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हेमराज ठाकुर जी की रचनाएँ

आम जनता को कब मिलेगा उसका हक।

Kmsraj51 की कलम से…..

Aam Janta Ko Kab Milega Usaka Hak | आम जनता को कब मिलेगा उसका हक।

शहरातीयत की धक्कम-पेल, ठेलम-ठेल, रेलम-रेल और तिकड़मबाजी तो आज से पहले खूब देखी और सुनी थी पर हस्पताल में भी ऐसा परिदृश्य होता होगा कभी सोचा नहीं था। हर कोई बस इसी जद में लगा है कि मेरा नम्बर पहले लगना चाहिए, मेरा नम्बर पहले लगना चाहिए। सब्र रखने का शायद किसी को वक्त ही नहीं है। बहुत से लोग स्वार्थ और अमानवीयता को यहां भी नहीं छोड़ते और बहुत से ऐसे भी लोग हैं जो इंसानियत की मिसाल पेश करते हैं। बाहर रेहड़ी – फहड़ी तथा रेस्टोरेंट जैसी श्रेणी का खाना बनाने वाले ढाबे व सरकारी कैंटीन आदि वाले खाने-पीने के सामान में जहां मोल भाव करते हैं, वहीं कई लोग गरीबों और मरीजों तथा उनके परिजनों को निशुल्क भंडारा भी तो लगाते हैं।

इस कला में प्रवीण सिख धर्म के लोगों के हुनर को भला कौन नहीं जानता। ये भंडारा लगाने वाले लोग पकड़-पकड़ कर सभी को भंडारा मुफ्त में खिलाते हैं, चाय पिलाते हैं, उनके जूठे बर्तन धोते हैं और भी सेवाएं निशुल्क प्रदान करते हैं। तब लगता है कि दुनियां में दया और धर्म खत्म कहां हुआ है। वह तो आज भी जिंदा है। पर जब दवा और शल्य चिकित्सा के सामानों के दामों को एक दूसरे दुकानदारों के साथ तुलना करके देखते हैं तो लगता है कि दुनियां में चोर बाजारी बहुत है। सच क्या है झूठ क्या है? कुछ कहते नहीं बनता।

उस रोज रात 2:00 बजे जब हम मेरे बेटे को अति संवेदनशील हालत में पी जी आई चंडीगढ़ में लेकर पहुंचे तो वहां के आपातकालीन विभाग का परिदृश्य कोलकाता के मछली बाजार से कम नहीं था। कोई आ रहा था तो कोई जा रहा था। कोई सांस ले रहा था तो कोई साथ छोड़ रहा था। कुछ लोग तो प्राण छोड़ कर के ही इस संसार को हमारी आंखों के सामने अलविदा कह गए थे। खैर, जन्म और मरण तो इस संसार के सनातन सत्य है। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में यूं ही उपदेश नहीं दिया कि अर्जुन इस संसार में जो आया है वह एक दिन जाएगा जरूर। पर राहत प्रदान करने वाली जगह भी किसी के दिल को इतना आहत करेगी, कभी सोचा भी नहीं था।

मेरे बेटे को मैंनेनजाइंटिस नामक दिमागी बीमारी ने अचानक बुरी तरह से जकड़ रखा था। मेरे जिले के स्थानीय अस्पताल में उस बीमारी का इलाज संभव ना होने के कारण चिकित्सक लोगों के द्वारा हमें पी जी आई चंडीगढ़ रेफर किया गया। रास्ते में जब हम एंबुलेंस में आ रहे थे तो सांसे गले में आकर अटकती जा रही थी कि न जाने कब और क्या घटना घट जाए ? शायद मैं अपने बेटे को खो न बैठूं। बाप जो हूं, ऐसे उल जलूल ख्यालात आना कोई नई बात नहीं थी। भगवान का शुक्र है कि हम सही सलामत पी जी आई पहुंच गए। उस भीड़ भड़ाके के बीच में रात 2:00 बजे बेटे की हालत को देखकर आपातकालीन विभाग ने दाखिला दे दिया था और सुबह 6:00 बजे तक सभी प्रकार की जांचें द्रुत गति से आपातकालीन विभाग के चिकित्सकों ने करवा ली थी।

बेटे को दर्द बहुत था। सर फटा जा रहा था। क्योंकि सर में दिमागी इंफेक्शन हो गया था। इस भीड़ को देखकर जो मेरे भीतर बेटे की उस पीड़ा को लेकर के एक अजीबोगरीब पीड़ा थी वह सहसा शान्त होती जा रही थी। चारों तरफ स्ट्रेचर पर ट्रॉलियों के ऊपर हर उम्र के छोटे – बड़े और हर प्रकार के मरीज चीख – चिल्ला रहे थे। अब मुझे औरों का दुख घना और अपना हल्का लग रहा था। यह बात जरूर है कि मेरा बेटा दिमागी रूप से बहुत परेशान था। उससे कोई बात नहीं हो पा रही थी और वह अपना दिमागी संतुलन पूर्ण रूप से खो चुका था। पर फिर भी उस चीर-फाड़ भरे मंजर को देखकर, छोटे – बड़े हर रोगियों की चीख-पुकार को सुनकर तथा प्राणों के संघर्ष को हारते हुए अपनी जीवन यात्रा का सफर इस दुनिया से उस दुनिया की ओर करते हुए लोगों को देखकर मेरी आंखें नम हुए जा रही थी।

ऐसा नहीं है कि मैं पहले अस्पताल में कभी नहीं आया था। मैंने दादी मां, छोटे ताया श्री, मंझले भैया तथा दोनों चाचाओं, बड़े तय – ताई के साथ-साथ अपनी सगी बहन को अपनी आंखों के सामने संसार छोड़ते देखा था। कई बार अस्पताल आ चुका था। भीड़ भी कई बार देख चुका हूं। पर जिस तरह की भीड़ और चीख-पुकार मैंने इस बार पी जी आई की आपातकालीन सेवा में देखी थी, वह अति भयानक परिदृश्य था।

आम अस्पतालों में चिकित्सकों को बार-बार हिदायत देते हुए सुना है कि ऐसे खुले वातावरण में ऑपरेशन किए हुए रोगी को या गंभीर हालत के रोगी को कभी नहीं रखना चाहिए। इंफेक्शन का डर रहता है। पर यह क्या? यहां तो हर कोई मरीज बिना बेड के बाहर स्ट्रेचर पर ही लेटे – लेटे अपना पूरा इलाज कर लेता है और यहीं से घर चला जाता है। जिन्हे जीना हो, वे तो जी जाते हैं पर जिन्हें संसार छोड़ना है वे भी यहीं पर अपने प्राण त्याग देते हैं।

हस्पताल की आलीशान पथरीली दीवारों से अपना हाड – मांस का माथा बार – बार टकराता हूं और भगवान से प्रार्थना करता हूं कि हे प्रभु! सबका भला करना। सबका पहले और मेरा पीछे। दिल की पीड़ा जितनी अपने बेटे के लिए सता रही थी, उससे कहीं ज्यादा आस – पास शल्य चिकित्सा से चीर – फाड किए हुए सरों वाले छोटे छोटे बच्चों को देखकर हो रही थी। सोचता हूं कि इन बच्चों ने इस छोटी सी उम्र में ऐसा क्या कर लिया कि ये इतनी गम्भीर दिमागी बीमारी के मरीज हो गए। खैर यह दुनियां है।फिर हस्पताल की दुनियां। जहां एक ओर बच्चों को जनने वालों की खुशी झलकती है तो दूसरी ओर से देह त्यागने वालों के परिजनों की पीड़ा दिखती है। सचमुच किसी ने ठीक ही कहा है कि यह संसार बड़ा रंगीन है।

फिर भीतर ही भीतर व्यवस्था और सत्ता के प्रति गहरी रोष उमड़ती है कि आजादी के 75 साल बीत गए पर हमारे हुक्मरान और अफसरान अभी तक आम और सर्वहारा वर्ग को स्वास्थ्य, शिक्षा और न्याय जैसी मूलभूत सुविधाओं को निशुल्क और अच्छी व्यवस्था के साथ क्यों नहीं मुहैया करवा पाए? देश के पूर्व प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेई जी की उस बात का ख्याल मस्तिष्क में पुनः गूंजता है “देश की जनता को कुछ भी मुफ़्त नहीं देना चाहिए। इससे जनता की आदत बिगड़ती है और देश कभी प्रगति नहीं करता। मुफ़्त यदि कुछ मिलना चाहिए तो वह है, स्वास्थ्य व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था और न्याय व्यवस्था।” कोई कुछ भी कहे बात सोलह आने सही है। आज के दौर में यदि जेब में पैसा न हो तो उपरोक्त तीनों मूलभूत सुविधाओं से आदमी को हाथ धोने पढ़ सकते हैं।

यूं तो कहते हैं कि आदमी के आगे पैसा कुछ भी नहीं है। कुछ हद तक यह सत्य भी है। आदमी ही जिंदा नहीं रहेगा तो पैसों का क्या अचार डालोगे? पर जब इस तरह की गंभीर बीमारी के चक्कर में निम्न मध्य वर्ग और उच्च मध्यवर्ग के साथ-साथ गरीब व्यक्ति फंसता है तो यही पैसे बहुत काम आते हैं। खैर जैसे ही मेरे बेटे की बीमारी की खबर मेरे इष्ट मित्रों और रिश्तेदारों में पहुंची। वैसे ही सभी ने उनके लिए ईश्वर से दुआ की। कहते हैं दवा से बड़ी दुआ होती है। शायद यह असर उन सबकी दुआओं का ही था कि आज मेरा बेटा उस भयानक बीमारी के जीवन नाशक खतरे से लगभग बाहर है। सबकी दुआ में असर होता है और भगवान उस सामूहिक पुकार को सुनता है।शायद परमात्मा ने सबकी सुनी और मानी।

हैरत इस बात की है कि देश को सबसे अधिक कर देने वाली और सबसे अधिक परिश्रम देकर उन्नत करने वाली इतनी बड़ी जमात को सरकार इस तरह से गैलरियों और बरामदों में जीने – मरने के लिए क्यों छोड़ देती है? पी जी आई की आपातकालीन सेवाओं की हर वार्ड में भीड़ इतनी है कि वार्डों में तो जगह ही नहीं होती पर गैलरियों में भी भीड़ इस तरह से लबालब भरी मिलती है मानो कोलकाता का मछली बाजार लग गया हो। बेड के नाम पर नाममात्र की सुविधा। अधिकतर रोगियों को ट्रालियों पर ही लेटे-लेटे अपना इलाज संपन्न करना पड़ता है। बेड तो बहुत ही मुश्किल से किसी भाग्यवान के हिस्से आता है। वह भाग्यवान भी वही व्यक्ति होता है जो जिंदगी और मौत की जंग से बिल्कुल समीप से लड़ रहा होता है। बाकी सब ट्रालियों पर ही होता है। ये ट्रालिया भी अलग-अलग धार्मिक संगठनों और सामाजिक संगठनों की भेंट की हुई है शायद।

सोचता हूं क्या मेरे देश की सरकार इतनी गरीब है कि चंडीगढ़, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू – कश्मीर तथा आंशिक रूप से राजस्थान, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसे बड़े भू भाग के गरीब और मध्यम वर्ग के लोगों का इलाज करने वाले इस हस्पताल की आपातकालीन सेवा को अभी तक वह उन्नत ही नहीं कर पाई। माना कि देश की जनसंख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। पर इसका मतलब यह तो नहीं है कि जो ढांचा आज से वर्षों पहले खड़ा कर दिया गया था, बस उसी को ही बनाए रखें।

क्या सरकारें सिर्फ एक दूसरे पर इल्जाम ही लगाती रहेगी? आजादी के बाद आज तक सभी दलों ने केंद्र में राज किया है। क्या यह सभी दलों की सामूहिक जिम्मेवारी नहीं बनती है कि पी जी आई चंडीगढ़ के ट्रामा सेंटर और आपातकालीन सेवा के भवन को और उन्नत और विकसित किया जाए। वहां हर इमरजेंसी वार्ड में कम से कम 3 से 4 सौ बिस्तरों का आधुनिक तकनीकी सुविधाओं के साथ प्रबंध वर्तमान में सरकार को नहीं करना चाहिए ? क्या बड़े – बड़े लोग फोर्टिस और अपोलो जैसे हॉस्पिटल में अपना इलाज करते हैं, इसलिए इस गरीब और सर्वहारा तथा निम्न मध्य वर्ग के आश्रय स्थल की ओर कोई ध्यान नहीं देता?

इतना ही नहीं, गंभीर समस्याओं से जूझ रहे रोगियों के साथ इनकी देखभाल करने के लिए आए हुए तीमारदारों को भी रात में बाहर खुले में सड़क किनारे सोना पड़ता है। क्या आजादी के 75 साल बाद आजाद हिंदुस्तान में यह बात शोभा देती है? आखिर क्यों नहीं सोचती है सरकार इस दिशा में? कौन करेगा इन गरीबों की और आम जनमानस के हितों की बात? क्या इन सभी लोगों को सुविधा नहीं मिलनी चाहिए? सवाल अनगिनत है और जवाब अपेक्षित।

मैं चाहता हूं यह बात देश की संसद तक पहुंचे ताकि देश की आम जनता को न्याय मिल सके और सुविधा मिल सके। देश में कोई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा नहीं बनेगा तो शायद इतनी ज्यादा क्षति नहीं होगी जितनी ज्यादा क्षति इन गरीब एवं आम जनमानस के पीड़ित होने से देश को होगी। देश का मेहनतकश किसान, मजदूर सर्वहारा वर्ग जब जिंदगी और मौत की जंग से इसी प्रकार से खुले में अपने कठिन समय में लड़ता रहेगा तो वह देश की समस्याओं के साथ शायद उस ताकत से नहीं लड़ पाएगा जिससे उसे लड़ना चाहिए।

पर फिर भी देश की उन्नति और समृद्धि के लिए इस गरीब मजदूर और किसान वर्ग ने तथा निम्न मध्य वर्ग के कर्मचारी वर्ग ने अपनी एड़ी – चोटी का जोर लगा कर के भारत का नाम विश्व में रौशन किया है। इसलिए कुछ तो दायित्व देश को चलाने वाली सरकारों का भी बनता है कि और न सही तो मानवीय पहलुओं से सही, इस दृष्टि से जरूर विचार करें। सड़क नहीं बनेगी कोई बात नहीं, रेलमार्ग नहीं बनेगा तो भी चलेगा। किसी को सब्सिडी नहीं मिलेगी तो वह भी जी जाएगा। परन्तु सुविधा के अभाव में हस्पताल में किसी की जान चली जाए, यह तो बिल्कुल नहीं चलेगा।

यह हालत किसी एक हस्पताल की नहीं है। खबरों में ऐसे कई खुलासे हर राज्य से होते रहते हैं, जहां कहीं व्यवस्था के नाम पर तो कहीं प्रबंधन और प्रशासन के नाम पर बट्टा लगता रहता है। पर पी जी आई चंडीगढ़ का स्टॉफ पूरी मुस्तैदी के साथ सीमित सुविधाओं में भी लोगों को उचित सेवाएं देता है। कमी है तो वह है आपातकालीन विभाग में बिस्तर तथा भवन संबधी प्रबंधनों की। इस प्रकार की खामियां सरकारी स्कूलों और न्याय व्यवस्था में भी मौजूद है, जो आजाद देश की आजाद जनता के साथ बहुत बड़ा खिलवाड़ है। फिर से मन में सवाल उठता है कि आखिर देश की आम जनता को उसके हिस्से का हक कब और कैसे मिलेगा?

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला – मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस लेख के माध्यम से समझाने की कोशिश की है — पुरे देश में बड़े सरकारी पी जी आई हस्पताल में सीमित सुविधाओं में लोगों का समय से उचित इलाज का ना होना। आपातकालीन विभाग में बिस्तर तथा भवन संबधी प्रबंधनों की कमी। इस प्रकार की खामियां सरकारी स्कूलों और न्याय व्यवस्था में भी मौजूद है, जो आजाद देश की आजाद जनता के साथ बहुत बड़ा खिलवाड़ है। फिर से मन में सवाल उठता है कि आखिर देश की आम जनता को उसके हिस्से का हक कब और कैसे मिलेगा? जय हिन्द – जय भारत।

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यह लेख (आम जनता को कब मिलेगा उसका हक।) “हेमराज ठाकुर जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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गणतंत्र दिवस और भारतीय संविधान।

Kmsraj51 की कलम से…..

Republic Day and Indian Constitution – गणतंत्र दिवस और भारतीय संविधान।

भारत एक गणतांत्रिक देश है। यह सत्य किसी से छुपा नहीं है। परंतु भारत के गणतंत्र दिवस तक की कहानी कैसे-कैसे कदम दर कदम आगे बढ़ती है, यह बात नई पीढ़ी तक ले जाना पुरानी पीढ़ी का जिम्मा है। इसके विषय में जब चर्चा की जाती है तो नई पीढ़ी के लिए एक क्रमिक ज्ञान समायोजित करना पुरानी पीढ़ी का दायित्व बन जाता है। इस कड़ी में यदि हम भारतीय संविधान के निर्माण की गाथा को शुरू से खंगालने की कोशिश करेंगे तो 9 नवंबर 1946 ईस्वी का वह दिन हमें जरूर याद आता है, जिस दिन संविधान सभा के अस्थाई सदस्य डॉ सच्चिदानंद सिन्हा की अध्यक्षता में संविधान सभा की बैठक पहली बार हुई थी। 1946 में ही डॉ राजेंद्र प्रसाद जी को संविधान सभा का अध्यक्ष चुना गया था। हालांकि यह सभा बाद में 1947 में भारत के आजाद होने के पश्चात दो भागों में बंट गई थी। भारत की संविधान सभा अलग और पाकिस्तान की संविधान सभा अलग हो गई थी। भारतीय संविधान सभा की घोषणा 15 अगस्त 1947 ईस्वी को भारत की आजादी के उपलक्ष पर डॉ राजेंद्र प्रसाद जी की अध्यक्षता में ही की गई थी। इस सभा में कुल 284 सदस्य चुने गए थे तथा डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जी को संविधान सभा की प्रारूप समिति का अध्यक्ष चुना गया था। डॉक्टर भीमराव जी को भारतीय संविधान के जनक की उपाधि भी दी गई है। अंबेडकर जी भारत के प्रथम कानून और न्याय मंत्री थे।

भारतीय संविधान की मूल प्रति…

भारतीय संविधान सभा ने भारतीय संविधान को लिखना शुरू किया। भारत के संविधान को बनाने के लिए विश्व के लगभग 60 गणतांत्रिक देशों के संविधानों का अध्ययन किया गया था। भारत का संविधान विश्व का सबसे लंबा लिखित गणतांत्रिक संविधान है। इस संविधान को तैयार करने में 2 वर्ष 11 माह और 18 दिन का समय लगा था। भारतीय संविधान को अपने हाथों से लिखने वाले श्री प्रेम बिहारी नारायण रायजादा जी थे। नारायण जी एक कैलीग्राफी आर्टिस्ट थे। इनका जन्म 1901 में दिल्ली में हुआ था। इन्होंने संविधान को लिखने के बदले में किसी भी प्रकार का वेतन या भत्ता नहीं लिया था। इस संविधान की हस्तलिखित एक मूल प्रकृति(मूल प्रति) महाराज बाड़ा स्थित ग्वालियर की सेंट्रल लाइब्रेरी में रखी गई है। इस मूल प्रति में डॉ राजेंद्र प्रसाद तथा पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ-साथ संविधान सभा के 284 सभी सदस्यों के हस्ताक्षर मूल रूप से चिन्हित है।

भारतीय संविधान में बनाती बार कुल 395 अनुच्छेद थे। ये अनुच्छेद 22 भागों में विभाजित थे तथा इसमें 8 अनुसूचियां थी। परंतु आजकल भारतीय संविधान में 395 अनुच्छेद तथा 12 अनुसूचियां है जो 25 भागों में विभाजित की गई है। भारत का संविधान 251 पन्नों में लिखा गया है। यह संविधान 26 नवंबर 1949 ईस्वी को पारित किया गया था। इसलिए 26 नवंबर को संविधान दिवस के नाम से भी जाना जाता है। वर्ष 2015 में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जी की 125वी जयंती मनाई गई। उसी दिन से पूरे भारतवर्ष में 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में हर वर्ष मनाया जा रहा है।

भारत एक पूर्ण गणतंत्र राष्ट्र…

26 जनवरी 1950 ईस्वी को भारत का संविधान भारतीय संविधान की प्रस्तावना के तहत भारत में विधिवत लागू किया गया। इस दिन से भारत एक पूर्ण गणतंत्र राष्ट्र बन गया। इसलिए इस दिन को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में लिखा है “संविधान जनता के लिए हैं और जनता ही इसकी अंतिम संप्रभु है। प्रस्तावना लोगों के लक्ष्य, आकांक्षाओं को प्रकट करती है।” प्रस्तावना के इस कथन पर आज भारत की जनता को कितनी संप्रभुता मिली है? यह समझाना आज किसी अजूबे से कम नहीं है। संविधान की माने तो भारत की जनता को राष्ट्र की मूल व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में निर्णय लेने का पूर्ण अधिकार प्राप्त होना चाहिए। परन्तु भारत में आजादी के 75 साल बीत जाने के बाद भी जनता को वे अधिकार प्राप्त नहीं है, जो संविधान ने उसे मौलिक अधिकारों के तहत प्रदान किए हैं। सबसे बड़ी अवहेलना समानता के अधिकार के तहत हो रही है। एक देश एक विधा की दृष्टि से यदि देखे तो समानता के अधिकार की नागरिकता के आधार पर धजियाँ उड़ाई जा रही है।

  • जातिवाद और धर्मवाद के आधार पर मानव – मानव में बहुत भेद किया जा रहा है।व्यक्ति – व्यक्ति और समुदाय विशेष के कुछ विशेषाधिकार निहित है, जो समानता के अधिकार की तौहीन है। कुछ वर्गों और समुदायों को संविधान में निर्धारित समय सीमाओं से परे हो कर अधिकार दिए जा रहे हैं और कुछ को कुछ नहीं। यह एक देश एक विधान के तहत अन्याय है।
  • यही हाल विवाह पद्धति के सन्दर्भ में भी है। ये बातें कैसे और किससे कहें? 1950 से 2021 तक संविधान के 105 संशोधन किए जा चुके हैं, पर कहीं भी जन लोकपाल बिल और समान नागरिक संहिता की बात को महत्व नहीं मिल पाया है।

यह सच है कि समय – समय पर ऐसी मांगे उठती रही है। परन्तु उन्हें राजनैतिक षड्यंत्रों की चक्की में पीस दिया जाता है। यदि ठीक से गौर करे तो पूर्ण गणतंत्र राज्य के लिए इन नियमों का कड़ाई से लागू होना अति आवश्यक है। वरना सत्ता और प्रशासनिक वर्ग का प्रभुत्व जनता पर स्थापित हो जाता है। जो वर्तमान समय में दिख भी रहा है। नेतागिरी और आधिकारिक धौंस अभी भी अंग्रेजी हकूमत के जैसी भारत में निरन्तर बनी हुई है। मनाने को तो हम हर वर्ष 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाया जाता हैं, पर क्या वह सही मायने में गणतंत्र दिवस है?

शायद नहीं। क्योंकि आज भी भारत की एक बहुत बड़ी आबादी गरीबी और भूखमरी से जूझ रही है। आज भी आम जनमानस पूर्ण रूप से आजाद नहीं है। क्योंकि उस पर हुकामों और लाल फित्ता धारियों का दबाव है। सम्पति का समान वितरण आज भी कहां हो रहा है। संपति का तीन चौथाई हिस्सा आज भी उच्च और धनाढ्य लोगों के पास है। आम जनमानस को मिलता है तो मात्र एक तिहाही हिस्सा। आज भी भारत की जनता का एक बहुत बड़ा हिस्सा मूलभूत सुविधाओं से वंचित है।

आज प्रश्न है तो वह यह है कि आखिर भारत में कब पूर्ण गणतंत्र मनाया जाएगा? जब हर आदमी को उसका पूरा अधिकार मात्र कागजों में ही नहीं बल्कि असल में मिलेगा।अन्ना हजारे ने एक प्रयास भी किया था। पर वह भी सिरे नहीं चढ़ पाया। जिन पूर्वजों ने अपना बलिदान देकर भारत को यह सपना देख कर आजाद करवाया था, कि भारत की जनता को पूर्ण गणतंत्रता प्राप्त हो। उनके दिलों पर आज क्या बीतती होगी, यदि वे किसी लोक या दुनियां से आज भारत का दृश्य देखते होंगे।

वे तो अंग्रेज थे, जो भारतीयों का काम कभी भी समय पर नहीं करते थे। फिर करते भी थे तो पूरी खुशामद करवा कर ही करवाते थे। पर आज तो काम करवाने वाला भी भारतीय है और काम करने वाला भी भारतीय ही है। आज हालत उससे भी बदतर है। बिना रिश्वत या चाटुकारिता के कोई काम करने को राजी नहीं है। शायद ऐसे भारत की कल्पना तो कभी हमारे पुरखों ने न की हो।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला – मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

Must Read : हिन्दू और हिंदुत्व – एक समीक्षा।

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस लेख के माध्यम से समझाने की कोशिश की है — आज भी भारत की एक बहुत बड़ी आबादी गरीबी और भूखमरी से जूझ रही है। आज भी आम जनमानस पूर्ण रूप से आजाद नहीं है। क्योंकि उस पर हुकामों और लाल फित्ता धारियों का दबाव है। सम्पति का समान वितरण आज भी कहां हो रहा है। संपति का तीन चौथाई हिस्सा आज भी उच्च और धनाढ्य लोगों के पास है। आम जनमानस को मिलता है तो मात्र एक तिहाही हिस्सा। आज भी भारत की जनता का एक बहुत बड़ा हिस्सा मूलभूत सुविधाओं से वंचित है। नेतागिरी और आधिकारिक धौंस अभी भी अंग्रेजी हकूमत के जैसी भारत में निरन्तर बनी हुई है। मनाने को तो हम हर वर्ष 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाया जाता हैं, पर क्या वह सही मायने में गणतंत्र दिवस है?

