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KMSRAJ51-Always Positive Thinker

“तू ना हो निराश कभी मन से” – (KMSRAJ51, KMSRAJ, KMS)

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You are here: Home / Archives for Satish Shekhar Srivastava ‘Parimal’

Satish Shekhar Srivastava 'Parimal'

अखंड।

Kmsraj51 की कलम से…..

Akhand | अखंड।

In this poem, a prayer has been made for the continuity of knowledge, meditation and spiritual consciousness by making the lamp a symbol.

हे दीप मुझे तुम निरंतरता दो
खंड-अखंड का वरदान हो
चक्षु मेरे निहारे अनायास ही
अंतस् की ही तुम पहचान हो॥

पात्र में संगृहित कर आशाओं को
वर्तिका की वर्णिका में आग हो
दीपशिखा की दीपिका में
प्रचंड प्रबल प्रत्युष भाग हो॥

साधक की साधना की अविरति में
स्थिर-चित्त की अनुराग हो
अजना में जलती धधक की तुम
अनहद अनमिट त्रिषा-तश्नग हो॥

पुनरावृत्ति मंत्रों की मालाओं में
करों की मध्यमा अनाहत की रुचा हो
विश्व-बंधत्व की पिपासाओं में
हे जोत तुम मेरी निष्ठा की ऋचा हो॥

पीतशिखे पीताम्बरे रक्त-वाहिनी में
विधु स्तुति बन रची-बसी हो
ब्रह्मास्त्र हो पिंड-गात में योगिनी बन
उर उक्थ में जीवन-शक्ति की त्रिषा हो॥

मैं प्यासा भटक रहा निवड़ तन लिये
बियावान बन में सुर-समरथ बन आओ
कण-कण में मेरे हे बगलामुखी माते
ऋद्धि-सिद्धि स्तुति की श्रीफली हो॥

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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  • “सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस कविता के माध्यम से समझाने की कोशिश की है — इस कविता में दीपक को प्रतीक बनाकर ज्ञान, साधना, और आध्यात्मिक चेतना की निरंतरता की प्रार्थना की गई है। कवि दीपक से खंड-अखंड (संपूर्णता और अनंतता) का वरदान मांगते हैं, जिससे उनका अंतर्मन प्रकाशित हो सके। दीपक की लौ को आशाओं और ऊर्जा का स्रोत माना गया है, जो साधना, ध्यान, और आत्मज्ञान में सहायक होती है। यह लौ सिर्फ बाहरी रोशनी नहीं, बल्कि आंतरिक शक्ति और आध्यात्मिकता का प्रतीक भी है। कवि इसे विश्व-बंधुत्व, निष्ठा और शक्ति का प्रतीक मानते हुए इसे जीवन की प्यास बुझाने वाली ज्योति के रूप में देखते हैं। वे इसे ब्रह्मास्त्र, योगिनी और जीवन-शक्ति का रूप मानते हैं, जो व्यक्ति को दिशा और संबल प्रदान करता है। अंत में, कवि स्वयं को एक प्यासे यात्री के रूप में चित्रित करते हैं, जो ज्ञान और आध्यात्मिकता की तलाश में है। वे माँ बगलामुखी से प्रार्थना करते हैं कि वे उन्हें शक्ति और सिद्धि का आशीर्वाद दें, जिससे उनका जीवन सार्थक और आलोकित हो सके।

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यह कविता (अखंड।) “सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल’ जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख/दोहे सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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“सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

“अगर अपने कार्य से आप स्वयं संतुष्ट हैं, ताे फिर अन्य लोग क्या कहते हैं उसकी परवाह ना करें।”~KMSRAj51

 

 

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शिल्प-धर्म।

Kmsraj51 की कलम से…..

