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KMSRAJ51-Always Positive Thinker

“तू ना हो निराश कभी मन से” – (KMSRAJ51, KMSRAJ, KMS)

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hemraj thakur

क्या निजीकरण का विरोध जायज है?

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ क्या निजीकरण का विरोध जायज है? ♦

आजकल जिस तरह से सरकारी कर्मचारी की हालत हुई है। उस लिहाज से निजीकरण बहुत जरूरी है। काम करने को कहे तो लाख बहाने और कानून बताते हैं। जब तनखाओं की बात आती है तो उस के लिए तो सड़कों में उतरते हैं। एफसीलाखों की तनख्वाह चाहिए पर काम करना ही नहीं चाहते हैं। मुफ्त में चाहिए। जब कोई ऐसा कहे कि काम करो भाई तुम्हे इसकी तनख्वाह मिलती है। तो कहते हैं इसके लिए हमने दिन रात कड़ी मेहनत की है और ऊंची पढ़ाई की है। तब जाकर इस पद पर पहुंचे है। यूं ही नहीं मिली है नौकरी। जैसे उन्हे नौकरी लगने की प्रतियोगिता को पास करने के ईनाम के रूप में जिंदगी भर मोटी तनख्वाह देने का अनुबंध सरकार ने हस्ताक्षरित किया हो। जैसे टेस्ट पास कर के उन्होंने जनता पर बड़ा एसान किया हो। इतनी पढ़ी लिखी जनता बेरोजगारी से जूझ रही है और परेशान हैं। उसका शोषण हो रहा है। वह किसी को नहीं दिखता।

बस निजीकरण न हो। ठेकेदारी न हो। क्यों? जब लोग कुली के काम में भी ईमानदारी से काम करना ही नहीं चाहते हैं तो फिर तो ठेका जरूरी है। वहां प्रोग्रेस भी मिलती है और काम भी हो जाता है। रही गुणवाता की गड़बड़ी की बात तो उसके लिए फिर से सरकारी अधिकारी और कर्मचारी ही दोषी हैं। जो घूंस खाकर ठेकेदारों के कामों को पास करते हैं। यदि ठेकेदार घूस न दे तो वे बिल ही पास नहीं करते। ऐसे में ठेकेदारों को भी गुणवत्ता में गड़बड़ करनी पड़ती है। यानी सरकारी सेक्टर में जो भी लगा समझो की पावर और कानूनों का दूर-उपयोग करना उसका निजी अधिकार बन जाता है।

जनता अपने-अपने काम को निकालने के चक्कर में और किसी से बुरा न बनने के चक्कर में घूस देने को विवश हो जाती है और अब धीरे-धीरे जनता को भी भ्रष्टाचार की लत लग गई है। सिखाई किसने? सरकारी अधिकारी और कर्मचारी वर्ग ने। छोटे से छोटा बाबू भी बिना घूस के फाइल नहीं सरकाता। चपरासी तक भ्रष्ट हैं, और तो और मनरेगा के मजदूरों से भी जबाव मिलता है कि जब सब खा रहे हैं तो हमारे लिए प्रोग्रेस क्यों? हम भी सारा दिन अपनी मर्जी का काम करेंगे और 203 रुपए पूरा दिन लेंगे। यदि वह तकनीकी लोगों ने कम आंका तो पंचायत प्रतिनिधि की खाल उधेड़ देते हैं। या तो प्रोग्रेस के बदले में दुगना तिगुना दिन मांगते हैं। अब वहां एडजस्टमेंट करनी पड़ेगी।

उस एडजस्टमेंट को कानूनी रूप से तकनीकी लोग या ओहदेदार लोग कानूनन गलत ठहराते हैं। ऐसे में पंचायत प्रतिनिधियों को ही नुकसान झेलना पड़ता है और हर तरफ से समझौता करना पड़ता है। लोगों को प्रोग्रेस के चक्कर में दुगना तिगुना दिन देना पड़ता है और तकनीकी तथा ओहदेदार लोगों को घूस खिलानी पड़ती है। ऐसे में कार्य की गुणवत्ता यदि लानी हो तो घाटा होगा नहीं तो गुणवत्ता से भी समझौता करना पड़ता है। अब दोषी कौन?

लोगों की नजरों में ठेकेदार या पंचायत प्रतिनिधि खा गए आदि-आदि, का भाव होता है और खाने वालों की एक लम्बी कतार होती है। यह सचाई सब जानते हैं पर मुंह कोई नहीं खोलना चाहते। अन्ना आंदोलन ने आवाज उठाई जरूर थी परन्तु वह भी समय और व्यवस्था की गर्त में दब गई। फिर ठेकेदारी प्रथा से नफरत क्यों? जब लोग ही मिलकर इसका विरोध नहीं करना चाहते तो सरकार का क्या कसूर?

गरीबों के काम तो कतई नहीं होते। इतनी तनख्वाह लेने के बाबजूद भी हर काम के लिए रिश्वत मांगते हैं। हद हो गई है अब तो। हां सेना के मामले में, पुलिस के मामले में ठेका सही नहीं है। बाकी देश के विकास के लिए सब जायज है। अध्यापक तनख्वाह लेने के बाबजूद भी क्लास को नहीं जाना चाहते और जाता है तो गाइडों से पढ़ाना शुरू करता है। कौन पढ़ता है आज किताबें? कौन जाता है आज लाइब्रेरी? जो काम करते हैं उन्हे उल्टा क्रश किया जाता है। उन्हे पफोन्नत नहीं मिलती पर वरिष्टता के हिसाब से पदोन्नति मिलती है।

सभी विभागों के कर्मचारी रिश्वत बिना काम नहीं करना चाहते। फिर क्या गलत है? सरकारी सेक्टर की तरह निजी में नहीं होता। वहां प्रोग्रेस के पैसे मिलते हैं न कि ओहदे और डिग्री के बल पर पास किए टेस्ट के। वहां पदोन्नति भी काम के हिसाब से होती है न कि सिनियोर्टी के आधार पर। तब इस क्षेत्र को बढ़ावा दिया जाना कहां से गलत है? या तो लोग अपनी मानसिकता को सुधारे या फिर निजीकरण को स्वीकारें।

निजीकरण के सकारात्मक प्रभाव :

  1. सरकारी ऋण में कमी : निजीकरण के मुख्य आशावादी प्रभावों में से एक यह है कि इसने संघीय सरकार के पैसे को कम कर दिया है।
  2. बेहतर सेवाएं।
  3. नए-नए तरह के उत्पाद।
  4. कोई राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं।
  5. प्रतियोगी दरें।

घोषणा :- यह मेरी मौलिक और स्वरचित रचना (विचार) है।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला – मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — गरीबों के काम तो कतई नहीं होते। इतनी तनख्वाह लेने के बाबजूद भी हर काम के लिए रिश्वत मांगते हैं। हद हो गई है अब तो। हां सेना के मामले में, पुलिस के मामले में ठेका सही नहीं है। बाकी देश के विकास के लिए सब जायज है। अध्यापक तनख्वाह लेने के बाबजूद भी क्लास को नहीं जाना चाहते और जाता है तो गाइडों से पढ़ाना शुरू करता है। सभी विभागों के कर्मचारी रिश्वत बिना काम नहीं करना चाहते। फिर क्या गलत है? सरकारी सेक्टर की तरह निजी में नहीं होता। वहां प्रोग्रेस के पैसे मिलते हैं न कि ओहदे और डिग्री के बल पर पास किए टेस्ट के। वहां पदोन्नति भी काम के हिसाब से होती है न कि सिनियोर्टी के आधार पर। तब इस क्षेत्र को बढ़ावा दिया जाना कहां से गलत है? या तो लोग अपनी मानसिकता को सुधारे या फिर निजीकरण को स्वीकारें।

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यह कहानी (क्या निजीकरण का विरोध जायज है?) “हेमराज ठाकुर जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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जैसे शरीर के लिए भोजन जरूरी है वैसे ही मस्तिष्क के लिए भी सकारात्मक ज्ञान और ध्यान रुपी भोजन जरूरी हैं।-KMSRAj51

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“सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

“अगर अपने कार्य से आप स्वयं संतुष्ट हैं, ताे फिर अन्य लोग क्या कहते हैं उसकी परवाह ना करें।”~KMSRAj51

 

 

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बस लिखना है।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ बस लिखना है। ♦

मैं कवि हूं कविताएं लिखता हूं, सुनाता हूँ,
मेरी लेखनी बेबाक कुछ न कुछ कह जाएगी।
लोगों की सम्पत्ति संजोकर भी ढह जाएगी,
मेरी लेखनी की ज़ुबान थाती बन कर रह जाएगी।

लोग लगे हैं सब धन दौलत ही बटोरने,
मैं भाव, कल्पना और शब्द बटोरता हूं।
लोग लगे हैं औलादों को विरासत छोड़ने,
मैं सदियों दर सदियों भाव छोड़ता हूं।

बिकती है इस दुनियां में राख भी आज,
लकड़ियों के मुकम्मल जल जाने के बाद।
पर विडम्बना देखिए इस दुनियां में जनाब,
बिकती नहीं तो सिर्फ कवियों की किताब।

मैं निराश नहीं हूं खुद की बदहाली के ख्याल से,
मुझे समाज के भटक जाने का डर सता रहा है।
है नहीं मेरा कोई खून का रिश्ता इस दुनियां से,
फिर भी मुझे इसकी चिन्ता का घुन खा रहा है।

है नहीं याद यहां अपनी चौथी पीढ़ी के पुरखे किसी को,
फिर भी आदमी भगवान के होने पर सवाल उठा रहा है।
निकम्मी सोच की दात देनी होगी, है याद नहीं पुरखे ही,
तो क्या फिर तुम्हारा खानदान हवाओं से ही आ रहा है।

यकीन मानिए साहब भूल जाएगी बाप को भी दुनियां,
गर जीने का और आगे बढ़ने का यही… तरीका रहा।
मैं रहूं या न रहूं इस दुनियां में तब ए मेरे अजीज दोस्तो,
मेरी ओर से निशानी हर अल्फाज मेरा तुम्हें लिखा रहा।

सिर्फ बुद्धि – धन के बल पर ही इठलाना इतना,
ए जमाने! खुद ही बता कि जायज कितना है?
हवा में उड़ने वाले हर परिंदे को भी तो आखिर में,
थक हार कर किसी न किसी शाख पर टिकना है।

पड़ता नहीं है कोई फर्क मुझे किसी के सुनने,
या न सुनने से, मुझे कौन सा महान दिखना है?
कवि हूं मैं प्रत्यक्ष द्रष्टा समाज की हर घटना का,
इसी लिहाज से ही तो मुझे सच बस लिखना है।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — एक कवि व लेखक सदैव ही सत्य को लिखने की कोशिश करता है वह भी बिना किसी दबाव के। इस संसार के लोग तो धन संपत्ति को इकट्ठा करने में ही सारा जीवन बिता देते है और अंत समय में उनके साथ कुछ भी नहीं जाता है। माना की एक कवि व लेखक के पास धन संपत्ति कम होती है दुनिया की नज़र में, लेकिन एक कवि / लेखक की लेखनी (मेरी लेखनी की ज़ुबान थाती बन कर रह जाएगी।) सदैव के लिए उसे अमर कर जाएगी। विडम्बना तो देखिये की आजकल के लोग लगे हैं सब धन दौलत ही बटोरने में। मैं भाव, कल्पना और शब्द बटोरता हूं। लोग लगे हैं औलादों को विरासत छोड़ने में, आने वाली पीढ़ी के लिए, मैं सदियों दर सदियों भाव छोड़ता हूं। “आजकल की पीढ़ी को नहीं याद यहां अपनी चौथी पीढ़ी के पुरखे किसी को, फिर भी आदमी भगवान के होने पर सवाल उठा रहा है। निकम्मी सोच की दात देनी होगी, है याद नहीं पुरखे ही, तो क्या फिर तुम्हारा खानदान हवाओं से ही आ रहा है।” आजकल की पीढ़ी आधुनिकता के नाम पर भूलते जा रहे है अपनी ही प्राचीन संस्कृति, संस्कार व सभ्यता को। याद रखें- हवा में उड़ने वाले हर परिंदे को भी तो आखिर में, थक हार कर किसी न किसी शाख पर टिकना है।

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यह कविता (बस लिखना है।) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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क्या सवर्ण आयोग की मांग वाजिब है?