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यह लेख (गणतंत्र दिवस और भारतीय संविधान।) “हेमराज ठाकुर जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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शिक्षा – सुन्दरता और सम्मान।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ शिक्षा – सुन्दरता और सम्मान। ♦

आज आधुनिकता के दौर में शिक्षा का गुणांक अच्छे अंक प्राप्त करना, सुन्दरता का मापदंड बाह्य रंग रूप तथा सम्मान का मानक पैसा हो गया है। यही पश्चिम की सोच थी कि भारतीय लोग अपनी संस्कृति के परम भाव से बाहर निकल जाए। ताकि उनकी सुरक्षात्मक आधारभूत विश्वास और नैतिकता प्रिय शक्ति टूट जाए और वे विदेशी भीरू और बेशर्म संस्कृति के गुलाम बन जाए।

आज रटा और सटा सिस्टम की शिक्षा पद्धति भारत में हावी हो गई है। या तो छात्र रटा मार कर परीक्षा पास कर देते हैं और अच्छे नम्बर ले आते हैं, समझ भले ही उस विषय की उन्हे हो या न हो। या फिर MCQ में सटा यानी तुका लगाकर अंक प्राप्त करते हैं।फिर बड़े खुश होते हैं कि देखो क्या जजमेंट है हमारी। न जाने क्यों शिक्षाविद यह आंकड़ों की शिक्षा प्रणाली निरन्तर हावी किए जा रहे हैं? जबकि यह सबको पता है कि शिक्षा का सम्बन्ध भावात्मक और विचारत्मक धरातल में विकास करने को ले कर होता है न कि मात्र बौद्धिक तौर पर विकसित करना।

पर आज के समय में तो बौद्धिक स्तर पर भी विकास कहां हो रहा है? बौद्धिक क्षमता को बढ़ाने के लिए भी समझ का होना जरूरी है। आज की शिक्षा प्रणाली नौकरी के लिए रटा और सटा वाली बनाना मजबूरी है। शर्म आती है कभी-कभी तो। घोर स्वार्थी हो रहे है आज का शिक्षित इन्सान। क्या यही शिक्षा है?

सुन्दर का अर्थ है सु+अन्दर अर्थात जो अन्दर से अच्छा हो। पर हमने बाह्य रंग रूप को सुन्दर कहना शुरू कर दिया। जबकि वह सुरूप कहलाता था। शब्दों के आज अर्थ बदल दिए हैं।

पैसा सामाजिक जरूरतों के लिए एक अनिवार्य विनिमय था। पर आज वही मान सम्मान का परिचायक हो गया है। जबकि मान सम्मान व्यक्ति के ज्ञान और ध्यान, सेवा और सत्संग तथा तप व त्याग से सम्बन्ध रखता था।

आज अगर अष्टावक्र की माने तो हम चर्मकार हो गए हैं।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला – मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस लेख के माध्यम से समझाने की कोशिश की है — आज रटा और सटा सिस्टम की शिक्षा पद्धति भारत में हावी हो गई है। या तो छात्र रटा मार कर परीक्षा पास कर देते हैं और अच्छे नम्बर ले आते हैं, समझ भले ही उस विषय की उन्हे हो या न हो। या फिर MCQ में सटा यानी तुका लगाकर अंक प्राप्त करते हैं।फिर बड़े खुश होते हैं कि देखो क्या जजमेंट है हमारी। न जाने क्यों शिक्षाविद यह आंकड़ों की शिक्षा प्रणाली निरन्तर हावी किए जा रहे हैं? जबकि यह सबको पता है कि शिक्षा का सम्बन्ध भावात्मक और विचारत्मक धरातल में विकास करने को ले कर होता है न कि मात्र बौद्धिक तौर पर विकसित करना।

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यह लेख (शिक्षा – सुन्दरता और सम्मान।) “हेमराज ठाकुर जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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“सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

“अगर अपने कार्य से आप स्वयं संतुष्ट हैं, ताे फिर अन्य लोग क्या कहते हैं उसकी परवाह ना करें।”~KMSRAj51

 

 

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हिन्दू और हिंदुत्व।

Kmsraj51 की कलम से…..

Hindu and Hindutva – हिन्दू और हिंदुत्व।

हिन्दू और हिंदुत्व – एक समीक्षा।

हिंदुस्तान में हिन्दू और हिन्दुत्व की बात न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। आज पूरी दुनियां में भारत एक ऐसा देश है, जिसमें हिन्दू और हिन्दुत्व के ऊपर एक जंग सी छिड़ गई है। सोशल मीडिया हो या प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया हो या सामान्य जन वार्ता। राजनैतिक दल हो या फिर सामाजिक – धार्मिक संगठन। सभी की टिप्पणियां और मुहिमें हिन्दू और हिन्दुत्व के पक्ष और विपक्ष में निरन्तर चलती रहती है।

ऐसा नहीं है कि हिन्दू और हिन्दुत्व के विपक्ष में मात्र गैर हिन्दू समुदाय ही खड़े नजर आते हैं। बल्कि खुद को कट्टर हिन्दू कहने वाले लोग भी हिन्दू और हिन्दुत्व के खिलाफ मुक्त स्वर में बोलते हुए नजर आते हैं। खैर विचारधारा अपनी – अपनी।

पर यहां कई सवाल खड़े होते हैं कि जो ये लोग हिन्दू और हिन्दुत्व के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं और जो ये हिन्दू और हिन्दुत्व के पक्ष में आंदोलित लोग नजर आ रहे हैं; ये सभी असल में हिन्दू और हिन्दुत्व के अर्थ को जानते भी है या नहीं। या फिर मात्र पक्ष के लिए पक्ष और विरोध के लिए विरोध करते रहते हैं। कहीं ये राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक संगठनात्मक विचारधारा से बंध कर तो यह सब करते हुए नजर नहीं आ रहे हैं? कहीं ये सामाजिक सरोकारों को ठोकर मारकर अपने संगठनात्मक सरोकारों को साधने की कोशिश करते हुए तो ऐसी हरकत करने की जरूरत नहीं कर रहे हैं, जो समाज के लिए घातक सिद्ध हो सकती है।

• हिन्दू शब्द का अर्थ •

उससे पूर्व की हम आगे की बात करें। हिन्दू शब्द के अर्थ को समझना जरूरी है। यूं तो भारत में हिन्दू कहलाने वाले लोग स्वयं को सनातनी कहते हैं, जो सनातन धर्म की “वसुधैव कुटुंबकम्” की अवधारणा के धरातल पर खड़ी एक मानवीय सरोकारों की इमारत है। पर फिर भी हिन्दू शब्द के अर्थ को समझना जरूरी है। मेरे मत के अनुसार यदि हिन्दू शब्द को भाषिक संरचना के आधार पर परिभाषित किया जाए तो हिन्दू शब्द “हिं + दू” के मेल से बना है। इसमें “हिं” का अर्थ हिंसा और “दू” का अर्थ दूर होता है। अर्थात ऐसा व्यक्ति/समुदाय/समाज जो हिंसा से दूर रहता हो, वह हिन्दू है।

हिंसा मानसिक, तानसिक या फिर कोई भी हो सकती है। इसी प्रकार अहिंसात्मक भावना से ओतप्रोत मानस ही हिन्दुत्व है। इस सन्दर्भ में यह भी समझने की कोशिश करनी चाहिए कि सत्य और अहिंसा के पथ पर चलने वाला हर व्यक्ति हिन्दू है, वह चाहे किसी भी धर्म या संप्रदाय का क्यों न हो। वह हिन्दू हो या मुस्लिम, सिख हो या इसाई या फिर पारसी। जो सत्य और अहिंसा परमो धर्म का मार्ग नहीं अपनाता, वह हिन्दू धर्म का होकर भी हिन्दू नहीं है। यदि मैं गलत हूं तो फिर हिन्दू धर्म की पवित्र पुस्तकों के प्रमाण भी गलत है। महर्षि वाल्मिकी और तुलसी कृत रामायण में महा पण्डित रावण को राक्षस और कविलाई समाज के नायक गुह को तथा पशु समुदाय यानी वानर तथा रिक्ष समुदाय के हनुमान, सुग्रीव, अंगद तथा जामवंत आदि को साधु व सज्जन सिद्ध करना इसी हिंदूवादी सोच का उदाहरण है।

शबरी जैसी निम्न जाति की वृद्ध औरत के जूठे बेर प्रभु राम द्वारा खाना तथा केवट जैसे सामान्य जन के गले लगना आदि सभी प्रमाण हिंदूवादी सोच को पुष्ट करते हैं। और भी न जाने कितने-कितने प्रमाण कई शास्त्रों में भरे पड़े हैं। पर नहीं आज ये बाते किसी को न ही तो सुननी है और न ही समझनी है।

आज तो बस एक ही भूत सबके सिर पर सवार है कि मैं हिन्दू माता-पिता की संतान हूं तो मैं हिन्दू हूं। अधिकांश भाई बहन ऐसे हैं जिन्हें हिन्दू धर्म का क ख ग तक मालूम नहीं है पर है हम हिन्दू। मेरी बात झूठ है तो करें सर्वे। पूछिए जरा हिन्दू कहलाने वाले लोगों से कि वेद कितने हैं? पुराण कितने हैं? क्रमबद्ध उनकी सूची बनाने को कहे।इतनी सी बात से ही सारी हेकड़ी निकल जाएगी। उन ग्रंथों में लिखा ज्ञान तो दूर की कौड़ी है।

मेरा मक़सद किसी को जलील करना और किसी की पैरवी करना नहीं है। सोशल मीडिया में कई मुस्लिम भाई भी राम को अपना पूर्वज बताते हुए नजर आते हैं और वे ये मानते हैं कि हमारे पूर्वज हिन्दू थे। उनकी कवरगाहों में उर्फ कर के उनके हिन्दू होने का प्रमाण लिखा हुआ मिलता है। खैर मैं इस बात की पुष्टि नहीं कर रहा हूं। पर उन्हे बोलते मैने जरूर सुना है।

मेरा मतलब है कि फिर इस हिन्दू और हिन्दुत्व के मुद्दे पर इतनी जुमानी जंग क्यों? विशेष तौर पर इस मुद्दे पर भाजपा और आर एस एस से समर्थित लोगों को निशाने पर गैर भाजपाई और गैर आर एस एस संगठनों के हिन्दू कहलाने वाले लोग ही रखते हैं।खैर गैर हिंदूवादी संगठनों और समुदाय की बात तो अलग है। इस सन्दर्भ में मुझे तो इतना सा ही कहना है कि वह चाहे किसी भी दल या विचारधारा से जुड़ा हुआ व्यक्ति क्यों न हो। यदि वह किसी जीव की बलि चढ़ाता है, मांस खाता है, मदिरा पीता है, नशा करता है, अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग करके दूसरे के मन को ठेस पहुंचाता है, भ्रष्टाचार, अनाचार, दुर्व्यवहार, बलात्कार और कोई अन्य असामाजिक कृत्य करता है तो वह हिन्दू हो ही नहीं सकता। शायद इस बात से बहुतों को बुरा भी लगे, क्योंकि आज का अधिकांश हिन्दू समाज इन्ही बुराइयों से बुरी तरह से घिरा हुआ है। “पर हित सरिस धर्म न भाई” की लोक मंगल भावना बहुतायत गायब सी हो रही है।

• संपूर्ण हिंदुत्व को प्रतिस्थापित करना? •

आज हिन्दू समाज को जाति प्रथा, बलि प्रथा, धर्मवाद और आरक्षण व्यवस्था जैसी मुसीबतों से दो-दो हाथ होना बहुत जरूरी है। जातिवाद के नाम पर हिन्दू धर्म को मानने वाले वर्गों में ही संघर्ष है। इस लड़ाई में कई राजनैतिक दल भी आमने सामने है। भीम आर्मी के लोग जहां जाति प्रथा को मनु स्मृति का फैलाया भ्रम समझते हैं तो वहीं अपने आपको उच्च वर्ग समझने वाला हिंदू समाज इस बात को मानने को कतई राजी नहीं है। उच्च वर्गीय कहलाने वाले हिंदू समाज का मानना है कि मनुस्मृति में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं मिलता कि शुद्र का बेटा शूद्र और ब्राह्मण का बेटा ब्राम्हण ही कहलाएगा। अर्थात वहां कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था का नियम प्रतिपादित किया गया है न कि जातिगत दासता का। उनके अनुसार यह वंशानुगत जातिगत परंपरा हमारे भारतीय संविधान की देन है, जिसमें ब्राह्मण का बेटा ब्राम्हण और शूद्र का बेटा शूद्र कहलाने की संवैधानिक मंजूरी प्रदान करके रखी है। इस सन्दर्भ में वे आरक्षण का भी हवाला देते हैं। इधर जातिगत आधार पर आरक्षण पाने वाले समुदायों के लोग अपना आरक्षण छोड़ने को किसी भी हद तक मंजूर नहीं है। ऐसे में भारतीय समाज से जातिगत भावना को दूर किए बिना संपूर्ण हिंदुत्व को प्रतिस्थापित करना कहीं से भी संभव होता हुआ नजर नहीं आता।

• जातिगत भेदभाव और छुआछूत •

आजादी के 75 वर्ष बीत जाने के बाद भी हमारे भारतीय समाज में जातिगत भेदभाव और छुआछूत उतने ही मजबूत और दृढ़ है जितने कि वे स्वतंत्रता से पहले थे। इसमें भी अगर गौर से देखें उच्च वर्गीय कहलाने वाले समाज में इस प्रथा में कुछ सुधार जरूर हुए हैं। यहां ब्राह्मण, राजपूत, ठाकुर, राणा, कनैत, राठी, कुम्हार, तरखान आदि जातियों का आपस में एक साथ उठना बैठना और एक दूसरे के साथ मिलकर के खाना-पीना तथा आपस में अपने बेटे – बेटियों के रिश्ते तय करना लगभग शुरू हो चुका है; जो सामाजिक उत्थान की दिशा में एक अच्छा कदम है।

परंतु दूसरी ओर आरक्षण का लाभ लेने वाले निम्न वर्गीय कहलाने वाली जातियों के लोग आपस में यह क्रिया करते हुए नजर नहीं आते। लोहार और कोली, चर्मकार तथा अन्य निम्न जाति के लोग आपस में न ही तो सामाजिक तौर पर इकट्ठे बैठकर के खाना खाते हैं और न ही सामाजिक रिश्तो को निभाने में आपस में रिश्तेदारी करते हैं। सबसे पहले हिंदू और हिंदूवादी संगठनों को भारत से इस जातिवाद के भूत को बाहर फेंकना होगा। उसके साथ – साथ दूसरी सबसे बड़ी चुनौती भारतीय देवी-देवताओं को खुश करने के लिए निरीह पशु – पक्षियों की बलि चढ़ाने की प्रथा को समाप्त करने की है।

क्या यह हिंसात्मक घटनाएं नहीं है? सब जानते हैं कि ये कुप्रथाएं हैं और ये बंद होनी चाहिए। पर बिल्ली के गले में घंटी बांधेगा कौन? हिंदू धर्म के गैर भाजपाई और गैर स्वयं सेवक संगठन के लोग इन विचारधाराओं से जुड़े हुए हिंदुत्व का पक्षधर बनने वाले लोगों को साफ नसीहत देते हुए नजर आते हैं कि खुद ये लोग सभी प्रकार की हिंसाएं करते हैं और दूसरों को हिंदू बनने की नसीहत देते हैं। आखिरकार इस दोहरे चरित्र से ये लोग कब बाहर आएंगे, जिससे इनकी कथनी और करनी में एकरूपता नजर आए और हिन्दू समाज इनकी विचारधारा पर विश्वाश कर सके ? सवाल यह भी जायज है। यह तो नहीं चलेगा कि औरों को उपदेश और खुद को गोहटे।

⇒ भारत में हिंदुत्व कायम करना है तो…

हिंदूवादी संगठनों को यदि सचमुच भारत में हिंदुत्व कायम करना है तो उन्हें अपनी विचारधारा के साथ-साथ अपने सामाजिक व्यवहार को भी हिंदुत्व के आधार पर ही ढालना होगा। रही बात धर्मवाद की; उसमें तो भारत में असंख्य चुनौतियां हैं। यह ठीक है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है परंतु फिर भी हिंदुत्व की भावना सभी धर्मों से ऊपर उठकर धर्मनिरपेक्ष ही है। यह सच है कि सिख धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म आदि कई धर्म हिंदू धर्म के ही घटक है परंतु यहां भारतीय धार्मिक परंपरा के अनुसार मुस्लिम धर्म को हिंदू धर्म का कट्टर विरोधी धर्म भी माना जाता है। इसके समकक्ष ईसाई धर्म का प्रारूप भी खड़ा कर दिया जाता है। परंतु मैं इस बारे में अपनी राय ऊपर ही स्पष्ट कर चुका हूं कि अहिंसा की भावना से ओतप्रोत हर व्यक्ति मेरी नजर में हिंदू है।

उपरोक्त सभी कारण इस बात की पुष्टि करते हैं कि कुछ लोग मात्र विरोध के लिए विरोध और मात्र पक्ष के लिए पक्ष करते हुए नजर आते हैं, जबकि उन्हें हिंदू और हिंदुत्व की सही-सही समझ है ही नहीं। हालात यहां तक हो गए है कि हिंदू धर्म के ही मानने वाले कुछ राजनैतिक दलों के उच्च पदस्थ नेता हिंदू समाज के ही बीच में शहर ए आम हिंदुत्व को हराने की बात तक कह डालते हैं। आज भारत के लिए सचमुच एक बहुत बड़ी विडंबना है कि जिन पूर्वजों ने हिंदुत्व की भावना को पुष्ट करने के लिए अपनी अस्थियां तक गला दी, उनको आज यह कहकर श्रद्धांजलि दी जा रही है कि हमने हिंदुस्तान में हिंदू बहुल क्षेत्र में हिंदुत्व को परास्त कर दिया है।

• मानव धर्म •

शारीरिक संरचना के आधार पर देखें तो समूचे विश्व के लोग एक जैसी संरचना के आधार पर बने हुए हैं। उनके रंग जरूर अलग-अलग हो सकते हैं परंतु शरीर की बनावट एक जैसी है। उनके जन्मने और मरने का तरीका एक जैसा है। भले ही अंत्येष्टि की क्रिया अलग-अलग हो। उनके रक्त का रंग सबका एक जैसा है, भले ही उनके ग्रुप अलग – अलग हो। इस आधार पर अगर धर्म को परिभाषित करने की कोशिश करें तो कहना न होगा कि कुदरत ने मनुष्य जाति के लिए धरती पर एक ही धर्म प्रतिस्थापित किया है जिसका नाम है मानव धर्म।

• हिंदुत्व का मूल मंत्र •

संरचनात्मक ढांचे के अनुसार कुदरत ने जातियां भी दो ही बनाई हैं, जिनका नाम है नर और नारी। फिर ये बाकी के विवाद क्यों और किस लिए? संसार को सुंदर बनाने के लिए और अधिक सुखदाई बनाने के लिए हमें अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग करके दूसरे की सुख – शांति में कभी बाधा नहीं पहुंचानी चाहिए। यही हिंदुत्व का मूल मंत्र है।

• चन्द पैसों के लालच में अपना जमीर नहीं बेचना •

पर न जाने आज समाज के हर बुद्धिजीवी वर्ग को और समाज के हर प्रतिष्ठित व्यक्ति को कौन सा नशा लग गया है कि वे अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला दे रहे हैं और जनमानस के एक बड़े भाग की भावना को अपनी आर्थिक समृद्धि या सांस्कृतिक उठापटक के चलते आहत कर रहे हैं। उन्हे यह ध्यान रखना चाहिए कि वे समाज के आदर्श होते हैं। वे यदि समाज में फुहड़ता परोसेंगे तो समाज उनकी नकल करके फुहड़ता का शिकार बनता जाएगा। वे यदि शालीनता पेश करेंगे तो समाज भी शालीन होगा। इसलिए उन्हें बड़ी जिम्मेवारियों के साथ हर भूमिका अदा करनी चाहिए। चन्द पैसों के लालच में अपना जमीर नहीं बेचना चाहिए।

हर नेता – अभिनेता को बड़ी जिम्मेवारी के साथ अपना बयान देना चाहिए। हिंदुस्तान में हिंदुत्व की भावना को हराने की बात करना अपने आप में बहुत बड़ी विडंबना है। इसका सीधा सा अर्थ है हिंदुस्तान में अहिंसात्मक गतिविधियों को बढ़ावा देना और असामाजिक व्यवस्थाओं को बढ़ावा देना। आज प्रत्येक भारतीय को जाति, धर्म और सम्प्रदाय के झगड़ों से ऊपर उठ कर पूर्ण हिंदुत्व को समझना होगा तथा उपनिवेशवाद की विकृत मानसिकता से बाहर आना होगा। अन्यथा वह दिन दूर नहीं जिस दिन हम पूरे भारत को मानसिक रूप से विदेशी संस्कृति और सभ्यता का गुलाम बना देंगे।

• शारीरिक गुलामी से कहीं ज्यादा खतरनाक मानसिक गुलामी •

यह विषय भी विचारणीय है कि शारीरिक गुलामी से कहीं ज्यादा खतरनाक मानसिक गुलामी होती है। इस बात के प्रमाण इतिहास में भरे पड़े हैं कि संस्कृति और सभ्यताएं कई बार विकृत मानसिकता की शिकार हो चुकी है। उदाहरण के लिए पारसी धर्म है, जो आज लगभग अपने ही जन्म स्थल देश में समाप्त सा हो चुका है। हां भारत ही एक ऐसा देश है, जहां उसके भी कुछ अंश शेष है। यही है हिंदुत्व के समर्थक हिन्दुस्तान का हिन्दू जनमानस। जो सब धर्मों का सम्मान करता है पर शर्त यह है कि वे दूसरे धर्मों के मतावलंबी भी किसी दूसरे धर्म के भाव बोध को जाने – अनजाने में ठेस पहुंचाने की कोशिश न करें।

जबकि आज के दौर में यही सब जान बूझ कर हो रहा है। भारत में दक्षिण और वाम पंथ की लड़ाई अधिकतर इन्ही वैचारिक संघर्षों के धरातल पर निरन्तर जारी है। आज लोग अपनी मानवीय संवेदनाओं को खोते जा रहे हैं। हमे निर्भया हत्या काण्ड के दौरान हुए राष्ट्रव्यापी आंदोलनों का दृश्य और भाव भी याद है तथा आज श्रद्धा और उसके जैसी कई और निर्मम हत्याओं के मामले भी याद है। पर यह साफ – साफ देखा जा सकता है कि धीरे – धीरे देश के लोगों की मानसिक भावनाएं व संवेदनाएं निरन्तर पतन की ओर जा रही है।

निर्भया के दौर का जन भाव आज श्रद्धा के मामले तक फीका पड़ गया। ऐसा नहीं है कि सब कुछ खत्म ही हो गया है। पर यह सत्य है कि लोग व्यवस्था की चक्की में पिस कर ज्यादा चिकने हो गए हैं। या शायद उन्हे यह ज्ञान हो गया हो कि व्यवस्था का विरोध करने से कुछ नहीं होगा क्योंकि यहां सुनता ही कोई नहीं है। यहां तो हकीकत यह हो गई है कि जिसकी चलती है तो उसकी क्या गलती है?