Shilp-Dharm | शिल्प-धर्म।

अनुकर्ष निर्जन वन पूनम,
पृथुल भूधर प्रदेश विशाल थे।
स्निग्ध हरीरी अमृता भूषित-पथ,
आरण्य सारंग-अमंद बिखरे थे।

लपेट दिव्य भूषण कौन्तेय के,
प्रदर्श-सहस लावण्य लहर से।
मुक्त-कुंतल लहरा रही थी,
रत्नगर्भा को उतुङ्ग महाविल से।

शिल्प-धर्म पर मैं जाता था,
निःसंग वन-वाटिका तमस् में।
यकायक दृष्टिगत हुई अभ्र को,
मराल कंधर संक्षिप्त कपाल में।

कामदग्धा अपूर्व सुंदरी,
उस पर मुरली लिये कर कमल में।
चीर रही थी नितांत निर्जन वन को,
भर रही सरगम के मधुर-स्वर में।

किल्लोल रही तरंगें रश्मियों से,
ढुलक रहे घनरस कमलिनी में।
अगुरु युवता थिरक रही थी,
निहार-कणों-सा सुर पवन में।

पुकार कहा मैनें; कौन? बंसी बजा रहा,
कहा प्रकृति ने सौंदर्य चिर हमी-से।
घनेरी स्वयं दमक-भास मैं करती,
प्रकाशित अधिलोक मैं तुम्हीं-से।

अनखिली यौवन का मधु मैं,
मदहोश रसीली नई-नवेली।
सरस तरुणी का नयन-मद,
दृष्टि लेखन की अलबेली।

कोमल मंजरी किसलय कली हूँ मैं,
मैं फुनगियों पर पड़ी मिहिका रज।
सुमन-सारंग पर थिरकती फिरती हूँ,
प्रेममय भृंगी-पतंगा बन समज।

प्रणय-वेदना के सिवा न दुःख,
यहाँ पुरातन क्षेम की लालिमा है।
इस वापिका में नित राजहंस के,
आसङ्ग टहलती आनंदित हँसनी है।

जोड़ पंख अभिलाषा अभिराम,
आई इस आनन्द भुवन माया में।
पी लो आज अधर-रस जी-भर,
कल दहन होगी तेरी पिण्ड-काया में।

युवता तश्नगी आकर्षण प्रेम,
सत्यतः नवयौवना मधुमय है।
इन चक्षुओं में विवुध-मधु भरा,
रसीले रदों में मद – संचय है।

देखा है मैनें इन दिनों में,
मादकता भरी है हिमकणों में।
सारंगों की मुस्कान प्रगट थी,
निर्मल शून्य सुनहला पुष्करणों में।

आनंदित हिलोर लेती कनक किरणें,
झिलमिल-झिलमिल झलक रही सर में।
शिल्प-धर्म पर मैं जाता था,
निःसंग वन-वाटिका तमस् में।

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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यह कविता (शिल्प-धर्म।) “सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल’ जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख/दोहे सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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“सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

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शब्द-माला।

Kmsraj51 की कलम से…..

String of Words | शब्द-माला।

अभिनव रस परिरंभ से,
थरथराते बाला के वेश।
कंपकंपाते अधर पुट,
उड़ते मदहोश से केश।

चूमकर अचानक अभ्र को,
भाग जाना अति दूर।
अनुपम है अणुभा का रूप,
मंजुलता मोहकता से चूर।

अविनीश के हाथों का परस,
पाकर व्याकुल कुछ-कुछ ऊब।
मृणालिनी का जल में जाना,
आकंठ तक डूब।

पुष्करिणी के तन किन्तु,
मन रात-भर शशि में लीन।
शशिकांत की आँखों में,
अलस-हीन निद्रा-विहीन।

स्वप्न का योग सारा,
प्राणों से सबको प्यार।
धन-दौलत है पास मगर,
निछावर कर दूँगा साकार।

विवस्त्र कर कुण्डल से,
देखे विस्मित चरणों का देश।
रहता जहाँ है बसा,
अगुण मानक उज्जवल वेश।

इस पावन पवित्र नीलिमा के,
धरा पर करुँगा तुझको मैं आसीन।
उपवन में भी तुम रहोगी,
अलि कटंक कुसुम विहीन।