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ क्या सवर्ण आयोग की मांग वाजिब है? ♦

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सोशल मीडिया में अगर देखें तो सवर्ण आयोग की मांग तूल पकड़ती जा रही है। इधर हिमाचल के शिमला से सवर्ण समाज ने बाबा भीमराव अंबेडकर जी की प्रतिमा के पास से आरक्षण की अर्थी को कंधा देकर के हरिद्वार तक उसकी पैदल शव यात्रा निकाल कर विरोध जताने की एक नई तकनीक अपनाई है। जिसके चलते यहां भीम आर्मी और दलित वर्ग के कई नेताओं और संगठनों ने इस बात का पुरजोर विरोध जताना शुरू कर दिया है और इन आंदोलनकारियों के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दायर करने की मांग की है। बात भले ही हिमाचल के गलियारों से निकल रही हो परंतु यह समस्या मात्र हिमाचल प्रदेश की ही नहीं समूचे हिंदुस्तान की समस्या है। न जाने हमारे पुरखों ने यह व्यवस्था क्यों और कैसे स्थापित की थी कि जिसे भिन्न-भिन्न जातियों और वर्गों का नाम देकर के छुआछूत का भेदभाव तैयार कर दिया। प्रकृति ने जब मनुष्य को जन्म दिया मेरे हिसाब से उसने मात्र दो ही जातियां बनाई। एक जाति का नाम नर है और एक जाति का नाम मादा। यह व्यवस्था प्रकृति ने मात्र मनुष्य योनि के लिए ही नहीं बनाई बल्कि संसार में जितनी भी योनियां जंगम प्राणियों की है, उन सब में एक नर और एक मादा का निर्माण प्रकृति या ईश्वर ने एक समान किया है। तर्क की कसौटी पर सिद्ध होता है कि संसार में मात्र दो ही जातियां हैं जिनमें एक नर है और दूसरी मादा। यूं ही अगर धर्मों की बात करें तो धर्म भी मात्र मानव धर्म है जो सबसे श्रेष्ठ धर्म माना जाता है। पशु पक्षियों के समाज के अपने अपने धर्म हो सकते हैं परंतु मनुष्य प्राणी के लिए यदि कोई धर्म प्रकृति ने निर्धारित किया है तो उस धर्म का नाम मानव धर्म है।

यदि इस बात को मनाने के लिए वर्तमान में समाज के किसी धर्म या जाति संप्रदाय विशेष के मनुष्य समुदाय को समझाने की चेष्टा करें तो कहना न होगा कि समझाने वाले को मुंह की खानी पड़ेगी। हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी जैसे नाना प्रकार के धर्म वैश्विक धरातल पर देखने को मिलते हैं। समझ ही नहीं आता कि सभी धर्मों के लोग इस एक छोटी सी बात को क्यों नहीं समझते हैं कि परमेश्वर ने या फिर इस प्रकृति ने हमें यूं धर्मों में बंटने के लिए नहीं बनाया था। उसने सृष्टि के घटना चक्र को निरंतर प्रवाहित रहने के लिए यह पवित्र व्यवस्था बनाई थी। आखिर कब इस बात का संपूर्ण ज्ञान मानव प्राणी के मानव मस्तिष्क में अंगीकार होगा? सदियों दर सदियों यही जाति और धर्म के झगड़े निरंतर मानवता के रास्ते का रोड़ा बनते आए हैं और बनते ही जा रहे हैं।

— मनुस्मृति में कहीं भी जातिवाद की व्यवस्था का समर्थन नहीं —

इधर एक मत इस बात के लिए मनुस्मृति को कसूरवार ठहराता है। उन्हें मैं बता दूं कि मनुस्मृति में कहीं भी जातिवाद की व्यवस्था का समर्थन नहीं किया है। हां यह जरूर है कि वहां वर्ण व्यवस्था की बात की गई है। परंतु वहां मात्र चार वर्णों की व्यवस्था थी। वे वर्ण थे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। मैं हैरान हूं कि जब मनुस्मृति में साफ शब्दों में यह लिखा है कि इन वर्णों की व्यवस्था भी कोई स्थाई नहीं थी। यदि शुद्र के घर में भी कोई ब्राह्मण बुद्धि का व्यक्ति पैदा होता था तो उसे शुद्र नहीं बल्कि ब्राह्मण कहा जाता था। अर्थात यह व्यवस्था मनुष्य के बौद्धिक धरातल के आधार पर और कार्यक्षमता के आधार पर निर्धारित की गई थी। छुआछूत का इस व्यवस्था में लेश मात्र भी नहीं था। ब्राह्मण और क्षत्रिय यदि शिक्षा और सुरक्षा का काम करते थे तो वैश्य वस्तु विनिमय के द्वारा पूरे समाज के लालन-पालन की व्यवस्था का जिम्मा उठाए रहता था। इधर जो शुद्र वर्ण के लोग होते थे, वही इन तीनों वर्णों के लोगों के घरों में सेवादारी का काम करते थे। यहां तक कि यही शूद्र इन तीनों वर्णों के घरों में खाना पीना बनाने का काम करते थे और इन तीनों वर्ण के साथ बैठकर भोजन बनाया और खाया करते थे।

— यह धर्मगत और जातिगत भेदभाव क्यों? —

एकाएक न जाने यह कैसा परिवर्तन भारतीय सामाजिक परंपरा में प्रचलन में आया कि जो जिस वर्ण में पैदा होता गया, वह उसी वर्ण का समझा जाने लगा और निरंतर यह वर्ण व्यवस्था विकृत होती गई। जो बाद में विकृत होकर के नाना प्रकार की जातियों के नाम से विभाजित हो गई। ऊंच नीच और उत्कृष्टता तथा निकृष्ठता की व्यवस्था भारत में कब से प्रारंभ हुई? इस बात का ठीक से प्रमाण नहीं मिलता। यह एक शोध का विषय है। इसे समझने के लिए हमें ऐतिहासिक एवं प्रागैतिहासिक तथ्यों के साथ चिंतन मनन करना होगा। परंतु भारत की इस कुत्सित व्यवस्था को देखकर एक प्रश्न सबके मन मस्तिष्क में जरूर कौंधता है कि जब सभी जातियों और धर्मों के लोगों के शरीरों की बनावट एक जैसी है, उनकी सभी अंग एक समान है, उनके संसार में पैदा होने का तरीका एक जैसा है, तो फिर यह धर्मगत और जातिगत भेदभाव क्यों?

विशेषकर भारतीय समाज में यह जाति व्यवस्था आखिर किस आधार पर अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं? इस संदर्भ में दूसरे मतावलंबियों का कहना यह है कि जातियां और धर्म हमने नहीं बनाए। यह तो भगवान के द्वारा बनाई गई व्यवस्थाएं है। इसलिए निम्न जाति वालों को इस व्यवस्था को भगवान के आदेशानुसार मानना चाहिए। ऐसा विचार प्रकट करने वालों की मानसिकता सचमुच हमें कितनी वीभत्स लगती है? इसके विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। उनसे मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि आप यह बताएं कि क्या जाति पाती की व्यवस्था भगवान ने मात्र भारत में ही बनाई? विश्व के अन्य देशों में यह व्यवस्था भारत के ही समकक्ष क्यों नहीं बनाई गई है? यह बात भी सच है कि विश्व के हर देश में ऊंच-नीच की एक अपनी व्यवस्था है। कहीं काले गोरे का भेद है तो कहीं किसी अन्य व्यवस्था के द्वारा समाज के उच्च एवं निम्न वर्ग को प्रदर्शित किया जाता है। परंतु यह भी सत्य है कि सब प्रकृति जन्य या परमेश्वर जन्य व्यवस्थाएं नहीं है। ये सभी मानव मस्तिष्क की खुरापात का प्रतिफल है।

— सवर्ण आयोग आंदोलन का कारण और औचित्य क्या है? —

विश्व एक बहुत बड़ा फलक है। आइए हम मात्र भारत के बारे में ही इस विषय के ऊपर जानने की कोशिश करेंगे। आज भारत देश के एक छोटे से प्रांत हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से आरक्षण के विरुद्ध जो आंदोलन सवर्ण आयोग का गठन करने के पक्ष में सरकार पर दबाव बनाने के लिए शुरू हुआ है, आखिर उस आंदोलन का कारण और औचित्य क्या है? इस बात पर एक सटीक, निष्पक्ष और तथ्य पूर्ण चर्चा होना बहुत जरूरी है। पूर्व में क्या घटनाएं और परिस्थितियां रही होगी? उन्हें न ही तो समझा जा सकता है और न ही तो दोहराया जा सकता है। वर्तमान संदर्भ की अगर बात करें तो आज समूचा विश्व एक परिवार की तरह हो गया है। आज के मानव प्राणी ने शिक्षा के क्षेत्र में और विज्ञान के क्षेत्र में जो विकास किया है, वह किसी से छिपा नहीं है। परंतु इतना कुछ होने के बावजूद भी यदि हमारी मानसिकता इन तथाकथित कुत्सित व्यवस्थाओं के चंगुल में ही फंसी रहेगी तो यह देश की उन्नति के पथ पर कोई ठीक संकेत नहीं है। आज यदि जातिगत आरक्षण सवर्ण समाज के भीतर सवर्ण आयोग के गठन का विचार पैदा करता है तो प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि क्या मात्र सवर्ण आयोग का गठन करने से यह लंबे समय से चली आ रही सामाजिक कुरीति समाप्त हो जाएगी?

