Kmsraj51 की कलम से…..
♦ श्रीलंका की स्थिति से सबक लेना जरूरी है। ♦
यूं तो आज विश्व के समस्त देशों में कहीं ना कहीं घमासान छिड़ा है। कोई अपनी राजनैतिक शक्ति को बढ़ाने की होड़ में लगा है तो कोई अपनी आर्थिक शक्ति को सब पर हावी करने पर लगा है। जहां एक ओर चीन और अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश अन्य शक्तिशाली देशों को आपसी कलह में डलवा कर आर्थिक और सामरिक सुरक्षा की दृष्टि से कमजोर करने के लिए प्रयास कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर कुछ छोटे और कमजोर देश स्वयं ही अपनी राजनैतिक ताकतों की मनमानियों के बोझ तले आर्थिक रूप से इतने कमजोर हो चुके हैं कि उनका दिवाला निकलने वाला है।
उपरोक्त सभी संदर्भों के उदाहरण यदि हम ढूंढना चाहे तो यूक्रेन और रशिया अन्तर कलह और इधर भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका की विकट आर्थिक स्थिति इसके ज्वलंत उदाहरण है।
⇒ जनता का आक्रोश
यह बात किसी से छुपी नहीं है कि हाल ही में श्रीलंका के राष्ट्रपति ने अपने देश को छोड़कर मालदीव को पलायन किया है। उनकी गैरमौजूदगी में श्रीलंका के प्रधानमंत्री श्रीलंका के अंतरिम राष्ट्रपति घोषित होकर श्रीलंका की शासन व्यवस्था को चलाने की हरकत में आए हैं। परंतु जब यह खबर श्रीलंका की आम जनता को प्राप्त हुई तो समस्त जनता श्रीलंका की सड़कों पर इस पूरे घटनाक्रम का विरोध करने के लिए उतर आई। इतना ही नहीं श्रीलंका के अंतरिम राष्ट्रपति ने इस पूरी मुहिम को रोकने के लिए श्रीलंका की सेना को पूर्ण रूप से अधिकृत किया। उसके पश्चात भी गुस्साई जनता को प्रधानमंत्री भवन पर कब्जा करने से कोई नहीं रोक पाया। अर्थात इन घटनाओं से स्पष्ट होता है कि जनता का आक्रोश जब अपने चरम पर होता है तो बड़ी से बड़ी ताकत भी उसे रोकने में नाकाम रहती है।
⇒ कौन जिम्मेदार
सवाल ये उठता है कि श्रीलंका में ये परिस्थितियां पैदा क्यों हुई ? आर्थिक विशेषज्ञों की माने तो श्रीलंका की आर्थिक स्थिति वर्तमान में इतनी खराब है कि उसका कुछ करके भी कुछ नहीं बन सकता। ना ही तो गाड़ियों को चलाने के लिए ईंधन प्राप्त हो रहा है और ना ही आम जनता की खानपान के लिए उचित रूप से राशन पानी की व्यवस्था हो पा रही है। इस पूरी व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने के लिए श्रीलंका की जनता राजपक्षे परिवार को जिम्मेवार ठहराए या फिर श्रीलंका के राष्ट्रपति की सनक को जिम्मेदार ठहराए। दोनों स्थितियों में बात एक ही है। यदि इस बात का विश्लेषण राजनीतिक विशेषज्ञों की दृष्टि से किया जाए तो यह दुर्दशा शासन व्यवस्था को परिवारवाद की पूंजी बनाने के कारण हुई है।
खैर कुछ भी हो। श्रीलंका की इस भयानक स्थिति से सभी राजनैतिक दलों को और सभी राष्ट्र अध्यक्षों को तथा राज्य प्रमुखों को गंभीरता से गौर करना चाहिए।राजनीतिक लोगों को राष्ट्र संचालित करने के लिए या फिर राज्य को संचालित करने के लिए जो शक्तियां जनता के द्वारा प्रदान की जाती है। सभी राजनीतिक लोग उन शक्तियों को अपना विशेषाधिकार ना माने बल्कि राज्य या राष्ट्र की सेवा करने के लिए जनता के द्वारा दिया गया आशीर्वाद समझे।