उदाहरण के लिए हाल ही में विवादों में घिरी पठान फिल्म के गाने को ही ले लो। एक पक्ष उसे ठीक ठहरा रहा है और दूसरा गलत। जबकि दोनों पक्षों में वाद विवाद करने वाले अधिकतर हिन्दू ही है। जबकि असलियत तो यह है कि इस तरह के अश्लील चलचित्रों को स्क्रीन पर प्रदर्शित करने से रोकने के लिए तो सभी धर्मों के लोगों को एक जुट होकर सामने आना चाहिए। इस प्रकार की अर्धनग्नता भरी सभ्यता समाज में परोसना नीरी पाश्विकता परोसना है। यह पाश्विकता न ही तो हिन्दू धर्म वालों की सामाजिकता के लिए ठीक है और न ही तो मुस्लिम धर्म के लोगों की सामाजिकता के लिए।

इतना ही नहीं किसी भी धर्म की सामाजिकता के लिए ऐसी पाश्विकता बिल्कुल भी सुसभ्य नहीं है। ऐसी घटनाएं चाहे जान बूझ कर कोई करे चाहे अनजाने में। उसका सार्वजनिक विरोध होना चाहिए। फिर वह किसी भी धर्म का हो या फिर किसी भी समुदाय का। यह फूहड़ मानसिकता समाज के लिए किसी भी सूरत में ठीक नहीं है। ऐसे उचाटन भरे फिल्मी दृश्य तथा नशीले पदार्थों के सेवन समाज को मानसिक तौर पर अपाहिज बना कर छोड़ेंगे।

शायद इससे बड़ी कोई और हिंसा, मानसिक हानि हो ही नहीं सकती। फिर भी किसी को अपनी ही बात को सही ठहराना हो तथा अपनी रोजी के चक्कर में समाज के पतन को नजरंदाज करना हो, तो उसका कोई इलाज नहीं है।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला – मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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यह लेख (हिन्दू और हिंदुत्व – एक समीक्षा।) “हेमराज ठाकुर जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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श्रीलंका की स्थिति से सबक लेना जरूरी है।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ श्रीलंका की स्थिति से सबक लेना जरूरी है। ♦

यूं तो आज विश्व के समस्त देशों में कहीं ना कहीं घमासान छिड़ा है। कोई अपनी राजनैतिक शक्ति को बढ़ाने की होड़ में लगा है तो कोई अपनी आर्थिक शक्ति को सब पर हावी करने पर लगा है। जहां एक ओर चीन और अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश अन्य शक्तिशाली देशों को आपसी कलह में डलवा कर आर्थिक और सामरिक सुरक्षा की दृष्टि से कमजोर करने के लिए प्रयास कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर कुछ छोटे और कमजोर देश स्वयं ही अपनी राजनैतिक ताकतों की मनमानियों के बोझ तले आर्थिक रूप से इतने कमजोर हो चुके हैं कि उनका दिवाला निकलने वाला है।

उपरोक्त सभी संदर्भों के उदाहरण यदि हम ढूंढना चाहे तो यूक्रेन और रशिया अन्तर कलह और इधर भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका की विकट आर्थिक स्थिति इसके ज्वलंत उदाहरण है।

⇒ जनता का आक्रोश

यह बात किसी से छुपी नहीं है कि हाल ही में श्रीलंका के राष्ट्रपति ने अपने देश को छोड़कर मालदीव को पलायन किया है। उनकी गैरमौजूदगी में श्रीलंका के प्रधानमंत्री श्रीलंका के अंतरिम राष्ट्रपति घोषित होकर श्रीलंका की शासन व्यवस्था को चलाने की हरकत में आए हैं। परंतु जब यह खबर श्रीलंका की आम जनता को प्राप्त हुई तो समस्त जनता श्रीलंका की सड़कों पर इस पूरे घटनाक्रम का विरोध करने के लिए उतर आई। इतना ही नहीं श्रीलंका के अंतरिम राष्ट्रपति ने इस पूरी मुहिम को रोकने के लिए श्रीलंका की सेना को पूर्ण रूप से अधिकृत किया। उसके पश्चात भी गुस्साई जनता को प्रधानमंत्री भवन पर कब्जा करने से कोई नहीं रोक पाया। अर्थात इन घटनाओं से स्पष्ट होता है कि जनता का आक्रोश जब अपने चरम पर होता है तो बड़ी से बड़ी ताकत भी उसे रोकने में नाकाम रहती है।

⇒ कौन जिम्मेदार

सवाल ये उठता है कि श्रीलंका में ये परिस्थितियां पैदा क्यों हुई ? आर्थिक विशेषज्ञों की माने तो श्रीलंका की आर्थिक स्थिति वर्तमान में इतनी खराब है कि उसका कुछ करके भी कुछ नहीं बन सकता। ना ही तो गाड़ियों को चलाने के लिए ईंधन प्राप्त हो रहा है और ना ही आम जनता की खानपान के लिए उचित रूप से राशन पानी की व्यवस्था हो पा रही है। इस पूरी व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने के लिए श्रीलंका की जनता राजपक्षे परिवार को जिम्मेवार ठहराए या फिर श्रीलंका के राष्ट्रपति की सनक को जिम्मेदार ठहराए। दोनों स्थितियों में बात एक ही है। यदि इस बात का विश्लेषण राजनीतिक विशेषज्ञों की दृष्टि से किया जाए तो यह दुर्दशा शासन व्यवस्था को परिवारवाद की पूंजी बनाने के कारण हुई है।

खैर कुछ भी हो। श्रीलंका की इस भयानक स्थिति से सभी राजनैतिक दलों को और सभी राष्ट्र अध्यक्षों को तथा राज्य प्रमुखों को गंभीरता से गौर करना चाहिए।राजनीतिक लोगों को राष्ट्र संचालित करने के लिए या फिर राज्य को संचालित करने के लिए जो शक्तियां जनता के द्वारा प्रदान की जाती है। सभी राजनीतिक लोग उन शक्तियों को अपना विशेषाधिकार ना माने बल्कि राज्य या राष्ट्र की सेवा करने के लिए जनता के द्वारा दिया गया आशीर्वाद समझे।

राज्य या राष्ट्र के खजाने को इस भाव से खर्च ना करें कि राष्ट्र की स्थिति ही कमजोर हो जाए। पूर्व में इतिहास के पन्नों में हमें उपनिवेशवाद की कई झांकियां देखने को प्राप्त होती है और उन झांकियों में उस राष्ट्र की असली जनता के साथ किस तरह का व्यवहार उपनिवेश वादियों के द्वारा किया जाता था; वह चित्र किसी के मन-मस्तिष्क से बाहर नहीं है। हम देख रहे हैं कि यह दशा जो आज श्रीलंका की हुई है; वह बहुत ही जल्द भारत के कई अन्य पड़ोसी देशों के साथ-साथ विश्व पटल पर कई छोटे देशों की भी होने वाली है। वे सभी छोटे देश जो अपने देश को संचालित करने के लिए निरंतर विश्व बैंक से या अंतरराष्ट्रीय स्तर के बड़े-बड़े पूंजीपति देशों से ऋण पर ऋण लिए जा रहे हैं। वे सभी ऐसी स्थिति में आने वाले हैं।

⇒ अर्थविदों की माने तो…

अर्थविदों की माने तो बांग्लादेश, भूटान, पाकिस्तान जैसे भारत के पड़ोसी देशों में से भी कई देश इस आर्थिक संकट की दलदल में फंसने की कगार पर खड़े हैं।अमेरिका एवं चीन जैसे बड़े-बड़े देश इन छोटे देशों को ऋण दे-दे कर बिल्कुल कमजोर करने पर तुले हैं और शायद यह पुनः उपनिवेशवाद की ओर बढ़ता हुआ एक कदम है।

खैर यह तो अंतरराष्ट्रीय धरातल पर आर्थिक रूप से दिवालिये के कगार पर खड़े राष्ट्रों की बात हुई। परंतु हम अपने ही राष्ट्र भारत की बात करें तो यहां भी कई राज्यों की स्थिति आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार इतनी कमजोर है कि यदि स्वयं वे स्वतंत्र राष्ट्र होते तो आज श्रीलंका से पहले उनका दिवाला निकल गया होता।

⇒ आर बी आई के आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट

यह मैं अपनी मर्जी से नहीं कह रहा हूं। आर बी आई के आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट को यदि ध्यान में रखा जाए तो आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार पंजाब, राजस्थान, गुजरात, पश्चिम बंगाल तथा बिहार जैसे राज्य की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। ये सभी राज्य, राज्य को प्राप्त ऋण लेने की अधिकृत सीमा से दो तीन गुना ऋण ले चुके हैं जो अब चुकता करना बहुत मुश्किल लग रहा है। ऐसे में यदि केंद्र सरकार इन राज्यों की आर्थिक मदद विशेष पैकेज देकर के करती है तो बात अलग है। वरना ये सभी राज्य गंभीर आर्थिक संकट में आने वाले हैं।

अब इस आर्थिक संकट में इन राज्यों को धकेलने की बात का कारण पूछा जाए तो सभी अर्थविदों का एक मत होता है कि यह पूरी स्थिति राजनैतिक दलों के लोकलुभावन घोषणा पत्रों की वजह से पैदा हुई है। कहीं बिजली फ्री, कहीं पानी फ्री, कहीं बस किराए में छूट तो कहीं राशन और अन्य सुविधाओं पर सब्सिडी प्रदान करके ये सभी राजनैतिक दल हर राज्य को निरंतर कर्ज के बोझ तले दबाते चले जा रहे हैं।

सत्ता पक्ष से अगर पूछा जाए तो वह पूर्व की सरकारों को इसके लिए दोषी ठहराता है और अगर विपक्ष से पूछा जाए तो वह सत्ता पक्ष को दोषी ठहराता है। इस पूरी विकट स्थिति की जिम्मेवारी लेने के लिए कोई भी तैयार नहीं है। इस तरह की ही वोट की राजनीति अगर होती रही तो वह दिन दूर नहीं कि हमारे राष्ट्र में भी यह गंभीर परिस्थिति पैदा हो जाए। जब तक यह थोपाथापी का खेल खत्म नहीं होगा। तब तक इस मामले पर पूर्ण विराम लगाना दूर की कौड़ी है।

⇒ जनता को मुफ्त की आदत डालने की कोशिश

देश की जनता को मुफ्त की आदत डालने की कोशिश किसी भी राजनैतिक दल को नहीं करनी चाहिए। मुफ्त खोरी से जनता निकम्मी होती है और वह देश की अर्थव्यवस्था को बिगाड़ने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ती। यहां अगर दूसरा कारण इसके पीछे बताया जाता है तो वह राष्ट्रव्यापी भ्रष्टाचार कहा जाता है। भ्रष्टाचार तो आज चंद लोगों को छोड़ कर, छोटे से लेकर के बड़े कर्मचारियों में इस तरह से घर कर गया है मानो वह उनका संवैधानिक अधिकार है।

कोई छोटे से छोटा कार्य भी किसी सरकारी कर्मचारी / अधिकारी से या फिर किसी गैर सरकारी क्षेत्र के अधिकारी से करवाना हो तो उसके लिए रिश्वत लिए बिना उनकी नियत काम करने की नहीं होती। जब उन्हें तनख्वाह की या कानून की दुहाई देते हैं तो अधिकतर लोगों का यही कहना होता है कि यह तो यहां की रीत है जी। यदि काम जल्दी करवाना चाहते हो तो ले दे करके निपट लो। वरना काटते रहो दफ्तरों के चक्कर।

⇒ भ्रष्ट व्यवस्था के चंगुल में

यूं तो भ्रष्टाचार के विरुद्ध बड़े से बड़े कानून बने हैं। परंतु जब कोई इस भ्रष्ट व्यवस्था के चंगुल में फंसता है तो कोई भी कानून उसकी किसी भी तरह की मदद नहीं कर पाता। देश को भ्रष्टाचार ने पूर्ण रूप से खोखला कर दिया है। यह मात्र एक देश की ही कहानी नहीं है। यह अंतरराष्ट्रीय बीमारी है। इसका इलाज करना बहुत कठिन लग रहा है।

यदि जनता एकता दिखाए और स्वार्थ से ऊपर उठकर के सर्व हित की बात करेगी तो इस लाइलाज बीमारी का इलाज करना भी संभव है। परंतु जनता है कि वह भी मुफ्त खोरी की आदत से पूरी तरह से मदहोश है और अपना उल्लू सीधा करने में हमेशा लगी रहती है। वह खुद घूंस खिला कर अपना हित साधने में मस्त है और इसे अपनी बुद्धिमानी और चालाकी समझती है।

उसे ना समाज की चिंता है और ना ही तो राष्ट्र की चिंता है। 100 में से दो चार लोग इस भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ जाते भी है तो उन्हें भी भ्रष्ट लोगों की फौज झूठे इल्जाम लगाकर धराशाई कर देती है। ना जाने क्यों हम लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं कि जब राष्ट्र है तो, तभी ही हमारी संपत्ति का महत्व है। वरना हमारे पास संपत्ति होकर के भी उसका कोई मोल नहीं है। इसलिए श्रीलंका की स्थिति को हम सभी को गंभीरता से लेना चाहिए और अपने राष्ट्र की आर्थिक मजबूती के लिए मिलकर प्रयास करना चाहिए।

⇒ राष्ट्र के प्रति समर्पित सरकार हो

मेरा मानना है आज हमारे राष्ट्र में एक ऐसी सरकार की आवश्यकता है जो राष्ट्र के प्रति समर्पित हो और राष्ट्र के आर्थिक कर्ज को दूर करने के लिए निरंतर प्रयासरत रहे। वोट की राजनीति ना करें। सभी राज्यों को वह सरकार दो टूक निर्देश दे सके कि अपने कर्मचारियों, अधिकारियों तथा व्यापारियों की कमाई का 10% हर मास अपने राज्य के कर्ज को उतारने के लिए साल-दो साल के लिए उनके खाते से काटकर इकट्ठा किया जाए और राष्ट्रीय स्तर पर तथा राज्य स्तर पर इस 10% अंशदान के लिए एक विशेष खाता राज्य स्तर पर और राष्ट्रीय स्तर पर खोला जाए।उन खातों को ऑनलाइन किया जाए। जिनमें पूरी तरह से पारदर्शिता हो। 7% हिस्सा राज्य के कर्ज को चुकाने के लिए लगाया जाए और 3% हिस्सा सभी राज्य राष्ट्रीय स्तर के कर्ज मुक्ति खाते में डालें ताकि राष्ट्रीय स्तर का कर्जा भी चुकाया जा सके।

भविष्य में तब तक राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर तक कोई विकास कार्य ना किया जाए जब तक राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर के कर्जे पूर्ण रूप से खत्म ना हो जाए। कर्ज मुक्त होने के बाद भी सभी राज्य एवं राष्ट्रीय सत्ता को इस तरह की कार्य योजना को प्रारूपित करना होगा कि फिर कभी हमें कर्ज के बोझ तले डूबने की नौबत ना आ सके।

⇒ सारे लेन देन डिजिटल माध्यम से हो

सभी का धन बैंकों में जमा होना चाहिए और सारे लेन देन डिजिटल माध्यम से ही होने चाहिए। नगद भुगतान पाई का भी मान्य न हो। फिर कोई भी न ही टैक्स चोरी करेगा और न ही भ्रष्टाचार करेगा। व्यक्तिगत धन संचय की भी एक सीमा तय होनी चाहिए और अचल संपत्ति की भी राजा से लेकर रंक तक एक सीमा तय हो। तय सीमा से ऊपर की सम्पत्ति सरकारी घोषित होनी चाहिए।

वेतनमान की सीमा कम की जानी चाहिए। दो तीन – तीन लाख तनख्वाह लेने वाले का वेतनमान यदि 50 हजार अधिकतम किया जाए तो उसी पैसे में उसके पूरे परिवार को रोजगार मिलेगा तथा देश का उत्पादन दर भी बढ़ेगा। इतना ही नहीं सभी के व्यस्त रहने से उत्पात भी घटेगा। वरना खाली दिमाग शैतान का घर।

जब चल और अचल सम्पत्ति के संग्रह की एक सीमा तय होगी तो कोई भी फिर उससे अधिक संचित नहीं करेगा। उसे खर्च करना ही होगा। ऐसे में सम्पति का समान वितरण होगा। पर इसके लिए सर्व प्रथम राजनेताओं और धनाढ्य वर्ग को अपना अहम छोड़ना पड़ेगा। वरना श्रीलंका के राष्ट्रपति की तरह न हो जाए।

यह ठीक है कि पेंशन का प्रावधान सभी को हो। फिर मैं देखता हूं कि कैसे नहीं मिलेगा हर हाथ को काम ? खैर मुझे मालूम है कि बहुत सारे कर्मचारी, अधिकारी एवं व्यापारी मेरी बात से बिल्कुल विपरीत होंगे। परंतु एक सच्चा नागरिक होने के नाते यह जिम्मेवारी हम सब लोगों को सामूहिक रूप से उठानी ही होगी।

इस अंशदान में मात्र कर्मचारी और अधिकारी तथा व्यापारी ही नहीं बल्कि आम जनता के साथ – साथ राजनेताओं को भी बढ़-चढ़कर के अपना योगदान देना चाहिए ताकि हमारी भविष्य की पीढ़ियां आर्थिक रूप से मजबूत हो और सामरिक रूप से सुरक्षित हो।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला – मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस लेख के माध्यम से समझाने की कोशिश की है — आप और आपका मकान, परिवार, संपत्ति तभी तक सुरक्षित है, जब तक आपका राष्ट्र मज़बूत और सुरक्षित हैं। सभी का धन बैंकों में जमा होना चाहिए और सारे लेन देन डिजिटल माध्यम से ही होने चाहिए। नगद भुगतान पाई का भी मान्य न हो। फिर कोई भी न ही टैक्स चोरी करेगा और न ही भ्रष्टाचार करेगा। व्यक्तिगत धन संचय की भी एक सीमा तय होनी चाहिए और अचल संपत्ति की भी राजा से लेकर रंक तक एक सीमा तय हो। तय सीमा से ऊपर की सम्पत्ति सरकारी घोषित होनी चाहिए। यह ठीक है कि पेंशन का प्रावधान सभी को हो। फिर मैं देखता हूं कि कैसे नहीं मिलेगा हर हाथ को काम ? खैर मुझे मालूम है कि बहुत सारे कर्मचारी, अधिकारी एवं व्यापारी मेरी बात से बिल्कुल विपरीत होंगे। परंतु एक सच्चा नागरिक होने के नाते यह जिम्मेवारी हम सब लोगों को सामूहिक रूप से उठानी ही होगी।

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यह लेख (श्रीलंका की स्थिति से सबक लेना जरूरी है।) “हेमराज ठाकुर जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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क्या सवर्ण आयोग की मांग वाजिब है?

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ क्या सवर्ण आयोग की मांग वाजिब है? ♦

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सोशल मीडिया में अगर देखें तो सवर्ण आयोग की मांग तूल पकड़ती जा रही है। इधर हिमाचल के शिमला से सवर्ण समाज ने बाबा भीमराव अंबेडकर जी की प्रतिमा के पास से आरक्षण की अर्थी को कंधा देकर के हरिद्वार तक उसकी पैदल शव यात्रा निकाल कर विरोध जताने की एक नई तकनीक अपनाई है। जिसके चलते यहां भीम आर्मी और दलित वर्ग के कई नेताओं और संगठनों ने इस बात का पुरजोर विरोध जताना शुरू कर दिया है और इन आंदोलनकारियों के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दायर करने की मांग की है। बात भले ही हिमाचल के गलियारों से निकल रही हो परंतु यह समस्या मात्र हिमाचल प्रदेश की ही नहीं समूचे हिंदुस्तान की समस्या है। न जाने हमारे पुरखों ने यह व्यवस्था क्यों और कैसे स्थापित की थी कि जिसे भिन्न-भिन्न जातियों और वर्गों का नाम देकर के छुआछूत का भेदभाव तैयार कर दिया। प्रकृति ने जब मनुष्य को जन्म दिया मेरे हिसाब से उसने मात्र दो ही जातियां बनाई। एक जाति का नाम नर है और एक जाति का नाम मादा। यह व्यवस्था प्रकृति ने मात्र मनुष्य योनि के लिए ही नहीं बनाई बल्कि संसार में जितनी भी योनियां जंगम प्राणियों की है, उन सब में एक नर और एक मादा का निर्माण प्रकृति या ईश्वर ने एक समान किया है। तर्क की कसौटी पर सिद्ध होता है कि संसार में मात्र दो ही जातियां हैं जिनमें एक नर है और दूसरी मादा। यूं ही अगर धर्मों की बात करें तो धर्म भी मात्र मानव धर्म है जो सबसे श्रेष्ठ धर्म माना जाता है। पशु पक्षियों के समाज के अपने अपने धर्म हो सकते हैं परंतु मनुष्य प्राणी के लिए यदि कोई धर्म प्रकृति ने निर्धारित किया है तो उस धर्म का नाम मानव धर्म है।

यदि इस बात को मनाने के लिए वर्तमान में समाज के किसी धर्म या जाति संप्रदाय विशेष के मनुष्य समुदाय को समझाने की चेष्टा करें तो कहना न होगा कि समझाने वाले को मुंह की खानी पड़ेगी। हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी जैसे नाना प्रकार के धर्म वैश्विक धरातल पर देखने को मिलते हैं। समझ ही नहीं आता कि सभी धर्मों के लोग इस एक छोटी सी बात को क्यों नहीं समझते हैं कि परमेश्वर ने या फिर इस प्रकृति ने हमें यूं धर्मों में बंटने के लिए नहीं बनाया था। उसने सृष्टि के घटना चक्र को निरंतर प्रवाहित रहने के लिए यह पवित्र व्यवस्था बनाई थी। आखिर कब इस बात का संपूर्ण ज्ञान मानव प्राणी के मानव मस्तिष्क में अंगीकार होगा? सदियों दर सदियों यही जाति और धर्म के झगड़े निरंतर मानवता के रास्ते का रोड़ा बनते आए हैं और बनते ही जा रहे हैं।

— मनुस्मृति में कहीं भी जातिवाद की व्यवस्था का समर्थन नहीं —

इधर एक मत इस बात के लिए मनुस्मृति को कसूरवार ठहराता है। उन्हें मैं बता दूं कि मनुस्मृति में कहीं भी जातिवाद की व्यवस्था का समर्थन नहीं किया है। हां यह जरूर है कि वहां वर्ण व्यवस्था की बात की गई है। परंतु वहां मात्र चार वर्णों की व्यवस्था थी। वे वर्ण थे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। मैं हैरान हूं कि जब मनुस्मृति में साफ शब्दों में यह लिखा है कि इन वर्णों की व्यवस्था भी कोई स्थाई नहीं थी। यदि शुद्र के घर में भी कोई ब्राह्मण बुद्धि का व्यक्ति पैदा होता था तो उसे शुद्र नहीं बल्कि ब्राह्मण कहा जाता था। अर्थात यह व्यवस्था मनुष्य के बौद्धिक धरातल के आधार पर और कार्यक्षमता के आधार पर निर्धारित की गई थी। छुआछूत का इस व्यवस्था में लेश मात्र भी नहीं था। ब्राह्मण और क्षत्रिय यदि शिक्षा और सुरक्षा का काम करते थे तो वैश्य वस्तु विनिमय के द्वारा पूरे समाज के लालन-पालन की व्यवस्था का जिम्मा उठाए रहता था। इधर जो शुद्र वर्ण के लोग होते थे, वही इन तीनों वर्णों के लोगों के घरों में सेवादारी का काम करते थे। यहां तक कि यही शूद्र इन तीनों वर्णों के घरों में खाना पीना बनाने का काम करते थे और इन तीनों वर्ण के साथ बैठकर भोजन बनाया और खाया करते थे।

— यह धर्मगत और जातिगत भेदभाव क्यों? —

एकाएक न जाने यह कैसा परिवर्तन भारतीय सामाजिक परंपरा में प्रचलन में आया कि जो जिस वर्ण में पैदा होता गया, वह उसी वर्ण का समझा जाने लगा और निरंतर यह वर्ण व्यवस्था विकृत होती गई। जो बाद में विकृत होकर के नाना प्रकार की जातियों के नाम से विभाजित हो गई। ऊंच नीच और उत्कृष्टता तथा निकृष्ठता की व्यवस्था भारत में कब से प्रारंभ हुई? इस बात का ठीक से प्रमाण नहीं मिलता। यह एक शोध का विषय है। इसे समझने के लिए हमें ऐतिहासिक एवं प्रागैतिहासिक तथ्यों के साथ चिंतन मनन करना होगा। परंतु भारत की इस कुत्सित व्यवस्था को देखकर एक प्रश्न सबके मन मस्तिष्क में जरूर कौंधता है कि जब सभी जातियों और धर्मों के लोगों के शरीरों की बनावट एक जैसी है, उनकी सभी अंग एक समान है, उनके संसार में पैदा होने का तरीका एक जैसा है, तो फिर यह धर्मगत और जातिगत भेदभाव क्यों?

विशेषकर भारतीय समाज में यह जाति व्यवस्था आखिर किस आधार पर अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं? इस संदर्भ में दूसरे मतावलंबियों का कहना यह है कि जातियां और धर्म हमने नहीं बनाए। यह तो भगवान के द्वारा बनाई गई व्यवस्थाएं है। इसलिए निम्न जाति वालों को इस व्यवस्था को भगवान के आदेशानुसार मानना चाहिए। ऐसा विचार प्रकट करने वालों की मानसिकता सचमुच हमें कितनी वीभत्स लगती है? इसके विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। उनसे मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि आप यह बताएं कि क्या जाति पाती की व्यवस्था भगवान ने मात्र भारत में ही बनाई? विश्व के अन्य देशों में यह व्यवस्था भारत के ही समकक्ष क्यों नहीं बनाई गई है? यह बात भी सच है कि विश्व के हर देश में ऊंच-नीच की एक अपनी व्यवस्था है। कहीं काले गोरे का भेद है तो कहीं किसी अन्य व्यवस्था के द्वारा समाज के उच्च एवं निम्न वर्ग को प्रदर्शित किया जाता है। परंतु यह भी सत्य है कि सब प्रकृति जन्य या परमेश्वर जन्य व्यवस्थाएं नहीं है। ये सभी मानव मस्तिष्क की खुरापात का प्रतिफल है।

— सवर्ण आयोग आंदोलन का कारण और औचित्य क्या है? —

विश्व एक बहुत बड़ा फलक है। आइए हम मात्र भारत के बारे में ही इस विषय के ऊपर जानने की कोशिश करेंगे। आज भारत देश के एक छोटे से प्रांत हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से आरक्षण के विरुद्ध जो आंदोलन सवर्ण आयोग का गठन करने के पक्ष में सरकार पर दबाव बनाने के लिए शुरू हुआ है, आखिर उस आंदोलन का कारण और औचित्य क्या है? इस बात पर एक सटीक, निष्पक्ष और तथ्य पूर्ण चर्चा होना बहुत जरूरी है। पूर्व में क्या घटनाएं और परिस्थितियां रही होगी? उन्हें न ही तो समझा जा सकता है और न ही तो दोहराया जा सकता है। वर्तमान संदर्भ की अगर बात करें तो आज समूचा विश्व एक परिवार की तरह हो गया है। आज के मानव प्राणी ने शिक्षा के क्षेत्र में और विज्ञान के क्षेत्र में जो विकास किया है, वह किसी से छिपा नहीं है। परंतु इतना कुछ होने के बावजूद भी यदि हमारी मानसिकता इन तथाकथित कुत्सित व्यवस्थाओं के चंगुल में ही फंसी रहेगी तो यह देश की उन्नति के पथ पर कोई ठीक संकेत नहीं है। आज यदि जातिगत आरक्षण सवर्ण समाज के भीतर सवर्ण आयोग के गठन का विचार पैदा करता है तो प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि क्या मात्र सवर्ण आयोग का गठन करने से यह लंबे समय से चली आ रही सामाजिक कुरीति समाप्त हो जाएगी?