अपने लहू के चंड से,
सुलगने न दूँगा अंग।
साथ रहोगी तुम पर,
आँच न आने दूँगा नि:संग।

शब्दों की माला में पिरोकर,
लिखता रहुँगा भाग्य अपना मान।
तुम रहोगी इस अधिलोक में,
बन सरगम की सुरीली तान।

मधुर मुरली की तान वह,
जिसके प्राणवंत विभोर।
डोलती काया तुम्हारी,
मोहक मोहनी होगी तस्वीर।

लोहित की दुर्जय क्षुधा,
दुःसह चाम की प्यास।
छा रही होगी सुर-सरगम,
घर-घर अवनी आकाश।

सुर तुम्हारे जब बजेगें,
ताल-तरंग चूमने की चाह।
आह निकलेगी फिज़ाओं से,
झूमने लगेंगे सब बाग।

करतल जब बजेगी,
चलने लगेंगे आँसुओं के तार।
बज उठेगी विश्व में जब,
निश दिन बोलों की झंकार।

जग तुम्हें घेरकर,
करेगा कलरव चहुँ ओर।
फूलों का उपहार होगा,
मनके-मनके में भरा प्यार।

कुछ दीवानगी में भर कर,
भित्ति हृदय पर उकेर लेंगे।
गीतों के भीतर घुसकर,
तुम्हारी छवि आँखों में उतार लेंगे।

कंठों में जाकर बसोगी,
बिन सरगम गुनगुना लेंगे।
प्राणों में आकर हँसोगी,
हँसकर होंठों पर छा लेंगे।

मैं मुदित हूँगा देखकर,
इन गीतों को वाक्य दूँगा।
रचित शब्द-माला में पिरोये,
अपने सृजन को आकार दूँगा।

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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गीतों का हार।

Kmsraj51 की कलम से…..

Geeton Ka Haar | गीतों का हार।

सप्त रंगों से सजी धरती के,
कण-कण में गीतों का हार।
सात सुरों के तानों में बजता,
विहंगिणी विक्षोभ का तार।

सप्त दिवसों की सजी चौक पर,
चंद्र रजनी का सुंदर गात।
साँझ सकारी सज कर खोली,
स्वप्न सुनहली गुलाबों की प्रात।

चरण-पाद धरने को पथ पर,
फैला दिये हैं पुष्प-किरण के हार।
विहान की सिंदूरी लालिमा ने,
बिछा दिये हैं मेघ अपार।

कंठों की कोकिल में सजी,
सुर लहरी की मधुर तान।
धवल जूही की पहन चादर,
मृदुल चाँदनी आई सान।

दुर्वा की तूलिका में बसी,
नील गगन की घनसार।
दो शरासर आँक लूंगा,
भू-धरा पर हैं कितने गद्दार।

सुनने की शक्ति दो मुझको,
देखूँ कितने पीत-कुसुम सुकुमार।
पंखुड़ियों के दो वलय वृन्त मुझे,
खोजूँ कितने श्वेत कलिका के हार।

स्वर्ण शिखा के माथे पर दो,
तिलक कुंकुम चंदन के डाल।
अरुण सारथी से पूँछ लूंगा,
शंभुभूषण मामा के भाल।

छाई अँखियन में घटा काली,
उर में प्रणय की प्यास।
श्वांसों में भर दूंगा मलय समीर,
अधरों पर पूर्ण उच्छवास।

चंद्र पर अब लहरायेगा झंडा,
हृदय पर नागिन डोलेंगे।
जो कहते थे पिछड़ा हमको
छाती पीट-पीटकर रोयेंगे।

बंकिम धन्वा पर चढ़ा दूँगा,
कर कुसुम से तीर खींचूंगा।
मदहोश यौवन की नागों पर,
सुंदरता की जंजीर पहना दूँगा।