राज्य या राष्ट्र के खजाने को इस भाव से खर्च ना करें कि राष्ट्र की स्थिति ही कमजोर हो जाए। पूर्व में इतिहास के पन्नों में हमें उपनिवेशवाद की कई झांकियां देखने को प्राप्त होती है और उन झांकियों में उस राष्ट्र की असली जनता के साथ किस तरह का व्यवहार उपनिवेश वादियों के द्वारा किया जाता था; वह चित्र किसी के मन-मस्तिष्क से बाहर नहीं है। हम देख रहे हैं कि यह दशा जो आज श्रीलंका की हुई है; वह बहुत ही जल्द भारत के कई अन्य पड़ोसी देशों के साथ-साथ विश्व पटल पर कई छोटे देशों की भी होने वाली है। वे सभी छोटे देश जो अपने देश को संचालित करने के लिए निरंतर विश्व बैंक से या अंतरराष्ट्रीय स्तर के बड़े-बड़े पूंजीपति देशों से ऋण पर ऋण लिए जा रहे हैं। वे सभी ऐसी स्थिति में आने वाले हैं।
⇒ अर्थविदों की माने तो…
अर्थविदों की माने तो बांग्लादेश, भूटान, पाकिस्तान जैसे भारत के पड़ोसी देशों में से भी कई देश इस आर्थिक संकट की दलदल में फंसने की कगार पर खड़े हैं।अमेरिका एवं चीन जैसे बड़े-बड़े देश इन छोटे देशों को ऋण दे-दे कर बिल्कुल कमजोर करने पर तुले हैं और शायद यह पुनः उपनिवेशवाद की ओर बढ़ता हुआ एक कदम है।
खैर यह तो अंतरराष्ट्रीय धरातल पर आर्थिक रूप से दिवालिये के कगार पर खड़े राष्ट्रों की बात हुई। परंतु हम अपने ही राष्ट्र भारत की बात करें तो यहां भी कई राज्यों की स्थिति आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार इतनी कमजोर है कि यदि स्वयं वे स्वतंत्र राष्ट्र होते तो आज श्रीलंका से पहले उनका दिवाला निकल गया होता।
⇒ आर बी आई के आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट
यह मैं अपनी मर्जी से नहीं कह रहा हूं। आर बी आई के आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट को यदि ध्यान में रखा जाए तो आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार पंजाब, राजस्थान, गुजरात, पश्चिम बंगाल तथा बिहार जैसे राज्य की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। ये सभी राज्य, राज्य को प्राप्त ऋण लेने की अधिकृत सीमा से दो तीन गुना ऋण ले चुके हैं जो अब चुकता करना बहुत मुश्किल लग रहा है। ऐसे में यदि केंद्र सरकार इन राज्यों की आर्थिक मदद विशेष पैकेज देकर के करती है तो बात अलग है। वरना ये सभी राज्य गंभीर आर्थिक संकट में आने वाले हैं।
अब इस आर्थिक संकट में इन राज्यों को धकेलने की बात का कारण पूछा जाए तो सभी अर्थविदों का एक मत होता है कि यह पूरी स्थिति राजनैतिक दलों के लोकलुभावन घोषणा पत्रों की वजह से पैदा हुई है। कहीं बिजली फ्री, कहीं पानी फ्री, कहीं बस किराए में छूट तो कहीं राशन और अन्य सुविधाओं पर सब्सिडी प्रदान करके ये सभी राजनैतिक दल हर राज्य को निरंतर कर्ज के बोझ तले दबाते चले जा रहे हैं।
सत्ता पक्ष से अगर पूछा जाए तो वह पूर्व की सरकारों को इसके लिए दोषी ठहराता है और अगर विपक्ष से पूछा जाए तो वह सत्ता पक्ष को दोषी ठहराता है। इस पूरी विकट स्थिति की जिम्मेवारी लेने के लिए कोई भी तैयार नहीं है। इस तरह की ही वोट की राजनीति अगर होती रही तो वह दिन दूर नहीं कि हमारे राष्ट्र में भी यह गंभीर परिस्थिति पैदा हो जाए। जब तक यह थोपाथापी का खेल खत्म नहीं होगा। तब तक इस मामले पर पूर्ण विराम लगाना दूर की कौड़ी है।
⇒ जनता को मुफ्त की आदत डालने की कोशिश
