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KMSRAJ51-Always Positive Thinker

“तू ना हो निराश कभी मन से” – (KMSRAJ51, KMSRAJ, KMS)

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कहानी-उपन्यास

सच्ची मानवता – संवेदनशीलता।

Kmsraj51 की कलम से…..

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ϒ सच्ची मानवता – संवेदनशीलता। ϒ

kmsraj51-true-humanity

प्यारे दोस्तों – एक Postman ने घर के दरवाजे पर दस्तक देते हुए कहा, “चिट्ठी ले लिजिये”। अंदर से एक बालिका की आवाज़ आई, “आ रही हूँ”। लेकिन तीन से चार मिनट तक काेई न आया ताे Postman ने फिर कहा, “अरे भाई! घर में काेई है क्या, अपनी चिट्ठी ले लाे”। लड़की की फिर आवाज़ आई, “Postman साहब, दरवाजे के नीचे से चिट्ठी अंदर डाल दीजिए, मैं आ रही हूँ”। “नहीं, मैं खड़ा हूँ, रजिस्टर्ड पत्र है, पावती पर तुम्हारे signature चाहिए”।

करीबन छह से सात मिनट के बाद दरवाज़ा खुला। Postman इस देरी के लिए झल्लाया हुआ ताे था ही और उस पर चिल्लाने वाला था लेकिन, दरवाज़ा खुलते ही वह चाैंक गया। एक अपाहिज कन्या जिसके पांव नहीं थे, सामने खड़ी थी।

Postman चुपचाप पत्र देकर और उसके signature लेकर चला गया। सप्ताह – दो सप्ताह में जब कभी उस लड़की के लिए डाक आती, Postman एक आवाज़ देता और जब तक वह कन्या न आती तब तक खड़ा रहता। एक दिन लड़की ने Postman काे नंगे पांव देखा।
दिपावली नज़दीक आ रही थी। उसने सोचा Postman काे क्या उपहार दूँ।

एक दिन जब Postman डाक देकर चला गया, तब उस लड़की ने जहाँ मिट्टी में Postman के पांव के निशान बने थे, उस पर काग़ज रखकर उन पांवाे का चित्र उतार लिया। अगले दिन उसने अपने यहाँ काम करने वाली बाईं से उस नाप के जूते मंगवा लिये।

दिपावली आई और उसके अगले दिन Postman ने गली के सब लाेगाें से ताे उपहार माँगा और साेचा कि अब इस बिटिया से क्या उपहार लेना? पर गली में आया हूँ ताे उससे मिल ही लूँ। उसने दरवाज़ा खटखटाया। अंदर से आवाज़ आई, “काैन ?” Postman उत्तर मिला। कन्या हाथ में एक Gift पैक लेकर आई और कहा, “अंकल, मेरी तरफ से दिपावली पर आपकाे भेंट है। “Postman ने कहा” तुम मेरे लिए बेटी के समान हाे, तुमसे मैं उपहार कैसे लूँ?” कन्या ने आग्रह किया कि मेरी इस उपहार के लिए मना न करें।

ठिक है कहते हुए Postman ने पैकेट ले लिया। कन्या न कहा, “अंकल इस पैकेट काे घर ले जाकर खाेलना। घर जाकर जब उसने पैकेट खाेला ताे विस्मित रह गया, क्योंकि उसमें एक जाेड़ी जूते थे। उसकी आँखे भर आई। अगले दिन वह Office पहुंचा और Postmaster से फरियाद की कि उसका तबादला फाैरन कर दिया जाए। Postmaster ने कारण पूछा, ताे Postman ने वे जूते टेबल पर रखते हुए सारी कहानी सुनाई और भीगी आँखाें और रूंधे कंठ से कहा, “आज के बाद मैं उस गली में नहीं जा सकूंगा। उस अपाहिज बच्ची ने मेरे नंगे पाँवाें काे ताे जूते दे दिये पर मैं उसे पाँव कैसे दे पाऊंगा ?”

सीख : संवेदनशीलता का यह श्रेष्ठ दृष्टांत है। संवेदनशीलता यानि, दूसराें के दुःख दर्द काे समझना, अनुभव करना और उसके दुःख-दर्द में भागीदारी करना, उसमें शरीक हाेना। एक ऐसा मानवीय गुण है जिसके बिना इंसान अधूरा है।

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© आप सभी का प्रिय दोस्त ®

Krishna Mohan Singh(KMS)
Head Editor, Founder & CEO
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जैसे शरीर के लिए भोजन जरूरी है वैसे ही मस्तिष्क के लिए भी सकारात्मक ज्ञान और ध्यान रुपी भोजन जरूरी हैं। ~ कृष्ण मोहन सिंह(KMS)

 ~Kmsraj51

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– कुछ उपयोगी पोस्ट सफल जीवन से संबंधित –

* विचारों की शक्ति-(The Power of Thoughts)

* अपनी आदतों को कैसे बदलें।

∗ निश्चित सफलता के २१ सूत्र।

* क्या करें – क्या ना करें।

∗ जीवन परिवर्तक 51 सकारात्मक Quotes of KMSRAJ51

* विचारों का स्तर श्रेष्ठ व पवित्र हो।

* अच्छी आदतें कैसे डालें।

* KMSRAJ51 के महान विचार हिंदी में।

* खुश रहने के तरीके हिन्दी में।

* अपनी खुद की किस्मत बनाओ।

* सकारात्‍मक सोच है जीवन का सक्‍सेस मंत्र 

* चांदी की छड़ी।

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“सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्सािहत करते हैं।”

In English

Amazing changes the conversation yourself can be brought tolife by. By doing this you Recognize hidden within the buraiyaensolar radiation, and encourage good solar radiation to becomethemselves.

 ~KMSRAJ51 (“तू ना हो निराश कभी मन से” किताब से)

“अगर अपने कार्य से आप स्वयं संतुष्ट हैं, ताे फिर अन्य लोग क्या कहते हैं उसकी परवाह ना करें।”

~KMSRAJ51

 

 

 

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कर्तव्य की उपेक्षा।

Kmsraj51 की कलम से…..