करुँगा सृजित कल्पित जग को,
उसे बनाऊँगा तुम्हारा आवास।
थोड़ी-सी धरती होगी,
पूरा – पूरा होगा उसमें आकाश।

विचरता मन छानता रहता,
स्वप्न निखिल संसार।
कुछ-कुछ नया लाते,
जिससे कर सकूँ तेरा श्रृंगार।

कुश के अंकुर कभी,
बौरे सिंधुकेशर के फूल।
कमल के पराग कभी,
थोड़े-थोड़े केतकी के धूल।

उतरते सूरज की वधु,
लाली लाज उपनाम।
सिमटी चंद्रिका के अंकों में,
सखी निशा को मान।

निहारती अपलक अपरिचित को,
उर्वशी वल्लभ की ओर।
दिव्य अप्सरा की अँखियों में,
मादकता निहारे चक्षु कोर।

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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मोहिनी।

Kmsraj51 की कलम से…..

Mohini | मोहिनी।

क्षम्य हो मेरा अपराध,
देख तुम्हारी अँखियों का सार।
मन को मोहने वाली हिरणी,
मोहित तो है तुमसे सारा संसार।

हार गया मैं तुमसे,
सुनकर बातें बेगानी थारी।
शब्दों के बाण चला-चला कर तुमने,
घायल कर दिया इस मन हारी।

दूर तक जहाँ नहीं कोई,
जीवन के इस निर्जन पानी।
कहां से आकर तुमने,
छेड़ी ये राग अनजानी।

शान्त शिखण्डी का मैं मारा,
ये नयन रण मेरे लिये असमान।
अकेला लड़ा इस आशय से,
जीत सकूँ मैं सारा जीवन विहान।

अगर पराजित हुआ तुमसे मैं,
तो जीत लूँगा सारा आसमान।
मैं तुमसे जो कर रहा तर्क-वितर्क,
इसमें है मेरी वाणी का समाधान।

तुम ही थी हृदय की पीड़ा,
अंतस् की गुंजन थी तुम बाला।
पढ़ा होगा मेरी आँखों में तुम,
एकाकी जीवन की मेरी हाला।

अपनी कृति देकर इन अँखियों को,
खो न जाना इस निदारुण वन में।

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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सारंग – सुमन।

Kmsraj51 की कलम से…..

Sarang – Suman | सारंग – सुमन।

हे अचले! तेरे तारक सारंग,
ये सृष्टि के धवल मुक्ताहार।
दीप बागों के उज्जवल धवल,
जिससे है वन जुगनू सुकुमार।

मेरी कोमल कल्पना के तार,
तरंगित उत्साहित उद्भ्रांत।
हृदय में हिल्लोर करते रहते,
भावों के कोमल-कोमल कान्त।

नालों-नालों की ज्योति,
जगमग उर्मि पसार।
ज्योतित कर रहे आज,
किसलिए कालिमा का संसार।

ये परियों का सुंदर-सा देश,
मृदुहासों का मृदुलमय स्थान।
दिव्य ज्योत्स्ना में घुल-घुलकर,
दिखता जैसे हो अम्लान।

मोहक तरंगिणी ने धो-धो कर,
हिम उज्जवल कर लिया परिधान।
आओ चलें प्रकाशित वन में,
खोजे ज्योतिरिंगण वो अनजान।

मलय समीरों के मृदुल झोंकों में,
कतिपय कंपित डोल-डोल।
अंतर्मन में क्या सोच रहा,
अनबोले रह जाते मेरे बोल।

स्वयं के ‘परिमल’ से सुशोभित,
निज की अपनी ज्योति द्युतिमान।
मुग्धा-से अपनी ही छवि पर,
निहार पड़े स्रष्टा छविमान।

खुद की मंजुलता पर अचम्भित,
देखे विस्मित आँखें फाड़।
खिलखिलाते फूल-पल्लवों को देख,
आत्मीयता से नयनों को काढ़।

सृजित हो रहे स्वर्ग भूतल पर,
लुटा रहे उन्मुक्त विलास।
अग्नि की सुंदरता का सौरभ,
सुमन-सारंग का उल्लास।