— निष्पक्ष और तथ्य पूर्ण चर्चा —

अभी यहां संक्षेप में यदि सवर्ण समाज और दलित समाज की दलीलों को सोशल मीडिया के प्लेटफार्म से आंकलित करके लिया जाए तो कहना न होगा कि दोनों पक्ष अपनी अपनी जगह सही है। जहां एक ओर दलित समाज दलील देता है कि हमें सवर्ण समाज ने सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी शोषित किया है और हमें निरंतर घनघोर प्रताड़नाओं का दंश झेलना पड़ा। अब यदि हमें संविधान में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी ने यदि आरक्षण की व्यवस्था देकर के मान सम्मान का जीवन प्राप्त करने की पैरवी की है तो इसमें सवर्ण समाज को दिक्कत ही क्या है?

हम तो अपना सदियों पुराना वंचित अधिकार प्राप्त कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर सवर्ण समाज की दलील यह रहती है कि हमें किसी के सुखचैन से किसी प्रकार की दिक्कत नहीं है। हमारा मानना यह है कि जब आरक्षण नाम की व्यवस्था बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी ने संविधान बनाने के समय मात्र 10 वर्ष के लिए प्रस्तावित की थी तो उसे निरंतर च्विंगम की तरह ये राजनीतिक पार्टियां क्यों खींचती चली आई? यदि यही क्रम बना रहा तो हम भी अपने हक के लिए लड़ रहे हैं। सरकारें सवर्ण समाज के बारे में भी सोचे और सवर्ण आयोग का गठन करें। हम किसी के खिलाफ नहीं है बस अपना हक मांग रहे हैं। वहीं सवर्ण समाज का यह भी कहना है कि क्यों न जातिगत आरक्षण व्यवस्था को खत्म किया जाए और आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था बनाई जाए। इस मामले में अगर सवर्ण समाज के नेताओं से कोई मीडिया कर्मी कारण जांचने की कोशिश करता है तो उनका कहना स्पष्ट होता है कि जातिगत आरक्षण व्यवस्था खुद उन निम्न जाति के लोगों के लिए ही न्याय नहीं कर पाती तो सवर्ण समाज के लिए वह क्या न्याय करेगी?

सवर्ण समाज के नेताओं का कहना है कि संपन्न परिवार के निम्न जाति के लोगों का तो निरंतर इस आरक्षण व्यवस्था से भला हो रहा है। वे इस आरक्षण व्यवस्था के माध्यम से बड़े-बड़े पदों पर स्वयं भी विराजमान है और अपनी संतानों को भी निरंतर उन पदों तक पहुंचाने के लिए लाभ ले रहे हैं। परंतु जो एक गरीब, असहाय एवं दलित निम्न जाति का नुमाइंदा है। उसे न ही तो खुद इस आरक्षण व्यवस्था के माध्यम से लाभ मिल पा रहा है और न ही तो उसकी संतानों को ठीक से मिल पा रहा है। वे लोग मात्र राशन पानी की व्यवस्था तक ही इस व्यवस्था का लाभ उठा पाते हैं। बड़े बड़े पद और सरकारी नौकरियां साधन संपन्न लोगों के हाथ में ही लगती है। यह बात एक कड़वी सच्चाई भी जान पड़ती है। इस बात की पुष्टि मात्र सवर्ण नेता ही नहीं करते बल्कि दलित समाज का निम्न वर्ग भी इस बात की तस्दीक करता है।

निष्कर्ष के तौर पर कहा जाए तो ……

अब यदि दोनों समाजों की बातों को ध्यान में रखकर के निष्कर्ष के तौर पर कहा जाए तो कहना न होगा कि दोनों समाज अपने स्वार्थ की लड़ाई लड़ रहे हैं। समाज के सरोकारों और प्राकृतिक व्यवस्था की किसी को कोई चिंता नहीं है। यह बात सच है कि हमारे भारतीय समाज में कई ऐसी पुरातन रूढ़ियां है जिनका खात्मा होना नितांत आवश्यक है। इस बात को समझने के लिए हमें इस पहलू से थोड़ा हटकर के विचार करना होगा। हमारा भारतीय समाज देवी देवताओं के प्रभाव से पूरी तरह से बंधा हुआ है। विडंबना देखिए कि उन देवताओं की मूर्तियां, उन देवताओं के मंदिर और उन देवताओं के सारे साज बाज सभी कुछ इन्हीं निम्न जाति के लोगों के द्वारा सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी बनाए जाते आ रहे हैं। परंतु सब कुछ कर देने के बाद अंततः एक सवर्ण समाज का व्यक्ति किसी ब्राह्मण के मुख से मंत्रोच्चारण की ध्वनियों के साथ इन सब चीजों को शुद्ध करवा करके इन मूर्तियों और मंदिरों को पूजने का अधिकारी बन जाता है। आखिर ऐसा अब इन उच्च जाति के लोगों ने उनमें क्या डाला कि अब उच्च जातियों के सिवा कोई उन्हे छू ही नहीं सकता?

— एक अभिशाप —

जिन्होंने ये सब कलाकारियाँ अपने हाथों से की, उन्हें उन मंदिरों और देवताओं की मूर्तियों को छूने तक का अधिकार फिर नहीं दिया जाता। यह सचमुच एक निंदनीय एवं अमान्य परंपरा है। इसी पीड़ा के दंश को बाबा साहब ने झेला था। इसीलिए तो उन्होंने संविधान में मात्र 10 वर्ष तक ही आरक्षण की व्यवस्था की बात कही थी। उन्हें मालूम था कि भविष्य में यदि यह व्यवस्था यूं ही बनी रही तो यह जातिवाद खत्म नहीं होगा बल्कि भारत देश के विकास के लिए एक बहुत बड़ा नासूर पैदा हो जाएगा। आज यदि कुछ घटित हो रहा है तो सचमुच ऐसा ही हो रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की अगर कहीं फजीहत होती है तो वह इसी जातिगत व्यवस्था के कारण होती है। अलग-अलग धर्मों के मिश्रण को फिर भी लोग कहीं न कहीं पचा लेते हैं। पर यह जातिगत व्यवस्था सचमुच हमारे समाज के लिए एक अभिशाप बनती जा रही है। निरंतर ऐसी व्यवस्था अगर बनी रहे तो छुआछूत भारत के समाज में घटेगी नहीं बल्कि दिन दुगनी रात चौगुनी प्रगति करेगी। इससे बड़े और समृद्ध निम्न जाति के लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता।

— पैसे वालों का अधिमान —

क्योंकि इस संसार मैं पैसे वालों का अधिमान पूर्व काल से ही रहा है और रहेगा। निम्न जाति का यदि कोई नेता या बड़ा अधिकारी होगा तो उससे सवर्ण समाज के लोग भी कोई छुआछूत नहीं करते। फर्क अगर पड़ता है तो गरीब और सर्वहारा निम्न जाति के लोगों को। उनके हाथ का दिया हुआ पानी सवर्ण जाति के लोग नहीं पीते। उन्हें अपने घरों में घुसने नहीं देते। उन्हें देव मंदिरों में जाने नहीं देते। उन्हें सार्वजनिक धार्मिक स्थलों और कार्यक्रमों में प्रवेश निषेध है। पल पल तिरस्कार का जीवन जीने वाले वे लोग कब इस भुंडी व्यवस्था से बाहर आएंगे? यह सवाल अपने आप में बहुत बड़ी विडंबना है। हम जैसे लेखकों और समाज चिंतकों को इन दलित एवं शोषित लोगों की इस पीड़ा का बड़ा दुख होता है परंतु सत्य यह भी नहीं झुठलाया जा सकता कि जब तक संवैधानिक रूप से जातियों के प्रमाण पत्र बनते रहेंगे और बंटते रहेंगे, तब तक इस जाती पाती की व्याधि का ठीक से इलाज हो पाना असंभव है।

— आर्थिक आधार पर आरक्षण व्यवस्था —

सवर्ण समाज के लोगों को अगर समझाने की कोशिश करें तो वे दो टूक शब्दों में यही कहते हैं कि जब हम अपनी जातिगत श्रेष्ठा के आधार पर आरक्षण जैसे समाज विरोधी नियम का शिकार हुए हैं तो फिर आरक्षण का लाभ लेने के लिए खुशी खुशी जाति का प्रमाण पत्र बनाने वाले निम्न जाति के लोगों को जाति सूचक शब्द हमारे मुंह से सुनने में क्या दिक्कत होनी चाहिए? फिर उन्हें छुआछूत का उसी पुरानी व्यवस्था के अनुसार पालन करने में क्या दिक्कत है? हम नहीं कहते कि हम छुआछूत को बनाए रखेंगे और निम्न जाति के लोगों को जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करके अपमानित करेंगे। परंतु इसके लिए संविधान से जातिसूचक शब्दों को हमेशा के लिए हटा देना चाहिए और जातिगत आरक्षण व्यवस्था का खात्मा करके आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए। इतना ही नहीं सवर्ण समाज के नेताओं का यह भी मानना है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था भी वंशानुगत नहीं होनी चाहिए। वह भी किसी व्यक्ति के जीवन की व्यवस्था एवं सुविधाओं को ध्यान में रखकर के उसे एक बार प्रदान की जानी चाहिए। जब उसे उस आर्थिक आधार पर आरक्षण व्यवस्था के माध्यम से सरकारी नौकरी इत्यादि में लगने का अवसर मिल जाता है तो उस व्यक्ति को उस आरक्षण व्यवस्था से हटाकर नए पात्र उम्मीदवार को वहां स्थान मिलना चाहिए।

परंतु ऐसा कुछ नहीं है। जो गरीब है वह निरंतर गरीब ही बनता जा रहा है। चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का क्यों ना हो? और जो अमीर है वह निरंतर अमीर ही बनता जा रहा है। सच तो बहुत कड़वा है लेकिन इस कड़वाहट को दूर करने के लिए किसी न किसी को तो अपने स्वार्थ का परित्याग करना ही पड़ेगा। यदि किसी चुनावी सीट से कोई दलित नेता लड़ता है तो वह पीढ़ी दर पीढ़ी लड़ता रहता है। यदि निकाय चुनावों की बात करें तो वहां हर पांच साल बाद रोस्टर बदलता रहता है। फिर क्यों न विधानसभा और लोकसभा के आरक्षित चुनाव हलकों में भी यह रोस्टर बदलना चाहिए? ताकि एक और नए दलित एवं कमजोर बुद्धिमान व्यक्ति को आर्थिक रूप से संपन्न होने का मौका मिल सके। क्यों नहीं कोई समृद्ध दलित नेता अपने आप ही अपने किसी गरीब दलित बुद्धिमान भाई को अपनी सीट छोड़ देता? यह अगर स्वार्थ की लड़ाई नहीं है तो और क्या है? सब समृद्ध लोग सभी गरीब लोगों को अपने-अपने जाति और संप्रदाय के तहत भीड़ में इकट्ठा करके बेवकूफ बनाते हैं और लाभ स्वयं ही खाते हैं। बेचारे गरीब जनता भवावेश में अपनी जाति और संप्रदाय के नेताओं की विरोध रैलियों में मात्र भीड़ के सिवा और कोई महत्व नहीं रखती।