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ϒ कर्तव्य की उपेक्षा। ϒ

kmsraj51-dereliction-of-duty

एक सेठ के पास बहुत सारी गायें थी। उसने उनकी देखभाल के लिए दाे नाैकर रखे। कुछ दिनाें के बाद पता चला कि गायें बहुत दुबली हाे गई हैं और कुछ मर भी चुकी हैं। सेठ को इस पर बहुत गुस्सा आया। उसने इसके लिए दाेनाें नाैकराें काे जिम्मेदार ठहराया। जांच करने पर पता चला कि दाेनाें नाैकर अपने-अपने व्यसनाें में लगे रहे। एक काे जुआ खेलने की आदत थी। गायाें की देखभाल करने में उसका मन नहीं लगता था।

अक्सर वह जुआ खेलने बैठ जाता और गायाें की देखभाल नहीं हाे पाती थी। यही बात दुसरे के साथ भी थी। वह पूजा-पाठ का व्यसनी था। वह गायाे की तरफ ध्यान नहीं देता और पूजा-पाठ में लगा रहता था। सेठ दाेनाें काे राजा के पास ले गया। राजा काे उनके बारे में फैसला करना था। लाेगाें काे लगा कि राजा पूजा-पाठ करने वाले नाैकर काे क्षमा कर देगा। लेकिन राजा ने दाेनाें काे समान दंड दिया और कहा कर्तव्य की उपेक्षा अपराध है चाहे वह किसी भी कारण से किया जाए।

प्यारे दोस्तों – जब भी कभी काेई भी जिम्मेदारी वाला कार्य आपके ऊपर हाे, अर्थांत आपके ऊपर निर्भर हाे ताे सही समय पर कार्य काे प्रधानता देते हुए सही तरह से करें।

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शांत मन से सब कुछ संभव।

Kmsraj51 की कलम से…..

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ϒ शांत मन से सब कुछ संभव। ϒ

एक बार की बात है, एक किसान था, जिसने अपनी “घड़ी” चारे से भरे हुए बाड़े में खाे दी थी। वह “घड़ी” बहुत कीमती थी, इसलिए किसान ने उसकी बहुत खाेजबीन की पर वह “घड़ी” नहीं मिली। बाड़े के बाहर कुछ बच्चे खेल रहे थे और किसान काे दूसरा काम भी था, उसने सोचा क्यों न मैं इन बच्चाें से “घड़ी” काे खाेजने के लिए कहूँ।

उसने बच्चाें से कहा जाे भी बच्चा उसे “घड़ी” खाेजकर देगा उसे वह अच्छा पुरस्कार देगा। यह सुनकर बच्चें पुरस्कार के लालच में बाड़े के अंदर दाैड़ गए और यहाँ-वहाँ “घड़ी” ढ़ूंढ़ने लगे। लेकिन किसी भी बच्चें काे “घड़ी” नहीं मिली। तब एक बच्चें ने किसान के पास जाकर कहा कि वह “घड़ी” खाेजकर ला सकता है, पर सारे बच्चाें काे बाड़े से बाहर जाना हाेगा। किसान ने उसकी बात मान ली और किसान तथा बाकी सभी बच्चें बाड़े के बाहर चले गए। कुछ देर बाद बच्चा लाैट आया और वह कीमती “घड़ी” उसके हाथ में थी। किसान अपनी “घड़ी” देखकर बहुत खुश व आश्चर्यचकित हाे गया।

उसने बच्चे से पूछा, तुमने “घड़ी” किस तरह खाेजी। जबकि बाकी बच्चे और खुद मैं इस काम में नाकाम हाे चुका था। बच्चे ने जवाब दिया मैंने कुछ नही किया, बस शांत मन से ज़मीन पर बैठ गया और “घड़ी” की आवाज़ सुनने की किेशिश करने लगा। क्योंकि बाड़े में शांति थी, इसलिए मैंने उसकी आवाज सुन ली, और उसी दिशा में देखा।

♥ याद रखें ♥

प्यारे दोस्तों – एक शांत दिमाग बेहतर साेच सकता है, एक थके हुए दिमाग की तुलना में। दिन में कुछ समय के लिए आँखें बंद करके शांति से बैठिये। अपने मस्तिक को शांत होने दीजिए, फिर देखिये वह आपकी ज़िंदगी काे किस तरह से व्यवस्थित कर देता हैं। आत्मा हमेशा अपने आपकाे ठिक करना जानती है, बस मन काे शांत करना ही चुनाैती हैं। इसलिए मन काे शांत करने का अभ्यास करते रहें। अभ्यास करते-करते एक समय ऐसा भी आ जाएगा – जब आपका मन बिल्कुल शांत हो जायेगा।

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In English

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सबसे बड़ा पुण्य।

Kmsraj51 की कलम से…..

CYMT-KMSRAJ51-4

ϒ सबसे बड़ा पुण्य। ϒ

मानव सेवा ही प्रभु (GOD) सेवा हैं। “जो लोग निष्काम होकर संसार की सेवा करते हैं, जो लोग संसार के उपकार में अपना जीवन अर्पण करते हैं। जो लोग मुक्ति का लोभ भी त्यागकर प्रभु के निर्बल संतानो की सेवा-सहायता में अपना योगदान देते हैं उन त्यागी महापुरुषों का भजन स्वयं ईश्वर करता है।” प्यारे दोस्तों … मुझे एक सच्ची कहानी याद आ रही है, कहानी कुछ इस तरह से हैं। बहुत समय पहले कि बात है…..

the-biggest-virtue-kmsraj51

एक राजा बहुत बड़ा प्रजापालक था। हमेशा प्रजा के हित में प्रयत्नशील रहता था। वह इतना कर्मठ था कि अपना सुख, ऐशो – आराम सब छोड़कर सारा समय जन-कल्याण में ही लगा देता था। यहाँ तक कि जो मोक्ष का साधन है अर्थात भगवत-भजन, उसके लिए भी वह समय नहीं निकाल पाता था।

एक सुबह राजा वन की तरफ भ्रमण करने के लिए जा रहा था कि उसे एक देव के दर्शन हुए। राजा ने देव को प्रणाम करते हुए उनका अभिनन्दन किया और देव के हाथों में एक लम्बी-चौड़ी पुस्तक देखकर उनसे पूछा…..

“महाराज, आपके हाथ में यह क्या है?”

देव बोले –  “राजन! यह हमारा बहीखाता है, जिसमे सभी भजन करने वालों के नाम हैं।”

राजा ने निराशायुक्त भाव से कहा – “कृपया देखिये तो इस किताब में कहीं मेरा नाम भी है या नहीं?”

