्नी क्या करते हैं? यहां तक कि मां – बाप, बहन – भाई सबको नव युग्म के पारस्परिक पति – पत्नी व्यवहार का पूरा पता होता है पर इसका यह मतलब तो कतई नहीं होता कि वे दोनों पति – पत्नी व्यवहार खुले आम पशुवत करे।
मानव समाज में हर कार्य की एक मर्यादा होती है, जो रहनी भी चाहिए। वरना मानव और पशु समाज में कोई खास अन्तर भविष्य में नजर नहीं आएगा। भविष्य पुराण और सूक्ष्म वेद की भविष्यवाणी क्यों इतनी पहले ही सिद्ध होती जा रही है कि घोर कलियुग में न ही तो सेवा, साधना रहेगी और न ही तो प्यार – प्रेम। हर नर – नारी चरित्रहीन होंगे और अल्पायु होंगे। नातों रिश्तों की कोई कद्र ही नहीं होगी।
खैर यह कहना भी गलत होगा कि विज्ञान पूरी तरह से खराब है। पर कई ऐसे पहलू हैं, जहां विज्ञान का सहारा लेना कतई ठीक नहीं है। मानवीय मूल्यों के क्षेत्र में विज्ञान को ठूंसेंगे तो स्त्री-पुरुषों में झगड़ा हो जाएगा। सामाजिक मान्यताओं में उथलपुथल मच जाएगी। निरन्तर होते जा रहे मानवीय मूल्यों के पतन के चलते देश की शासनिक और प्रशासनिक ताकतों को नैतिक मूल्यों के प्रतिस्थापन के लिए स्कूली शिक्षा प्रणाली में आज पुरातन योग और संस्कार शिक्षा को भी जोड़ना होगा। तभी मनुष्यों का और मानव समाज का उत्थान सम्भव है।
हमे आज पुनः अपनी विकार के दमन की शिक्षा प्रणाली को पाठ्यक्रम में जोड़ना होगा। यदि यूं ही विकार को जागृत करने वाली प्रणाली हावी रही तो हमारी आगामी पीढ़ियां भीरू और अपंग पैदा होगी। क्योंकि अति किसी भी चीज की ठीक नहीं होती।जब आदमी अति विकारी या अति संस्कारी हो जाता है तो वह मानव समाज के संतुलन में नहीं बैठता। इसलिए सृष्टि के संचालन के लिए न ही तो अति विकार भला है और न ही तो अति संस्कार। इसीलिए भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि अर्जुन समत्व को ही योग कहते है।
♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला – मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦
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- “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस लेख के माध्यम से समझाने की कोशिश की है — हमे आज पुनः अपनी विकार के दमन की शिक्षा प्रणाली को पाठ्यक्रम में जोड़ना होगा। यदि यूं ही विकार को जागृत करने वाली प्रणाली हावी रही तो हमारी आगामी पीढ़ियां भीरू और अपंग पैदा होगी। क्योंकि अति किसी भी चीज की ठीक नहीं होती।जब आदमी अति विकारी या अति संस्कारी हो जाता है तो वह मानव समाज के संतुलन में नहीं बैठता। इसलिए सृष्टि के संचालन के लिए न ही तो अति विकार भला है और न ही तो अति संस्कार। इसीलिए भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि अर्जुन समत्व को ही योग कहते है। सभी जानते हैं कि विवाह करने के पश्चात पति – पत्नी क्या करते हैं? यहां तक कि मां – बाप, बहन – भाई सबको नव युग्म के पारस्परिक पति – पत्नी व्यवहार का पूरा पता होता है पर इसका यह मतलब तो कतई नहीं होता कि वे दोनों पति – पत्नी व्यवहार खुले आम पशुवत करे। मानव समाज में हर कार्य की एक मर्यादा होती है, जो रहनी भी चाहिए। वरना मानव और पशु समाज में कोई खास अन्तर भविष्य में नजर नहीं आएगा। भविष्य पुराण और सूक्ष्म वेद की भविष्यवाणी क्यों इतनी पहले ही सिद्ध होती जा रही है कि घोर कलियुग में न ही तो सेवा, साधना रहेगी और न ही तो प्यार – प्रेम। हर नर – नारी चरित्रहीन होंगे और अल्पायु होंगे। नातों रिश्तों की कोई कद्र ही नहीं होगी।
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यह लेख (विज्ञान और ज्ञान की जंग।) “हेमराज ठाकुर जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।
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