देश की जनता को मुफ्त की आदत डालने की कोशिश किसी भी राजनैतिक दल को नहीं करनी चाहिए। मुफ्त खोरी से जनता निकम्मी होती है और वह देश की अर्थव्यवस्था को बिगाड़ने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ती। यहां अगर दूसरा कारण इसके पीछे बताया जाता है तो वह राष्ट्रव्यापी भ्रष्टाचार कहा जाता है। भ्रष्टाचार तो आज चंद लोगों को छोड़ कर, छोटे से लेकर के बड़े कर्मचारियों में इस तरह से घर कर गया है मानो वह उनका संवैधानिक अधिकार है।
कोई छोटे से छोटा कार्य भी किसी सरकारी कर्मचारी / अधिकारी से या फिर किसी गैर सरकारी क्षेत्र के अधिकारी से करवाना हो तो उसके लिए रिश्वत लिए बिना उनकी नियत काम करने की नहीं होती। जब उन्हें तनख्वाह की या कानून की दुहाई देते हैं तो अधिकतर लोगों का यही कहना होता है कि यह तो यहां की रीत है जी। यदि काम जल्दी करवाना चाहते हो तो ले दे करके निपट लो। वरना काटते रहो दफ्तरों के चक्कर।
⇒ भ्रष्ट व्यवस्था के चंगुल में
यूं तो भ्रष्टाचार के विरुद्ध बड़े से बड़े कानून बने हैं। परंतु जब कोई इस भ्रष्ट व्यवस्था के चंगुल में फंसता है तो कोई भी कानून उसकी किसी भी तरह की मदद नहीं कर पाता। देश को भ्रष्टाचार ने पूर्ण रूप से खोखला कर दिया है। यह मात्र एक देश की ही कहानी नहीं है। यह अंतरराष्ट्रीय बीमारी है। इसका इलाज करना बहुत कठिन लग रहा है।
यदि जनता एकता दिखाए और स्वार्थ से ऊपर उठकर के सर्व हित की बात करेगी तो इस लाइलाज बीमारी का इलाज करना भी संभव है। परंतु जनता है कि वह भी मुफ्त खोरी की आदत से पूरी तरह से मदहोश है और अपना उल्लू सीधा करने में हमेशा लगी रहती है। वह खुद घूंस खिला कर अपना हित साधने में मस्त है और इसे अपनी बुद्धिमानी और चालाकी समझती है।
उसे ना समाज की चिंता है और ना ही तो राष्ट्र की चिंता है। 100 में से दो चार लोग इस भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ जाते भी है तो उन्हें भी भ्रष्ट लोगों की फौज झूठे इल्जाम लगाकर धराशाई कर देती है। ना जाने क्यों हम लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं कि जब राष्ट्र है तो, तभी ही हमारी संपत्ति का महत्व है। वरना हमारे पास संपत्ति होकर के भी उसका कोई मोल नहीं है। इसलिए श्रीलंका की स्थिति को हम सभी को गंभीरता से लेना चाहिए और अपने राष्ट्र की आर्थिक मजबूती के लिए मिलकर प्रयास करना चाहिए।
⇒ राष्ट्र के प्रति समर्पित सरकार हो
मेरा मानना है आज हमारे राष्ट्र में एक ऐसी सरकार की आवश्यकता है जो राष्ट्र के प्रति समर्पित हो और राष्ट्र के आर्थिक कर्ज को दूर करने के लिए निरंतर प्रयासरत रहे। वोट की राजनीति ना करें। सभी राज्यों को वह सरकार दो टूक निर्देश दे सके कि अपने कर्मचारियों, अधिकारियों तथा व्यापारियों की कमाई का 10% हर मास अपने राज्य के कर्ज को उतारने के लिए साल-दो साल के लिए उनके खाते से काटकर इकट्ठा किया जाए और राष्ट्रीय स्तर पर तथा राज्य स्तर पर इस 10% अंशदान के लिए एक विशेष खाता राज्य स्तर पर और राष्ट्रीय स्तर पर खोला जाए।उन खातों को ऑनलाइन किया जाए। जिनमें पूरी तरह से पारदर्शिता हो। 7% हिस्सा राज्य के कर्ज को चुकाने के लिए लगाया जाए और 3% हिस्सा सभी राज्य राष्ट्रीय स्तर के कर्ज मुक्ति खाते में डालें ताकि राष्ट्रीय स्तर का कर्जा भी चुकाया जा सके।
भविष्य में तब तक राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर तक कोई विकास कार्य ना किया जाए जब तक राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर के कर्जे पूर्ण रूप से खत्म ना हो जाए। कर्ज मुक्त होने के बाद भी सभी राज्य एवं राष्ट्रीय सत्ता को इस तरह की कार्य योजना को प्रारूपित करना होगा कि फिर कभी हमें कर्ज के बोझ तले डूबने की नौबत ना आ सके।