यह बात सच है कि चाहे वह सवर्ण समाज हो या फिर दलित समाज। दोनों ही समाजों में यदि आरक्षण को लेकर के जंग छिड़ी है तो उसका मुख्य कारण उनके व्यक्तिगत स्वार्थ है। अब यहां यदि इस बात निष्कर्ष की ओर ले जाने की कोशिश की जाए तो हमें कहना होगा कि यदि बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की बात को हमारे राजनीतिक दलों ने स्वीकार किया होता तो आज यह परिस्थिति पैदा ही न होती। लोगों के लिए संविधान में लिखी गई बात का हवाला देकर के शांत करने की औषधि मिल जाएगी और समाज के सुधार का एक प्रबल आधार मिल जाता। यदि 10 साल से आगे इस व्याधि को न बढ़ाते, वोट बैंक की राजनीति न करते, ध्रुवीकरण का काम न करते तो आज हमारी निम्न और उच्च जाति के सभी लोगों की बहू बेटियां और बेटे आपस में एक दूसरे के साथ शादियां करके इस कुचक्र से बाहर निकल गए होते।

— पुष्ट और दुरुस्त मानव समाज बन गया होता। —

आज भारतीय समाज जातिगत विडंबना से न उलझ रहा होता। आज वह एक पुष्ट और दुरुस्त मानव समाज बन गया होता। यह बात जरूर है कि आज राजनीतिक पार्टियां पुनः इस बात के मायने समझाने की कोशिश कर रही है। परंतु उसके पीछे भी उनकी वहीं राजनीतिक मंशा है न कि सामाजिक उत्थान एवं कल्याण की भावना। यह परम सत्य है कि बड़े लोगों के लिए न ही तो आज तक कोई जाति, धर्म या संप्रदाय आड़े आया है और न ही तो आएगा। इसका शिकार यदि कोई बनते हैं तो निम्न और मध्य वर्ग के लोग। मध्य वर्ग के लोगों में भी निम्न मध्यवर्गीय लोग सबसे ज्यादा इस व्याधि का शिकार होते हैं। उच्च मध्यवर्गीय लोग तो इस जात पात की व्यवस्था से अछूते ही रह जाते हैं।

— संविधान से जातिगत आरक्षण की व्यवस्था को हटा दिया जाए —

हमारे भारत के अधिकतर राजनीतिक लोग इसी उच्च मध्यवर्गीय परिप्रेक्ष्य से आते हैं। अब यदि सचमुच हम लोग जातिवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ना चाहते हैं तो हमें सवर्ण समाज और दलित समाज का नकाब उतार करके फेंकना पड़ेगा तथा मिलकर के इस जंग को लड़ना पड़ेगा। एट्रोसिटी एक्ट तो महज एक बहाना है। असली बात तो यह है कि हमें भारत से जातिवाद की सदियों पुरानी विकृत व्यवस्था को हटाना है। क्यों न उच्च मध्यवर्गीय निम्न जाति के लोग स्वयं ही जातिगत व्यवस्था के विरुद्ध और जातिगत आरक्षण के विरुद्ध आंदोलन शुरू करते? एक सुर में वे मिलकर यह आवाज उठाएं कि हमें न ही तो आरक्षण चाहिए और न ही तो जाति के आधार पर बंटने वाले सर्टिफिकेट। संविधान से जातिगत आरक्षण की व्यवस्था को हटा दिया जाए और जातियों के आधार पर अधिकारियों को जो सर्टिफिकेट बांटने की अथॉरिटी दी गई है, उसे भी तुरंत प्रभाव से निरस्त किया जाए।

प्रश्न पैदा होता है कि…

इतना ही नहीं हमें किसी भी मंदिर और सार्वजनिक स्थान पर जाने से कोई न रोक सके तथा हमारे साथ कोई छुआछूत का व्यवहार अमल में न लाएं। जो आरक्षण व्यवस्था को हटाने के बाद भी हमें जातिसूचक शब्दों से पुकारने की कोशिश करेगा या फिर हमारे साथ छुआछूत का व्यवहार करने की कोशिश करेगा, उसे सीधा फांसी की सजा दी जाए। क्योंकि दकियानूसी विचार सवर्ण जाति के लोगों में भी कम नहीं है। देव समाज के नाम से हमारे सवर्ण जाति के लोग सचमुच एक डर का व्यवसाय सदियों से करते आ रहे हैं। जिसके नाम पर निम्न जाति के लोगों को छुआछूत व्यवस्था को अपनाए रखने के लिए वे डरा डरा कर विवश करते हैं । इतना ही नहीं इस डर के व्यवसाय में भारतीय देव समाज में देवताओं के कार्यकर्ताओं द्वारा पशु बलि प्रथा का चलन भी आज तक विद्यमान है। जरा सोचिए कि देवता किसी की जान को बचाने के लिए किसी दूसरे जीव की जान क्यों लेगा? यह भी प्रश्न पैदा होता है कि जो देवता पशुओं की बलि लेकर प्रसन्न होता है, क्या वह देवता हो सकता ?

प्रश्न वाजिब है…

ऐसी बहुत सारी कुरीतियां है जो समाज ने अपने मनगढ़ंत तरीके से चलाई हुई है। इनका न ही तो कोई भावगत आधार है और न ही तो कोई विज्ञानगत आधार है। इधर हिंदू लोग गाय का मांस नहीं खाते और उधर मुस्लिम लोग सूअर का मांस नहीं खाते। बाकी सब कुछ खा जाते हैं। मुस्लिमों का कहना है कि यदि हिंदू लोग गाय को दूध देने के कारण माता समझ कर के उसका मांस नहीं खाते हैं तो दूध तो भेड़ और बकरियां भी देती है। फिर उनका मांस क्यों खाते हैं? प्रश्न वाजिब है। यही प्रश्न कोई हिंदू मुस्लिम से करता है कि मेरे भाई तुम भी तो सब कुछ खा जाते हो फिर सूअर का मांस क्यों नहीं खाते हो? आखिर वह भी तो एक जानवर है? ऐसे कई अनगिनत सवाल हर धर्म और हर जाति संप्रदाय के भीतर बिना किसी आधार के चलते आ रहे हैं, जिनका निराकरण होना बहुत मुश्किल है। कबीर साहब जैसे लोगों ने चीख चीख कर इन कुरीतियों को दूर करने की वकालत की परंतु इस भुंडे समाज ने किसकी एक न सुनी। एक ऐसा भी वर्ग है जो मांसाहार के पीछे एक बड़ा तर्क देता है।

क्या यह तर्क उचित है?

उसका कहना है कि इससे सृष्टि का संतुलन बना रहता है और इसके साथ – साथ समाज की जो सब्जी की व्यवस्था है वह व्यवस्था भी कहीं न कहीं पूरी होती है। वरना सोचो यदि लोग मांसाहार न करते तो कितनी सब्जी की किल्लत झेलनी पड़ती? ऐसे लोगों के तर्कों पर हंसी भी आती है और तरस भी आता है। अरे भाई अगर तुम्हारी बात को मान भी लिया जाए कि इससे सृष्टि चक्र में संतुलन बना रहता है। तो फिर इस धरती पर इतनी मानव जनसंख्या हो गई है कि वह असंतुलित होती जा रही है। उसकी व्यवस्था करना हमारे शासन एवं प्रशासन को मुश्किल हो रहा है। आए दिन कहीं न कहीं कोई न कोई बलात्कार, दंगा फसाद और धर्म एवं संप्रदाय से संबंधित झड़प हमें अखबारों एवं समाचार चैनलों में सुनने को मिलते हैं। यह समस्या सिर्फ एक देश की नहीं समूचे विश्व की है। तो फिर तो संतुलन बनाने के लिए यहां भी बीच-बीच में से मनुष्य को काट देना चाहिए और उनका मांस पका करके सब्जी की व्यवस्था की समस्या भी दूर हो जाएगी।

खैर छोड़िए यह भी एक अभद्र बात हो गई। शायद यह कुछ ज्यादा ही बड़ा तर्क हो गया। मैं तो यह भी कहता हूं कि जब कोई मनुष्य अपनी सहज मौत मरता है तो उसके बाद उसे तब जलाने दफनाने की कोई जरूरत नहीं। जो लोग मांसाहार करते हैं, उसका शरीर उनके हवाले कर देना चाहिए ताकि वह अपना मांसाहार भी प्राप्त कर ले और उसके मृत शरीर का निपटान भी हो जाए। पाप भी नहीं लगेगा, क्योंकि मुर्दे को तो यूं भी किसी न किसी तरह निपटाना है। इसके साथ-साथ सब्जी की किल्लत का प्रश्न भी खत्म हो जाएगा। नहीं ना। ऐसा कोई नहीं करेगा। पर क्यों? यह भी सत्य है कि एक समय हमारे भारत में नर बलि का भी प्रावधान था। वह भी एक डर का व्यवसाय था। जब लोग जागरूक हुए तो उन्होंने उस व्यवस्था का विरोध किया और नरबलि को खत्म किया।

नरबलि — एक मनोवैज्ञानिक धंधा था।

फिर कहां गए वे देवता या दानव जो नरबलि न देने के कारण समाज में दारुण दंश भरते थे। इस बलि को न देने के कारण ही देवता समाज में खलबली मचा देते थे। आखिर यह सिद्ध हुआ कि यह एक मनोवैज्ञानिक धंधा था। ताकि समाज में एक डर का माहौल बना रहे और जो देवताओं को पूजने वाले कार करिंदे होते थे उनका एक टेरर बना रहे। कोई देवी देवता किसी पशु या पक्षी को नहीं खाता। यह सब व्यवस्था मनुष्य ने अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए मांस भक्षण की लालसा से तैयार की थी और अब निरन्तर चली आ रही है। विडंबना यह है कि मांसाहार को चाहने वाले लोगों की संख्या समाज में हमेशा से अधिक रही है और इसीलिए इस गंदी परंपरा को निरंतर आगे बढ़ाते आ रहे हैं। जो लोग इस व्यवस्था की कुरीति को समझते हैं, उनकी संख्या कम है और वे कुछ कर नहीं सकते। यह डर अगर एक पीढ़ी तक जबरदस्ती रोक लिया जाए आने वाली पीढ़ी के भीतर से यह डर अपने आप ही चला जाएगा और कोई किसी देवता के मंदिर में बलि नहीं चढ़ाएगा।

निष्कर्ष — Conclusion :