देव महाराज किताब का एक-एक पृष्ठ उलटने लगे, परन्तु राजा का नाम कहीं भी नजर नहीं आया।

राजा ने देव को चिंतित देखकर कहा –  “महाराज ! आप चिंतित ना हों , आपके ढूंढने में कोई भी कमी नहीं है. वास्तव में ये मेरा दुर्भाग्य है कि मैं भजन-कीर्तन के लिए समय नहीं निकाल पाता, और इसीलिए मेरा नाम यहाँ नहीं है।”

उस दिन राजा के मन में आत्म-ग्लानि-सी उत्पन्न हुई लेकिन इसके बावजूद उन्होंने इसे नजर-अंदाज कर दिया और पुनः परोपकार की भावना लिए दूसरों की सेवा करने में लग गए।

कुछ दिन बाद राजा फिर सुबह वन की तरफ टहलने के लिए निकले तो उन्हें वही देव महाराज के दर्शन हुए, इस बार भी उनके हाथ में एक पुस्तक थी। इस पुस्तक के रंग और आकार में बहुत भेद था, और यह पहली वाली से काफी छोटी भी थी।

राजा ने फिर उन्हें प्रणाम करते हुए पूछा – “महाराज! आज कौन सा बहीखाता आपने हाथों में लिया हुआ है?”

देव ने कहा –  “राजन! आज के बहीखाते में उन लोगों का नाम लिखा है जो ईश्वर को सबसे अधिक प्रिय हैं!”

राजा ने कहा –  “कितने भाग्यशाली होंगे वे लोग? निश्चित ही वे दिन रात भगवत-भजन में लीन रहते होंगे! क्या इस पुस्तक में कोई मेरे राज्य का भी नागरिक है?”

देव महाराज ने बहीखाता खोला, और ये क्या, पहले पन्ने पर पहला नाम राजा का ही था।

राजा ने आश्चर्यचकित होकर पूछा – “महाराज, मेरा नाम इसमें कैसे लिखा हुआ है, मैं तो मंदिर भी कभी-कभार ही जाता हूँ?

देव ने कहा – “राजन! इसमें आश्चर्य की क्या बात है? जो लोग निष्काम होकर संसार की सेवा करते हैं, जो लोग संसार के उपकार में अपना जीवन अर्पण करते हैं। जो लोग मुक्ति का लोभ भी त्यागकर प्रभु के निर्बल संतानो की सेवा-सहायता में अपना योगदान देते हैं उन त्यागी महापुरुषों का भजन स्वयं ईश्वर करता है। ऐ राजन! … तू मत पछता कि तू पूजा-पाठ नहीं करता, लोगों की सेवा कर तू असल में भगवान की ही पूजा करता है।

परोपकार और निःस्वार्थ लोकसेवा किसी भी उपासना से बढ़कर हैं।

देव ने वेदों का उदाहरण देते हुए कहा – “कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छनं समाः एवान्त्वाप नान्यतोअस्ति व कर्म लिप्यते नरे।”

अर्थात – “कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की ईच्छा करो तो कर्मबंधन में लिप्त हो जाओगे। राजन! भगवान दीनदयालु हैं। उन्हें खुशामद नहीं भाती बल्कि आचरण भाता है… सच्ची भक्ति तो यही है कि परोपकार करो। दीन-दुखियों का हित-साधन करो। अनाथ, विधवा, किसान व निर्धन आज अत्याचारियों से सताए जाते हैं इनकी यथाशक्ति सहायता और सेवा करो और यही परम भक्ति है।”

राजा को आज देव के माध्यम से बहुत बड़ा ज्ञान मिल चुका था और अब राजा भी समझ गया कि परोपकार से बड़ा कुछ भी नहीं और जो परोपकार करते हैं वही भगवान के सबसे प्रिय होते हैं।

प्यारे दोस्तों – जो व्यक्ति निःस्वार्थ भाव से लोगों की सेवा करने के लिए आगे आते हैं, परमात्मा हर समय उनके कल्याण के लिए यत्न करता है। हमारे पूर्वजों ने कहा भी है – “परोपकाराय पुण्याय भवति” अर्थात दूसरों के लिए जीना, दूसरों की सेवा को ही पूजा समझकर कर्म करना, परोपकार के लिए अपने जीवन को सार्थक बनाना ही सबसे बड़ा पुण्य है और जब आप भी ऐसा करेंगे तो स्वतः ही आप … ईश्वर के प्रिय भक्तों में शामिल हो जाएंगे।

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बहन का स्नेह मिलना खुशनसीबी है।

Kmsraj51 की कलम से…..

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ϒ बहन का स्नेह मिलना खुशनसीबी है। ϒ

एक छोटा-सा पहाड़ी गांव था। वहां एक किसान, उसकी पत्नी, एक बेटा और एक बेटी रहते थे। एक दिन बेटी की इच्छा स्कार्फ खरीदने की हुई और उसने पिताजी की जेब से 10 रुपए चुरा लिए।

पिताजी को पता चला तो उन्होंने सख्ती से दोनों बच्चों से पूछा – पैसे किसने चुराए ?
अगर तुम लोगों ने सच नहीं बताया तो सजा दोनों को मिलेगी। बेटी डर गई, बेटे को लगा कि दोनों को सजा मिलेगी तो सही नहीं होगा।

वह बोला – पिताजी, मैंने चुराए, पिताजी ने उसकी पिटाई की और आगे से चोरी न करने की हिदायत भी दी। भाई ने बहन के लिए चुपचाप मार खा ली। वक्त बीतता गया। दोनों बच्चे बड़े हो गए।

एक दिन मां ने खुश होकर कहा – दोनों बच्चों के रिजल्ट अच्छे आए हैं। पिताजी (दुखी होकर) – पर मैं तो किसी एक की पढ़ाई का ही खर्च उठा सकता हूं।

बेटे ने फौरन कहा – पिताजी, मैं आगे पढ़ना नहीं चाहता।
बेटी बोली – लड़कों को आगे जाकर घर की जिम्मेदारी उठानी होती है, इसलिए तुम पढ़ाई जारी रखो। मैं कॉलेज छोड़ दूंगी। अगले दिन सुबह जब किसान की आंख खुली तो घर में एक चिट्ठी मिली।