— निष्पक्ष और तथ्य पूर्ण चर्चा —

अभी यहां संक्षेप में यदि सवर्ण समाज और दलित समाज की दलीलों को सोशल मीडिया के प्लेटफार्म से आंकलित करके लिया जाए तो कहना न होगा कि दोनों पक्ष अपनी अपनी जगह सही है। जहां एक ओर दलित समाज दलील देता है कि हमें सवर्ण समाज ने सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी शोषित किया है और हमें निरंतर घनघोर प्रताड़नाओं का दंश झेलना पड़ा। अब यदि हमें संविधान में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी ने यदि आरक्षण की व्यवस्था देकर के मान सम्मान का जीवन प्राप्त करने की पैरवी की है तो इसमें सवर्ण समाज को दिक्कत ही क्या है?

हम तो अपना सदियों पुराना वंचित अधिकार प्राप्त कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर सवर्ण समाज की दलील यह रहती है कि हमें किसी के सुखचैन से किसी प्रकार की दिक्कत नहीं है। हमारा मानना यह है कि जब आरक्षण नाम की व्यवस्था बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी ने संविधान बनाने के समय मात्र 10 वर्ष के लिए प्रस्तावित की थी तो उसे निरंतर च्विंगम की तरह ये राजनीतिक पार्टियां क्यों खींचती चली आई? यदि यही क्रम बना रहा तो हम भी अपने हक के लिए लड़ रहे हैं। सरकारें सवर्ण समाज के बारे में भी सोचे और सवर्ण आयोग का गठन करें। हम किसी के खिलाफ नहीं है बस अपना हक मांग रहे हैं। वहीं सवर्ण समाज का यह भी कहना है कि क्यों न जातिगत आरक्षण व्यवस्था को खत्म किया जाए और आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था बनाई जाए। इस मामले में अगर सवर्ण समाज के नेताओं से कोई मीडिया कर्मी कारण जांचने की कोशिश करता है तो उनका कहना स्पष्ट होता है कि जातिगत आरक्षण व्यवस्था खुद उन निम्न जाति के लोगों के लिए ही न्याय नहीं कर पाती तो सवर्ण समाज के लिए वह क्या न्याय करेगी?

सवर्ण समाज के नेताओं का कहना है कि संपन्न परिवार के निम्न जाति के लोगों का तो निरंतर इस आरक्षण व्यवस्था से भला हो रहा है। वे इस आरक्षण व्यवस्था के माध्यम से बड़े-बड़े पदों पर स्वयं भी विराजमान है और अपनी संतानों को भी निरंतर उन पदों तक पहुंचाने के लिए लाभ ले रहे हैं। परंतु जो एक गरीब, असहाय एवं दलित निम्न जाति का नुमाइंदा है। उसे न ही तो खुद इस आरक्षण व्यवस्था के माध्यम से लाभ मिल पा रहा है और न ही तो उसकी संतानों को ठीक से मिल पा रहा है। वे लोग मात्र राशन पानी की व्यवस्था तक ही इस व्यवस्था का लाभ उठा पाते हैं। बड़े बड़े पद और सरकारी नौकरियां साधन संपन्न लोगों के हाथ में ही लगती है। यह बात एक कड़वी सच्चाई भी जान पड़ती है। इस बात की पुष्टि मात्र सवर्ण नेता ही नहीं करते बल्कि दलित समाज का निम्न वर्ग भी इस बात की तस्दीक करता है।

निष्कर्ष के तौर पर कहा जाए तो ……

अब यदि दोनों समाजों की बातों को ध्यान में रखकर के निष्कर्ष के तौर पर कहा जाए तो कहना न होगा कि दोनों समाज अपने स्वार्थ की लड़ाई लड़ रहे हैं। समाज के सरोकारों और प्राकृतिक व्यवस्था की किसी को कोई चिंता नहीं है। यह बात सच है कि हमारे भारतीय समाज में कई ऐसी पुरातन रूढ़ियां है जिनका खात्मा होना नितांत आवश्यक है। इस बात को समझने के लिए हमें इस पहलू से थोड़ा हटकर के विचार करना होगा। हमारा भारतीय समाज देवी देवताओं के प्रभाव से पूरी तरह से बंधा हुआ है। विडंबना देखिए कि उन देवताओं की मूर्तियां, उन देवताओं के मंदिर और उन देवताओं के सारे साज बाज सभी कुछ इन्हीं निम्न जाति के लोगों के द्वारा सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी बनाए जाते आ रहे हैं। परंतु सब कुछ कर देने के बाद अंततः एक सवर्ण समाज का व्यक्ति किसी ब्राह्मण के मुख से मंत्रोच्चारण की ध्वनियों के साथ इन सब चीजों को शुद्ध करवा करके इन मूर्तियों और मंदिरों को पूजने का अधिकारी बन जाता है। आखिर ऐसा अब इन उच्च जाति के लोगों ने उनमें क्या डाला कि अब उच्च जातियों के सिवा कोई उन्हे छू ही नहीं सकता?

— एक अभिशाप —

जिन्होंने ये सब कलाकारियाँ अपने हाथों से की, उन्हें उन मंदिरों और देवताओं की मूर्तियों को छूने तक का अधिकार फिर नहीं दिया जाता। यह सचमुच एक निंदनीय एवं अमान्य परंपरा है। इसी पीड़ा के दंश को बाबा साहब ने झेला था। इसीलिए तो उन्होंने संविधान में मात्र 10 वर्ष तक ही आरक्षण की व्यवस्था की बात कही थी। उन्हें मालूम था कि भविष्य में यदि यह व्यवस्था यूं ही बनी रही तो यह जातिवाद खत्म नहीं होगा बल्कि भारत देश के विकास के लिए एक बहुत बड़ा नासूर पैदा हो जाएगा। आज यदि कुछ घटित हो रहा है तो सचमुच ऐसा ही हो रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की अगर कहीं फजीहत होती है तो वह इसी जातिगत व्यवस्था के कारण होती है। अलग-अलग धर्मों के मिश्रण को फिर भी लोग कहीं न कहीं पचा लेते हैं। पर यह जातिगत व्यवस्था सचमुच हमारे समाज के लिए एक अभिशाप बनती जा रही है। निरंतर ऐसी व्यवस्था अगर बनी रहे तो छुआछूत भारत के समाज में घटेगी नहीं बल्कि दिन दुगनी रात चौगुनी प्रगति करेगी। इससे बड़े और समृद्ध निम्न जाति के लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता।

— पैसे वालों का अधिमान —

क्योंकि इस संसार मैं पैसे वालों का अधिमान पूर्व काल से ही रहा है और रहेगा। निम्न जाति का यदि कोई नेता या बड़ा अधिकारी होगा तो उससे सवर्ण समाज के लोग भी कोई छुआछूत नहीं करते। फर्क अगर पड़ता है तो गरीब और सर्वहारा निम्न जाति के लोगों को। उनके हाथ का दिया हुआ पानी सवर्ण जाति के लोग नहीं पीते। उन्हें अपने घरों में घुसने नहीं देते। उन्हें देव मंदिरों में जाने नहीं देते। उन्हें सार्वजनिक धार्मिक स्थलों और कार्यक्रमों में प्रवेश निषेध है। पल पल तिरस्कार का जीवन जीने वाले वे लोग कब इस भुंडी व्यवस्था से बाहर आएंगे? यह सवाल अपने आप में बहुत बड़ी विडंबना है। हम जैसे लेखकों और समाज चिंतकों को इन दलित एवं शोषित लोगों की इस पीड़ा का बड़ा दुख होता है परंतु सत्य यह भी नहीं झुठलाया जा सकता कि जब तक संवैधानिक रूप से जातियों के प्रमाण पत्र बनते रहेंगे और बंटते रहेंगे, तब तक इस जाती पाती की व्याधि का ठीक से इलाज हो पाना असंभव है।

— आर्थिक आधार पर आरक्षण व्यवस्था —

सवर्ण समाज के लोगों को अगर समझाने की कोशिश करें तो वे दो टूक शब्दों में यही कहते हैं कि जब हम अपनी जातिगत श्रेष्ठा के आधार पर आरक्षण जैसे समाज विरोधी नियम का शिकार हुए हैं तो फिर आरक्षण का लाभ लेने के लिए खुशी खुशी जाति का प्रमाण पत्र बनाने वाले निम्न जाति के लोगों को जाति सूचक शब्द हमारे मुंह से सुनने में क्या दिक्कत होनी चाहिए? फिर उन्हें छुआछूत का उसी पुरानी व्यवस्था के अनुसार पालन करने में क्या दिक्कत है? हम नहीं कहते कि हम छुआछूत को बनाए रखेंगे और निम्न जाति के लोगों को जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करके अपमानित करेंगे। परंतु इसके लिए संविधान से जातिसूचक शब्दों को हमेशा के लिए हटा देना चाहिए और जातिगत आरक्षण व्यवस्था का खात्मा करके आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए। इतना ही नहीं सवर्ण समाज के नेताओं का यह भी मानना है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था भी वंशानुगत नहीं होनी चाहिए। वह भी किसी व्यक्ति के जीवन की व्यवस्था एवं सुविधाओं को ध्यान में रखकर के उसे एक बार प्रदान की जानी चाहिए। जब उसे उस आर्थिक आधार पर आरक्षण व्यवस्था के माध्यम से सरकारी नौकरी इत्यादि में लगने का अवसर मिल जाता है तो उस व्यक्ति को उस आरक्षण व्यवस्था से हटाकर नए पात्र उम्मीदवार को वहां स्थान मिलना चाहिए।

परंतु ऐसा कुछ नहीं है। जो गरीब है वह निरंतर गरीब ही बनता जा रहा है। चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का क्यों ना हो? और जो अमीर है वह निरंतर अमीर ही बनता जा रहा है। सच तो बहुत कड़वा है लेकिन इस कड़वाहट को दूर करने के लिए किसी न किसी को तो अपने स्वार्थ का परित्याग करना ही पड़ेगा। यदि किसी चुनावी सीट से कोई दलित नेता लड़ता है तो वह पीढ़ी दर पीढ़ी लड़ता रहता है। यदि निकाय चुनावों की बात करें तो वहां हर पांच साल बाद रोस्टर बदलता रहता है। फिर क्यों न विधानसभा और लोकसभा के आरक्षित चुनाव हलकों में भी यह रोस्टर बदलना चाहिए? ताकि एक और नए दलित एवं कमजोर बुद्धिमान व्यक्ति को आर्थिक रूप से संपन्न होने का मौका मिल सके। क्यों नहीं कोई समृद्ध दलित नेता अपने आप ही अपने किसी गरीब दलित बुद्धिमान भाई को अपनी सीट छोड़ देता? यह अगर स्वार्थ की लड़ाई नहीं है तो और क्या है? सब समृद्ध लोग सभी गरीब लोगों को अपने-अपने जाति और संप्रदाय के तहत भीड़ में इकट्ठा करके बेवकूफ बनाते हैं और लाभ स्वयं ही खाते हैं। बेचारे गरीब जनता भवावेश में अपनी जाति और संप्रदाय के नेताओं की विरोध रैलियों में मात्र भीड़ के सिवा और कोई महत्व नहीं रखती।

यह बात सच है कि चाहे वह सवर्ण समाज हो या फिर दलित समाज। दोनों ही समाजों में यदि आरक्षण को लेकर के जंग छिड़ी है तो उसका मुख्य कारण उनके व्यक्तिगत स्वार्थ है। अब यहां यदि इस बात निष्कर्ष की ओर ले जाने की कोशिश की जाए तो हमें कहना होगा कि यदि बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की बात को हमारे राजनीतिक दलों ने स्वीकार किया होता तो आज यह परिस्थिति पैदा ही न होती। लोगों के लिए संविधान में लिखी गई बात का हवाला देकर के शांत करने की औषधि मिल जाएगी और समाज के सुधार का एक प्रबल आधार मिल जाता। यदि 10 साल से आगे इस व्याधि को न बढ़ाते, वोट बैंक की राजनीति न करते, ध्रुवीकरण का काम न करते तो आज हमारी निम्न और उच्च जाति के सभी लोगों की बहू बेटियां और बेटे आपस में एक दूसरे के साथ शादियां करके इस कुचक्र से बाहर निकल गए होते।

— पुष्ट और दुरुस्त मानव समाज बन गया होता। —

आज भारतीय समाज जातिगत विडंबना से न उलझ रहा होता। आज वह एक पुष्ट और दुरुस्त मानव समाज बन गया होता। यह बात जरूर है कि आज राजनीतिक पार्टियां पुनः इस बात के मायने समझाने की कोशिश कर रही है। परंतु उसके पीछे भी उनकी वहीं राजनीतिक मंशा है न कि सामाजिक उत्थान एवं कल्याण की भावना। यह परम सत्य है कि बड़े लोगों के लिए न ही तो आज तक कोई जाति, धर्म या संप्रदाय आड़े आया है और न ही तो आएगा। इसका शिकार यदि कोई बनते हैं तो निम्न और मध्य वर्ग के लोग। मध्य वर्ग के लोगों में भी निम्न मध्यवर्गीय लोग सबसे ज्यादा इस व्याधि का शिकार होते हैं। उच्च मध्यवर्गीय लोग तो इस जात पात की व्यवस्था से अछूते ही रह जाते हैं।

— संविधान से जातिगत आरक्षण की व्यवस्था को हटा दिया जाए —

हमारे भारत के अधिकतर राजनीतिक लोग इसी उच्च मध्यवर्गीय परिप्रेक्ष्य से आते हैं। अब यदि सचमुच हम लोग जातिवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ना चाहते हैं तो हमें सवर्ण समाज और दलित समाज का नकाब उतार करके फेंकना पड़ेगा तथा मिलकर के इस जंग को लड़ना पड़ेगा। एट्रोसिटी एक्ट तो महज एक बहाना है। असली बात तो यह है कि हमें भारत से जातिवाद की सदियों पुरानी विकृत व्यवस्था को हटाना है। क्यों न उच्च मध्यवर्गीय निम्न जाति के लोग स्वयं ही जातिगत व्यवस्था के विरुद्ध और जातिगत आरक्षण के विरुद्ध आंदोलन शुरू करते? एक सुर में वे मिलकर यह आवाज उठाएं कि हमें न ही तो आरक्षण चाहिए और न ही तो जाति के आधार पर बंटने वाले सर्टिफिकेट। संविधान से जातिगत आरक्षण की व्यवस्था को हटा दिया जाए और जातियों के आधार पर अधिकारियों को जो सर्टिफिकेट बांटने की अथॉरिटी दी गई है, उसे भी तुरंत प्रभाव से निरस्त किया जाए।

प्रश्न पैदा होता है कि…

इतना ही नहीं हमें किसी भी मंदिर और सार्वजनिक स्थान पर जाने से कोई न रोक सके तथा हमारे साथ कोई छुआछूत का व्यवहार अमल में न लाएं। जो आरक्षण व्यवस्था को हटाने के बाद भी हमें जातिसूचक शब्दों से पुकारने की कोशिश करेगा या फिर हमारे साथ छुआछूत का व्यवहार करने की कोशिश करेगा, उसे सीधा फांसी की सजा दी जाए। क्योंकि दकियानूसी विचार सवर्ण जाति के लोगों में भी कम नहीं है। देव समाज के नाम से हमारे सवर्ण जाति के लोग सचमुच एक डर का व्यवसाय सदियों से करते आ रहे हैं। जिसके नाम पर निम्न जाति के लोगों को छुआछूत व्यवस्था को अपनाए रखने के लिए वे डरा डरा कर विवश करते हैं । इतना ही नहीं इस डर के व्यवसाय में भारतीय देव समाज में देवताओं के कार्यकर्ताओं द्वारा पशु बलि प्रथा का चलन भी आज तक विद्यमान है। जरा सोचिए कि देवता किसी की जान को बचाने के लिए किसी दूसरे जीव की जान क्यों लेगा? यह भी प्रश्न पैदा होता है कि जो देवता पशुओं की बलि लेकर प्रसन्न होता है, क्या वह देवता हो सकता ?

प्रश्न वाजिब है…

ऐसी बहुत सारी कुरीतियां है जो समाज ने अपने मनगढ़ंत तरीके से चलाई हुई है। इनका न ही तो कोई भावगत आधार है और न ही तो कोई विज्ञानगत आधार है। इधर हिंदू लोग गाय का मांस नहीं खाते और उधर मुस्लिम लोग सूअर का मांस नहीं खाते। बाकी सब कुछ खा जाते हैं। मुस्लिमों का कहना है कि यदि हिंदू लोग गाय को दूध देने के कारण माता समझ कर के उसका मांस नहीं खाते हैं तो दूध तो भेड़ और बकरियां भी देती है। फिर उनका मांस क्यों खाते हैं? प्रश्न वाजिब है। यही प्रश्न कोई हिंदू मुस्लिम से करता है कि मेरे भाई तुम भी तो सब कुछ खा जाते हो फिर सूअर का मांस क्यों नहीं खाते हो? आखिर वह भी तो एक जानवर है? ऐसे कई अनगिनत सवाल हर धर्म और हर जाति संप्रदाय के भीतर बिना किसी आधार के चलते आ रहे हैं, जिनका निराकरण होना बहुत मुश्किल है। कबीर साहब जैसे लोगों ने चीख चीख कर इन कुरीतियों को दूर करने की वकालत की परंतु इस भुंडे समाज ने किसकी एक न सुनी। एक ऐसा भी वर्ग है जो मांसाहार के पीछे एक बड़ा तर्क देता है।

क्या यह तर्क उचित है?

उसका कहना है कि इससे सृष्टि का संतुलन बना रहता है और इसके साथ – साथ समाज की जो सब्जी की व्यवस्था है वह व्यवस्था भी कहीं न कहीं पूरी होती है। वरना सोचो यदि लोग मांसाहार न करते तो कितनी सब्जी की किल्लत झेलनी पड़ती? ऐसे लोगों के तर्कों पर हंसी भी आती है और तरस भी आता है। अरे भाई अगर तुम्हारी बात को मान भी लिया जाए कि इससे सृष्टि चक्र में संतुलन बना रहता है। तो फिर इस धरती पर इतनी मानव जनसंख्या हो गई है कि वह असंतुलित होती जा रही है। उसकी व्यवस्था करना हमारे शासन एवं प्रशासन को मुश्किल हो रहा है। आए दिन कहीं न कहीं कोई न कोई बलात्कार, दंगा फसाद और धर्म एवं संप्रदाय से संबंधित झड़प हमें अखबारों एवं समाचार चैनलों में सुनने को मिलते हैं। यह समस्या सिर्फ एक देश की नहीं समूचे विश्व की है। तो फिर तो संतुलन बनाने के लिए यहां भी बीच-बीच में से मनुष्य को काट देना चाहिए और उनका मांस पका करके सब्जी की व्यवस्था की समस्या भी दूर हो जाएगी।

खैर छोड़िए यह भी एक अभद्र बात हो गई। शायद यह कुछ ज्यादा ही बड़ा तर्क हो गया। मैं तो यह भी कहता हूं कि जब कोई मनुष्य अपनी सहज मौत मरता है तो उसके बाद उसे तब जलाने दफनाने की कोई जरूरत नहीं। जो लोग मांसाहार करते हैं, उसका शरीर उनके हवाले कर देना चाहिए ताकि वह अपना मांसाहार भी प्राप्त कर ले और उसके मृत शरीर का निपटान भी हो जाए। पाप भी नहीं लगेगा, क्योंकि मुर्दे को तो यूं भी किसी न किसी तरह निपटाना है। इसके साथ-साथ सब्जी की किल्लत का प्रश्न भी खत्म हो जाएगा। नहीं ना। ऐसा कोई नहीं करेगा। पर क्यों? यह भी सत्य है कि एक समय हमारे भारत में नर बलि का भी प्रावधान था। वह भी एक डर का व्यवसाय था। जब लोग जागरूक हुए तो उन्होंने उस व्यवस्था का विरोध किया और नरबलि को खत्म किया।

नरबलि — एक मनोवैज्ञानिक धंधा था।

फिर कहां गए वे देवता या दानव जो नरबलि न देने के कारण समाज में दारुण दंश भरते थे। इस बलि को न देने के कारण ही देवता समाज में खलबली मचा देते थे। आखिर यह सिद्ध हुआ कि यह एक मनोवैज्ञानिक धंधा था। ताकि समाज में एक डर का माहौल बना रहे और जो देवताओं को पूजने वाले कार करिंदे होते थे उनका एक टेरर बना रहे। कोई देवी देवता किसी पशु या पक्षी को नहीं खाता। यह सब व्यवस्था मनुष्य ने अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए मांस भक्षण की लालसा से तैयार की थी और अब निरन्तर चली आ रही है। विडंबना यह है कि मांसाहार को चाहने वाले लोगों की संख्या समाज में हमेशा से अधिक रही है और इसीलिए इस गंदी परंपरा को निरंतर आगे बढ़ाते आ रहे हैं। जो लोग इस व्यवस्था की कुरीति को समझते हैं, उनकी संख्या कम है और वे कुछ कर नहीं सकते। यह डर अगर एक पीढ़ी तक जबरदस्ती रोक लिया जाए आने वाली पीढ़ी के भीतर से यह डर अपने आप ही चला जाएगा और कोई किसी देवता के मंदिर में बलि नहीं चढ़ाएगा।

निष्कर्ष — Conclusion :

अब आप कहेंगे कि यह विषय यहां क्यों लिया गया? मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि इस तरह की बहुत सारी कुव्यवस्थाएं हमारे भारत में आज भी विद्यमान है। जो हमें भारत के वैभव को गाने से निरंतर रोकती और टोकती रहती है। इतना ही नहीं अंतरराष्ट्रीय धरातल पर भी इन्हीं कुव्यवस्थाओं के चलते हमें अपमानित और शर्मिंदा होना पड़ता है। वरना भारत की गौरवशाली गाथा का वैभव विश्व में किसी से नहीं छुपा है। यह भारत एक समय यूं ही विश्व गुरु के पद पर आसीन नहीं था। इस बीच में ये जाति पाती, धर्म संप्रदाय और बलि प्रथा इत्यादि कुप्रथाओं ने भारत के दामन पर दाग लगा दिया और इसे वैश्विक पटल पर गवार सिद्ध कर दिया। अभी भी वक्त है। यदि आज भी हम लोग अपनी भौतिक लालसाओं को छोड़ कर के और व्यक्तिगत स्वार्थों को छोड़ कर के एकजुट होकर भारत के वैभव को बचाने की कोशिश करते हैं तो वह दिन दूर नहीं जिस दिन भारत पुनः विश्व गुरु के पद पर विराजमान होगा।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — सारी कुव्यवस्थाएं हमारे भारत में आज भी विद्यमान है। जो हमें भारत के वैभव को गाने से निरंतर रोकती और टोकती रहती है। इतना ही नहीं अंतरराष्ट्रीय धरातल पर भी इन्हीं कुव्यवस्थाओं के चलते हमें अपमानित और शर्मिंदा होना पड़ता है। वरना भारत की गौरवशाली गाथा का वैभव विश्व में किसी से नहीं छुपा है। यह भारत एक समय यूं ही विश्व गुरु के पद पर आसीन नहीं था। इस बीच में ये जाति पाती, धर्म संप्रदाय और बलि प्रथा इत्यादि कुप्रथाओं ने भारत के दामन पर दाग लगा दिया और इसे वैश्विक पटल पर गवार सिद्ध कर दिया। अभी भी वक्त है। यदि आज भी हम लोग अपनी भौतिक लालसाओं को छोड़ कर के और व्यक्तिगत स्वार्थों को छोड़ कर के एकजुट होकर भारत के वैभव को बचाने की कोशिश करते हैं तो वह दिन दूर नहीं जिस दिन भारत पुनः विश्व गुरु के पद पर विराजमान होगा।

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यह लेख (क्या सवर्ण आयोग की मांग वाजिब है?) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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साहित्य का प्रदेय।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ साहित्य का प्रदेय। ♦

“साहित्य समाज का दर्पण होता है” इस पंक्ति से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। किसी भी काल – खंड की तस्वीर जब हम देखना चाहते हैं तो उस दौर का साहित्य उठाते हैं और शोधों – परिशोधों के शिकंजे पर कस कर साहित्य – आइने में उस काल – खंड का अवलोकन करते हैं। इस शीशे को फ्रेम बद्ध करना एक सजग साहित्यकार का काम होता है। यानी संक्षेप में कहें तो इन तीनों का आपस में एक गहरा नाता है।भविष्य के फलक पर वर्तमान का यथार्थ अपनी कलम छेनी और कल्पना मिश्रित अनुभूति के हथौड़े से चित्रित करना जहां साहित्यकार का काम है, वहीं समाज की पीड़ाओं के आत्मसात भावबोध के उस उद्घाटन का नाम ही साहित्य है। स्पष्ट है कि साहित्य और साहित्यकार के दरम्यान (बीच में) समाज ही केंद्र बन कर रहता है।