अब आप कहेंगे कि यह विषय यहां क्यों लिया गया? मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि इस तरह की बहुत सारी कुव्यवस्थाएं हमारे भारत में आज भी विद्यमान है। जो हमें भारत के वैभव को गाने से निरंतर रोकती और टोकती रहती है। इतना ही नहीं अंतरराष्ट्रीय धरातल पर भी इन्हीं कुव्यवस्थाओं के चलते हमें अपमानित और शर्मिंदा होना पड़ता है। वरना भारत की गौरवशाली गाथा का वैभव विश्व में किसी से नहीं छुपा है। यह भारत एक समय यूं ही विश्व गुरु के पद पर आसीन नहीं था। इस बीच में ये जाति पाती, धर्म संप्रदाय और बलि प्रथा इत्यादि कुप्रथाओं ने भारत के दामन पर दाग लगा दिया और इसे वैश्विक पटल पर गवार सिद्ध कर दिया। अभी भी वक्त है। यदि आज भी हम लोग अपनी भौतिक लालसाओं को छोड़ कर के और व्यक्तिगत स्वार्थों को छोड़ कर के एकजुट होकर भारत के वैभव को बचाने की कोशिश करते हैं तो वह दिन दूर नहीं जिस दिन भारत पुनः विश्व गुरु के पद पर विराजमान होगा।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — सारी कुव्यवस्थाएं हमारे भारत में आज भी विद्यमान है। जो हमें भारत के वैभव को गाने से निरंतर रोकती और टोकती रहती है। इतना ही नहीं अंतरराष्ट्रीय धरातल पर भी इन्हीं कुव्यवस्थाओं के चलते हमें अपमानित और शर्मिंदा होना पड़ता है। वरना भारत की गौरवशाली गाथा का वैभव विश्व में किसी से नहीं छुपा है। यह भारत एक समय यूं ही विश्व गुरु के पद पर आसीन नहीं था। इस बीच में ये जाति पाती, धर्म संप्रदाय और बलि प्रथा इत्यादि कुप्रथाओं ने भारत के दामन पर दाग लगा दिया और इसे वैश्विक पटल पर गवार सिद्ध कर दिया। अभी भी वक्त है। यदि आज भी हम लोग अपनी भौतिक लालसाओं को छोड़ कर के और व्यक्तिगत स्वार्थों को छोड़ कर के एकजुट होकर भारत के वैभव को बचाने की कोशिश करते हैं तो वह दिन दूर नहीं जिस दिन भारत पुनः विश्व गुरु के पद पर विराजमान होगा।

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यह लेख (क्या सवर्ण आयोग की मांग वाजिब है?) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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दोषी कौन है?

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ दोषी कौन है? ♦

स्कूलों में गर्मियों की छुट्टियां थी। नरपत काका के चारों बेटे खेतों में जी जान से जोर लगा रहे थे। उम्मीदें सब की ये थी कि इस बार खूब फसल होनी चाहिए। फसल से जो कमाई होगी, बाबा वह जरूर हमारी शिक्षा पर खर्च करेंगे।

नरपत काका अपना पेट मसोस मसोसकर बच्चों की अच्छी तालीम के हर संभव प्रयास करते रहते थे। प्राथमिक से लेकर कॉलेज तक की पढ़ाई। चार – चार बेटों का लाखों का खर्च। काका की दो चार बीघा जमीन से कैसे तैयार हो पाता ये तो वही जाने। काका का कोई सरकारी रोजगार भी तो नहीं है ना।

अबकी चारों कॉलेज से अच्छी डिग्रियां लेकर प्रशिक्षण की जिद पर अड़े हुए हैं। काका भी दिल से प्रशिक्षण कराने की सोचता है। जानता है प्रशिक्षण के बिना सरकारी नौकरियां नहीं मिलने वाली पर माली हालत इजाजत नहीं देती है।

बैंक में गिरवी

दो चार बीघा जमीन है, उसे बैंक में गिरवी रखकर बड़े वाले को शहर डिग्री के बाद प्रशिक्षण हेतु भेज देते हैं। कुछ फसल का जुगाड़ था और कुछ बैंक से ले लिया। बाकी के तीनों को ढाढस बंधाता है। “बच्चों तुम अभी छोटे हो। भैया जब प्रशिक्षण पूरा कर लेगा ना तब तुम्हें भी बारी – बारी से मौका दूंगा।”

बाबा की आंखों की कोरों पर आते आंसुओं को देखकर सब सहमत हो जाते हैं। बड़े वाला साल भर का प्रशिक्षण लाखों का डोनेशन देकर जब घर लौटता है तब तक तीनों बेटों और बाप ने एड़ी चोटी का दम लगा कर बैंक का हिसाब-किताब चुकता कर दिया था।

वह तो कृषि कार्ड की लिमिट थी। उसी लिमिट से पैसा निकाल कर दूसरे को उसकी डिग्री के हिसाब से प्रशिक्षण को भेज दिया। उसका भी कुछ यूं ही निभा। इस बार दिक्कत कुछ ज्यादा रही। सूखे की मार फसलों से इतनी कमाई नहीं करवा पाई, जितना कि पिछली बार हुई थी। पर फिर भी आस पड़ोस में मेहनत मजदूरी करके सब लोगों ने मिलकर इस बार का खाता भी क्लियर कर लिया था। इसी कदर तीसरे का भी कुछ यूं ही बीता।

अब छुटकू की बारी थी।

अब छुटकू की बारी थी। उसकी जिद डॉक्टरी करने की थी। तीनों बड़े भाइयों ने भी नरपत काका को यह कह कर मना लिया “बाबा छुटकू ठीक कहता है। हमारे पूरे इलाके में कोई डॉक्टर नहीं है। छुटकू है भी तेज। कर लेने दो उसे डॉक्टरी। परिवार के साथ साथ सबका भला हो जाएगा।”

“तुम्हारी मत मारी गई है। लाखों का खर्चा होता है उस पर। कहां से आएगा इतना पैसा। कर लेने दो इसे भी कोई छोटा – मोटा डिप्लोमा। फिर ढूंढो कहीं नौकरियां? मेरे पास इतना पैसा नहीं है। “नरपत काका कुछ रूखे से बोले।

छुटकू आंगन की पीपल के नीचे बैठकर सुबकियां भर रहा है। तीनों बड़ों ने मान मनौती करके बाबा को मना लिया और छुटकू को डॉक्टरी के लिए भेज दिया। पर इस बार सौदा कुछ महंगा था। ऐसे में नरपत काका को अपनी दो चार बीघा जमीन से एक आध बीघा को जड़ से बेच देना पड़ा।

छुटकू के जाने के बाद नरपत काका और उनकी पत्नी उस दिन शाम को उसी पीपल के नीचे बैठे – बैठे बतिया रहे थे। “पगली आज मैंने अपनी मां को बेचा है। और करता भी क्या? बच्चों ने मजबूर कर दिया।” यह कहते – कहते नरपत काका की आंखों से अश्रुओं की धारा बहने लगी। उनके साथ काकी की आंखों से भी अश्रुपात होने लगा। पर बच्चों को देखकर दोनों हड़बड़ाहट में आंसू पोंछ लेते हैं।

छुटकू डॉक्टर

चारों बाप बेटों ने दिन रात मेहनत की। एक दिन छुटकू डॉक्टर बनकर के लौट आता है। घर में खुशी का माहौल है। नरपत काका और काकी बहुत खुश है। आस पड़ोस के लोग भी उन्हें बधाइयां देने लगे हैं।

“ओ यारा नरपत्या, हुन ता तू फ्री हुई गया भाई।” रामलू काका नरपत काका से कह रहे थे।

“क्येथी ओ यारा रमालू भाई? हजा ता इन्हा रे ब्याह रही गए।” नरपत काका माथे पर हाथ फेरते हुए कहते हैं।

सरकारी नौकरी का इंतजार

चारों बेटों ने सरकारी नौकरियां पाने के लिए लंबे समय तक इंतजार किया। पर कोई सरकारी नौकरी की अधिसूचना ही जारी नहीं हो पा रही है। एक दिन डॉक्टरी की पोस्टें भरने की अधिसूचना निकली भी थी। वह भी किसी कोर्ट केस के चलते रद्द कर दी गई।

बड़े वाले तीनों निजी कंपनियों में बहुत कम वेतनमान पर नौकरियां करने लगे हैं। हालत यह है कि शहरी जीवन में रहते – रहते उस वेतन से महीने भर के लिए अपने पेट का ही गुजारा नहीं होता। क्वार्टर का किराया, राशन – पानी, बिजली का भाड़ा और एक आध घर का चक्कर। बस सब उसी में खत्म। काका की हालत आज भी ज्यों की त्यों है।

बड़े वाले की शादी तय कर दी गई है। जेब में खर्चने को दमड़ी भी नहीं है। फिर से एक आध बीघा जमीन बेच दी जाती है। आज काका फिर से दुखी है।

एक दिन चारों भाई शाम को आंगन में बैठकर बतिया रहे हैं। “अरे भाई न जाने यह कैसी शिक्षा प्रणाली और व्यवस्था है? इतनी महंगी पढ़ाई हासिल कर भी ढंग की नौकरी ना ही तो सरकारी क्षेत्र में नसीब हो पाती है और ना ही निजी क्षेत्र में। सरकारें वादे तो बड़ी-बड़ी करती है, पर तोड़ती डक्का नहीं।” छुटकू बड़े तैश से बोल रहा था।

“हाथी के दांत खाने के और तथा दिखाने के और वाली कहावत है यह छुटकू। आखिर दोषी कौन?” सबसे बड़े वाले ने विलक्षण स्वरों से जवाब दिया।

इतने में अंदर से आवाज आती है, “अजी सुनते हो। खाना तैयार है।”
सब खाना खाने चले जाते हैं।

घोषणा: यह मेरी मौलिक, स्वरचित रचना है।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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ज़रूर पढ़ें — शिक्षक की महानता।

Conclusion — निष्कर्ष

  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस छोटी कहानी के माध्यम से मिडिल क्लास के परिवारों के मजबूरी और समझ को बताने की बखूबी कोशिश की है। मिडिल क्लास परिवार किस कदर मेहनत कर बमुश्किल उच्च डिग्री हासिल करता है। उसके बाद भी उसे अच्छी नौकरी नही मिल पाती।

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यह छोटी कहानी (दोषी कौन है?) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कहानी/कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

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आज न जाने क्यों?

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ आज न जाने क्यों? ♦

आज न जाने क्यों मेरे हर हौसले है, यूं बेबजह पस्त हुए?
इस दुनियां में हर आदमी, क्यों बेपरवाह और व्यस्त हुए?

आज है फुरसत नहीं यहां, किसी को किसी से बतियाने की।
रही तहजीब नहीं है शेष अब, किसी में किसी को मनाने की।

जो रूठ गया सो रूठ गया, फिर करता ही कोई बात नहीं।
अरे भाई सुलह भी तो रास्ता है, हर बात का हल तलाक नहीं।

नेमत है यह जिन्दगी खुदा की, यूं ही तो कोई इतेफाक नहीं।
सौदे जिन्दगी के हैं ये दोस्त, कोई सड़कों पर बिछी खाक नहीं।

बुजुर्गों की अब सुनता ही कौन है? युवा नशों में है खो गए।
चोर – उचक्के घूम रहे हैं खुले आम आज, कोतवाल है सो रहे।

ऊपर से नीचे तक है फैल गया, देखो तो आज भ्रष्टाचार यहां।
आदमी से आदमी का रिश्ता है स्वार्थ का, रहा कहां अब प्यार यहां?