⇒ सारे लेन देन डिजिटल माध्यम से हो
सभी का धन बैंकों में जमा होना चाहिए और सारे लेन देन डिजिटल माध्यम से ही होने चाहिए। नगद भुगतान पाई का भी मान्य न हो। फिर कोई भी न ही टैक्स चोरी करेगा और न ही भ्रष्टाचार करेगा। व्यक्तिगत धन संचय की भी एक सीमा तय होनी चाहिए और अचल संपत्ति की भी राजा से लेकर रंक तक एक सीमा तय हो। तय सीमा से ऊपर की सम्पत्ति सरकारी घोषित होनी चाहिए।
वेतनमान की सीमा कम की जानी चाहिए। दो तीन – तीन लाख तनख्वाह लेने वाले का वेतनमान यदि 50 हजार अधिकतम किया जाए तो उसी पैसे में उसके पूरे परिवार को रोजगार मिलेगा तथा देश का उत्पादन दर भी बढ़ेगा। इतना ही नहीं सभी के व्यस्त रहने से उत्पात भी घटेगा। वरना खाली दिमाग शैतान का घर।
जब चल और अचल सम्पत्ति के संग्रह की एक सीमा तय होगी तो कोई भी फिर उससे अधिक संचित नहीं करेगा। उसे खर्च करना ही होगा। ऐसे में सम्पति का समान वितरण होगा। पर इसके लिए सर्व प्रथम राजनेताओं और धनाढ्य वर्ग को अपना अहम छोड़ना पड़ेगा। वरना श्रीलंका के राष्ट्रपति की तरह न हो जाए।
यह ठीक है कि पेंशन का प्रावधान सभी को हो। फिर मैं देखता हूं कि कैसे नहीं मिलेगा हर हाथ को काम ? खैर मुझे मालूम है कि बहुत सारे कर्मचारी, अधिकारी एवं व्यापारी मेरी बात से बिल्कुल विपरीत होंगे। परंतु एक सच्चा नागरिक होने के नाते यह जिम्मेवारी हम सब लोगों को सामूहिक रूप से उठानी ही होगी।
इस अंशदान में मात्र कर्मचारी और अधिकारी तथा व्यापारी ही नहीं बल्कि आम जनता के साथ – साथ राजनेताओं को भी बढ़-चढ़कर के अपना योगदान देना चाहिए ताकि हमारी भविष्य की पीढ़ियां आर्थिक रूप से मजबूत हो और सामरिक रूप से सुरक्षित हो।
♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला – मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦
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- “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस लेख के माध्यम से समझाने की कोशिश की है — आप और आपका मकान, परिवार, संपत्ति तभी तक सुरक्षित है, जब तक आपका राष्ट्र मज़बूत और सुरक्षित हैं। सभी का धन बैंकों में जमा होना चाहिए और सारे लेन देन डिजिटल माध्यम से ही होने चाहिए। नगद भुगतान पाई का भी मान्य न हो। फिर कोई भी न ही टैक्स चोरी करेगा और न ही भ्रष्टाचार करेगा। व्यक्तिगत धन संचय की भी एक सीमा तय होनी चाहिए और अचल संपत्ति की भी राजा से लेकर रंक तक एक सीमा तय हो। तय सीमा से ऊपर की सम्पत्ति सरकारी घोषित होनी चाहिए। यह ठीक है कि पेंशन का प्रावधान सभी को हो। फिर मैं देखता हूं कि कैसे नहीं मिलेगा हर हाथ को काम ? खैर मुझे मालूम है कि बहुत सारे कर्मचारी, अधिकारी एवं व्यापारी मेरी बात से बिल्कुल विपरीत होंगे। परंतु एक सच्चा नागरिक होने के नाते यह जिम्मेवारी हम सब लोगों को सामूहिक रूप से उठानी ही होगी।
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यह लेख (श्रीलंका की स्थिति से सबक लेना जरूरी है।) “हेमराज ठाकुर जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।
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