उसमें लिखा था – मैं घर छोड़कर जा रहा हूं। कुछ काम कर लूंगा और आपको पैसे भेजता रहूंगा। मेरी बहन की पढ़ाई जारी रहनी चाहिए। एक दिन बहन हॉस्टल के कमरे में पढ़ाई कर रही थी।

तभी गेटकीपर ने आकर कहा – आपके गांव से कोई मिलने आया है। बहन नीचे आई तो फटे-पुराने और मैले कपड़ों में भी अपने भाई को फौरन पहचान लिया और उससे लिपट गई।

बहन – तुमने बताया क्यों नहीं कि मेरे भाई हो – भाई।

मेरे – ऐसे कपड़े देखकर तुम्हारे सहेलियाें में बेइज्जती होगी। मैं तो तुम्हें बस एक नजर देखने आया हूं।
भाई चला गया – बहन देखती रही।

बहन की शादी शहर में एक पढ़े – लिखे लड़के से हो गई। बहन का पति कंपनी में डायरेक्टर बन गया। उसने भाई को मैनेजर का काम ऑफर किया, पर उसने इनकार कर दिया।

बहन ने नाराज होकर वजह पूछी तो भाई बोला – मैं कम पढ़ा-लिखा होकर भी मैनेजर बनता तो तुम्हारे पति के बारे में कैसी-कैसी बातें उड़तीं, मुझे अच्छा नहीं लगता।

भाई की शादी गांव की एक लड़की से हो गई। इस मौके पर किसी ने पूछा कि उसे सबसे ज्यादा प्यार किससे है ?

वह बोला – अपनी बहन से, क्योंकि जब हम प्राइमरी स्कूल में थे तो हमें पढ़ने दो किमी दूर पैदल जाना पड़ता था। एक बार ठंड के दिनों में मेरा एक दस्ताना खो गया।

बहन ने अपना दे दिया – जब वह घर पहुंची तो उसका हाथ सुन्न पड़ चुका था और वह ठंड से बुरी तरह कांप रही थी। यहां तक कि उसे हाथ से खाना खाने में भी दिक्कत हो रही थी। उस दिन से मैंने ठान लिया कि अब जिंदगी भर मैं इसका ध्यान रखूंगा। बहन ने हमारी हर गलती का बचाव किया था बचपन से वो हमे मां-बाप से ज्यादा स्नेह करती है।

जीवन में कुछ मिले या ना मीले पर बहन का स्नेह मिलना खुशनसीबी है।

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– कुछ उपयोगी पोस्ट सफल जीवन से संबंधित –

* विचारों की शक्ति-(The Power of Thoughts)

∗ निश्चित सफलता के २१ सूत्र।

* क्या करें – क्या ना करें।

∗ जीवन परिवर्तक 51 सकारात्मक Quotes of KMSRAJ51

* विचारों का स्तर श्रेष्ठ व पवित्र हो।

* अच्छी आदतें कैसे डालें।

* KMSRAJ51 के महान विचार हिंदी में।

* खुश रहने के तरीके हिन्दी में।

* अपनी खुद की किस्मत बनाओ।

* सकारात्‍मक सोच है जीवन का सक्‍सेस मंत्र 

* चांदी की छड़ी।

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“सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्सािहत करते हैं।”

In English

Amazing changes the conversation yourself can be brought tolife by. By doing this you Recognize hidden within the buraiyaensolar radiation, and encourage good solar radiation to becomethemselves.

 ~KMSRAJ51 (“तू ना हो निराश कभी मन से” किताब से)

“अगर अपने कार्य से आप स्वयं संतुष्ट हैं, ताे फिर अन्य लोग क्या कहते हैं उसकी परवाह ना करें।”

~KMSRAJ51

 

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प्यार ही सर्वोपरि है।

Kmsraj51 की कलम से…..

CYMT-KMSRAJ51-4

ϒ प्यार ही सर्वोपरि है। ϒ

Love is paramount-kmsraj51

 

प्यार ही सर्वोपरि है – एक बार गोपाल बहुत परेशान था। उसके घर में शांति नहीं थी। सभी एक दूसरे से लड़ते झगड़ते रहते थे। एक दूसरे को  दोषी ठहराते थे और अंत में भगवान् पर भी दोषारोपण करते -“कि भगवान् तूने हमे क्यों जन्म दिया ? या फिर तुम सबकुछ देखते रहते हो और आनंद उठाते हो।”

एक दिन गोपाल ने कहा – “आज शाम को छः  बजे  सभी घर के आँगन में जमा होंगे, लड़ाई झगड़ा करते हुए तो हमने काफी समय बिताया है पर आज हम कहीं घूमने जाएंगे।”

घूमने की बात सुनकर सभी राजी हो गए। शाम के छः बजे तो सभी आँगन में इकट्ठे हो गए। सभी जानने के लिए उत्सुक थे कि आखिर घूमने कहाँ चलेंगे?

गोपाल ने कहा – “मैंने गाडी बुलाई है, उसी में बैठ कर चलेंगे।” तभी दो तीन रिक्शा आ गयी। फिर से झगड़ा शुरू हो गया। खैर समझाने पर वो सब रिक्शा में बैठ गए। लेकिन रिक्शा में बैठते ही मुंह सुकोड़ने लगे और भगवान् को ताने देना शुरू -“हे भगवान् ! कहाँ फंसा दिया? कहाँ घूमने जाएंगे ? “मंदिर घूमने आये हैं क्या हम ?

“हाँ क्यों नहीं ? अभी सभी तो भगवान् को याद  कर रहे थे। चलो इन्ही से पूछ लेते हैं—- ” – गोपाल ने कहा।

मुंह बनाकर सभी मंदिर में गए – गोपाल ने कहा “देखो – हम सब भगवान् से बहुत कुछ मांगते हैं, अपना दुःख दर्द इन्हें बताते हैं। कभी कभी गुस्से में इन्हें बहुत कुछ कह भी देते हैं पर कभी सोचा है कि ये तो भगवान् हैं परंतु वो जीव भी जो इनके संपर्क में है कितनी सादगी, प्रेम, सहनशीलता और शान्ति के साथ रहते हैं जो आवश्यक रूप से एक दूसरे के शत्रु होते हैं, यहाँ उनमें भी मित्रता है फिर तुम लोग तो भाई बहिन हो।”

बच्चों  की समझ में कुछ न आया तब गोपाल ने कहा -“शिवजी का वाहन – नंदी बैल, माता जी का वाहन – शेर, अर्थात – शेर बैल का शत्रु  होता है। शिवजी के गले का अलंकार / गहना -सांप, कार्तिकेय का वाहन – मोर, अर्थात मोर सांप का शत्रु होता है लेकिन कभी सुना है इन्हें आपस में झगड़ते हुए ?”