खौलता है देख के खून तो अपना, यह लूटपाट होती खुले आम, में।
चाहकर भी न कर पाता हूं इच्छित कुछ, फंस जाता हूं बने विधान में।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से बताया है की “आजकल के युवाओं का जीवन किस राह पर भटक रहा है, उनको खुद ही नही मालूम। उनके अनियंत्रित भटकते हुए जीवन का कोई किनारा नहीं।” ये कैसा समय चल रहा है जहां खुले आम लूटपाट होती है। चोर – उचक्के घूम रहे हैं खुले आम आजकल, कोतवाल है सो रहे।

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यह कविता (आज न जाने क्यों?) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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“सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

“अगर अपने कार्य से आप स्वयं संतुष्ट हैं, ताे फिर अन्य लोग क्या कहते हैं उसकी परवाह ना करें।”~KMSRAj51

 

 

 

 

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धरती पर ही।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ धरती पर ही। ♦

धधक रही है विश्व धारा आज, ज्वालाओं सी बैर – विकारों से।
अराजकताएं है कहीं फैली तो, कहीं जल रही है भ्रष्टाचारों से।

अम्बर का सब पानी बुझा न सके, कहां ठंडक चांद सितारों से?
यह नस – नस में फैली नफरत कैसे, हो सकेगी दूर सरकारों से?

ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्यी आग से, हर देश है दुनियां में जुलस रहा।
कहीं जाति, धर्म के झगड़े हैं, कहीं आवाम सत्ता से उलझ रहा।

खतरे में आज है समूची दुनियां, न के महज एक मानव प्राणी।
आतंकवाद कहीं दमन की नीति, हर देश की देखो एक कहानी।

रोग – शोक और महामारी, भ्रष्टाचार से मानवता सब भूल गए।
नकली जीवन, झूठ फरेबी, सच्चे तो मशाल से ढूंढने को ही रहे।

भाई – भाई का बैरी बना है, बाप – बेटों में भी तो आज दरारें हैं।
बहनों के साथ भी निभती कहां? पति – पत्नी में भी तकरारें हैं।

अध्यात्म से होती दूर यह दुनियां, जल रही है दहकते अंगारों सी।
अध्यात्म की पावन जलधारा ही, धो सकेगी मैल ये विकारों की।

पर लोग कहां सुनते बात यहां अब, ज्ञान, ध्यान व संस्कारों की।
होड़ लगी है सब में तो बस, कैसे कृपा मैं पा सकूं सरकारों की।

धन से बड़ा तो कुछ नहीं लगता, आज दुनियां में देखो लोगों को।
लालसा बढ़ी कि, भोग ले धरती पर ही, स्वर्ग के सारे भोगों को।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

—————

  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से वर्तमान समय में धरती पर पर क्या – क्या हालात हो गए है, इंसानियत किस दिशा में जा रही है कुछ पता नही किसी को। वर्तमान समय में पृथ्वी पर अनियंत्रित बिखरे हालात का सुंदर मनोरम वर्णन किया है।

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यह कविता (धरती पर ही।) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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“सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

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देहातन।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ देहातन। ♦

वे गोबर से मटमैले हाथ, पसीने की बूंदों से तर वह चेहरा।
गौ सेवा में रत ओ री देहातन ! कितना सुन्दर रूप वह तेरा?

आठों याम तू लगी रहती है, गौ सेवा में ही चारा कभी पानी।
दूध पिलाते, घी खिलाते, तेरी यूं ही गुजर जाती है जिंदगानी।

बचपन – बुढ़ापा यूं ही गुजरे तेरा, तेरी यूं ही गुजरे ये जवानी।
शालीन, सभ्य ओ नारी रत्न तेरी! कौन समझेगा यह कहानी?

जो भी किया वह, दूसरों के लिए, किया तूने ओ महादानी!
देहात से शहर तक मेहर तेरी पर, किसी ने ये कब है मानी?

जब जूझती है नित नई उलझन से, लगती है झांसी की रानी ।
खेत खलिहानो में उगाती फसलें, खिलाती सबको है महारानी।

दिन व दिन की मेहनत के चलते, ढल जाती तेरी जवानी।
हाड़ मांस सब सुखा देती है तू, सुखा देती है चेहरे का पानी।

झुर्रियों से भरपूर तेरा चेहरा, बताता है मेहनत की कहानी।
बुढ़ापे का वह नूर तेरा, है तेरे मेहनतकश जीवन की निशानी।

वह सुख सन्तोष उन झुर्रियों से झरता, बस काया हुई पुरानी।
बूढ़ी धमनियों में अभी भी शेष है, लहू में वही स्फूर्ति रवानी।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से बखूबी समझाने की कोशिश की है – गांव के पवित्र और शुद्ध वातावरण में सुन्दर जीवन यापन। आठों पहर तू लगी रहती है, गौ सेवा में ही चारा कभी पानी। दूध पिलाते, घी खिलाते, तेरी यूं ही गुजर जाती है जिंदगानी। झुर्रियों से भरपूर तेरा चेहरा, बताता है मेहनत की कहानी। बुढ़ापे का वह नूर तेरा, है तेरे मेहनतकश जीवन की निशानी।

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यह कविता (देहातन।) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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“सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

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बदलता दौर।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ बदलता दौर। ♦

इतवार की सुबह सवेरे तड़के ही कोई रविन्द्र के आंगन से आवाजे लगा रहा था,” भाई साहब! ओ भाई साहब! चलो चलना है क्या?”

” कौन बिरजू है क्या?” अंदर से रविन्द्र चाय पीते हुए बोला।
” जी हां भाई साहब। मैं बोल रहा हूं।” बिरजू ने झट से उत्तर दिया।
रविन्द्र ने अपनी पत्नी को जल्दी तैयार होने को कहा और स्वयं भी कपड़े पहनते हुए बिरजू से बतियाता रहा।

” क्या बताएं बिरजू? हर चेले – घोपे के पास गए। हर डॉक्टर – हकीम के पास गए।लाखों का खर्च कर लिया है, और तो और अम्मा जी के कहने पर हवन – पाठ भी करवा लिए। पर शादी के दस साल बाद भी कोई औलाद नहीं हो रही है। कल जब तुम्हे दफ्तर से आते वक्त, मन्दिर जाने के बारे में शांता से बतियाते हुए सुना तो सोचा हम भी एक बार तुम दोनों के साथ मन्दिर चल आते हैं। शायद अबकी भगवान हमारी सुन ही लें।”

“भाग्य का क्या पता भाई साहब? कब खुल जाए? मैं भी इन्हें बड़ी मुश्किल से मन्दिर में लिए जा रही हूं। वे भी आपके जाने के लिए राजी होने के बाद ही जाने को तैयार हुए हैं। वरना कहां ….? ” शांता ने अदब से कहा।

पुत्र रत्न पैदा हुआ।

इस बार सचमुच भगवान ने रविन्द्र और तारा की सुन ली। दोनों की किस्मत खुली और उनके एक पुत्र रत्न पैदा हुआ। वह बच्चा बचपन में इतना बीमार रहा कि न जाने तारा ने उसको बड़ा करने के लिए क्या – क्या नहीं किया?

बेचारे रविन्द्र की आधी तनख्वाह हर महीने उसी के इलाज में लग जाती थी। बड़ी मुद्दत से जो हुआ था लाल। दोनों ने लालन पालन में कोई कोर कसर न छोड़ी। तारा तो उसके बी ए करने तक उसे अपनी थाली से ही खिलाती रहती थी। बेचारी खुद भूखी रह जाती पर कुन्दन पर आंच न आने देती।

कुंदन और ईशा की शादी।

भगवान की कृपा से कुन्दन की नौकरी भी लग गई। नौकरी की खबर सुनकर उसकी एक सहपाठी ने उसे रिश्ता भेज दिया। यूं तो कुन्दन भी उसके प्यार में कालेज से ही लट्टू हुआ पड़ा था पर वह बड़ा भाव खा रही थी। वह थोड़े बड़े घराने की थी। पर नौकरी लगने के बाद वह कुन्दन से शादी करने को मान गई। रिश्ता तय हुआ और शादी भी हुई। साल भर सब ठीक से रहा। मां बाप ने भी न पूछा दोनों को। सोचा बच्चे हैं। करने दो मस्ती।

साल बाद रविन्द्र की गाड़ी की एक दुर्घटना हुई। इसमें रविन्द्र ने तो अपनी जान ही गवाई और तारा की टांग टूट गई। अब घर का सारा काम कुन्दन और कुन्दन की पत्नी को करना पड़ रहा था।

साल भर के इलाज के बाद तारा भी ठीक तो हो गई थी पर बूढ़े शरीर में दर्द तो बढ़ता ही जा रहा था। ईशा कुछ दिन तो इधर उधर टल कर खुद को घर के कामकाज से बचाती रही और पति से ही खाना भी बनवाती रही और कपड़े भी धुलाती रही।

कुन्दन ने भी मां को बीमार देख चुपके से सब काम किया। परन्तु साल भर बाद एक दिन उसने साफ साफ कह दिया, _ ” बुढ़िया ज्यादा नाटक करने की कोई जरूरत नहीं है। अब तू ठीक हो गई है। पेट भरना है तो खाना खुद बनाया कर और अपने कपड़े खुद धोया कर। वरना चली जा वृद्धाश्रम। पति के मरने के बाद पेंशन मिलती है। आश्रम वाले पाल लेंगे उन्ही पैसों से। हमें न पैसों की जरूरत है और न ही मुझसे ये सब होता।”

कुन्दन ने ईशा को थोड़ा फटकारा। ईशा घर छोड़ कर माइके चली गई। उधर ईशा की मां ने तो और भी आग में घी डालने का काम किया। कुन्दन ईशा के बेगैर रह ही नहीं सकता था। मनाते – मनाते बात यहां तक आ पहुंची कि अब हमारी ईशा उस घर में तभी जाएगी, जब आप अपनी मां को अलग रखोगे या वृद्धा-आश्रम में छोड़ आएंगे।

कुन्दन ने डरते हुए से ईशा से कहा, ” ईशा तुम समझती क्यों नहीं? अभी हम मां को न अकेला रख सकते हैं और न ही तो आश्रम को भेज सकते हैं। अभी पापा को मरे हुए मात्र एक साल ही हुआ है। पति मरा है उसका, और फिर समाज क्या कहेगा?”