• साहित्य मौखिक और लिखित दोनों रूपों में अनादिकाल से विद्यमान •

साहित्य मौखिक और लिखित दोनों रूपों में अनादिकाल से विद्यमान होकर अपनी सेवाएं दे रहा है। इसके अनवरत प्रवाह के चलते, इसने अनेकों पड़ावों को पार कर घाट – घाट का पानी पीया है। जहां साहित्य का प्रारंभिक रूप पौराणिक दंत कथाओं के रूप में लंबे समय तक मौखिक चलता रहा, वहीं श्रुतियों – स्मृतियों ने इस कड़ी को बनाए रखने की अपार भूमिका अदा की। समय बदला, परिस्थितियां बदली। इसी मौखिक रूप ने लिखित रूप धारण किया और अपने समय के साक्ष्य देने का जिम्मा उठाया। वेदों – वेदांतों से गुजरते हुए यह रामायण – महाभारत जैसी महा लोक कथाओं को पार कर जब हिन्दी साहित्य के आदिकाल में प्रवेश हुआ तो इसने अपना मिजाज सिद्धों – नाथों की चमत्कृत अनुभूतियों के साथ बदल दिया।

यह सच है कि उस दौर में भी इसने वीर रस का पान करते हुए श्रृंगारित अनुभूतियों और युद्घिय वातावरण का चित्रण करने में कोई कोर – कसर न छोड़ी। जहां – जहां इसे वात्सल्य, वीभत्स, आदि दृश्यों को उद्घाटित करना था, सो भी कुल मिलाकर बखूबी किया। यानी इस काल में भी साहित्य की मूलभूत योग्यताओं और क्षमताओं का प्रदर्शन साहित्यकारों ने संतुलित किया।

• हिंदी साहित्य का यौवन ही निखर आया •

अब भक्ति काल या मध्यकाल में तो विशेष कर हिंदी साहित्य का यौवन ही निखर आया था। साहित्यिक रसों, गुणों, शब्द शक्तियों और छंद – अलंकारों के साथ – साथ साहित्य लेखन की महा विधाओं का उत्कर्ष ही निखर आया। इस काल – खंड के साहित्यकारों ने समाज की स्थिति को अपनी लेखनी की नोक से जिस क़दर साहित्य में उतारा, वह सच में काबिले तारीफ है। यह तो हिन्दी साहित्य का वह काल है, जिसे कोई चाह कर भी भूला नहीं सकता।

रीति काल में जहां दरबारी साहित्य की झलक के साथ – साथ शृंगारिकता का दर्शन होता है तो वहां आधुनिक काल में छायावादी कवियों का प्रकृति प्रेम दिखता है। आधुनिक काव्य साहित्य साहित्यिक परंपराओं को तोड़ता हुआ छंद मुक्त हो गया और इधर काव्य रचना की परिपाटी को तोड़ता हुआ गद्य साहित्य के क्षेत्र में उद्भूत हुआ।

• वह सब साहित्य का ही प्रदेय है •

यह तो भारतीय साहित्य परंपरा की एक संक्षिप्त गाथा है। परंतु साहित्य मात्र भारत में ही नहीं रचा गया। साहित्य तो विश्व के हर कोने – कोने में और हर जाति – धर्म में अपनी – अपनी भाषाओं में और अपनी – अपनी तहजीब में रचा गया। इधर यहूदी धर्म की पवित्र पुस्तक बाइबल से क्रिश्चियन धर्म का साहित्य शुरू हुआ और आधुनिक ईसाई मिशनरियों और इलियट जैसे प्रसिद्ध कवियों की कृतियों के साथ पल्लवित एवं संवर्धित हुआ।

ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद यदि हिन्दुओं के पवित्र और पुरातन ग्रंथ है तो इंजल, जबूर, तोरात और कुरान मजीद या कुरान शरीफ इस्लाम के पवित्र और पुरातन ग्रंथ है। अब चाहे पारसियों का साहित्य उठाओ या फिर बौद्धों, जैनों या सिखों का साहित्य उठाओ। धम्मपद, त्रिपिटक और गुरु ग्रंथ साहिब जैसी पवित्र ग्रंथों का अध्ययन करने पर या फिर किसी भी धर्म या संप्रदाय के साहित्य का अवलोकन करने पर जो कुछ हमें प्राप्त होता है वह सब साहित्य का ही प्रदेय है।

• भाषा के आधार पर साहित्य •

जाति, धर्म और संप्रदाय को छोड़कर यदि हम भाषा के आधार पर भी साहित्य को देखने की कोशिश करेंगे तो वह भी अपने आप में एक महत्वपूर्ण कड़ी है। अब चाहे संस्कृत का साहित्य हो या फिर हिंदी का। उधर अंग्रेजी, अरबी, फारसी या उर्दू का साहित्य हो चाहे फिर पाली, प्राकृत भाषा में रचित। पंजाबी, चीनी आदि विभिन्न भाषाओं में विपुल साहित्य की रचना हमें पढ़ने के लिए मिलती है। बात यहीं खत्म नहीं होती। बात तो यहां से शुरू होती है की साहित्य का प्रदेय क्या है?

• साहित्य के दो रूप •

यह प्रश्न जितना सरल है उतना ही इसका उत्तर भी सरल है। सीधी सी बात है कि विश्व के मानव मात्र के मन – मस्तिष्क में आज जो कुछ भी ज्ञान भरा पड़ा है, वह सब संसार के विविध साहित्य की ही देन है। इस संसार में साहित्य विद्यमान नहीं होता तो न ही तो संस्कृति और सभ्यता ही विकसित होती और न ही तो मनुष्य के पास मानव कल्याण एवं समाज उत्थान सम्बन्धी ज्ञान – विज्ञान होता। साहित्य ने हमें क्या नहीं दिया? साहित्य की देन को समझने के लिए हमें अनादि काल के उस परिप्रेक्ष्य में जाना होगा जहां से मौखिक साहित्य का उदय हुआ था। हम भलीभांति जानते हैं कि साहित्य के दो रूप हमें देखने को मिलते हैं : —

  1. मौखिक साहित्य। — Oral literature

  2. लिखित साहित्य। — Written literature

संसार की हर भाषा का साहित्य इन दो विभागों में बंटा हुआ है। जब मनुष्य को पढ़ना – लिखना नहीं आता था तो अवश्य ही उस काल खण्ड में हर भाषा का साहित्य मौखिक रूप से लंबे समय तक लोक में प्रचलित रहा। इन दोनों साहित्यिक विभागों के प्रदेय को समझने के लिए हमें इन्हें अलग – अलग तरीके से समझना होगा।

1. मौखिक साहित्य का प्रदेय : —

मौखिक साहित्य हर भाषा में श्रुति – स्मृति परंपरा में ही विद्यमान रहा। इस साहित्य ने जहां मानव मस्तिष्क और हृदय में भावनाओं एवं कल्पनाओं का विकास किया, वहीं दूसरी ओर मानवीय संस्कृति एवं सभ्यता को पाशविक संस्कृति एवं सभ्यता से पृथक करने में भी अपनी अहम भूमिका अदा की।

धर्मों के आधार पर यदि हम मानव परंपराओं को समझने की कोशिश करेंगे तो उसमें कई गतिरोध पैदा हो जाते हैं। इधर हिंदू मतानुसार यदि पुनर्जन्म की परिकल्पना की गई है तो इस्लामिक धर्म इसके विपरीत चलता है। इस कड़ी को ठीक से समझने के लिए यदि हम प्रागैतिहासिक घटनाओं और पुरातत्वविदों की परिकल्पना को ही वैज्ञानिक पृष्ठभूमि से जोड़कर आधार माने तो मौखिक साहित्य की देन का ठीक – ठीक विश्लेषण कर पाएंगे।

इस दृष्टि से माना जाता है कि मनुष्य का विकास पशु योनि से धीरे – धीरे विकसित होकर आदिमानव के रूप में हुआ। वह मौखिक ज्ञान – विज्ञान के आश्रय से बौद्धिक रूप से विकसित होता गया और उसी बौद्धिक ज्ञान – विज्ञान के आधार पर उसने अपने बाह्य वातावरण को और अपने शरीर को निरंतर परिष्कृत करके नवीन ढर्रे में ढालने की कोशिश की। आज का सभ्य मानुष उस आदिमानव का परिवर्धित एवं परिष्कृत रूप है।

यदि इस बात को आधार माना जाए तो यह स्पष्ट हैं कि मौखिक साहित्य ने सचमुच समाज के लिए बहुत कुछ दिया है। यह वह काल था जब मनुष्य ने धीरे-धीरे सोचना शुरू किया था। सोची हुई बातों को वैचारिक ताने-बाने में गूंथना शुरू किया था। इतना ही नहीं उन गुंथी हुई बातों को, कथा और कहानियों का रूप देकर के उन्हें स्मरण रखने की कला सीख ली थी। यह मौखिक साहित्य जितना प्रासंगिक उस काल खण्ड में था, उतना ही प्रासंगिक आज के दौर में भी है। यही साहित्य की वह विधा है जो पुरानी पीढ़ी का ज्ञान एवं अनुभव नई पीढ़ी में संप्रेषित करती है और नई पीढ़ी को उसके आगे आने वाली नई पीढ़ी के लिए ज्ञान – विज्ञान संप्रेषित करने के काबिल बनाती है।

हमें याद है कि हमारे घरों में हमारी दादियां और नानियां हमें ढेरों कहानियां मौखिक रूप से सुनाया करती थी और उन्हें वे कथाएं व कहानियां हमेशा के लिए सैकड़ों की तादात में जुबानी ही याद थी। उन कहानियों में मानवीय मूल्य, सामाजिक प्रेरणा और उदात्त भावनाओं के साथ – साथ मानवीय संबंधों को सुदृढ़ करने की एक विशेष परिकल्पना विद्यमान रहती थी। अतः कहना न होगा कि मौखिक साहित्य ने वैश्विक धरातल पर अपना जो योगदान समूची मानव जाति को दिया है, वह सचमुच अविस्मरणीय है।

दया, करुणा, मानवता, जिजीविषा, प्रेम, सामाजिकता, सहनशीलता, सहानुभूति, विश्वसनीयता, विनम्रता, मेहनत, धार्मिकता, आध्यात्मिकता और खोजबीन जैसे गुण यदि मनुष्य में विद्यमान हुए हैं तो इसका मुख्य साधन मौखिक साहित्य ही रहा है। मानव जाति को यदि सामाजिकता और निरन्तर खोजबीन का गुण मौखिक साहित्य न सिखाता तो आज के पढ़े लिखे एवं तर्क से परिपूर्ण समाज में अव्यवस्था फैल जाती।

कहना न होगा कि हम लोग पढ़े – लिखे आदिमानव कहलाते। यह बात जरूर है कि हर समाज एवं धर्म में अपनी-अपनी सृष्टि रचना का क्रम धार्मिक ग्रंथों में वर्णित किया गया है, परंतु वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मनुष्य प्रकृति का एक अभिन्न अंग है और उसने अवश्य ही मौखिक साहित्य का सहारा लेकर के आज तक के समाज तक पहुंचते-पहचते बहुत प्रगति की है।

सेवा, साधना और समर्पण की भावनाएं यदि मनुष्य के भीतर किसी ने भरी है तो वह मौखिक साहित्य ने ही भरी है। वरना आज की पढ़ी – लिखी पीढ़ी में ये गुण दूर – दूर तक देखने को नजर नहीं आते। कारण यही है कि आज का बालक दादियों और नानियों की उन मौखिक कथा कहानियों को नहीं सुनता है। इसलिए उसके व्यवहार में प्यार कम और विकार ज्यादा प्रभावी हो रहे हैं। यह भी सत्य है कि विकार पाशविक प्रवृत्ति के द्योतक है।

2.लिखित साहित्य की देन : —

जहां मनुष्य के आंतरिक भावबोध और संस्कारों का निर्माण करना मौखिक साहित्य की देन रहा है, वहां मनुष्य के मन और मस्तिष्क के बाह्य सामाजिक और व्यवहारिक पक्ष को अधिक कलात्मक और रोचक बनाना लिखित साहित्य की देन है। यह बात जरूर है कि लिखित साहित्य बहुत लंबे समय के बाद अस्तित्व में आया। परंतु जो भूमिका लिखित साहित्य ने मनुष्य जाति के लिए अदा की है वह अपने आप में अभिन्न है। जब से लिखित साहित्य अस्तित्व में आया तब से मनुष्य ने अपनी छोटी-बड़ी सभी सामाजिक घटनाओं को लिखित रूप से संग्रहित करने की कला सीख ली और उसे अपने पास में संजो करके रखने का उपक्रम मनुष्य जान गया। यह साहित्य का वह पक्ष है जो किसी भी समाज विशेष की और किसी भी काल खण्ड की स्थिति को अपने में समेट कर भविष्य की पीढ़ी को आईने की तरह बीते समय का दिग्दर्शन करवाता है ।

जहां मनुष्य ने अपने व्यवहारिक पक्ष को इस साहित्यिक पक्ष के द्वारा मजबूत किया वहीं उसने अपने सामाजिक पक्ष को भी साहित्य के इस पक्ष से सुदृढ़ किया। यह साहित्य का वह पक्ष है, जिसने विभिन्न संस्कृतियों और सभ्यताओं का वैचारिक आदान – प्रदान सुनिश्चित किया। इसी ने अनेकों संस्कृतियों और सभ्यताओं को लिखित रूप देकर मानव समाज के लिए सुरक्षित रखा। यही वह पक्ष है, जिसने मनुष्य को योग्य एवम साक्षर बनाया। यही वह पक्ष है, जिसने मनुष्य में तर्क, विवेक, स्पर्धा और निरंतर संघर्ष करना सिखाया। अध्ययन और अध्यापन भी इसी पक्ष की देन है। आज के युग में अध्ययन एवं अध्यापन का जो महत्त्व बन गया है, वह किसी से नहीं छुपा है। अनुलेखन, प्रतिलेखन अभिलेखन, पत्राचार, शीला लेखन या फिर स्तंभ लेखन आदि सारे उपक्रम इसी कड़ी की देन है।

आज का मनुष्य यदि देश – विदेश में जा कर या फिर इंटरनेट के माध्यम से जो कुछ भी सीख रहा है या फिर अपना अनुभव वैश्विक धरातल पर संप्रेषित कर रहा है तो वह साहित्य की इसी कड़ी का सहारा लेकर सब कर रहा है। लिखित साहित्य के माध्यम से ही आज यह संभव हो पाया है कि प्राचीनतम से भी प्राचीनतम ज्ञान – विज्ञान से लेकर नवीनतम से भी नवीनतम ज्ञान – विज्ञान को हम आज तथ्यात्मक ढंग से खोजबीन करके पुष्ट कर सकते हैं और समझ सकते हैं। यह जब मर्जी तब कर सकते हैं। यही लिखित साहित्य की विशेष उपलब्धि है।

यदि यह आज तक भी मात्र मौखिक ही रहा होता तो निश्चित तौर पर इस के अधिकतम प्रमाणिक अंश का या तो कुछ जानकारों के संसार छोड़ने के साथ अन्त हो जाता या फिर इनमें स्वार्थ वश कई प्रक्षिप्त अंश जुड़ जाते, जो मानव समाज को पथ भ्रष्ट करते। यह सच है कि अभी भी मौखिक साहित्य का एक बहुत बड़ा भाग लोक किंवदंतियों और दंत कथाओं में ही प्रचलित है। उसका लिखित रूप अभी तक सामने नहीं आ पाया है। उसे शोध के साथ खोजबीन करके लिखित रूप में लाने की नितान्त आवश्यकता है। परन्तु फिर भी संसार भर की समस्त भाषाओं का विपुल लिखित साहित्य मानव समाज को बहुत कुछ दे रहा है और निरन्तर देता ही रहेगा।

निष्कर्ष — Conclusion :

सार रूप से यदि कहा जाए तो इन दोनो साहित्यिक पक्षों ने मनुष्य जाति को बहुत कुछ दिया है। आज यदि मनुष्य के पास जो कुछ भी ज्ञान – विज्ञान है तो उसका मूल कारण साहित्य ही है। फिर वह चाहे लिखित हो या मौखिक। मानव ने जो कुछ भी भावात्मक या विचारात्मक सांस्कृतिक और सामाजिक विकास किया है, वह साहित्य के बल पर ही किया है। यह बात अलग है कि साहित्य के भी दो पहलू हैं। एक नकारात्मक साहित्य और एक सकारात्मक। आम तौर पर समाज का अधिकांश वर्ग साहित्य के सकारात्मक पक्ष को ही स्वीकार करता है और उसी के सहारे नई पीढ़ी को दशा और दिशा प्रदान करता है। यही साहित्य की असली प्रदेयता है और महता है।

अतः कहना न होगा कि साहित्य का सकारात्मक सृजन पुष्ट समाज के निर्माण के लिए निरन्तर होते रहना चाहिए और उसके पठन – पाठन का भी कार्य पीढ़ी दर पीढ़ी लगातार चलता रहना चाहिए। साहित्य ही समाज की वह ताकत है जो किसी समुदाय और समाज को वैचारिक और व्यवहारिक रूप से समृद्ध बनाती है। यदि ऐसा न होता तो विदेशी आक्रांता हमारी भारतीय साहित्यिक कृतियों को लूट कर अपने देश नहीं ले जाते। इन घटनाओं से स्पष्ट होता है कि साहित्य की प्रदेयता हर युग में विशेष रही है और रहेगी।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — हम सभी को मिलकर भारतीय साहित्य, संस्कृति और संस्कार को पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरण करने का कार्य कारण हैं। साहित्य का सकारात्मक सृजन पुष्ट समाज के निर्माण के लिए निरन्तर होते रहना चाहिए और उसके पठन – पाठन का भी कार्य पीढ़ी दर पीढ़ी लगातार चलता रहना चाहिए। साहित्य ही समाज की वह ताकत है जो किसी समुदाय और समाज को वैचारिक और व्यवहारिक रूप से समृद्ध बनाती है। यदि ऐसा न होता तो विदेशी आक्रांता हमारी भारतीय साहित्यिक कृतियों को लूट कर अपने देश नहीं ले जाते। इन घटनाओं से स्पष्ट होता है कि साहित्य की प्रदेयता हर युग में विशेष रही है और रहेगी।

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यह लेख (साहित्य का प्रदेय।) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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हिमाचली लोक संस्कृति में प्रभु श्री राम और दिवाली।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦हिमाचली लोक संस्कृति में प्रभु श्री राम और दिवाली। ♦

हिमाचल का नाम सुनते ही हर किसी के मन व मस्तिष्क में बर्फ से ढकी हुई चोटियां और प्राकृतिक सौंदर्य से लवरेज वादियां एकदम से अपना परिदृश्य प्रस्तुत कर देती है। जिस तरह से हिमाचल का नाम पर्यटकों को अपनी ओर स्वतः आकर्षित कर लेता है ठीक उसी तरह हिमाचल की लोक संस्कृति भी पर्यटकों को अपनी ओर लुभाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ती।

एक सहज, सरल, सुबोध और आतिथ्य धर्मी हिमाचली संस्कृति में जब प्रभु राम का समावेश हो जाता है तो यह संस्कृति और भी भाव ग्राह्य और मनमोहक बन पड़ती है। हिमाचल की इस सुरम्य प्राकृतिक छटा के बीच यहां की लोक संस्कृति में राम कहां – कहां है और उनकी मान्यताओं की क्या – क्या परंपराएं हैं तथा वे कब से हिमाचली संस्कृति में समावेशित हुए? ऐसे अनगिनत सवालों का एक शोध परक अवलोकन कुछ यूं किया जा सकता है:—

1 » लोक मान्यताओं, गाथाओं और गीतों में राम:—

यह किसी से नहीं छुपा है कि हिमाचल की लोक भाषा पहाड़ी है। इसका अपना कोई लिखित प्रारूप न होने के कारण यहां की अधिकतर लोक गाथाएं और स्मृतियां लोकगीतों में ही श्रुति – स्मृति परंपरा से अद्यतन प्रचलित है। इन लोकगीतों में राम संबंधित लोकगीत लोक गाथात्मक प्रचलन में आज भी निम्नलिखित प्रकार से हिमाचली संस्कृति में अपना स्थान ज्यों का त्यों बनाए हुए हैं।

यह जरूर है कि वर्तमान परिपेक्ष्य में प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने हिमाचली संस्कृति के पुरातन ढर्रे को थोड़ी ठेस पहुंचाई है, परंतु अभी भी हिमाचली संस्कृति के संवाहक अपनी इन पारंपरिक धरोहरों को संभालने में लगे हुए हैं।पहाड़ी में गाई जाने वाली पहाड़ी रामायण इन लोकगीतों की शैली में आज भी हिमाचल के विभिन्न जिलों में भिन्न – भिन्न तहजीबों में गेय शैली में विद्यमान है। इन्हीं लोकगीतों में से कुछ लोकगीत इस प्रकार से हैं:—

राम कृपा से संबंधित लोक गीत:—

राज होंदे हुए भी हुआ वनवास,
ओ रामा मेरे जोगणुआ।………… 2

— • —

“सूणे भी ता लया यारो गंगा रे ओ तारूओ,
रामा लया लखणा जो तारे ओ जी……!”

— • —

“पैरा भी ता लया धोणे दैए ओ मेरे मालको,
इन्हा री धुडा़ कै बणदे पात्थरा री नारी ओ जी ….!
एओ आसा काठा री बणी री ओ नावा,
एओ बणी गई ता दुई दूई, आसा केथी पाणी ओ जी..?
एक ता पहले ही थोकड़ा जे टबर नी ओ पाल्दा,
तूसे देख्या बगाड़दे आसा री कहाणी ओ जी……!”