कवि का स्वप्न सुनहला,
देखे नयन ये बार-बार।
हर पंक्ति-पंक्ति में रच डाली,
नयनों की देखी साभार।

अनन्त के क्षुद्र तारे तो दूर,
उपलब्धि के गहरे-गहरे पात।
देव नहीं हम मनुजों की,
प्रियतम है अवनी का प्रान्त।

बीते जीवन की वेदनाएं,
अम्बा की चिन्ता क्लेश।
वादी में सृजित किया तूने,
मंजुल मनोहर आकर्षक देश।

स्वागत करो अरुणोदय का,
स्वर्णिम शीशों पर पुष्कर विहार।
विश्राम करे धवल तमस्विनी,
आँचल में सोते हैं सुकुमार।

कितनी मादकता है बसी यहां,
कुंडा-कुंडा है छन्दों का आधार।
पुष्पों के पल्लव-पल्लव में बसा,
सुरभि सौरभ सुगंध का भार।

विश्व के अकथ आघातों से,
जीर्ण-शीर्ण हुआ मेरा आकार।
अश्रु दर्द व्यथा वेदना से,
परिपूरित है मेरा जीवन आधार।

सूख चुका है कब से,
मेरे कलियों का जीवात्म।
हृदय की वेदना कहती है,
बचा विश्व में बस पयाम।

इक-इक पंक्ति से बन गई,
मेरी कविता का संसार।
लेखनी को घिस-घिस कर,
उद्धृत किया अपना संस्कार।

आशा के संकेतों पर घूमा,
सृष्टि के कोने-कोने हाथ पसार।
पर अंजलि में दी ‘दुर्गा’ ने,
आत्म तृप्ति का उपहार।

छोटे से जीवन के इस क्षण में,
भरा अंतस् कण-कण में हाहाकार।
भरत-भूमि तेरी सुंदरता पे,
खड़ा सारंग-सुमन तेरे द्वार।

इक पल के मधुमय उत्सव में,
भूल सकूँ अपनी वेदना हार।
ऐसी हँसी दे दो दाता मुझको,
नित दे सकूँ सबको हँसी बेसुमार।

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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यह कविता (सारंग – सुमन।) “सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल’ जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख/दोहे सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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बरसो अब तो मेघ।

Kmsraj51 की कलम से…..

Baraso Ab Toh Megh | बरसो अब तो मेघ।

आओ-आओ क्षितिज तट पर,
छोड़ नभ आकाशगंगा को सेघ।
वरण करो स्वर्ण बूंद गंगा को,
घन बनकर बरसो अब तो मेघ।

घिर-घिर कर आओ,
चहुँ दिश छा जाओ।
बंद कर नयन अपने,
बूँदों से तृप्त कर जाओ।

भर दो निखिल रंगों से धरा को,
उज्जवल धवल नीरों को लाओ।
हे मेघ! बरसा के नेह,
प्रीति पवन के संग बह जाओ।

भीगे भुवन सारा पाकर नेह तुम्हारा,
निर्जन विजन को सुंदर कर जाओ।
अमृत सुधा का वर्षण कर तुम,
अतुल्य प्रीति देकर हरियाले हो जाओ।

भूले बिसरे क्षण की व्यथा वेदना,
पुष्कर अनंग पत्थर फूल जो खिन्न।
वरण करो स्वर्ण बूंद गंगा को,
घन बनकर बरसो अब तो मेघ।

घोष करो शंखनाद करो अपना,
सौम्य स्कन्ध बनकर घनमाली।
उड़े जैसे धरा पर तुरग शिरस वाली,
पुलकित हो प्रमुदित हो मराली।

खुले गगन में जड़ित अंध रस
वाताज बनकर तुम फिर-फिर आओ
वरण करो स्वर्ण बूंद गंगा को
घन बनकर बरसो बरस जाओ मेघ।