ईशा ने सर्पणी की तरह फुंकारते हुए उत्तर दिया, ” पति क्या सिर्फ तेरी मां का ही अनोखा मरा है? संसार में कईयों के पति मरे हैं। मैं कुछ नहीं सुनना चाहती। मैं समाज समूज कुछ नहीं जानती। फैसला तुम्हे करना है। तुम्हे मां चाहिए या फिर मैं? नहीं तो तलाक के पेपर तैयार करो पापा।”

“नहीं बेटी। कुछ दिन का समय इसे और देते हैं।” ईशा के पापा ने शराब का पैग लेते हुए कहा।
कुन्दन शाम को मां से सब सच सच कहता है।

तारा ने कुन्दन से कहा, ” बेटे तेरे पापा ने तो तुझे तभी कहा था कि यह लड़की कुछ ठीक नहीं है बेटा। कोई और लड़की देखते हैं। पर तेरी जिद्द के आगे हमारी एक न चली। अभी भी वक्त है बेटा। वे अगर तलाक मांग रहे हैं तो दे – दे तलाक। वह लड़की तुझे बर्बाद कर डालेगी।”

तारा के इतना कहते ही कुन्दन आग बबूला हो उठा, ” ठीक कहती है ईशा और उसके मम्मा-पापा। तेरे साथ रहना सचमुच ठीक नहीं है। पड़ी रह घर में अकेली। हम रह लेंगे क्वार्टर में। बड़ी आई तलाक दे – दे।”

दोनो पति – पत्नी क्वार्टर में रहने लगे। जितना कुन्दन महीने का कमाता, उससे तीन गुना खर्चे मैडम के थे। घर के काम काज को रखी नौकरानी पैसे न मिलने के कारण नौकरी छोड़ गई। सब काम कुन्दन को खुद करने पड़ते थे।

मैडम जी तो दिन रात व्यस्त ही रहती थी और नशे में चूर। बेटे की हालत देख कर नौकरानी को पैसे देना तारा ने चुपके से शुरू किए, ताकि बेटे पर बोझ न पड़े। कुन्दन पर बैंक का कर्ज भी बहुत हो गया था।

अब वह भी परेशान हो कर और ससुराल की संगत से शराब पीने लग गया था। एक दिन उसने दफ्तर से लौट कर मैडम को किसी गैर मर्द की बाहों में लिपटे देखा तो उससे रहा नहीं गया। उसने सासू मां और ससुर साहब से ईशा की करतूतों की शिकायत की।

उन्होंने उसे जबाव दिया,” तो क्या हुआ? यह तो आजकल आम बात है। हमारी बेटी है ही बहुत सुंदर दामाद जी। आ गया होगा किसी का दिल उस पर। तुम्हारा भी किसी और पर आ जाए तो उसमें क्या गलत है? इस बात पर ज्यादा बबाल करने की कोई जरूरत नहीं है।”

उधर बैक वालों की चिट्ठियों से कुन्दन अलग से परेशान था। कुन्दन को एक दिन दिमागी दौरा पड़ा। वह हस्पताल में कराह रहा था। तारा को नौकरानी ने खबर दी।तारा उसे घर ले आई और उस अपाहिज बुद्धि का इलाज भी करती रही और उसका कर्जा भी भरती गई।

उन बूढ़ी बाहों में अब और इतनी शेष ताकत नहीं थी कि वे इस बुढ़ापे में भी अपने बेटे को अपना पेट काट कर पालती। पर क्या करती? उसे यह सब मजबूरी में करना पड़ रहा था।

मैडम ईशा ने अपने माइके में उसी गैर मर्द के साथ डेरा जमा लिया था। एक दिन तारा उसे घर बुलाने गई तो उसने बेहूदा जवाब दिया, “क्या करूंगी तेरे अपाहिज बेटे के साथ रह कर?”
तारा रोते – रोते घर लौट आई।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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Conclusion:

  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से बखूबी समझाने की कोशिश की है – माता-पिता सदैव ही अपने बच्चे/बच्चियों का भला ही चाहते हैं, उनका कहना जरूर माने, उनके अनुभव का कभी भी मजाक ना बनाये। जो आपके माता-पिता का सम्मान और सेवा नहीं कर सकती/सकता वो आपका सम्मान और सेवा भला क्या करेगी। इसलिए सदैव ही माता-पिता का सम्मान और सेवा करें, उनका कहना माने। कभी भी उनका साथ ना छोड़े, चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थिति क्यों ना आ जाये।

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यह लेख/लघु कथा (बदलता दौर।) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख / लघु कथा सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

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आखिर कहां जा रही है भारत की शिक्षा व्यवस्था?

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ आखिर कहां जा रही है भारत की शिक्षा व्यवस्था? ♦

दिल्ली सिर्फ देश की राजधानी ही नहीं है। वह राजधानी होने के साथ-साथ हिंदुस्तान का दिल और एक महानगर भी है। देश का हर कोई छोटा बड़ा नागरिक अपने बच्चों को यहां के सरकारी शिक्षण संस्थानों में दाखिला लेने के लिए बेताब रहता है। हो भी क्यों ना? हर कोई चाहता है कि मेरे बच्चे को एक अच्छी और किफायती शिक्षा प्राप्त हो। वह शिक्षा किसी अच्छे संस्थान में और अच्छे स्थान में प्राप्त हो।

सबकी सोच होती है कि मेरा बच्चा सेंट्रल यूनिवर्सिटी के अधीन आने वाले शिक्षण संस्थानों में दाखिला लेकर शिक्षा ग्रहण करें। परंतु उन बच्चों और अभिभावकों का सपना तब चूर- चूर हो जाता है जब सेंट्रल यूनिवर्सिटी के अंतर्गत आने वाले सभी शैक्षणिक संस्थानों में बी ए ऑनर्स राजनीतिक शास्त्र, अर्थशास्त्र आदि में भी 100% का कट ऑफ प्रथम सूची में लगाया जाता है। 2015 में यह कट ऑफ कंप्यूटर साइंस में पहली बार लगाया गया था अब तो तकरीबन – तकरीबन सभी विषयों में यह कट ऑफ लगाया जा रहा है।

सवाल यह खड़ा होता है कि…

सवाल यह खड़ा होता है कि यदि 100% ही कट ऑफ लगाया जाएगा तो क्या इससे भी आगे कोई और अंक प्राप्त होते हैं क्या? प्रतिस्पर्धा के इस दौर में गरीब, मजबूर और मेहनती तथा परिश्रमी वह बच्चा तब निराश होता है जब उसके 99.9 प्रतिशत अंक होने पर भी इन संस्थानों में दाखिला नहीं मिलता। तब तो और भी ज्यादा परेशान होता है जब आस – पड़ोस के लोग अपने 100% अंक प्राप्त किए हुए बच्चे का दाखिला इन संस्थानों में करवातें हैं और पड़ोस के 99.9 प्रतिशत अंको को प्राप्त करने वाले बच्चों को या अभिभावकों को चिढ़ाने का काम करते हैं कि मेरे बच्चे का दाखिला तो उस कॉलेज में हो गया है आपके बच्चे का नहीं हुआ क्या?

मजबूरन निजी संस्थानों में दाखिला लेना।

समझ ही नहीं आता कि हमारे देश की शिक्षा प्रणाली किस ढर्रे की ओर चली जा रही है? 100% कट ऑफ लिस्ट कहां तक जायज है? सभी जानते हैं कि सेंट्रल यूनिवर्सिटी के अंतर्गत आने वाले इन कॉलेजों में दूसरी, तीसरी या चौथी कट ऑफ लिस्ट बहुत ही कम निकलती है। यदि निकल भी गई तो उसमें भी 97% अंक प्राप्त करने वाले को ही स्थान मिलेगा।

परंतु जो 90% से ऊपर के अंको को प्राप्त किए हुए अन्य प्रखर बुद्धि के छात्र है, जिनका सपना इन प्रतिष्ठित संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करने का रहा है, वे कहां जाएंगे? उन्हें मजबूरन निजी संस्थानों में दाखिला लेना पड़ता है, जहां लाखों की डोनेशन दे कर के बड़ी महंगी शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती है। आखिर आजादी के 74 साल बाद भी वे क्यों इस खर्चीली शिक्षा व्यवस्था में उलझ कर अपने साथ – साथ अपने परिवार वालों का भी नुकसान करें।

1965 में कोठारी कमीशन।

1965 में कोठारी कमीशन की अनुशंसाओं ने भारत सरकार को भारतीय शिक्षा प्रणाली पर देश की जी डी पी का 6% खर्च करने की अनुशंसा की थी। परंतु कमीशन की एक न मानी गई। वही पुराना शैक्षणिक ढर्रा अद्यतन आजादी के बाद अपनाया जाता रहा है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020

आज राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 लागू जरूर की गई है, जिसमें देश की जी डी पी का 6% शिक्षा पर खर्च करने का दावा भी केंद्र सरकार द्वारा किया जा रहा है। परंतु जनता को न्याय तब तक नहीं मिलेगा जब तक यह सारी बातें जमीनी स्तर पर हकीकत में क्रियाशील नहीं होती।

मात्र घोषणा करवाना और किसी व्यवस्था में प्रावधान करवा देना किसी बात को पूर्ण रूप से फलीभूत होने का प्रमाण नहीं होता। किसी बात की पूर्णता के लिए उसका विधिवत धरातल पर घटित होना बहुत जरूरी होता है।

प्रश्न उठता है…

सवाल खड़े होते हैं कि इतने लंबे अरसे के बाद भी आखिर क्यों देश की राजधानी में सरकारी शिक्षण संस्थानों की बढ़ोतरी नहीं हो पाई? क्यों हर सरकारें ‘थोथा चना बाजे घना ‘वाला राग आलापती रही?

संस्थान वही, संस्थानों में सीटें वही और उस पर छात्रों की तादात निरंतर बढ़ती जा रही है। बढ़ती छात्र तादात के हिसाब से सरकारों को शिक्षण संस्थानों का विकास करना चाहिए था और इन संस्थानों में सीटों की अभिवृद्धि करनी चाहिए थी। परंतु ऐसा नाम मात्र को ही देखने में मिला है।

प्रश्न उठता है क्या सरकार जानबूझकर के भारतीय शिक्षा व्यवस्था को निजी शिक्षण व्यवस्था की झोली में डालने के चक्कर में है या फिर उसे अपने देश में जी रहे नव शिक्षार्थियों की कोई चिंता ही नहीं है?

देश के मानव संसाधन को संचालित करना, व्यवस्थित करना और उनकी सुविधाओं के प्रावधानों को प्रबंधित करना राज्य एवं केंद्र सरकार का संयुक्त दायित्व होता है। परंतु इस मुद्दे पर सब के सब अपना पल्ला झाड़ते हुए से नजर आ रहे हैं। 100% की कटऑफ कहां तक तर्क संगत और न्याय संगत है? इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

सवाल भारतीय शिक्षा व्यवस्था के मूल्यांकन ढांचे पर।

इसमें तो सवाल भारतीय शिक्षा व्यवस्था के मूल्यांकन ढांचे पर भी खड़े होते हैं कि क्या सारे की सारी परीक्षाएं वस्तुनिष्ठ विधि से ही करवाई जाती है? क्या स्कूली शिक्षा प्रणाली के मूल्यांकन में व्याख्यात्मक और सरांशात्मक परीक्षाओं का कोई स्थान नहीं है? यदि है तो फिर 100 में से 100 अंक प्राप्त होने का सवाल ही खड़ा नहीं होता?