बच्चों ने कहा – “नहीं ये सब एक दूसरे के शत्रु नहीं बल्कि ये तो भगवान् का परिवार है।”

सीख:- गोपाल ने कहा – “ठीक कहा तुमने कि ये भगवान् का परिवार है पर हम भी तो उन्ही की संतान हैं और फिर तुम सब भी तो भाई बहन हो शत्रु नहीं। जब प्रकृति अनुरूप शत्रुता होने के बाद भी कुछ प्राणी प्रेम करना नहीं भूलते तो फिर मित्रता भाव प्रकृति होने पर हम एक दूसरे के शत्रु क्यों बन जाते हैं?”

सभी को गोपाल की बात अच्छी लगी, सभी ने मिलकर कहा – “प्यार ही सर्वोपरि है।” तभी से वो सभी लोग घर में शांतिपूर्वक और प्रेम से रहने लगे।

©- नंदिता शर्मा जी। (नोएडा, उत्तर प्रदेश)®

Nandita-Kmsraj51
नंदिता शर्मा जी।

हम दिल से आभारी हैं नंदिता शर्मा जी के “प्रेरणादायक कहानी – प्यार ही सर्वोपरि है।” हिन्दी में साझा करने के लिए।

नंदिता शर्मा जी के लिए मेरे विचार: 

♣ “नंदिता शर्मा जी” ने Love is paramount (“♥ प्यार ही सर्वोपरि है। ♥“) का कितना सुंदर-रमणीय वर्णन कहानी के माध्यम से किया हैं। जिसके हर एक शब्दों में सकारात्मक ऊर्जा रूपी अलाैकिक सार भरा हैं। जाे हर एक शब्द पर विचार सागर-मंथन कर हृदयसात करने योग्य हैं। सरल शब्दाे में हाेते हुँये भी हृदयसात करने योग्य हैं। जाे भी इंसान इन कहानियों काे गहराई(हर शब्दाे का सार) से समझकर आत्मसात करें, उसका जीवन धन्य हाे जायें।

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सही उपयोग।

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Correct Usage | सही उपयोग।

After a few years it took the form of a tree. Due to the tree, the house started getting protected from sunlight and also started getting vital air.

बहुत समय पहले की बात हैं – एक गरीब वृद्ध पिता के पास अपने अंतिम समय में दो बेटों को देने के लिए मात्र एक आम था। पिताजी आशीर्वादस्वरूप दोनों को वही देना चाहते थे। किंतु बड़े भाई ने आम हठपूर्वक ले लिया। रस चूस लिया छिल्का अपनी गाय को खिला दिया। गुठली छोटे भाई के आँगन में फेंकते हुए कहा – “लो, ये पिताजी का तुम्हारे लिए आशीर्वाद है।”

छोटे भाई ने ब़ड़ी श्रद्धापूर्वक गुठली को अपनी आँखों व सिर से लगाकर गमले में गाढ़ दिया। छोटी बहू पूजा के बाद बचा हुआ जल गमले में डालने लगी। कुछ समय बाद आम का पौधा उग आया, जो देखते ही देखते बढ़ने लगा।

छोटे भाई ने उसे गमले से निकालकर अपने आँगन में लगा दिया। कुछ वर्षों बाद उसने वृक्ष का रूप ले लिया। वृक्ष के कारण घर की धूप से रक्षा होने लगी, साथ ही प्राणवायु भी मिलने लगी। बसंत में कोयल की मधुर कूक की आवाज सुनाई देने लगी। बच्चे पेड़ की छाँव में किलकारियाँ भरकर खेलने लगे।

पेड़ की शाख से झूला बाँधकर झूलने लगे। पेड़ की छोटी – छोटी लक़िड़याँ हवन करने एवं बड़ी लकड़ियाँ घर के दरवाजे-खिड़कियों में भी काम आने लगीं। आम के पत्ते त्योहारों पर तोरण बाँधने के काम में आने लगे।

धीरे-धीरे वृक्ष में कैरियाँ लग गईं। कैरियों से अचार व मुरब्बा डाल दिया गया। आम के रस से घर-परिवार के सदस्य रस-विभोर हो गए तो बाजार में आम के अच्छे दाम मिलने से आर्थिक स्थिति मजबूत हो गई।

रस से पाप़ड़ भी बनाए गए, जो पूरे साल मेहमानों व घर वालों को आम रस की याद दिलाते रहते।

ब़ड़े बेटे को आम फल का सुख क्षणिक ही मिला तो छोटे बेटे को पिता का “आशीर्वाद’ दीर्घकालिक व सुख- समृद्धिदायक मिला।”

सीख – दोस्तों, आज के सभी मनुष्यों का यही हाल है। परमात्मा हमे सब कुछ देता है, सही उपयोग हम करते नही हैं और सदैव ही दोष परमात्मा और किस्मत को देते रहते हैं।

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“सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

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ईश्वर बहुत दयालु है।

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ϒ ईश्वर बहुत दयालु है। ϒ

प्यारे दोस्तों,, 

यह कहानी कुछ इस तरह से है।

बहुत समय पहले कि बात है  क्वांरों(कुंवारों) की जमात में मुल्ला नसरुद्दीन सबसे आगे चलते थे। हर कोई पूछ बैठता था मुल्ला जी आप शादी कब कर रहे हो?

मुल्ला जी : देख रहा हूँ जी।

क्या देख रहे हो भाई?

मुल्ला जी : मैं पूर्ण पत्नी देख रहा हूँ। जब तक पूर्ण पत्नी नहीं मिल जाती मैं शादी नहीं करूंगा। समय बीतता गया। फिर किसी ने पूछ लिया; क्यों मुल्ला जी क्या अभी तक एक भी पूर्ण पत्नी नहीं मिली?

मुल्ला जी : मिली तो थीं, दो-तीन मिलीं थीं….. परंतु …..

फिर क्या हुआ?

मुल्ला जी : उन्हें पूर्ण पति चाहिए था।

हम सब की भी शायद अनेक मामलों में यही मनोदशा रहती है।

आध्यात्म की दिशा में जब भी किसी से पूछो : क्यों भाई कहां तक पहुंचे?