रिमझिम-रिमझिम झर-झरकर,
बरसो तुम रंग गगन से।
भीगे-भीगे से स्वप्नों से तुम,
स्वप्निल छटा बनकर आओ रे।

करे कल्पना मन तरंगों पर,
नर्तन करे मानव संसाधन।
वरण करो स्वर्ण बूंद गंगा को,
घन बनकर बरसो अब तो मेघ।

जय हो! जय हो! हे घनराज!
सज्जित करो रंजित शरासन को।
जोड़ो पुहुमी को गगन से,
भरो तुम आकंठ ताल तलैया को।

प्रियदत्ता करे आरती श्रुति तेरी,
निज अनुरंजन अनुराग बढ़ाये।
वरण करो स्वर्ण बूंद गंगा को,
घन बनकर बरसो अब तो मेघ।

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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विधात्रि की माया।

Kmsraj51 की कलम से…..

Vidhatri Ki Maya | विधात्रि की माया।

रे मन तुझे रोकता हूँ,
क्षण-प्रतिक्षण तू क्युँ खिंचा जाता है।
मनःशक्ति जिसे समझता तू नारी,
इस जग में कब से उसका नाता है।

कुछ-कुछ यादों सा परिचित है,
सुध से बढ़ता अनुराग बड़ा।
रग-रग में कौन छिपा अपना,
रहता जिससे विराग बड़ा।

कैसी सुंदर यह नगरी,
कैसी इसकी सुलक्षण काया।
स्तुत्य है पावन यह धरती,
धन्य-धन्य है भरत भूमि की माया।

पहन-पहनावा शशिप्रभा का,
श्रृंगारित करती पिण्ड ग्रहों को।
निसर्ग हर्षोल्लातित हो खोली आँखें,
निहारती अपने स्वर्णिम संसार को।

झिलमिलाते विटपों पर जगमग पुष्प घनेरे,
गुच्छों – गुच्छों से भर जाते आम्र रसीले।
आलिंगन में लेकर नील गगन को,
कभी दृश्य कभी दर्पण बन जाते निराले।

कलरव करती कहीं कोकिला सारी,
उड़-उड़कर बैठती डाली-डाली।
चितचोर चंचल-सी तितलियाँ उड़ बैठती,
यह फूल डाली उस फूल डाली।

हरित वनों के उन्मुक्त कंठों से,
निर्झरी बन जाते झरने नाले।
घुल-घुलकर वादियों में चंद्रभूति-सी,
निर्मल गंगा की झिलमिल आले।

उतरती खेतों में स्वर्णिम आभा,
सींचकर साँझ सुनहली गाथा।
अनन्त की नील उपवन के बीच,
विहँस पड़ती प्रकृति दे अपना साथा।

बनैले शस्य भी तो पुलकित हर्षित,
समीरण में झूम रहे स्वच्छंद।
महामाया के अंग – अंग में भरा,
किरणित हो फूटता महा आनन्द।

मदमस्त हो देखती सृष्टि की ओर,
झंकृत करती उर के हर तार।
उमड़ पड़ते हृदय के उच्छवास,
अभिनंदित हे सृजक! तेरा व्यापार।

हे मातु तू धन्य;
नाना कुसुमों से सिंगारित कर उपवन,
निहारती वासा-व-लोक इसकी छवि न्यारी।
विविध सारंगों से सजी-धजी यह,
रंग-बिरंगी-सी सजी यह क्यारी।

बाँस है बबूल है कहीं-कहीं पर धूल है,
चहुँ ओर बिराजती बस हरियाली है।
कहीं कास है कहीं दूब है कहीं फूल से,
श्रृंगारित नदी नाल वरुणवास है।

नारी = मन की शक्ति

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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मृत्युलोक के नाते।

Kmsraj51 की कलम से…..