(सन्दर्भ: — “श्री दिला राम मिस्त्री” घाट, जिला मंडी।)
यह पहाड़ी रामायण का पद्य भाग महात्मा तुलसी एवं महर्षि बाल्मीकि रामायण के केवट प्रसंग से मेल खाता है। इसमें राम और लक्ष्मण को नदी से पार पहले ले जाने के लिए आग्रह किया गया है और प्रत्युत्तर में केवट राम के चरणों की धूलि का महत्व बताते हुए अपनी लकड़ी से बनी हुई नौका के नारी बनने के डर से उन्हें अपना पांव नौका में बैठने से पहले केवट के हाथों धुलवाने की प्रार्थना करते हैं।

केवट यह सिद्ध करने की कोशिश करता है कि कहीं प्रभु के अनधुले चरण नाव में पड़ने से केवट की गृहस्थी में किसी प्रकार का खलल न पड़ जाए और केवट के छोटे से परिवार का गुजर – बसर ही कहीं ठप न पड़ जाए। कहीं नाव के नारी बन जाने पर केवट के परिवार की रोजी रोटी सदा के लिए बंद न हो जाए और दो – दो पत्नियां केवट के लिए कलह का कारण न बन जाए। इस प्रकार की बात कह कर केवट राम के चरणामृत को चालाकी से प्राप्त कर लेना चाहता है। यह सब घटना श्रीराम द्वारा अंदर ही अंदर भांप ली जाती है और वे अपने पांव केवट से धुलवाने के लिए तैयार हो जाते हैं।

राम रावण युद्ध संबंधी लोक गीत:—

“भाई जुद्ध लागो रे, रामो – रावण रा,
जुद्ध लागो रे, केसी री ताईए॥”

(संदर्भ: — श्री लाल सिंह सिरमौर से प्राप्त जानकारी।)
यह राम रावण युद्ध की पूरी गाथा गेय शैली में लोग बड़ी श्रद्धा से गाते भी हैं और इसके साथ – साथ छुकड़ा नृत्य भी करते हैं। यह नृत्य जलते हुई विशाल अग्निकुंड में देवताओं के गुरों (पुजारियों) द्वारा एक विशेष प्रकार के ऊनी वस्त्र को धारण करके छलांग लगाते हुए किया जाता है। हैरत अंगेज करने वाली घटना यह होती है कि इतनी भारी आग में प्रवेश करने के बाद भी वे नंगे पांव और ऊनी वस्त्र धारी गूर तनिक भी आग से नहीं झुलसते।

यह प्रक्रिया सिरमौर की गिरी पार की पहाड़ियों में तो होती ही होती है, इधर शिमला और सोलन आदि क्षेत्रों में भी यह छुकड़ा नृत्य एक विशेष अवसर पर कुतप वाद्य यंत्रों की पारंपरिक वैदिक धुनों के साथ किया जाता है। जब ऊनी वस्त्र धारी गुर लोग गले में चांदी की बनी मालाओं और हाथ में चांदी की बनी भाले जैसी छड़ी के साथ यह नृत्य करते हैं तो देखते ही बनता है। एक विहंगम दृश्य उत्पन्न होता है।

सिया लोकगीत: —

“सिया ऊबे बिउजाल, सिया ऊबे बिउजाल..2
लोखणा ढोन्दाणे पाणे,लोखणा ढोन्दाणे पाणे।
सिया किन्दे खे आए , सिया किन्दे खे आणे?…2
सिया रामा रे राणे, सिया रामा रे राणे……2
सिया पाणी खे लाओ रे, सिया पाणी खे लाओ ।
सिया ढोन्दे ने पाणी रे, सिया लान्दे ने पाणी।”

(संदर्भ: — श्री लाल सिंह सिरमौर से प्राप्त जानकारी।)
यहां वनवास के दौरान श्री लक्ष्मण नित्य प्रति सेवा करने के पश्चात उब जाने के कारण प्रभु श्री राम जी से माता सीता के प्रति शिकायत प्रकट करते हुए कहते हैं कि मैं नित्य प्रति पानी लाने जाता हूं और माता सीता तो दिन भर बैठी रहती है। वे तो कुछ भी नहीं करती है। ऐसी शिकायतों के चलते जब माता सीता पानी लाने स्वयं जाती है तो उनको मायावी मृग मिलता है। वे उस मृग को पकड़ने की जिद करती है। इसमें ठीक वही घटना आगे के गीत में दर्शाई गई है, जो प्रतिष्ठित रामायण में घटती है।

बरमा ने जाए “बिरसु” (बिरसु नाटी) :—

“थानों तेरो हनोले देवा, रोवे हनोले आये।
तेरी आए चरणो देवा, लोए महिमा गाए॥”
(देव हनोल की महिमा)

“बरमेना जाए रे देवा मेरा,
बरमेना जाए रे, बरमेना जाए रे।
हाटकोटी गाएने देवी दुर्गा माई रे ,
भूले देली बिसरो रास्ता लाई रे।
भूले देली बिसरो रास्ता लाई रे,
बिरसु पखवाणो बरये खे जाए रे।

—•—

तेरी जाणी हनोले देवा होले पाणी री कोई दाडीए,
त्यूणी सेटो मोड़ों दो रो सिहनी सोई रे,
बरमेना जाए बिरसु बरमे ना जाए रे।”

संदर्भ: — (श्री लाल सिंह सिरमौर से प्राप्त जानकारी।)
असल में यह गीत सिरमौरी लोक भाषा में देव हनोल (महासू राम) के गुर की घटना और महासु राम के शक्तिशाली प्रभाव का प्रचार करने के सम्बन्ध में गया जाता है।

असल में घटना यह है कि पुराने समय में देव का गुर लोगों से पाथा (फसल आने पर लोगों से अनाज के दाने देव सेवा हेतु लेना) इक्कठा करता था। देव हनोल महसूस राम के गुर ने बीच में यह प्रक्रिया इसलिए छोड़ दी क्योंकि उनके इलाके के रास्ते में घना जंगल था जिसमें एक शेरनी की गुफा थी और साथ में तौन्स (तमसा) नदी पर एक जर्जर लकड़ी का पुल खतरे का कारण था। इन के डर से गुर ने यह पाथा इकट्ठा करना बंद कर दिया था। परंतु देव महासू राम के प्रभाव से गुर को एक भयंकर प्रकोप होता है जिसके चलते उसे यह पाथा ग्रहण करने के लिए जना ही पड़ता है। वह शेरनी की गुफा से तो जैसे तैसे बच निकलता है, परंतु तौन्स नदी पर बने जर्जर पुल के टूट जाने से वह नदी में गिर जाता है। देव महासू राम की कृपा से गुर जी तो बच जाते है, पर उनका पाथा, शूप और डाल (अनाज इकट्ठा करने के सामान) नदी में बह कर यमुना नदी में जा मिले। वहां से वे बहते – बहते दिल्ली पहुंचे। वहां पर दिल्ली के राजा के मछुआरों ने उनको नदी में आया हुआ देखकर पकड़ कर बाहर निकाला और अपने बच्चों को खेलने के लिए दे दिया।

इस बीच दिल्ली के राजा के पेट से अजीब – अजीब जानवरों की आवाजें आने लगी। राजा ने इसके बारे में कई जगह छानबीन की। अंत में राजा को पता चला कि उसके राज्य में ऐसा – ऐसा देव महासू राम का सामान पहुंचा था, जिसे मछुआरों ने अपने बच्चों को खेलने के लिए दे दिया। उससे देव महासू राम राजा से नाराज है। तब राजा ने उन सभी सामानों को यथाशीघ्र हनोल में जाकर देव महासू राम के मंदिर में पहुंचाया। उस पर देव महासू ने राजा को प्रतिवर्ष लगने वाले भंडारे में नमक दंड के रूप में देने के लिए कहा। इस दंड को अदा करने के पश्चात राजा की वे अजीब – अजीब आवाजें सदा के लिए समाप्त हो गई। लोक मान्यता यह भी है कि आज भी दिल्ली से राष्ट्रपति भवन से वह नमक का पैकेट हनोल के इस बड़े मंदिर में नियमित रूप से प्रतिवर्ष भंडारे के लिए आता है।

देव महासू का मंदिर असल में भगवान राम का ही मंदिर है।

लोक मान्यता के मुताबिक उत्तराखंड में त्यूणी से लगभग 40 किलोमीटर दूर हनोल में बना देव महासू का मंदिर असल में भगवान राम का ही मंदिर है। यह एक पुरानी घटना है। इस जगह पर एक भयानक राक्षस रहता था। उस राक्षस के प्रकोप से निजात पाने के लिए, इस स्थान पर भगवान राम की प्रतिष्ठा कर के देव महासू के रूप में स्थापना की गई, जिसे बौठा (बड़ा) महासू कहा जाने लगा और इसके साथ – साथ इसी क्षेत्र के आसपास तीन और महासू मंदिर है, जिनका संबंध क्रमशः भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न से है। सिरमौरी लोग हाटकोटी होते हुए इस भव्य मंदिर की यात्रा पर प्रतिवर्ष श्रद्धा पूर्वक जाते हैं।

बरलाज लोक गीत (सोलन और शिमला): —

श्री जियालाल ठाकुर सोलन द्वारा प्रदत जानकारी के मुताबिक बरलाज का शुद्ध रूप बलिराज पूजन है। परंतु प्राकृत भाषा में चलता हुआ इसका अपभ्रंश रूप बरलाज बन गया। श्री जियालाल ठाकुर जी ने सन 2006 मैं ढोल नगाड़ों की थाप पर ‘राष्ट्रीय गान, राष्ट्रीय गीत और सारे जहां से अच्छा’ गीतों को वैदिक धुनों के ताल पर तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम के सामने गायन कर पेश किया गया था, जिसके लिए उन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

इसके साथ – साथ सन 2015 में हिमाचल प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल आचार्य देवव्रत के समक्ष इन्होंने पहाड़ी रामायण (बरलाज) को कुतप वाद्य यंत्रों की वैदिक धुनों पर गा कर प्रस्तुत किया, जिसके लिए राज्यपाल महोदय ने इन्हें विशेष संस्तुति से नवाजा। हाल ही में इनकी एक शोध पुस्तक “विरासती संस्कृति का डंका” छप कर आने वाली है। अतः इस आधार पर इनके द्वारा प्रदत बरलाज संबंधी जानकारी विशेष महत्वपूर्ण है। इससे पहले कि इस विषय को गहनता से समझे, हमें कुतप वाद्य यंत्रों के बारे में जान लेना चाहिए। इसमें चार प्रकार के वाद्य यंत्र आते हैं, जो वैदिक परंपराओं से संबंध रखते हैं:—

अवनाद वाद्य : —

ढोल, नगाड़े, मृदंग, डमरु आदि चमड़ी द्वारा निर्मित वाद्य यंत्रों की धुने इस श्रेणी में आती हैं।

सुशीर वाद्य : —

शहनाई, शंख, करनाल, रणसिंगा, बांसुरी, तुरी, सिंगी आदि फूंक से बजाए जाने वाले वाद्य यंत्रों की धुने इसमें आती है।

घन वाद्य: —

थाल, घंटी, घड़ियाल, करताल आदि धातु द्वारा बने हुए वाद्य यंत्रों से निकलने वाली धुने इस श्रेणी में आती है।

तार वाद्य: —

एक तारा, तुंबा, वीणा, धनतारू या धनोटू, सारंगी आदि तार से बजने वाले वाद्य यंत्रों की धुने इस श्रेणी में आती है।

नोट: — इन सभी वाद्य यंत्रों के एक साथ सामूहिक वादन को नवगत ताल के नाम से भी जाना जाता है, जिससे नवग्रह प्रसन्नता के साथ – साथ देव पूजन भी किया जाता है। श्री जिया लाल ठाकुर के मुताबिक बरलाज गायन की परम्परा त्रेता काल से ही हिमाचल में प्रचलित थी। यह पहले कार्तिक अमावस्या के दिन विशेष तौर से गाई जाती थी। इसके पीछे वे रामायण से संबंधित एक ऐतिहासिक घटना का जिक्र करते हैं।

उनके अनुसार जब पताल के राजा अहिरावण ने रावण के अनुरोध पर छल से राम और लक्ष्मण को पाताल लोक में नागपाश से फांसकर अचेत करके चुपके से पहुंचाया था तो उनकी जगह – जगह खोज करने के बाद भी कोई जानकारी हासिल नहीं हो पा रही थी। तत्कालीन पाताल के राजा अहिरावण उनकी बलि पाताल की देवी “सकला” को चढ़ाने वाले थे। इस बीच राक्षसी माया से सभी दैवीय शक्तियां अवरुद्ध की जा चुकी थी। ऐसे में जब महाराज बलि अपने भगवान “वामन” के पास यह सूचना लेकर आते हैं कि श्री रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी इस तरह से पाताल में अचेत पड़े हैं, उन्हें बचा लो। वरना उन्हे कुछ ही देर में “सकला” देवी को भेंट चढ़ा दिया जाएगा। यह खबर सुनकर भगवान “वामन” पृथ्वी पर हनुमान जी से मिलने आते हैं और उन्हें सारी कहानी सुनाकर सचेत करते हैं। क्योंकि उनकी शक्तियां उन्हें स्मरण कराने पर पुनः जागृत हो जाया करती थी।

हनुमान जी – सूक्ष्म रूप बनाकर प्रविष्ट।

बाकी सभी शक्तियां असुरी माया के वश में की जा चुकी थी। तब हनुमान जी क्रोधित होते हैं और पाताल लोक में जाकर पाताल लोक के राजा की मालिनी के हाथ की फूल माला में सूक्ष्म रूप बनाकर प्रविष्ट हो जाते हैं, जो फूल मालाएं देवी सकला को चढ़ाने के लिए वह मालिन राजा के आदेश पर हर रोज की तरह ले जा रही थी। उन फूल मालाओं के माध्यम से हनुमान सकला देवी तक पहुंचते हैं और उस मूर्ति के अंदर प्रविष्ट हो जाते हैं। अब मूर्ति के अंदर से हनुमान स्वयं तरह – तरह की आवाजें निकालते हैं। असुरों द्वारा पेश किया गया सब कुछ चट कर जाते हैं। असुर यह समझते हैं कि आज तो हमारी कुलदेवी बहुत प्रसन्न है जो हमारे द्वारा प्रस्तुत किया गया यह बहुत कुछ खा गई।

ऐसे में हनुमान पूर्ण रूप को धारण करते हुए असुरों के सामने प्रकट होते हैं और भयंकर युद्ध करके उन सब का नाश करके अपने प्रभु श्री राम और लक्ष्मण को पाताल लोक से छुड़वा कर ले आते हैं। इस समय जब हनुमान श्री राम और लक्ष्मण को पाताल से ले आ रहे थे, तो श्री राम जी ने महाराज बलि को इस कृतज्ञता के लिए एकवचन दिया कि आज से हर कार्तिक अमावस्या को धरती पर मेरे नाम के साथ – साथ आपके नाम की भी लोग पूजा किया करेंगे।

अतः बरलाज को तब से हर कार्तिक मास की अमावस्या को गाया जाने लगा। इसमें महाराज बलि का पूजन भी लोग भगवान वामन और भगवान राम के साथ – साथ विधिवत करते थे और बरलाज का गायन कर श्री राम के गुणगान के साथ – साथ बलि की कृतज्ञता और महानता का भी गुणगान करते थे। परंतु इसमें भी बीच में किन्हीं कारणों से कहीं व्यवधान पड़ा।

फिर इस बरलाज को द्वापर काल में पांडवों के द्वारा पुनर्जीवित किया गया। पांडवों ने अपनी पहली बरलाज सोलन में बीड धार की चोटी पर गाई थी। उन्होंने इस धार की चोटी पर अपने अज्ञातवास के दौरान एकादश ज्योतिर्लिंगों की स्थापना की थी और उनकी पूजा अर्चना करके बरलाज गायन का पुनरुत्थान किया था।

सर्यांजी नामक गांव में पांच पांडवों के मंदिर

तब से यह परंपरा आज तक निर्वाहित होती आई है। आज सर्यांजी नामक गांव में पांच पांडवों के मंदिर बने हैं। वहां से प्रतिवर्ष पांच पांडवों की जातर (मेला जलूस) बीड़ धार तक जाती है। फिर रात को गुरु लोग मुद्रो (हाथ मुंह धोकर के अच्छी तरह से ब्रश करके कुला आदि करने के पश्चात निर्जल व्रत रखना) बांधते हैं और फिर कहीं भी नहीं जाते हैं। तब सारी रात वे गुरु लोग अन्य सिर्फ पुरुष लोगों के साथ छुकडा नृत्य रात को करते हैं, जिसमें वे ऊनी वस्त्र धारण कर नंगे पांव से अपनी जटाएं फैला कर भारी अग्निकुंड में भी प्रवेश करते हैं। उससे भी उनका कुछ नहीं बिगड़ता।

यह सारा नृत्य कुतप वाद्य यंत्रों की धुनों से विधिवत देव पूजन करके बरलाज गायन के साथ किया जाता है। सुबह मुद्रो खोल दिया जाता है और महिलाओं के साथ “सिया समृति” गायन गाते हुए सामूहिक नृत्य किया जाता है और उत्सव समाप्त किया जाता है। श्री जिया लाल ठाकुर के अनुसार यह गायन गायत्री छंद और देश तथा कल्याण राग के आधार पर गाया जाता है। अब लोग परंपरा के अनुसार यह बरलाज गायन हर वर्ष सायर पर्व (अश्वनी मास की संक्रान्ति) से शुरू किया जाता है और मकर संक्रान्ति को समाप्त किया जाता है। इस गायन में भगवान राम से संबंधित सोलह संस्कारों को लोग क्रमबद्ध इस लंबे अंतराल में कथा के रूप में गाते हैं और प्रभु श्री राम के सद चरित्रों का बखान करते हैं। प्रभु के जन्म से लेकर निर्वाण तक का पूरा वृतांत गायन शैली में वर्णन किया जाता है। यह परंपरा हिमाचल के विभिन्न पहाड़ी क्षेत्रों में भी कुछ यूं ही लंबे अंतराल तक विद्यमान रही है। हमारे यहां मंडी में एक प्रसिद्ध कहावत है: —

“जौ कणक निसरी, कथा बझुणी बिसरी।”

अर्थात शरद ऋतु शुरू होते ही लोग घरों – घरों में झुंढों में इकट्ठा होते थे और कथाएं गा – गा कर सुनते – सुनाते थे। जैसे ही जौ और गेहूं में वालियां निकलती थी, तब वे सब भूल जाया करते थे। क्योंकि फिर उन पर काम का बोझ पड़ जाता था। उक्त घटना के अनुसार सोलन और शिमला के आस – पास गाई जाने वाली बरलाज के कुछ अंश: यूं देखे जा सकते हैं: —

भगवान वामन और महाराजा बली वृतांत: —

“उटा – उटा बामणा डबारीरे डेवा …..2
वारी पारी बामणा मारी गंगा री छाला….2
मांगी लो बे बामणा रे दाण,
मांगी लो बे बामणा रे ss दाण।
जे त मांगे, ताखे देऊ प्रमाण…2
जेओडी जेई राजेया माखे दाणो री देणी …2
जेओडी बिना बोलणी जिशे बासुकी नागे …2
ढाई कदम राजेया माखे पृथ्वी देणी ……2
एकी बीखे नापेया से आधा संसार ……..2
दूजी बीखे नापेया से सारा संसार ……….3
तीजी बीखो खे जगा न रोए ……..2
राजा बलिए कनगी ढाली …………..2″

हनुमान का श्री राम एवं लक्ष्मण को बचाने हेतु जाना: —

“रामा लखणा रे बले लाए देणी ……2

—•—

हणो बे हुन्दरिया मेरा, हणो बे हुन्दरिया मेरा।”
(हुन्दरिया का अर्थ क्रोधित होना )

“कणदी ढणदी फूल मालण आई ………2
आजकै जे फूलणो बड़े गरकै होए ……..2
मुंह मांगे भोजनो म्हारी देविए खाए,
शौ घड़े दुधा रे म्हारी देविए पीए ………..2

—•—

बोलो हणो बे हुन्दरिया मेरा……………2″

ये सारे प्रमाण सोलन, सिरमौर और शिमला आदि के इलाकों में दीपावली के अवसर पर या फिर किसी संक्रांति, विवाह आदि उत्सवों के अवसर पर विशेष तौर में स्थानीय कलाकारों द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले लोक मंचनो में देखने को मिल जाते हैं। यदि श्री जिया लाल ठाकुर की माने तो हिमाचल वैदिक संस्कृति का गर्भ गृह रहा है। ठाकुर साहब किन्नौर जिले को वैदिक संस्कृति का प्रमुख केंद्र मानते हैं।

कुल्लू घाटी की लोक प्रचलित मान्यता एवं श्रीराम से संबंधित घटनात्मक गाथा: —

इधर कुल्लू घाटी में भगवान राम के हिमाचली संस्कृति में प्रवेश को लेकर एक अलग प्रकार की लोक प्रचलित मान्यता एवं कथा है। यहां के लोगों का मानना है कि वर्तमान में जो जिला कुल्लू के मुख्यालय में स्थित सुल्तानपुर में श्री रघुनाथ जी का मंदिर है, उसकी मूर्तियां श्री त्रेता नाथ मंदिर श्री अयोध्या धाम से लाई गई थी। इसके पीछे यहां के स्थानीय लोग एक बहुत पुरानी रोचक कहानी सुनाते हैं। लोगों का मानना है कि सन 1637 से 1662 तक कुलूत राज्य की राजगद्दी पर एक धर्मात्मा एवं प्रतापी राजा “श्री जगत सिंह” जी विराजमान रहे। उन्होंने 1637 ई में राजगद्दी संभाली। एक दिन उनसे टिप्परी गांव के एक ब्राम्हण “दुर्गा दत्त “की अनजाने में हत्या हो गई। उस ब्राम्हण की आत्मा ने उन्हें ब्रह्महत्या का शाप दे डाला, जिसके चलते उन्हें हर वक्त के भोजन में छोटे – छोटे कीड़े मकोड़े ही दिखाई देने लगे और धरती का सारा पानी खून जैसा लाल नजर आने लगा। ऐसे में राजा को कुछ भी खाना पीना बहुत ही मुश्किल हो गया। इसके साथ – साथ राजा के शरीर में कुष्ठ रोग निकल आया।

सुप्रसिद्ध एवं सिद्ध संत “कृष्णदास पयहारी” जी

उन्हीं दिनों शहर के समीप ही एक वैष्णो संप्रदाय के सुप्रसिद्ध एवं सिद्ध संत “कृष्णदास पयहारी” जी रहते थे। वे सिर्फ पेय पदार्थों का ही सेवन करते थे। किसी प्रकार का अन्य – फल आदि नहीं खाते थे। इसीलिए उनके नाम के साथ पयहारी लगाया जाता था। परंतु स्थानीय लोगों में “फुहारी बाबा” के नाम से ही जानते थे। यह अपभ्रंश रूप ही इलाके में प्रसिद्ध था।

राजा ने अपनी समस्या का समाधान जगह – जगह करवा लिया था। हर देवी – देवता और वैद्यों के पास जा – जा कर के राजा थक चुका था परंतु किसी से भी कोई राहत मिलती हुई नजर नहीं आ रही थी। एक दिन राजा फुहारी बाबा के पास अपनी समस्या लेकर उपस्थित होते हैं। राजा की समस्या को सुनकर के फुहारी बाबा ने अपनी सिद्धि शक्ति से उनका भोजन में कीट पतंगे दिखना और पानी का खून जैसा लाल दिखना तो तुरंत प्रभाव से ठीक कर दिया था परंतु उनका कुष्ठ का रोग फिर भी ठीक नहीं हो सका था। इस बीच राजा इस चमत्कार को देखकर के प्रभावित होकर फुहारी बाबा का शिष्य बन गया। बाबा ने राजा को भगवान नरसिंह की मूर्ति दी। राजा ने वह मूर्ति अपनी राजगद्दी पर विराजमान करवा दी और स्वयं एक छड़ी दार (प्रधान सेवक) की भूमिका में राज्य की सेवा करने लगे।

बाबा की चमत्कृत करने वाली अपार सिद्धि शक्ति से राजा बहुत प्रभावित हुआ और उनकी धार्मिक भावना और भी बलवती हो गई। एक दिन फिर से राजा बाबा के पास अपने कुष्ठ रोग निवारण हेतु प्रार्थना लेकर गए। तब बाबा ने उन्हें सलाह दी कि इस रोग को खत्म करने की क्षमता सिर्फ और सिर्फ त्रेता नाथ श्री रघुनाथ जी के ही पास है। अतः इसके लिए तुम्हें श्री अयोध्या धाम में विराजमान श्री त्रेता नाथ जी की मूर्ति और माता सीता जी की मूर्ति को यहां ले आना होगा। मूर्तियों को अयोध्या से ले आने के लिए बाबा ने अपने शिष्य “पंडित दामोदर दास” को भेजा, जो उन दिनों की सुकेत रियासत में रहते थे। आजकल यह सुकेत रियासत जिला मंडी का सुंदर नगर कस्बा है।

वैदिक रीत में किसी भी मूर्ति का असली माप

पंडित दामोदर दास जी बाबा के आदेशानुसार श्री अयोध्या धाम पहुंचे और वर्षभर वहां श्री रघुनाथ जी के पूजन अर्चन की विधियां और सारे क्रियाकलापों को गौर से देखा। फिर एक दिन सुअवसर आने पर वे भगवान श्री रामचंद्र और माता सीता की त्रेता काल में बनी मूल मूर्तियों को उठाकर कुल्लू की ओर चल दिए। लोक मान्यता है कि ये मूल मूर्तियां त्रेता काल में भगवान श्री रामचंद्र जी ने स्वयं ही अपने अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर बनाई थी। ये अंगुष्ट प्रमाण है। वैदिक रीत में किसी भी मूर्ति का असली माप यही माना जाता है। वैदिक रीति में यह मान्यता है कि मूर्ति का माप अंगुष्ट प्रमाण होना चाहिए। क्योंकि मूर्ति आत्मा का प्रतिरूप होती है। जिस प्रकार आत्मा अति सूक्ष्म होती है, दिखाई ही नहीं देती। उसी प्रकार मूर्ति भी अति लघु होनी चाहिए। अतः वे मूल मूर्तियां है, जिन्हें आज भी कुल्लू में बने श्री रघुनाथ जी के मंदिर में पर्दे के अंदर रखा जाता है। इनके दर्शन किसी को नहीं करवाए जाते। किसी विशेष घड़ी या स्थिति में इनका दर्शन प्राप्य है। परंतु आम दिनों में इनको परदे से बाहर नहीं किया जाता।

लोक मान्यता

लोक मान्यता के अनुसार पंडित दामोदर दास चलता – चलता जब मंडी रियासत में वर्तमान कनैड नामक स्थान पर पहुंचा तो वहां उन्होंने मूर्तियों समेत रात्रि विश्राम किया। अतः लोगों ने वहां भी मंडी के राजा की मदद से एक पुरातन शैली में राम मंदिर का निर्माण कर डाला। वहां से पंडित जी मणिकरण पहुंचे और उन मूल मूर्तियों को मणिकरण में ही स्थापित किया।

वहीं पर अयोध्या की रीत से नित्य प्रति रघुनाथ जी की पूजा अर्चना होने लगी। राजा जगत सिंह भी नित्य प्रति प्रभु श्री राम और माता सीता के चरणामृत को ग्रहण करने सुबह – सुबह मणिकरण पहुंच जाते। कुछ दिनों यह सिलसिला चला। कुछ दिनों बाद राजा का कुष्ठ रोग चरणामृत के पान से नदारद हो गया। इससे राजा की धार्मिक भावना और बलवती हुई। यह खबर जब इलाके में फैली तो मूर्तियों के चमत्कार से प्रभावित होकर कुल्लू घाटी के सभी देवी देवता मूर्तियों का दर्शन करने मणिकरण आ पहुंचे।

कुल्लू का राज्य रघुनाथ जी के नाम

तब राजा श्री राम जी और माता सीता की मूर्तियों को मणिकरण से कुल्लू सुल्तानपुर में स्थित रघुनाथपुर ले गए। वहां उन्होंने श्री रघुनाथ जी के भव्य मंदिर का निर्माण किया और उसी में मूर्तियों को विधिवत प्रतिष्ठित एवं स्थापित किया। तब से लेकर राजा ने अपनी राजगद्दी पर रघुनाथ जी को विराजमान करवाया और स्वयं उनका छड़ी दार (प्रधान सेवक) होकर रहने की घोषणा की। इसके साथ – साथ राजा ने अपने राज्य के अलग – अलग इलाकों को 365 देवी – देवताओं में बतौर जागीर बांट दिया। तब से कुल्लू का राज्य रघुनाथ जी के नाम पर चलने लगा और राज्य के भिन्न-भिन्न क्षेत्र देव जागीरों के नाम से चलने लगे।