अरे भाई, क्या करें कोई योग्य गुरु ही नहीं मिल रहा। सारे शिष्य पूर्ण गुरु की तलाश में हैं… और गुरुओं का अपना रोना है। क्या करें कोई योग्य शिष्य ही नहीं मिलता। ध्यान किसको सिखाऊं?

ये सब बहाने बनाने जैसी बातें हैं। हमारा भारत आध्यात्म के लिए जाना जाता है। विदेशी समझते हैं, यहां बड़े आध्यात्मिक लोग बसते हैं। परन्तु खेद की बात है; यहां जितने आध्यात्मिक प्रगति न होने के बहाने हैं उतने पृथ्वी पर कहीं भी नहीं। सही आध्यात्मिकता की दिशा में सही सोच न होने के कारण पाखंडी, ढोंगी साधू सन्यासियों की बाढ़ सी आई हुई है। उनकी दुकानें खूब चल रही हैं।

– दोस्तों मैं ऐसा नहीं कह रहा हुँ कि योग्य गुरु बिलकुल नहीं हैं। योग्य गुरु है लेकिन उनकी संख्या बहुत ही कम हैं – करोड़ाे में से एक। जाे योग्य गुरु हैं ….. उनकी विशेषताये कुछ इस हाेती हैं…..

“सच्चा गुरु कौन ?”

वास्तविक गुरु वह हाेता है जाे अपने अनुयाइयाें काे परमात्म मिलन का सच्चा मार्ग दिखाये, ना की स्वयं की पूजा-अर्चना करवायें। जाे गुरु स्वयं की पूजा-अर्चना करवाता हैं वह गुरु नहीं राक्षस(दैत्य) है, वह आपकाे परमात्मा से विमुख(दुर) कर रहा हैं। जबकी एक सच्चा गुरु ऐसा कभी नहीं करता।

मनुष्य कभी किसी मनुष्य का उद्धार(निर्वाण या मोक्ष) नहीं कर सकता, यहा तक कि साधु-संताे का भी उद्धार करने के लिए स्वयं परमात्मा काे आना पड़ता हैं। अर्थात : मनुष्य कभी किसी मनुष्य का उद्धार नहीं कर सकता।

सभी मनुष्याें का सच्चा गुरु परमात्मा(GOD) ही हैं।

यह बात “श्रीमत भागवत गीता” के चौथे अध्याय के श्लोक संख्या “८” से:

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥

अर्थात : साधु पुरुषोंका उद्धार करने के लिये, पापकर्म करनेवालाेंका विनाश करने के लिये और धर्मकी अच्छी तरह से स्थापना करने के लिये मैं युग-युगमें(संगमयुग में) प्रकट(किसी सतपुरुष शरीर का माध्यम लेकर) हुआ करता हूँ॥८॥

ध्यान दें,

संगमयुग : वह समय जब कलियुग(कलयुग) का आखिरी कुछ वर्ष शेष रह जाये, जिसके बाद सतयुग आने वाला हाे। यहीं समय संगमयुग कहलाता हैं।

(( मेरा निवेदन है – दिन के चौबीस घंटों में से केवल एक घंटा, आधा घंटा, बीस मिनट “or” पंद्रह मिनट ही ध्यान के लिए जरूर निकालें। सोच लें की हम आधा घंटा कुछ भी नहीं सोचेंगे, कुछ भी नहीं – मतलब कुछ भी नहीं, बस शांत बैठ जाएंगे। प्रति दिन अभ्यास करें। देखें क्या परिवर्तन आता है। इससे आपकाे नुकसान तो लेशमात्र भी नहीं हाेगा। हा हो सकता है कुछ समय(दिनों) पश्चात आपको आदत पड़ जाए और फिर किसी दिन उस महान शक्ति की हलकी सी झलक भी मिल जाए। ज़रूरत सिर्फ आरंभ करने भर की है। अंत में तो अच्छा होगा ही। आखिरकार ईश्वर बहुत दयालु है। ))

सदैव आपकी यही कोशिश हाे कि आपका अगला क्षण, पिछले क्षण से अच्छा(Best)हाे।

~Kmsraj51

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शिक्षा से ज्ञान आता है न कि अहंकार।

Kmsraj51 की कलम से…..

CYMT-KMSRAJ51-KMS

ϒ शिक्षा से ज्ञान आता है न कि अहंकार। ϒ

प्रिय मित्रों,

यह Story महाकवि कालिदास जी के जीवन से संबधित हैं।

Kalidas-kmsraj51
महाकवि कालिदास जी।

महाकवि कालिदास जी के कंठ में साक्षात सरस्वती जी का वास था। शास्त्रार्थ में उन्हें कोई पराजित नहीं कर सकता था। अपार यश, प्रतिष्ठा और मान सम्मान पाकर एक बार कालिदास जी को अपनी विद्वत्ता का बहुत घमंड हो गया।

उन्हें लगा कि उन्होंने विश्व का सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया है और अब सीखने को कुछ भी बाकी नहीं बचा। उनसे बड़ा ज्ञानी संसार में कोई दूसरा नहीं। एक बार पड़ोसी राज्य से शास्त्रार्थ का निमंत्रण पाकर कालिदास जी विक्रमादित्य से अनुमति लेकर अपने घोड़े पर रवाना हुए।

गर्मी का मौसम था, धूप काफी तेज़ और लगातार यात्रा से कालिदास जी को प्यास लग आई। थोङी तलाश करने पर उन्हें एक टूटी-फूटी झोपड़ी दिखाई दी। पानी की आशा में वह उस ओर बढ चले। झोपड़ी के सामने एक कुआं भी था।

कालिदास जी ने सोचा कि अगर कोई झोपड़ी में हो तो उससे पानी देने का अनुरोध किया जाए। उसी समय झोपड़ी से एक छोटी बच्ची मटका लेकर निकली। बच्ची ने कुएं से पानी भरा और वहां से जाने लगी।

तभी कालिदास जी उसके पास जाकर बोले – बालिके बहुत प्यास लगी है ज़रा पानी पिला दे ….. बच्ची ने पूछा – आप कौन हैं? मैं आपको जानती भी नहीं, पहले अपना परिचय दीजिए। कालिदास जी को लगा कि मुझे कौन नहीं जानता भला, मुझे परिचय देने की क्या आवश्यकता?