आखिर क्यों हमारे देश के शिक्षाविद इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हैं? खैर सरकार और राजनीतिज्ञों से तो इस मामले में बात करना ही बेकार है। एक शिक्षक होने के नाते मैं यह बड़े दावे के साथ कह सकता हूं कि स्कूली शिक्षा में 100 में से 100 अंक प्राप्त करना वर्तमान मूल्यांकन प्रणाली की विश्वसनीयता और वैधता पर कहीं ना कहीं सवाल जरूर खड़े करता है।

क्या एक भी बिंदी की गलती बच्चा नहीं कर रहा है? क्या एक भी सवाल या फिर एक भी शब्द बच्चों से गलत नहीं हो रहा है? इतना ही नहीं भाषा, राजनीतिक शास्त्र, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और गणित जैसे कई विषयों में कहीं ना कहीं बच्चों से जरूर चूक हो जाती है। उन सब चूकों को नजरअंदाज करके 100 में से 100 अंक बच्चों को प्रदान करना कहीं से भी उचित नहीं जान पड़ता।

शिक्षा प्रणाली की और व्यवस्थाओं की तारतम्यता का ना होना।

इससे हम बच्चे को अहम और वहम के चक्रव्यू में डालते जा रहे हैं। और इसके साथ – साथ प्रतिस्पर्धात्मक बुद्धि को रखने वाले छात्रों और अभिभावकों को निराशा और हताशा की ओर धकेलते जा रहे हैं। अधिक से अधिक अंक प्राप्त करना आज के बच्चों और अभिभावकों का एक शौक और फैशन बन गया है।

यदि सर्वाधिक अंक किसी अभिभावक का बच्चा नहीं लाता है तो वह पड़ोसी के बच्चे का उदाहरण देकर उस पर अधिक से अधिक अंक प्राप्त करने का दबाव बनाता है। प्रतिस्पर्धा की इस घिनौनी लड़ाई में वह बच्चा कई बार कम नंबर आने पर आत्महत्या जैसे कदम उठा लेता है, जो कहीं से भी तर्कसंगत और ठीक सिद्ध नहीं होता। इन सब बातों के पीछे मुख्य कारण शिक्षा प्रणाली की और व्यवस्थाओं की तारतम्यता का ना होना ही होता है।

भारत के बच्चे -बच्चे को सरकारी शिक्षण संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करने का पूरा-पूरा अधिकार प्राप्त हो।

जनसंख्या की दृष्टि से शिक्षण संस्थान और उनकी सीटें निरंतर बढ़ती जानी चाहिए न कि स्थिर रहनी चाहिए। कट ऑफ लिस्ट भी 100% कहीं से भी न्याय संगत नहीं हो सकती। निजी शिक्षण संस्थानों के चंगुल से भारतीय शिक्षा व्यवस्था को बाहर निकाल करके भारत के बच्चे -बच्चे को सरकारी शिक्षण संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करने का पूरा-पूरा अधिकार प्राप्त होना चाहिए।

भारत के शिक्षार्थी और अभिभावक का शोषण किसी भी हालत से नहीं होना चाहिए। इन्हीं सब बातों का प्रावधान करना देश की और राज्य की सरकारों का सामूहिक दायित्व होता है। परंतु सरकारें ऐसा कुछ भी नहीं कर रही है। आजादी के इतने दिनों के बाद भी देश में नाम मात्र को ही शिक्षण संस्थानों में वृद्धि की गई है और उन शिक्षण संस्थानों में सीटों के निर्धारण में भी नाम मात्र की ही वृद्धि हुई है।

देश का होनहार छात्र निराश – हताश।

ऐसे में देश का होनहार छात्र निराश – हताश होकर के गलत कदम नहीं उठाएगा तो और क्या करेगा? यहां यह भी स्पष्ट किया जाना जरूरी है कि 90% अंक प्राप्त करने वाला छात्र भी कोई कमजोर नहीं होता। वह भी एक तीव्र बुद्धि और प्रखर व्यक्तित्व होता है। ऐसे में उसे निराश और हताश होने की कोई जरूरत नहीं है बल्कि उसे अपने अस्तित्व को बनाए रखना चाहिए और निरंतर व्यवस्थाओं के साथ संघर्ष करके अपने भविष्य को संवार कर देश के भविष्य को संवारने की कोशिश करनी चाहिए।

निराशा और हताशा में गलत कदम उठाने की अपेक्षा विपरीत परिस्थितियों का सामना करके अपने लिए सफलता के नए रास्ते गढ़ना मानव जीवन का सबसे बड़ा कर्तव्य है। अतः देश के हर नौजवान को इन चुनौतियों से घबराना नहीं चाहिए बल्कि इनको उल्टी चुनौती देकर के इन्हें हराना चाहिए।

समाज की मानसिकता में बदलाव लाने की जरूरत।

समाज की मानसिकता को भी अपने आप में बदलाव लाने की जरूरत है। यदि आपके बच्चों ने सर्वाधिक अंक प्राप्त कर भी लिए हैं तो ऐसे में दूसरों को चिढ़ाने और जलील करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए बल्कि एक अच्छे नागरिक होने के नाते और एक अच्छा पड़ोसी होने के नाते या फिर एक अच्छा रिश्तेदार होने के नाते हमें एक दूसरे को निरंतर प्रोत्साहित करना चाहिए।

अंतरराष्ट्रीय सर्वे में हमारे देश की शिक्षा प्रणाली।

सवाल यह भी खड़ा होता है कि यदि 100% अंक प्राप्त करने योग्य प्रतिभाएं निखारने की क्षमता हमारे देश की शिक्षा प्रणाली रखती है तो फिर वैश्विक शिक्षण पायदान पर अपने आप को लड़खड़ाता हुआ सा महसूस क्यों करती है? क्यों अंतरराष्ट्रीय सर्वे में हमारे देश की शिक्षा प्रणाली को विशेष स्थान प्राप्त नहीं होता?

किसी अमीर धनवान और रसूखदार घर आने का बच्चा तो निजी शिक्षण संस्थानों में शिक्षा ग्रहण कर भी ले परंतु मध्यवर्ग और गरीब सर्वहारा वर्ग का होनहार छात्र इस 100% कटऑफ की व्यवस्था वाली शिक्षा प्रणाली में पिछड़ जाएगा।

.001 प्रतिशत से कटऑफ सूची में दाखिला ना मिलने के कारण एक तो वह बेचारा सरकारी शिक्षण संस्थानों से न्यारा रहेगा और उधर पैसों की तंगी के चलते उसे निजी स्कूलों से भी बाहर ही रहना पड़ेगा। ऐसे में उसकी अभिलाष, उसकी प्रतिभा और उसका स्वाभिमान सबका सब चोटिल हो जाता है।

सैद्धांतिक शिक्षा प्रणाली से हटकर प्रायोगिक शिक्षा प्रणाली की जरूरत।

समय रहते ही यदि देश की सरकारों ने इस दिशा की ओर ध्यान नहीं दिया तो देश में कुंठा और अराजकता का वातावरण धीरे – धीरे बढ़ता चला जाएगा। सैद्धांतिक शिक्षा प्रणाली से हटकर प्रायोगिक शिक्षा प्रणाली पर जब तक जोर नहीं दिया जाएगा तब तक राष्ट्रीय शिक्षा नीति का समूचा मसौदा भी बेकार ही सिद्ध होगा।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

—————

Conclusion:

  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से बखूबी समझाने की कोशिश की है – सैद्धांतिक शिक्षा प्रणाली से हटकर प्रायोगिक शिक्षा प्रणाली पर जब तक जोर नहीं दिया जाएगा तब तक राष्ट्रीय शिक्षा नीति का समूचा मसौदा भी बेकार ही सिद्ध होगा। 100% कटऑफ की व्यवस्था वाली शिक्षा प्रणाली को हटाना होगा।

—————

यह लेख (आखिर कहां जा रही है भारत की शिक्षा व्यवस्था?) “हेमराज ठाकुर जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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पितृ-दिवस।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ पितृ-दिवस। ♦

पिता की सेवा कर पाए, ऐसा श्रवण तू बन जा।
बस अपने सद्कर्मों से तू , अपने पिता को गंगा नहा।
पितृ-दिवस होता है, मातृ- दिवस का पूरक।
दोनों से ही होता है, ये जीवन संपूरक।

पिता सुखों के अम्बर की, होता है छाया।
जिसने हर पल संतान की खातिर, ईश्वर के समक्ष हाथ फैलाया।
उसके एक प्यार भरे स्पर्श में, लाखों आशीषों को हमनें पाया।
परिवार की खुशी के लिए, हर गम से वज्र बन टकराया।

नारियल जैसे गुणों को, इसने भगवान से पाया।
अंदर से मुलायम ह्रदय, बाहर से कठोरता को अपनाया।
जिसने जीवन की हर विषम परिस्तिथियों में भी,
प्यार को ही गुनगुनाया।
पिता के प्रेम को माप दे, बनी ऐसी कोई भाषा नही।

पिता की महत्ता अनन्त है,
जिसकी कोई परिभाषा नही।
कोई परिभाषा नही।

♦ सुशीला देवी जी – करनाल, हरियाणा ♦

—————

  • “श्रीमती सुशीला देवी जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से, कविता के माध्यम से बखूबी समझाने की कोशिश की है – वैसे – माता और पिता दिवस ताे हर मनुष्य काे अपने अंतिम श्वास तक मनाना चाहिये। एक सच्चा पिता सदैव ही अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिये दिन-रात अनवरत (continuously) कार्य करता हैं। जहा माता अपने बच्चों के स्वास्थ्य का ध्यान रखती हैं ताे वही पिता उन्हे सही ज्ञान और समझ देते हैं। जहा प्रथम गुरु माँ हैं ताे वही पिता गुरु हाेने के साथ-साथ सच्चा संरक्षक भी हाेता हैं।

—————

यह कविता (पितृ-दिवस।) “श्रीमती सुशीला देवी जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे।

आपका परिचय आप ही के शब्दों में:—

मेरा नाम श्रीमती सुशीला देवी है। मैं राजकीय प्राथमिक पाठशाला, ब्लॉक – घरौंडा, जिला – करनाल, में J.B.T.tr. के पद पर कार्यरत हूँ। मैं “विश्व कविता पाठ“ के पटल की सदस्य हूँ। मेरी कुछ रचनाओं ने टीम मंथन गुजरात के पटल पर भी स्थान पाया है। मेरी रचनाओं में प्रकृति, माँ अम्बे, दिल की पुकार, हिंदी दिवस, वो पुराने दिन, डिजिटल जमाना, नारी, वक्त, नया जमाना, मित्रता दिवस, सोच रे मानव, इन सभी की झलक है।

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