Mrityulok Ke Naate | मृत्युलोक के नाते।

सदा प्यार अनुराग लुटाने वाले,
आज हमसे क्यों रूठे हैं।
यह दौर हमसे कहता है,
मृत्युलोक के सारे नाते झूठे हैं।

नेत्र की गहराई में झांका तो,
दृष्टिगत हुआ पानी गहरा।
उतार – चढ़ाव से जीवन चलता,
बतलाता हर इक की गाथा हहरा।
वेदना छुपी है मुस्कानों में,
सबके सपने टूटे हैं,
मृत्युलोक के सारे नाते झूठे हैं।

कदमों-कदमों पर खिंचीं रेखायें,
अश्रु – अश्रु पर बंधन है।
बेजुबान बेबसी के होंठों पर,
विहँसता रहता क्रंदन है।
हास्य-व्यंग्य आस मुक्त मधुर क्षण,
जाने किसने लूटे हैं,
मृत्युलोक के सारे नाते झूठे हैं।

मंजुल मनोरम गीत भ्रमर ने गाये,
मुकुलों ने अपने पराग लुटाये हैं।
देकर इक-दूसरे के प्राणों को,
भावात्मक तृप्ति दे संतुष्ट बनाये हैं।
वो सुधा बरसाने वाले,
ये रिश्ते-नाते अनूठे हैं,
मृत्युलोक के सारे नाते झूठे हैं।

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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थाती की बाती।

Kmsraj51 की कलम से…..

Thati Ki Bathi | थाती की बाती।

दु:ख लहरों में चिघाड़ती है,
नित इक नई विपदा सहती है।
चिंताओं में रहती हमेशा है,
ऐसे ही कथा कहती अपने उर की।

सदा छटपटा कर रोती है,
आँसुओं से आँचल धोती है।
सुख की नींद वह कहाँ होती है,
विकल उद्विग्न वह होती है।

दु:ख-दर्द संकट है,
रंज है आँखों में आकर ठहरा है।
हर इक श्वांसों पर मातम है,
क्षोभ अगाध का गहरा है।

दिवा-रात्रि मचलती रहती है,
करवंट वह बदलती रहती है।
रह-रहकर संभलती रहती है,
न जाने किस अग्नि में जलती है।

विश्व ने इसे क्या समझा है,
बस चंद लोगों का खेल समझा है।
जो समझा है अच्छा समझा है,
इस संस्कृति को कचरा समझा है।

जग जलेगा जब आहों में,
बदला लेगी उन नमकहरामों से।
गुजरेगी जब बर्बादी के राहों से,
कर लेना तब ताजपोशी गुनाहों से।

विश्व को हिला देगी उठकर,
विश्व को दिखा देगी जमकर।
विश्व को जता देगी,
विश्व को बता देगी।

बस इक सहारा हम ही हैं,
समस्त सृष्टि की सनातन हम ही हैं।
सनातन का डंका बजेगा,
सुर-धुन पर ही चलेगा।

हम वो पुरातन है समझायेगी,
कण-कण में सनातन बसायेगी।
जग और जग वालों के होंठों पर,
बस इक नाम ये ही आयेगी।

संस्कृति और संस्कारों की भूमि है,
पावन जिसका हर कण-कण है।
हृदय अंत: में इसको बस जाने दो,
हम भी इसके अंश पुराने हैं।

वक्त बावक्त हम कहां गिरे,
अब लौट चलें अपने साये में।
पहचान हमारी भारत भूमि है,
बसे जिसमें राम – कृष्ण है।

देवी दुर्गा के प्रचंडों में,
पूजी जाती जहाँ अबला नारी।
जह सर्वस्त्र के हम भटके पाही हैं,
कंठ-कंठ में बसी वेद वाणी है।

चलो रज चूम ले उस थाती का,
अंग गात मचल रहा।
उसकी छत्रछाया में जाने को,
भूमंडल का बस इक वही सहारा।

भारत भूमि ही है हमको प्यारा,
चलो समा जायें उस पावन में।
पवित्र कर लें अपने जीवन को,
पुण्य जहां बसता है।
पाप त्याग हमें वहीं जाना है,
सनातन ही पुरातन है।

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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