फिर भी प्यास से बेहाल थे तो बोले – बालिके अभी तुम छोटी हो, इसलिए मुझे नहीं जानती। घर में कोई बड़ा हो तो उसको भेजो। वह मुझे देखते ही पहचान लेगा। मेरा बहुत नाम और सम्मान है दूर – दूर तक। मैं बहुत विद्वान व्यक्ति हूँ।

कालिदास जी के बड़बोलेपन और घमंड भरे वचनों से अप्रभावित बालिका बोली – आप असत्य कह रहे हैं। संसार में सिर्फ दो ही बलवान हैं और उन दोनों को मैं जानती हूं। अपनी प्यास बुझाना चाहते हैं तो उन दोनों का नाम बाताएं?

थोङा सोचकर कालिदास जी बोले – मुझे नहीं पता, तुम ही बता दो मगर मुझे पानी पिला दो। मेरा गला सूख रहा है। बालिका बोली – दो बलवान हैं ‘अन्न’ और ‘जल’। भूख और प्यास में इतनी शक्ति है कि बड़े से बड़े बलवान को भी झुका दें। देखिए प्यास ने आपकी क्या हालत बना दी है।

कलिदास जी चकित रह गए। लड़की का तर्क अकाट्य था। बड़े – बड़े विद्वानों को पराजित कर चुके कालिदास जी एक बच्ची के सामने निरुत्तर खङे थे। बालिका ने पुन: पूछा – सत्य बताएं, कौन हैं आप? वह चलने की तैयारी में थी।

कालिदास जी थोड़ा नम्र होकर बोले – बालिके, मैं बटोही हूँ….. मुस्कुराते हुए बच्ची बोली – आप अभी भी झूठ बोल रहे हैं। संसार में दो ही बटोही हैं। उन दोनों को मैं जानती हूं, बताइए वे दोनों कौन हैं? तेज़ प्यास ने पहले ही कालिदास जी की बुद्धि क्षीण कर दी थी पर लाचार होकर उन्होंने फिर से अनभिज्ञता व्यक्त कर दी।

बच्ची बोली – आप स्वयं को बङा विद्वान बता रहे हैं जी और ये भी नहीं जानते? एक स्थान से दूसरे स्थान तक बिना थके जाने वाला बटोही कहलाता है। बटोही दो ही हैं, एक चंद्रमा और दूसरा सूर्य जो बिना थके चलते रहते हैं। आप तो थक गए हैं। भूख प्यास से बेदम हैं। आप कैसे बटोही हो सकते हैं?

इतना कहकर बालिका ने पानी से भरा मटका उठाया और झोपड़ी के भीतर चली गई। अब तो कालिदास जी और भी दुखी हो गए। इतने अपमानित वे जीवन में कभी नहीं हुए। प्यास से शरीर की शक्ति घट रही थी। दिमाग़ चकरा रहा था। उन्होंने आशा से झोपड़ी की तरफ़ देखा…. तभी अंदर से एक वृद्ध स्त्री निकली…..

उसके हाथ में खाली मटका था। वह कुएं से पानी भरने लगी। अब तक काफी विनम्र हो चुके कालिदास जी बोले – माते पानी पिला दीजिए बङा पुण्य होगा।

वृद्ध स्त्री बोली – बेटा मैं तुम्हें जानती नहीं। अपना परिचय दो। मैं अवश्य पानी पिला दूंगी। कालिदास जी ने कहा – मैं मेहमान हूँ, कृपया पानी पिला दें माते। स्त्री बोली – तुम मेहमान कैसे हो सकते हो? संसार में दो ही मेहमान हैं। पहला धन और दूसरा यौवन। इन्हें जाने में समय नहीं लगता। सत्य बताओ कौन हो तुम?

अब तक के सारे तर्क से पराजित और हताश कालिदास जी बोले – मैं सहनशील हूँ। अब आप पानी पिला दें। स्त्री ने कहा – नहीं, सहनशील तो दो ही हैं। पहली, धरती जो पापी – पुण्यात्मा सबका बोझ सहती है। उसकी छाती चीरकर बीज बो देने से भी अनाज के भंडार देती है।

दूसरे, पेड़ जिनको पत्थर मारो फिर भी ओ मीठे फल ही देते हैं। तुम सहनशील नहीं हाे, सच बताओ तुम कौन हो? कालिदास जी लगभग मूर्च्छा की स्थिति में आ गए और तर्क – वितर्क से झल्लाकर बोले – मैं हठी हूँ।

वृद्ध स्त्री बोली – फिर असत्य, हठी तो दो ही हैं – पहला नख और दूसरे केश, कितना भी काटो बार – बार निकल आते हैं। सत्य कहें ब्राह्मण कौन हैं आप? पूरी तरह से अपमानित और पराजित हो चुके कालिदास जी ने कहा ….. फिर तो मैं मूर्ख ही हूँ।

नहीं तुम मूर्ख कैसे हो सकते हो, मूर्ख दो ही हैं। पहला अयोग्य राजा जो बिना योग्यता के भी सब पर शासन करता है, और दूसरा दरबारी पंडित जो राजा को प्रसन्न करने के लिए ग़लत बात पर भी तर्क करके उसको सही सिद्ध करने की चेष्टा करता है।

कुछ बोल न सकने की स्थिति में कालिदास जी ….. वृद्ध स्त्री के पैर पर गिर पड़े और पानी की याचना में गिड़गिड़ाने लगे। वृद्ध स्त्री ने कहा – उठो वत्स… आवाज़ सुनकर कालिदास ने ऊपर देखा तो साक्षात माता सरस्वती जी वहां खड़ी थी। कालिदास जी पुन: नतमस्तक हो गए।

माता ने कहा – शिक्षा से ज्ञान आता है न कि अहंकार। तूने शिक्षा के बल पर प्राप्त मान और प्रतिष्ठा को ही अपनी उपलब्धि मान लिया और अहंकार कर बैठे इसलिए मुझे तुम्हारे चक्षु खोलने के लिए ये स्वांग(लीळा) करना पड़ा।

कालिदास जी को अपनी गलती समझ में आ गई और भरपेट पानी पीकर वे आगे चल पड़े।

दोस्तों,

ज़िन्दगी में कभी भी किसी भी बात का अहंकार न करें। सदैव विनम्रता व धैर्य के साथ हर कार्य करें।

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जैसे शरीर के लिए भोजन जरूरी है वैसे ही मस्तिष्क के लिए भी सकारात्मक ज्ञान रुपी भोजन जरूरी हैं। ~ कृष्ण मोहन सिंह(KMS)

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* विचारों की शक्ति-(The Power of Thoughts)

∗ निश्चित सफलता के २१ सूत्र।

∗ जीवन परिवर्तक 51 सकारात्मक Quotes of KMSRAJ51

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“सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्सािहत करते हैं।”

In English

Amazing changes the conversation yourself can be brought tolife by. By doing this you Recognize hidden within the buraiyaensolar radiation, and encourage good solar radiation to becomethemselves.

