Kmsraj51 की कलम से…..
♦ सभ्यता और संस्कृति। ♦
हम और हमारी नदी।
• विश्व जल दिवस के अवसर पर…
हम शैवालिनी के अन्तरीप हैं।
नहीं कहते की हम को छोड़ कर,
निर्झरणी बहती जाये हमें यह स्वरूप देती जाये।
शंकु, वीथिका, भूनासिका, उचनि, बलुआही अवारी,
इन सब को वर्तुलाकार उसने सृजन किया है।
पवित्र जल माँ है और इसी से हमारा अस्तित्व है,
मगर हम सब तो जजीरा हैं हममें नहीं प्रवाह हैं।
अटल अभ्यर्पण है हमारा इसके साथ,
चिर-काल से हम माँझा हैं पुलिनवती के,
लेकिन हम प्रवाही नहीं हैं।
चूंकि प्रवाहित होना हममें नहीं,
हम प्राण रणभूमि ही होंगे।
हम श्रवनेगें तो बचेंगें ही नहीं,
अंध्रि उन्मूलित होगी तैरना होगा।
ध्वस्त होगें, झेलना पड़ेगा और बह जायेंगे।
पुन: एक बार हम कल्क होकर भी,
किसी समय उत्पत्ति बन सकते हैं।
विशिका बन कर हम घनरस को थोड़ा
अमृष्ट ही करेंगे निर्रथक ही सब बनाएँगे,
जो हम जजीरा हैं सब।
नहीं यह है अभिशाप हम सबका है प्रारब्ध,
हम सरिता के अंगज हैं।
अध्यासीन हैं अर्णा के उछंग में,
वह दीर्घकाय भूभाग से हमको मिलती है,
इसके अलावा यह धरा अपने पुरखों की है।
हे सरिते, तुम यूं ही बहती चलो।
भू-भाग से जो दातव्य हमको मिला है,
वो हमें मिलता रहे सदा,
मलती, संस्कृति और संस्कार देती चलो।
जब ऐसा कभी हो आपका उल्लासों से या
दूसरों के किसी स्वेच्छाचार से उत्क्रमण से तुम बढ़ते रहो।
जल प्रलय तुम्हारा हिलकोर मारते उठे,
तब हे स्रोतस्विनी तुम कृतघ्नी ख्याति नाशिनी भीषण,
काल-प्रवाहिनी बन जाना।
हमें सब अंगीकार है यह भी,
उसी में रेणुका से होकर फिर बिछुड़ेंगे हम।
बसेंगें हम कहीं न कहीं फिर पैर रखेंगें,
कहीं पुन: फिर से खड़ा होगा नया अस्तित्व और स्वरूप।
हे मातु सरिते तुम उसे फिर से,
संस्कृति रीति नीति और संस्कार तुम ही देना।
♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव `परिमल` जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦
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- “सतीश शेखर श्रीवास्तव `परिमल`“ जी ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — हम बचपन से सुनते आ रहे है की “जल ही जीवन है” जल के बिना जीवन की कल्पना भी मुश्किल है। जल के बिना कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता ये सभी जानते है। अगर ऐसी ही स्थिति बनी रही तो हमारे आने वाली नई पीढ़ी को जल मिलेगा ही नहीं। प्रदूषण, कल कारखानों के कारण बढ़ता ही चला जा रहा है। कल कारखानों से निकलता हुआ कचरा और विषाक्त पदार्थ नदियों और तालाबों में प्रवाहित कर दिए जाते है। जिससे पीने योग्य पानी भी विषाक्त होता जा रहा है। इंसानो ने अंधाधुन पेड़ों को काटा जिस कारण वर्षा का संतुलन बिगड़ गया पूर्ण धरा पर। अभी भी समय है संभल जाओ और सभी संकल्प करों की प्रत्येक वर्ष एक पेड़ जरूर लगाएंगे और उसका देखरेख करेंगे तब तक जब तक वह पेड़ अपना खुराक धरा से खुद न लेने लगे। जब हम सभी पेड़ लगाएंगे तो फिर से सभी नदियों में भरपूर पानी बहने लगेगा, और सभी का जीवन सुखमय होगा।
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यह कविता (सभ्यता और संस्कृति। – हम और हमारी नदी।) “सतीश शेखर श्रीवास्तव `परिमल` जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।
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