लोक मान्यता यह भी है कि तभी से प्रतिवर्ष कुल्लू के ऐतिहासिक ढालपुर मैदान में दशहरे का मेला आयोजित होने लगा। इस मेले में सुल्तानपुर से एक लकड़ी के बने भव्य रथ पर रघुनाथ जी की सवारी निकलती है और उनके पीछे जिले के विभिन्न क्षेत्रों से आए हुए समस्त देवी देवताओं की एक विशाल जलेड लोक वाद्य यंत्रों की धुनों के साथ- साथ भारी जनसैलाब के साथ निकलती है। इस प्रकार लगभग 40 छोटे – बड़े उत्सव कुल्लू में रघुनाथ जी की अध्यक्षता में आयोजित किए जाते हैं। तब से ले कर आज तक श्री रघुनाथ जी को कुल्लू का प्रधान देवता माना जाने लगा। असल में श्री रघुनाथ जी भगवान श्री राम के ही रूप है।

संदर्भ: —
१. श्री सुदेश कुमार कुल्लू से प्राप्त जानकारी।
२. श्री रघुनाथ जी मंदिर में चस्पा की गई इतिहास पट्टीका।)

हिमाचल में राम मंदिर: —

हिमाचल के कुछ एक राम मंदिरों का विवरण निम्नलिखित प्रकार से हैं: —

श्री रघुनाथ जी मंदिर जिला कुल्लू: —

यह मंदिर जिला कुल्लू के सुल्तानपुर बाजार में रघुनाथपुर में सन 1637 से 1662 ईसवी के बीच राजा जगत सिंह के द्वारा बनाया गया माना जाता है। यह कुल्लू के बस स्टैंड से थोड़ा सा ऊपर को बना हुआ है। पैदल पौडियों वाले रास्ते से यहां तक पहुंचा जाता है। इस मंदिर की बाकी विशेषताएं ऊपर विस्तार से बताई जा चुकी है। वर्तमान में भगवान श्री राम और सीता जी की भव्य मूर्तियां इस मंदिर में स्थापित की गई है। यहां वर्ष भर प्रतिदिन श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। यह मंदिर कुल्लू जिला के प्रधान देव मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।

मणिकरण में स्थित राम मंदिर: —

यह मंदिर मणिकरण नामक तीर्थ स्थल पर बना हुआ है। हिंदू लोग इस मंदिर परिसर में बने हुए गरम पानी के कुंडों में स्नान कर के अपने पापों का प्रक्षालन करते हैं। यहां स्त्री और पुरुषों के लिए अलग – अलग स्नान ग्रह बनाए गए हैं। जिनका नाम रामकुंड और सीता कुंड के नाम से रखा गया है। राम कुंड में पुरुष स्नान करते हैं और सीता कुंड में स्त्रियां स्नान करती है। वर्ष भर में लाखों श्रद्धालु इस तीर्थ स्थल में स्नान करने आते हैं।

गर्म पानी के चश्मे से संबद्ध राम और सीता कुंड में स्नान करके अपने पापों को धुला हुआ प्रतीत करते हैं। इसी विशेष तीर्थ यात्रा के दौरान सभी श्रद्धालु भगवान श्री रामचंद्र के मणिकरण स्थित इस भव्य मंदिर के भी विधिवत दर्शन करते हैं और प्रभु राम की कृपा प्राप्त करते हैं। इस मंदिर में नित्य प्रति प्रभु कृपा से श्रद्धालुओं के लिए भंडारे का भी आयोजन किया जाता है। इस मंदिर के प्रांगण में लकड़ी का बना हुआ एक भव्य रथ भी हमेशा मौजूद रहता है। मान्यता है कि इस रथ पर प्रभु राम जी की सवारी विशेष अवसरों पर निकाली जाती है।

जिला मंडी में राम मंदिर: —

जिला मंडी में भगवान राम के दो मंदिर है: —

  1. सनातन धर्म सभा राम मंदिर भगवाहण मोहल्ला मंडी बाजार। यह मंदिर जिला मंडी के उपायुक्त कार्यालय के ठीक पीछे बना है। इस मंदिर में भगवान श्री राम, लक्ष्मण एवं माता सीता की मूर्तियां विराजमान है। लोग वर्षभर प्रतिदिन यहां दर्शन करने आते हैं। सुबह – शाम की पूजा अर्चना और आरती इत्यादि में बराबर भाग लेते हैं। नवरात्रों के दिनों या फिर किसी राम कथा के आयोजन के दिनों यहां विशेष जन भीड़ उमड़ पड़ती है।
  2. यह एक पुरातन शैली में पत्थरों से बना हुआ राम मंदिर है, जिसमें भगवान श्री राम और सीता जी की मूर्तियां विराजमान है। यह मंदिर कनैड के पास बना हुआ है। इसका जिक्र भी ऊपर किया जा चुका है। परंतु वर्तमान समय में यह जीर्ण अवस्था में है। इसको पुनरुत्थान की आवश्यकता है। यहां लोगों का आना जाना आज बहुत कम है। (ग) यहां करसोग में भी राम मंदिर बना है।इस बाबत कोई खास जानकारी यहां उपलब्ध नहीं हो पाई है।

सूद सभा राम मंदिर शिमला: —

यह मंदिर जिला शिमला में बस स्टैंड के साथ ही रिज मैदान के नीचे को बना हुआ है। यह एक बहुत ही भव्य मंदिर है। इसके ठीक सामने जाखू में भगवान हनुमान का मंदिर है। शिमला के इस मंदिर में भगवान राम लक्ष्मण और माता सीता की मूर्तियां विद्यमान है। यहां भी नित्य प्रति श्रद्धालुओं की भारी भीड़ रहती है।

महासू राम मंदिर सिरमौर: —

हिमाचल के जिला सिरमौर का इलाका उत्तराखंड की सीमा से सटा हुआ है। यहां देव महासू के जितने भी मंदिर है उन सब मंदिरों में भगवान श्री रामचंद्र जी की ही प्रतिस्थापना मानी जाती है। इन मंदिरों का जिक्र भी ऊपर किया जा चुका है। असल में मूल महासू (बौठा महासू) मंदिर आज उत्तराखंड में त्यूणी से लगभग 40 किलोमीटर आगे मुख्य सड़क पर ही है। इसके साथ साथ तीन और महासू मंदिर यहां पर विद्यमान है, जिनमें क्रमशः भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न की प्रतिस्थापना मानी जाती है। इनके साथ साथ हनुमान, जामवंत, अंगद, सुग्रीव जैसे वानर वीरों की भी इन क्षेत्रों में पूजा अर्चना बौठा महासू के साथ की जाती है। बौठा महासू स्वयं भगवान राम ही है। इन्हीं मंदिरों के प्रारूप सिरमौर जिला की गिरी पार की पहाड़ियों में जगह – जगह बने हैं और लोग इन्हें बड़ी श्रद्धा से पूछते हैं।

जिला चंबा के मुख्य बाजार का राम मंदिर: —

जिला चंबा में मुख्य बाजार के साथ ही एक राम मंदिर बना हुआ है। वहां भी काफी श्रद्धालु आते रहते हैं। सुनने में आता है कि इस मंदिर की मूर्तियां कुछ समय पहले चोरी हुई थी। बाद में वे मुंबई में मिली थी।

हरिपुर राम मंदिर धर्मशाला कांगड़ा: —

यह मंदिर बनेर खड्ड के मुहाने पर हरिपुर नामक स्थान पर बना हुआ है। इसमें भी भगवान श्री रामचंद्र और लक्ष्मण के साथ-साथ माता सीता की मूर्ति स्थापित की गई है। इस मंदिर के निर्माण में अलग-अलग प्रकार की मान्यताएं। कुछ लोग इसे 825 वर्ष पुराना मानते हैं तो कुछ लोग इसे 1398 ईसवी से 1405 ईसवी के बीच राजा हरिचंद के द्वारा बनाया हुआ मानते हैं। एक अन्य मान्यता के अनुसार यह मंदिर पांडवों ने अपने अज्ञातवास के दौरान बनाया था। डॉ योगेश रैना की टिप्पणी को अगर ध्यान में रखें तो उनके अनुसार यह मंदिर 825 वर्ष पुराना है। उनका मानना है कि मंदिर में 825 साल पुराने एक घंटे में तिथि अंकित है। इसलिए यह मंदिर उसी कालखंड में बना होगा। कांगड़ा जिले में शायद ही ऐसा दूसरा कोई राम मंदिर हो। स्थानीय लोगों के अनुसार यहां की मिट्टी हाल ही में श्री अयोध्या जी में बनने वाले भव्य राम मंदिर के निर्माण के लिए भी ले गए हैं।

भव्य राम मंदिर निर्माण श्री अयोध्या धाम के विषय में कांगड़ा के पालमपुर स्थित रोटरी भवन का जिक्र आजकल खासा चर्चा में है। कहा जाता है कि लगभग 500 सालों से लटके हुए भव्य राम मंदिर निर्माण मामले की रूपरेखा इसी रोटरी क्लब में हुई 9 जून से लेकर 11 जून 1989 तक की भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक मैं तैयार की गई थी। इस बैठक का आयोजन पूर्व मुख्यमंत्री श्री शांता कुमार जी ने तत्कालीन राष्ट्रीय भाजपा अध्यक्ष श्री लालकृष्ण आडवाणी जी और भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री अटल बिहारी वाजपेई जी के निर्देशानुसार किया था। इसमें भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के बहुत से नेताओं ने हिस्सा लिया था। इसी बैठक में वर्तमान में अयोध्या में बनने वाले भव्य राम मंदिर का प्रारूप तैयार किया गया था और पूरे का पूरा मसौदा बनाकर राम मंदिर के मुद्दे पर आगामी रणनीति बनाई गई थी। राजनीतिक विशेषज्ञों की टिप्पणियों को यदि ध्यान में रखा जाए तो यही वह बैठक थी जो 1984 में मात्र 2 सीट वाली भाजपा को 1989 में 85 सीटें प्रदान करवाती है। अतः श्री अयोध्या धाम के भव्य राम मंदिर में हिमाचली संस्कृति की ओट में लिए गए इस अहम निर्णय का भी एक विशेष महत्त्व सुनहरे अक्षरों में सदा के लिए चिन्हित रहेगा।

इसके अतिरिक्त भी कई देवताओं के नाम से या फिर स्वयं भगवान श्री रामचंद्र जी के नाम से राज्य के विभिन्न जिलों में और भी मंदिर स्थित है, जिनका जिक्र अधूरी खोज के चलते यहां करना उचित नहीं है।

हिमाचली लोक यात्राओं में राम: —

लोक यात्रियों के रूप में हिमाचल में मात्र सिरमौर जिले के लोग ही उत्तराखंड में स्थित हणोल बौठा महासू मंदिर की यात्रा के लिए प्रतिवर्ष विधिवत जाते हैं। यह यात्रा पहले पैदल की जाती थी परंतु आज के दौर में इस मंदिर तक सड़क बनी हुई है और अब यह यात्रा गाड़ियों पर की जाती है। इस यात्रा के लिए लोग रोहडू से हाटकोटी होते हुए त्यूणी से लगभग 40 किलोमीटर दूर स्थित इस मंदिर तक यात्रा करते हैं और वहां पर बौठा महासू के रूप में भगवान श्री रामचंद्र जी के दर्शन करके अपने – अपने घरों को पुनः प्रभु का आशीर्वाद लेकर लौट आते हैं।

यहां कुल्लू जिले में स्थित मणिकरण की तीर्थ यात्रा भी श्री राम जिसे आँशिक संबंध रखती है। परंतु मूलतः लोग इस स्थान पर मणिकरण स्नान की दृष्टि से जाते हैं। ऐसे में इसे विशुद्ध राम दर्शन यात्रा नहीं कहा जा सकता।

लोक अभिवादनों और संस्कारों में राम : —

अभिवादन के रूम से हिमाचल के लोग सुबह उठकर ही आपस में एक दूसरे को “राम – राम” कह कर प्रणाम करते हैं, जिसकी जगह वर्तमान में गुड मॉर्निंग धीरे-धीरे ले रहा है। परंतु फिर भी अधिकांश पहाड़ी लोग “राम-राम” कह कर ही अपना अभिवादन प्रस्तुत करते हैं। हां नई पीढ़ी में इस संबंध में कुछ विकार आ चुका है परंतु पुरानी पीढ़ी के लोग आज भी इसी परंपरा को अपनाए हुए हैं। संस्कार के नाम पर मृत्यु संस्कार के समय “राम नाम सत्य है” का जय घोष भी भारत की अखंड संस्कृति के अद्वितीय नियमों के अनुसार ही हिमाचली लोग भी बखूबी करते हैं।

तीज – त्योहारों और उत्सव में राम: —

  1. त्योहारों के रूप में एक तो हिमाचल में कार्तिक मास की अमावस्या को समूचे भारतवर्ष की तर्ज पर प्रभु राम की स्मृति में दिवाली का पर्व मनाया जाता है। परंतु हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्र की मान्यता के अनुसार यह पर्व महाराज बलि की कृतज्ञता हेतु भगवान श्री रामचंद्र जी के वचनानुसार हिमाचल में मनाया जाता है न कि उनके अयोध्या पुनरागमन की खुशी पर। परंतु वर्तमान में यह समूचे भारतवर्ष की तरह भगवान राम के अयोध्या वापस लौटने के पुनरागमन की खुशी का पर्याय ही बन गया है।
  2. दूसरा राम से संबंधित त्यौहार हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों में “बूढ़ी दिवाली” का मनाया जाता है। लोक मान्यता के अनुसार हिमाचल के दूरदराज के क्षेत्रों में भगवान रामचंद्र जी के वनवास से लौटने की सूचना एक महीना देर से प्राप्त हुई थी और कहीं कहीं तो दो महीना देर से पहुंची थी। अतः उन लोगों ने जैसे उनको सूचना मिली वैसे ही दिवाली का उत्सव इन पहाड़ी क्षेत्रों में मनाया। तब से यह परंपरा वैसे ही चलती आई। यह दिवाली कुछ लोग मार्गशीर्ष मास की अमावस्या को मनाते हैं तो कुछ लोग पौष मास की अमावस्या को मनाते हैं। इस दिवाली को मनाने का अलग – अलग जगहों पर अलग – अलग तरीका है। सोलन, सिरमौर, शिमला तथा मंडी आदि के ऊपरी क्षेत्रों में यह दिवाली भिन्न – भिन्न मासो में मनाई जाती है। कुछ लोग इस दिन रात को लकड़ियों की छोटी-छोटी अधिक जवलन क्षमता वाली बारीक झिल्लियों (जगनी) को इकट्ठा करके एक लंबे लकड़ी के डंठल पर वन बेलों से बांधते हैं और उसकी विशाल मशाल तैयार करते हैं। फिर रात्रि के अंधेरे में सब ग्रामीण इकट्ठा होकर के इन मशालों से दिवाली खेलते हैं। बहुत सी खाने – पीने की वस्तुएं भी बनाते हैं। यह मशाल जुलूस और खेल देखने लायक होता है। कहीं – कहीं विशाल अग्निकुंड जलाकर यह दिवाली मनाई जाती है। लोक मान्यता के अनुसार उस समय किसी प्रकार का संचार का साधन ना होने के कारण इन इलाकों में सूचना देर से मिली थी। इसलिए यह दिवाली अयोध्या की दिवाली से बाद मनाई गई थी। अर्थात तब तक यह बात पुरानी हो गई थी। परंतु फिर भी लोगों ने राम के आगमन की सूचना सुनकर एक विशाल जश्न मनाया जिसका नाम बूढ़ी दिवाली रखा गया। इस अवसर पर लोग कई जगहों पर ढोल नगाड़ों के साथ दिवाली गाते भी हैं और नृत्य भी करते हैं।
  3. रामनवमी एवं दशहरा पर्व — ये पर्व भी हिमाचली संस्कृति में समूचे भारत की संस्कृति की तरह मनाए जाते हैं। परंतु दशहरा पर्व की दृष्टि से कुल्लू का दशहरा पर्व समूचे भारतवर्ष में प्रसिद्ध है। जिला कुल्लू के ऐतिहासिक ढालपुर मैदान में इस अवसर पर एक विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। यह मेला कई दिनों तक चलता रहता है। इसमें देश के भिन्न – भिन्न भागों से व्यापारी सामान लेकर आते हैं और हिमाचल के भिन्न – भिन्न जिलों के सभी लोग भगवान राम की याद में मनाए जाने वाले इस पर्व के अवसर पर लगने वाले मेले का भरपूर आनंद उठाते हैं। इस अवसर पर सभी आगंतुक मेले में खूब खरीद-फरोख्त भी करते हैं।
  4. उत्सवों में राम — अमूमन देखा गया है कि बाल जन्मोत्सव के अवसर पर जो बधाई गीत गाए जाते हैं, उनमें महिलाएं रामलला का जिक्र जरूर किया करती है। एक पंक्ति कुछ यूं देखी जा सकती है: —“बधाई हो बधाई जी आज,राम लल्ला ने दर्श दियो है।”
    इसके साथ – साथ कुछ ऊपरी इलाकों में सिया स्मृति को भी बेटी के विवाह के अवसर पर गाया जाता है। बेटे के विवाह के अवसर पर वधू प्रवेश के दौरान भी कुछ इसी तर्ज के गीत गाए जाते हैं।
  5. लोकनाट्य विधाओं में राम – हिमाचली लोक संस्कृति में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से पहले लोकनाट्य की शैली प्रचलित थी। उसमें बांठडा, स्वांग और करियाला नृत्य नाट्य शैली आदि बहुत से नाट्य मंचन स्थानीय कलाकारों के द्वारा
    लोक मनोरंजन हेतु किए जाते थे किए जाते थे। उन नाट्य मंचनों मैं रामकथा के किसी एक अंश विशेष पर स्थानीय कलाकार राम के महान चरित्र को प्रदर्शित करने वाले नाटक को प्रस्तुत किया करते थे और लोग उन नाटकों को देखकर मनोरंजन के साथ – साथ एक विशेष शिक्षा ले कर के भी जाते थे।ये कार्यक्रम साल के एक आध बार आयोजित किए जाते थे। बाद में इनकी जगह रामलीला मंचन ने ले ली। रामलीला भी लोग बड़ी श्रद्धा और भक्ति भाव से देखते थे। ये कार्यक्रम एक स्थान पर 14 वर्षों तक आयोजित किए जाते थे और फिर रामलीला किसी दूसरे स्थान पर स्थानांतरित की जाती थी। इन रामलीलाओं में मंडी में जोगिंदर नगर, किन्नौर में भावानगर की रामलीलाएं विशेष आकर्षक एवं महत्वपूर्ण मानी जाती है। असल में किन्नौर जिला में रामलीलाओं का प्रचलन सन 1979 में भावनगर विद्युत प्रोजेक्ट के कर्मचारियों के द्वारा शुरू किया गया। उससे पहले किन्नौर में इस प्रकार का कोई भी नाट्य मंचन प्रभु श्री राम जी की जीवन घटना पर मौजूद नहीं था। यह जानकारी श्री लाल सिंह ठाकुर विद्युत प्रोजेक्ट भावनगर के कर्मचारी द्वारा प्रदान की गई।वर्तमान में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के चलते तथा धारावाहिकों के प्रसारण के चलते और उसके साथ – साथ अब इंटरनेट की दुनियां के चलते ये सब कलाएं धीरे – धीरे लुप्त प्राय होती जा रही है। हां अब हिमाचली संस्कृति में भी रामकथा का पंडालीय चलन समूचे भारतवर्ष की तरह अधिकता से होने लगा है।
  6. हिमाचली संस्कृति में राम वनवास काल से संबंधित साक्ष्य – यह सर्वविदित है कि श्री राम जी का वनवास काल अधिकतर दक्षिण भारत में ही गुजरा। इसलिए यहां उनके इस काल का कोई खास साक्ष्य नहीं मिलता। परंतु हां जिला शिमला में रिज के मैदान के ठीक सामने जाखू में हनुमान मंदिर को उनके वनवास काल से जरूर जोड़ा जाता है। लोक मान्यता है कि जब भगवान श्री रामचंद्र जी के छोटे भाई लक्ष्मण जी मूर्छित होकर के अचेत पड़े थे तो उन्हें संजीवनी लाने के उद्देश्य से हनुमान इस जगह से होते हुए हिमालय की ओर बढ़े थे। इस जगह पर हनुमान जी याकु ऋषि से मिले थे। अतः इस स्मृति में जाखू मैं हनुमान का मंदिर बनाया गया है। अब तो यहां पर हनुमान जी की 108 फुट ऊंची मूर्ति का निर्माण भी किया गया है।

निष्कर्ष (Conclusion) : —

निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि हिमाचली संस्कृति में भगवान राम के प्रति आस्था व विश्वास त्रेता काल से ही प्रगाढ़ रूप में विद्यमान है। यहां की भोली – भाली जनता भारतीय जनमानस के नायक भगवान श्री रामचंद्र जी के जीवन चरित्र से बहुत ही प्रभावित है और भगवान रामचंद्र जी के पद चिन्हों पर चलने के लिए निरंतर प्रयासरत रहती है।

यहां की देव संस्कृति में भले ही प्रभु श्री राम को किसी देव विशेष के नाम से अभिहित किया गया हो, परंतु आस्था और मान्यता फिर भी भगवान राम के ही प्रति बनी हुई है। विषय चाहे लोकगीतों, लोक संस्कारों, मंदिरों, लोक गाथाओं तथा लोक श्रुति – स्मृतियों का हो या फिर तीज त्योहारों का हो, राम कहीं ना कहीं हिमाचली संस्कृति में साक्षात नजर आ ही जाते हैं। हिमाचली संस्कृति के उन्नत वैभव में प्रभु श्री रामचंद्र जी का मिश्रण कुछ इस कदर हो गया है कि मानो आटे में नमक मिल गया हो।

अब इन्हें कोई चाह कर भी अलग नहीं कर सकता। बूढ़ी दिवाली के पर्व को लेकर जो मान्यता है या फिर सोलन, शिमला, सिरमौर के लोक पारंपरिक रामायण गीतों (बरलाज) की जो मान्यताएं हैं, उनको यदि तथ्य माना जाए तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि हिमाचली संस्कृति में राम सचमुच त्रेता काल से ही प्रतिष्ठित रहे है। हिमाचली संस्कृति और राम का आपस में घनिष्ठ संबंध है।

घोषणा : —

उपरोक्त साक्ष्य एवं संदर्भों के अनुसार प्राप्त जानकारी के तहत यह मेरा मौलिक और स्वरचित शोध आलेख है।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — हिमाचली संस्कृति में भगवान राम के प्रति आस्था व विश्वास त्रेता काल से ही प्रगाढ़ रूप में विद्यमान है। यहां की भोली – भाली जनता भारतीय जनमानस के नायक भगवान श्री रामचंद्र जी के जीवन चरित्र से बहुत ही प्रभावित है और भगवान रामचंद्र जी के पद चिन्हों पर चलने के लिए निरंतर प्रयासरत रहती है। विषय चाहे लोकगीतों, लोक संस्कारों, मंदिरों, लोक गाथाओं तथा लोक श्रुति – स्मृतियों का हो या फिर तीज त्योहारों का हो, राम कहीं ना कहीं हिमाचली संस्कृति में साक्षात नजर आ ही जाते हैं। हिमाचली संस्कृति के उन्नत वैभव में प्रभु श्री रामचंद्र जी का मिश्रण कुछ इस कदर हो गया है कि मानो आटे में नमक मिल गया हो।

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यह लेख (हिमाचली लोक संस्कृति में प्रभु श्री राम और दिवाली।) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

“अगर अपने कार्य से आप स्वयं संतुष्ट हैं, ताे फिर अन्य लोग क्या कहते हैं उसकी परवाह ना करें।”~KMSRAj51

 

 

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हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत। ♦

किसी भी देश के गौरव के वैभव की गाथा यदि समग्र रूप से कोई गा सकता है तो वह है उस देश की राष्ट्रभाषा का स्वरूप। बड़े खेद के साथ कहना पड़ता है कि हमारे भारत देश की आज दिन तक कोई राष्ट्रभाषा निर्धारित ही नहीं हो सकी। भारत देश को आजाद हुए आज 7 दशक से ज्यादा समय हो चुका है परंतु इस देश की विडंबना देखिए कि अभी तक हम इस देश के गौरव का गुणगान करने वाली इसकी मातृ भाषा हिंदी को न्याय नहीं दिला सके।

हिंदी भाषा को राजनीति का शिकार बना दिया।

सन 1949 में अगर इस दिशा में कार्य कुछ हुआ भी तो वह भी अधूरा ही हुआ। भारत के अधिकतर लोगों द्वारा बोली जाने वाली और समझी जाने वाली हिंदी भाषा को राजनीति का शिकार बना दिया गया और इसे इस देश की अपनी भाषा होने के बावजूद विदेशी भाषा अंग्रेजी के समकक्ष भारत की मात्र राजभाषा ही स्वीकार किया गया।

यह सत्य किसी से छुपा नहीं है कि जब आर्यवर्त या जंबूद्वीप की राष्ट्रभाषा संस्कृत हुआ करती थी तो इस देश का अपना एक समृद्ध साहित्य था और उस भाषा में लिखित नाना प्रकार की विधाओं के ज्ञान विज्ञान थे। उस भाषा के बल पर भारत विश्व गुरु की उपाधि से सुसज्जित था।