 ~KMSRAJ51 (“तू ना हो निराश कभी मन से” किताब से)

“अगर अपने कार्य से आप स्वयं संतुष्ट हैं, ताे फिर अन्य लोग क्या कहते हैं उसकी परवाह ना करें।”

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बच्चों में अच्छे संस्कार का बीज रोपण।

Kmsraj51 की कलम से…..

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ϒ बच्चों में अच्छे संस्कार का बीज रोपण। ϒ

shantivan-KMSRAJ51

बच्चो में अच्छे संस्कार 16 वर्ष की आयु तक ही डाले जा सकते है। बचपन से ही बच्चो में जो संस्कार माता पिता के द्वारा दिये जाते है, वे ही आगे जाकर उनके भावी जीवन की उन्नती अथवा अवनीति के कारण बनते है।

हमारे बड़े-बुजुर्ग, संत-महात्मा कहते है की जैसा बीज होगा, वैसा ही वृक्ष होगा, तथा वैसा ही उसका फल होगा।

बचपन से ही अच्छे संस्कारो से संस्कारीत बालक युवावस्था में शुभ कार्यो मेें प्रवृत होकर माता-पिता की प्रतिष्ठा एवं स्वयं के सुख का कारण बनता है।

परंतु यदि बचपन से कुसंगत में रहकर कुसंस्कारो का बीजारोपण यदि बालक के जीवन में हो गया तो अपने माता-पिता के साथ ही वह स्वयं अपमानित जीवन जीकर अपने को पतन एवं दुःख की आग में झोक देगा।

श्रीमद्भागवत कथा में गौकर्ण और धुंनकारी की कथा आती है जिसके अनुसार गौकर्ण बचपन से अच्छे संस्कारो में पला था जिसके फलस्वरूप उसमें अपने उद्धार के साथ ही दूसरो की मुक्ती का मार्ग प्रशस्त किया जबकि धुंधुकारी बचपन से ही कुसंगत के कारण अधोगति को प्राप्त हुआ जिसका उद्धार भी गौकर्ण ने किया।

हमारी प्राचीन शिक्षा अधिक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर निर्भर थी। बच्चों को गुरु, माता-पिता, बड़े व्यक्तियों, धर्म, धार्मिक कार्यों में रुचि उत्पन्न की जाती थी। उनके प्रति पूजनीय भाव प्रारम्भ से ही जोड़ दिये जाते थे, धार्मिक अंत:वृत्ति होने से बड़ा होने पर भी भारतीय भोगवाद की ओर प्रवृत्त न होते थे।

ब्रह्मचर्य का संयम सदैव उन्हें संयमित किया करते थे, पवित्र भाेजन, पवित्र भजन, पूजा, यज्ञ, चिंतन, अध्ययन, मनन आदि से जो गुप्त मन निर्मित होता था, वह ….. पवित्रतम भावनाओं का प्रतीक होता था।

घर का वातावरण भी उच्च नैतिकता से परिपूर्ण होता था, जिससे एक पीढ़ी के पश्चात् दूसरी पीढ़ी उन्हीं संस्कारों को निरन्तर विकसित करती चली आती थी।

जब हमारी भावनाओं में नैतिकता, श्रेष्ठता, पवित्रता का बीज नहीं डाला जायगा, तो किस प्रकार उत्तम चरित्र वाले मानव तथा समाज की या देश की सृष्टि हो सकती है?

आवश्यकता इस बात की है कि पहले माता-पिता स्वयं भावनाओं की शिक्षा की उपयोगिता समझें; स्वयं आदर की भावनाओं को संस्कार रूप में शिशु मन पर स्थापित करें।

वातावरण का भारी महत्व है, वातावरण का अर्थ व्यापक है। घर, तथा संगति तो यह महत्वपूर्ण है हीं, घर की पुस्तकें, दीवारों के चित्र, हमारे गाने, भजन, इत्यादि भी बड़े महत्व के हैं। यदि इन्हीं से उन्नति तथा सुधार की भावना में चलाई जायँ, तो आचार व्यवहार के क्षेत्र में क्रान्ति हो सकती है।

अच्छे-अच्छे भजन, पवित्र कर्त्तव्य की शिक्षा देने वाली कहानियाँ, उत्तमोत्तम व्यवहार द्वारा नये राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण हो सकता है।

बचपन से ही शिशु के मन पर बड़ों के प्रति आदर प्रतिष्ठा सम्मान, छोटों के प्रति स्नेह, दया, सहानुभूति, सहकारिता, बराबर वालों से मैत्री, प्रेम, संगठन सहयोग की भावनाएं बच्चों के गुप्त मन में उत्पन्न करनी चाहिये।

आचरण, आदर्श, तथा उचित निर्देशन से यह कार्य माता-पिता, अध्यापक सभी कर सकते हैं।

मान लीजिये, एक बच्चा सिनेमा का एक भद्दा गाना अनजाने ही कुसंगति से सुनकर याद कर लेता है। वह उसका अर्थ नहीं समझता, किन्तु उसे पुन: पुन: दोहराता है, बड़ा होकर वह उसका अर्थ समझने लगता है और जीवन भर उससे प्रभावित हुये बिना नहीं रहता।

यही बच्चा यदि कोई राष्ट्रप्रेम का गीत, उत्तम भजन, पवित्र विचार वाली उक्ति अनजाने में सीख ले, (जो माता-पिता सतत् अभ्यास, पुनरावृत्ति से सिखा सकते हैं,) तो वह बड़ा होकर निरन्तर उच्च मार्ग की ओर ही अग्रसर होगा।

Note : Post inspired by – Pujya Jaya Kishori Ji.

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