उस समस्त ज्ञान-विज्ञान का लाभ मात्र भारतवासी ही नहीं लेते थे बल्कि उनका लाभ प्राप्त करने के लिए हयुत्संग और फाह्यान जैसे लोग विदेशों से भारत के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने आते हैं। समय बदला ,परिस्थितियां बदली, भारत पर हूणों,मंगोलों,डचों,तुर्कों, अफगानों आदि ने अपने आक्रमण किए।

भारत के इस गौरवशाली वैभव को धीरे-धीरे तोड़ने मरोड़ने की कोशिश।

भारत के इस गौरवशाली वैभव को धीरे-धीरे तोड़ने मरोड़ने की कोशिश की गई। 1000 ईसवी के आसपास शौरसेनी और अर्धमाग्धी अपभ्रांशों से विकसित हिंदी का स्वरूप स्वतंत्र रूप से साहित्यिक क्षेत्र में दिखने लगा। साहित्य संदर्भों में प्रयोग होने वाली यही भाषाएं बाद में विकसित होकर आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के रूप में अभिहित हुई।

इस बीच भारत में मुगलों का आगमन हुआ। मुगल भारत में स्थाई रूप से बस गए। इससे पूर्व के आक्रमणकारी आक्रमण करते रहे और यहां से पुनः स्वदेश लौटते रहे। परंतु मुगल शासकों ने जिस तरह से भारतीय राजनीति को अपने हाथों में ले लिया, उससे भारत में अपभ्रंशों से विकसित एवं पलवित होने वाली हिंदी का स्वरूप हिंदुस्तानी में बदल गया।

यह सच है कि 1000 ईसवी के आसपास डिंगल पिंगल का बोलबाला भारतीय साहित्य में रहा हिंदी साहित्य का आदिकाल अधिकतर इसी दौर का है। मध्यकाल तक भक्ति साहित्य का वैभव हिंदी की विभिन्न उप भाषाओं ने कुछ यूं सुसज्जित कर दिया कि उसे चाह कर भी हम सदियों तक भुला नहीं सकते।

मिश्रित भाषा।

रीतिकाल तक आते-आते मुगल शासकों की शासकीय कामकाज की भाषा अरबी फारसी होने के कारण भारतीय जनमानस की आमजन भाषाएं उसमें मिश्रित हो गई जिस मिश्रित भाषा को हिंदुस्तानी का नाम दिया गया। जो भारतीय जनमानस की भाषा अपना एक राष्ट्रीय नया स्वरूप तैयार कर रही थी उसने एक नया मोड़ ले लिया। अर्यवर्त या जंबूद्वीप की राष्ट्रभाषा संस्कृत का प्रभाव धीरे- धीरे क्षीण होने लगा और हिंदुस्तानी ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया। जो हिंदी शौरसेनी और अर्धमाग्धी से 1000 ईस्वी के आसपास विकसित हुई थी उसको राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिल सका।

हिन्द – यूरोपीय भाषा।

हिन्द – यूरोपीय भाषा परिवार से होती हुई हिंदी – ईरानी, हिन्दी – आर्य, संस्कृत, केंद्रीय क्षेत्र (हिन्दी), पश्चिमी हिंदी , हिंदुस्तानी और खड़ी बोली से हिंदी का रूप लेने वाली वर्तमान हिंदी भाषा लगभग 18वीं शताब्दी में मूलतः अस्तित्व में आई। इस नव विकसित हिंदी भाषा के स्वरूप को देवनागरी में ही लिखा जाने लगा जो संस्कृत की मानक लिपि थी और है।

भारतेंदु और द्विवेदी युग।

भारतेंदु और द्विवेदी युग ने इस नव विकसित भाषा को और दृढ़ता प्रदान की। हिंदी भारतीय साहित्य की एक मानक भाषा उभर कर सामने आई। भारतीय जनमानस की इस भाषा ने धीरे – धीरे भारत के अधिकतर प्रांतों में अपना अधिकार जमाया। इस बीच भारत में शासन कर रहे अंग्रेजों ने भी अपनी राष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी के प्रचार – प्रसार में भारत में कोई कसर नहीं छोड़ी।

पुरातन वैदिक गुरुकुल परंपरा को खंडित कर नवीन शिक्षा नीति।

1936 में लार्ड मैकाले ने भारत की पुरातन वैदिक गुरुकुल परंपरा को खंडित कर नवीन शिक्षा नीति को इस उद्देश्य से स्थापित किया कि भारत के लोगों को न तो ठीक से हिंदी समझ में आ सके और न ही अंग्रेजी ही समझ में आ सके। अपने शासन को चलाने के लिए उन्हें सस्ते लिपिकों की जरूरत थी, जिन्हें तैयार करने में वे लगभग सफल भी हुए।

धीरे – धीरे तथाकथित अंग्रेजी शिक्षित भारतीयों के भीतर भी अंग्रेजी का ऐसा भूत सवार हुआ कि थोड़ी बहुत अंग्रेजी जान लेने के बाद वह अपने आपको अंग्रेजी का विद्वान समझने लगे और जो हिंदी बोलने वाला आम भारतीय था उसको तुच्छ एवम हेय समझने लगे। यह चलन भारत के आजाद होने तक इतना बढ़ गया था कि सरमायादार लोग दूर देशों में जाकर के अपने बच्चों को अंग्रेजी की तालीम लेने के लिए भेजने लगे।

फिर वे चाहे हिंदू थे या मुस्लिम। इस प्रक्रिया में सभी अपने देश की मातृभाषा हिंदी के वजूद को स्थापित करना ही भूल गए, जबकि भारत की आजादी के वक्त तक हिंदी में बहुत कुछ लिखा जा चुका था जो भारत के गौरव गान के लिए किसी भी दृष्टि से कम नहीं था। इस दृष्टि से शायद 1949 में हिंदी को राष्ट्रभाषा स्वीकार करने की मुहिम तेज हुई थी परंतु वहां हिंदी को पुनः राजनीति की भेंट चढ़ा दिया गया और हिंदी को मात्र राजभाषा का दर्जा दिया गया।

इसके पीछे साजिश शायद यह भी रही हो कि भारत के जो तथाकथित अंग्रेजी शिक्षित लोग मानसिक रूप से अभी भी अंग्रेजों के गुलाम ही थे, उन्होंने जानबूझकर यह चालाकी की हो कि हिंदी जानने और बोलने वाले लोगों के ऊपर राज करने के लिए यदि अंग्रेजी भाषा को हिंदी के समकक्ष रखा जाए तो अच्छा रहेगा। उससे उन तथाकथित अंग्रेजी शिक्षित सरमायादारों की संतानें भारत की हिंदी भाषी जनता पर शासन करती रही और भारत की हिंदी भाषी आम जनता उनकी सेवा करती रही।

भले ही अंग्रेज भारत से चले गए थे परंतु अंग्रेजी के मानसिक रूप से गुलाम ये भारतीय अंग्रेज लंबे समय तक भारत की इस हिंदी भाषी जनता को मूर्ख बनाने में कामयाब रहे। अब यदि यह कहा जाए कि आप की बात अतिशयोक्ति हो गई है तो मैं स्पष्टीकरण जरूर देना चाहूंगा।

क्यों राजभाषा होने के बावजूद भी भारत की न्यायिक व्यवस्थाओं के पत्राचार, राजस्व विभाग सम्बन्धी पत्राचार और चिकित्सीय व्यवस्था संबंधित शिक्षा प्रणाली हिंदी भाषा में न की गई? क्या यह एक सोचा समझा षड्यंत्र नहीं था? या फिर इसलिए कि आम जनमानस की जन भाषा में यदि इन व्यवस्थाओं की बातों को लिख दिया जाएगा या पढ़ा दिया जाएगा तो फिर तथाकथित अंग्रेजी शिक्षित लोग और उनकी संतान लोगों को मूर्ख बनाने में कामयाब कैसे हो पाएगी? उनकी रोजी रोटी कैसे चल पाएगी?

खैर कुछ भी हो, आज परिस्थितियां कुछ और ही है। आज हिंदी सिर्फ भारत के ही अधिकतर क्षेत्र में नहीं बोली जाती परंतु वैश्विक धरातल पर इसने अपनी एक विशेष पहचान बना ली है। इसलिए आज यह बहुत जरूरी हो जाता है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जाए। यह सिर्फ आधारहीन एवं तथ्य से हटकर बात नहीं है बल्कि इसके पीछे एक बहुत लंबी – चौड़ी तथ्यपरक बातों की सूची है: —

  1. 2011 की भारतीय जनगणना के अनुसार भारत की 57.1% जनता हिंदी को बोल और समझ सकती है। जिसमें 43.63% भारतीयों ने तो हिंदी को अपनी मातृभाषा ही घोषित किया है। यह एक प्रबल आधार है कि भारत की अधिकतर जनता हिंदी बोलती है और समझती है। इस दृष्टि से हिंदी को अब भारत की राष्ट्रभाषा घोषित कर देना चाहिए ताकि भारत का आम नागरिक वैधानिक, प्रशासनिक, कार्मिक, व्यवहारिक और शैक्षिक आचार – विचारों को अपनी भाषा में प्राप्त कर सकें।
  2. हिंदी भाषा बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर के साथ – साथ उत्तर प्रदेश तथा दिल्ली आदि जनसंख्या बाहुल्य क्षेत्रों की मात्र संपर्क भाषा ही नहीं है बल्कि वाच बाहुल्य के साथ – साथ यहां इन क्षेत्रों की रोजमर्रा की व्यवसायिक भाषा भी है।
  3. आज हिंदी सिर्फ भारत में ही नहीं बोली जाती है परंतु भारत के साथ-साथ कई अन्य देशों में भी इसे बोलने और समझने वालों की संख्या कम नहीं है। एक आंकड़े के मुताबिक हिंदी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बोली जाने वाली भाषाओं में दूसरा दर्जा प्राप्त है। आज हिंदी पाकिस्तान, भूटान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, मालदीव, मंयांमार, इंडोनेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड, चीन, जापान, ब्रिटेन, जर्मनी, न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रीका, मारीशस, यमन, युगांडा, त्रिनाड एण्ड टोबैगो, कनाडा, अमेरिका तथा मध्य एशिया आदि कई देशों में बोली जाती है और समझी जाती है। यदि देखा जाए तो आज हिंदी लगभग 80 करोड से ज्यादा लोगों के द्वारा बोली और समझी जाती है।
    — इन देशों में से चीन में 6, जर्मनी में 7, ब्रिटेन में 4, अमेरिका में 5, कनाडा में 3, रूस, इटली, हंगरी, फ्रांस और जापान में 2 – 2 विश्वविद्यालयों में आज हिंदी पढ़ाई जाती है। एक आंकड़े के मुताबिक लगभग 150 के करीब – करीब विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आज हिंदी को पढ़ाया जा रहा है। ऐसे में भारत को हिंदी को अपनी राष्ट्रीय भाषा घोषित करने में आखिर दिक्कत ही क्या है? भारत से बाहर के लोग आज हिंदी में कई सत्संग और अध्यात्म की चर्चाएं सुनने और समझने भारत में आते हैं और भारत से बाहर हमारे हिंदी भाषी मनीषियों को हिंदी में सत्संग और चर्चा परिचर्चा करने के लिए अपने देशों में ले जाते हैं। बहुत से विदेशी लोग बाहर से आकर भारत में भी हिंदी को समझने और जानने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे में निश्चित है की हिंदी में कुछ तो खास है जो इसे समझने की और जानने की इतनी लालसा गैर हिंदी भाषी लोगों में भी निरंतर बढ़ती जा रही है। फिर भारतवासी और भारत की राजनीतिक शक्तियां क्यों हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने से परहेज कर रही है?
  4. पाठकों की जानकारी के लिए यह भी बताना उचित समझ रहा हूं कि आज सरकार हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए तो प्रयास कर रही है परंतु अपने देश में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की ओर कोई भी ठोस कदम ठीक से नहीं उठाया जा रहा है।वैसे यूनेस्को की 7 भाषाओं में हिंदी पहले से ही शामिल है, परंतु फिर भी सरकार का इसे संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए प्रयास निरंतर जारी है।
  5. इतना ही नहीं विश्व आर्थिक मंच की गणना के अनुसार हिंदी विश्व की 10 शक्तिशाली भाषाओं में से एक है। यह बात भी अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक आचार व्यवहार की दृष्टि से हिंदी को राष्ट्रभाषा का सम्मान देने की पैरवी पुरजोर करती है। यदि हिंदी को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की भाषा में मानक रूप प्राप्त हो जाता है तो निश्चित ही भारत के व्यापार एवं आर्थिक मोर्चों में भी हिंदी अपनी अहम भूमिका निभाएगी। परंतु इसके लिए हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देना बहुत ही जरूरी है।
  6. एथ्नोलॉग के अनुसार हिंदी विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। यह बात भी हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने के लिए प्रबल सहयोग करती है। यह बात उन तथाकथित अवधारणाओं का भी खंडन करती है कि ‘अंग्रेजी विश्व की भाषा है, इसलिए इसे महत्व देना जरूरी है। हिन्दी तो कहीं स्टैण्ड ही नहीं करती।’इतना ही नहीं हिंदी व संस्कृत की लिपि को संगणकीय टंकण प्रणाली में वैज्ञानिक लिपि भी सिद्ध कर लिया गया है। ऐसे में हिन्दी को भारत में यूं नकारना कहीं से भी ठीक नहीं है।
  7. इधर आबूधाबी में हिंदी को 2019 में अपने वहां न्यायालय की तीसरी भाषा घोषित कर दिया गया है। परंतु एक भारत है कि अपने ही देश की मातृभाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने के मामले में संजीदगी नहीं दिखा रहा है।

कई बातें हैं जो हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत को स्पष्ट करती है।

ऐसी कई बातें हैं जो हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत को स्पष्ट करती है परंतु यह सब भारत की राजनीतिक शक्तियों की इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है। आज भारतवासियों की हालत यह हो गई है कि भले ही हम अंग्रेजी में एम ए क्यों ना हो परंतु जब बात करने की बारी हो तो वह हिंदी में ही की जाती है। यह जरूर है कि कुछ लोग अपना रौब झाड़ने के लिए उस हिंदी में अंग्रेजी मिक्स कर देते हैं परंतु वह खिचड़ी न ही तो ठीक से हिंदी का मान – सम्मान कर पाती है और न ही तो अंग्रेजी का। बात यह नहीं है कि हमें अंग्रेजी से नफरत है।

अंग्रेजी को भी पढ़ा जाना चाहिए और समझा जाना चाहिए। हर भाषा का मान – सम्मान करना हमारे देश की संस्कृति रही है परंतु किसी भी देश के उत्थान एवं विकास के लिए उस देश की अपनी राष्ट्रभाषा का होना नितांत आवश्यक होता है। देश कितनी भी तरक्की कर लें, परंतु जब तक उसके पास अपनी राष्ट्रभाषा नहीं है तब तक उस तरक्की का कोई औचित्य नहीं रह जाता।

Conclusion:

अपने राष्ट्र के गौरवशाली इतिहास को ही न भूल बैठे।

कहीं ऐसा न हो कि हम हिंदी का तिरस्कार करते – करते अपने राष्ट्र के गौरवशाली इतिहास को ही भूल बैठे। यदि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत नहीं है तो फिर क्यों वे सारे कारोबार हिंदी में किए जाते हैं जिनसे राष्ट्रीय खजाने में निरंतर बढ़ोतरी होती रहती है।

उदाहरण के लिए फिल्मी कारोबार हिंदी में ही किया जाता है। आम जनमानस से संपर्क साधने के लिए राजनीतिक पार्टियां हिंदी में ही अपनी बातचीत करती है।अधिकतर समाचार पत्र – पत्रिकाएं तथा चैनल सब हिन्दी में ही कार्य करते हैं। बस हिंदी में अगर कुछ होता नहीं है तो वह सरकारी कार्यालयों का पत्राचार नहीं होता है। न जाने क्यों इतना महत्व सरकारी पत्राचार में अंग्रेजी को दिया जाता है जब कि हिंदुस्तान आज आजाद हो चुका है।

हमारे भारत के जन समुदाय में एक ट्रेंड सा बन चुका है कि पड़ोसी का बच्चा अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने जा रहा है तो मैं भी अपने बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में ही पढ़ाऊंगा। भले ही वह वहां कुछ सीखे या न सीखे परंतु सोसाइटी की नकल करना हमारी आदत बन गई है। जबकि सत्य यह है कि बच्चा जो कुछ अपनी मातृभाषा में सीखता है वह किसी दूसरी भाषा में नहीं सीख सकता परंतु एक हम है कि अपनी जिद पर अड़े हुए हैं।

हां वर्तमान सरकार ने एक मेहरबानी जरूर की है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में अंग्रेजी को पांचवी तक मात्र एक विषय के रूप में पढ़ाने का प्रावधान किया है न कि माध्यम के रूप में। परंतु क्या हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए बिना इस प्रकार के प्रयासों का भी कोई महत्व सिद्ध हो सकेगा या नहीं? इस बात पर हमें आत्म चिंतन और मंथन करने की नितांत आवश्यकता है।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — अंग्रेजो से आजादी के इतने वर्षों बाद भी हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा की मान्यता आधिकारिक रूप से क्यों दर्ज नही हुआ, हिंदी को उसका सम्मान क्यों नहीं मिला? हिन्दी राष्ट्रभाषा के महत्व, गुणों और प्रभाव को बताया है। हिन्दी हर भारतीय के दिल से निकलने वाली भाषा हैं। हिन्दी भाषा दिल को दिल से जोड़ने का कार्य करती है। एकलौती हिन्दी भाषा ही है जिसमे अपनापन है दुनिया की किसी भी अन्य भाषा अपनापन का स्थान नहीं।

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यह लेख (हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत।) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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दोषी कौन है?

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ दोषी कौन है? ♦

स्कूलों में गर्मियों की छुट्टियां थी। नरपत काका के चारों बेटे खेतों में जी जान से जोर लगा रहे थे। उम्मीदें सब की ये थी कि इस बार खूब फसल होनी चाहिए। फसल से जो कमाई होगी, बाबा वह जरूर हमारी शिक्षा पर खर्च करेंगे।

नरपत काका अपना पेट मसोस मसोसकर बच्चों की अच्छी तालीम के हर संभव प्रयास करते रहते थे। प्राथमिक से लेकर कॉलेज तक की पढ़ाई। चार – चार बेटों का लाखों का खर्च। काका की दो चार बीघा जमीन से कैसे तैयार हो पाता ये तो वही जाने। काका का कोई सरकारी रोजगार भी तो नहीं है ना।

अबकी चारों कॉलेज से अच्छी डिग्रियां लेकर प्रशिक्षण की जिद पर अड़े हुए हैं। काका भी दिल से प्रशिक्षण कराने की सोचता है। जानता है प्रशिक्षण के बिना सरकारी नौकरियां नहीं मिलने वाली पर माली हालत इजाजत नहीं देती है।

बैंक में गिरवी

दो चार बीघा जमीन है, उसे बैंक में गिरवी रखकर बड़े वाले को शहर डिग्री के बाद प्रशिक्षण हेतु भेज देते हैं। कुछ फसल का जुगाड़ था और कुछ बैंक से ले लिया। बाकी के तीनों को ढाढस बंधाता है। “बच्चों तुम अभी छोटे हो। भैया जब प्रशिक्षण पूरा कर लेगा ना तब तुम्हें भी बारी – बारी से मौका दूंगा।”

बाबा की आंखों की कोरों पर आते आंसुओं को देखकर सब सहमत हो जाते हैं। बड़े वाला साल भर का प्रशिक्षण लाखों का डोनेशन देकर जब घर लौटता है तब तक तीनों बेटों और बाप ने एड़ी चोटी का दम लगा कर बैंक का हिसाब-किताब चुकता कर दिया था।

वह तो कृषि कार्ड की लिमिट थी। उसी लिमिट से पैसा निकाल कर दूसरे को उसकी डिग्री के हिसाब से प्रशिक्षण को भेज दिया। उसका भी कुछ यूं ही निभा। इस बार दिक्कत कुछ ज्यादा रही। सूखे की मार फसलों से इतनी कमाई नहीं करवा पाई, जितना कि पिछली बार हुई थी। पर फिर भी आस पड़ोस में मेहनत मजदूरी करके सब लोगों ने मिलकर इस बार का खाता भी क्लियर कर लिया था। इसी कदर तीसरे का भी कुछ यूं ही बीता।

अब छुटकू की बारी थी।

अब छुटकू की बारी थी। उसकी जिद डॉक्टरी करने की थी। तीनों बड़े भाइयों ने भी नरपत काका को यह कह कर मना लिया “बाबा छुटकू ठीक कहता है। हमारे पूरे इलाके में कोई डॉक्टर नहीं है। छुटकू है भी तेज। कर लेने दो उसे डॉक्टरी। परिवार के साथ साथ सबका भला हो जाएगा।”

“तुम्हारी मत मारी गई है। लाखों का खर्चा होता है उस पर। कहां से आएगा इतना पैसा। कर लेने दो इसे भी कोई छोटा – मोटा डिप्लोमा। फिर ढूंढो कहीं नौकरियां? मेरे पास इतना पैसा नहीं है। “नरपत काका कुछ रूखे से बोले।

छुटकू आंगन की पीपल के नीचे बैठकर सुबकियां भर रहा है। तीनों बड़ों ने मान मनौती करके बाबा को मना लिया और छुटकू को डॉक्टरी के लिए भेज दिया। पर इस बार सौदा कुछ महंगा था। ऐसे में नरपत काका को अपनी दो चार बीघा जमीन से एक आध बीघा को जड़ से बेच देना पड़ा।

छुटकू के जाने के बाद नरपत काका और उनकी पत्नी उस दिन शाम को उसी पीपल के नीचे बैठे – बैठे बतिया रहे थे। “पगली आज मैंने अपनी मां को बेचा है। और करता भी क्या? बच्चों ने मजबूर कर दिया।” यह कहते – कहते नरपत काका की आंखों से अश्रुओं की धारा बहने लगी। उनके साथ काकी की आंखों से भी अश्रुपात होने लगा। पर बच्चों को देखकर दोनों हड़बड़ाहट में आंसू पोंछ लेते हैं।

छुटकू डॉक्टर

चारों बाप बेटों ने दिन रात मेहनत की। एक दिन छुटकू डॉक्टर बनकर के लौट आता है। घर में खुशी का माहौल है। नरपत काका और काकी बहुत खुश है। आस पड़ोस के लोग भी उन्हें बधाइयां देने लगे हैं।

“ओ यारा नरपत्या, हुन ता तू फ्री हुई गया भाई।” रामलू काका नरपत काका से कह रहे थे।

“क्येथी ओ यारा रमालू भाई? हजा ता इन्हा रे ब्याह रही गए।” नरपत काका माथे पर हाथ फेरते हुए कहते हैं।

सरकारी नौकरी का इंतजार

चारों बेटों ने सरकारी नौकरियां पाने के लिए लंबे समय तक इंतजार किया। पर कोई सरकारी नौकरी की अधिसूचना ही जारी नहीं हो पा रही है। एक दिन डॉक्टरी की पोस्टें भरने की अधिसूचना निकली भी थी। वह भी किसी कोर्ट केस के चलते रद्द कर दी गई।

बड़े वाले तीनों निजी कंपनियों में बहुत कम वेतनमान पर नौकरियां करने लगे हैं। हालत यह है कि शहरी जीवन में रहते – रहते उस वेतन से महीने भर के लिए अपने पेट का ही गुजारा नहीं होता। क्वार्टर का किराया, राशन – पानी, बिजली का भाड़ा और एक आध घर का चक्कर। बस सब उसी में खत्म। काका की हालत आज भी ज्यों की त्यों है।

बड़े वाले की शादी तय कर दी गई है। जेब में खर्चने को दमड़ी भी नहीं है। फिर से एक आध बीघा जमीन बेच दी जाती है। आज काका फिर से दुखी है।

एक दिन चारों भाई शाम को आंगन में बैठकर बतिया रहे हैं। “अरे भाई न जाने यह कैसी शिक्षा प्रणाली और व्यवस्था है? इतनी महंगी पढ़ाई हासिल कर भी ढंग की नौकरी ना ही तो सरकारी क्षेत्र में नसीब हो पाती है और ना ही निजी क्षेत्र में। सरकारें वादे तो बड़ी-बड़ी करती है, पर तोड़ती डक्का नहीं।” छुटकू बड़े तैश से बोल रहा था।

“हाथी के दांत खाने के और तथा दिखाने के और वाली कहावत है यह छुटकू। आखिर दोषी कौन?” सबसे बड़े वाले ने विलक्षण स्वरों से जवाब दिया।

इतने में अंदर से आवाज आती है, “अजी सुनते हो। खाना तैयार है।”
सब खाना खाने चले जाते हैं।

घोषणा: यह मेरी मौलिक, स्वरचित रचना है।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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ज़रूर पढ़ें — शिक्षक की महानता।

Conclusion — निष्कर्ष

  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस छोटी कहानी के माध्यम से मिडिल क्लास के परिवारों के मजबूरी और समझ को बताने की बखूबी कोशिश की है। मिडिल क्लास परिवार किस कदर मेहनत कर बमुश्किल उच्च डिग्री हासिल करता है। उसके बाद भी उसे अच्छी नौकरी नही मिल पाती।

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यह छोटी कहानी (दोषी कौन है?) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कहानी/कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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“सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

“अगर अपने कार्य से आप स्वयं संतुष्ट हैं, ताे फिर अन्य लोग क्या कहते हैं उसकी परवाह ना करें।”~KMSRAj51

 

 

 

 

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