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KMSRAJ51-Always Positive Thinker

“तू ना हो निराश कभी मन से” – (KMSRAJ51, KMSRAJ, KMS)

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Sukhmangal Singh

पं. महामना मदन मोहन मालवीय जी एक युगपुरुष।

Kmsraj51 की कलम से…..

Pt. Mahamana Madan Mohan Malviya Ji a Man of the Era | पं. महामना मदन मोहन मालवीय जी एक युगपुरुष।

Madan Mohan Malaviya was an Indian scholar, educational reformer and politician notable for his role in the Indian independence movement. He was president of the Indian National Congress four times and the founder of Akhil Bharat Hindu Mahasabha.भारत विचारवान महापुरूषों की जन्म भूमि है। यहां समय-समय पर महापुरूषों की भूमिका निभाने वालों का जन्म धरती माँ की गोंद में होता रहा हैं जिससे धरती धन्य होती रही है। उन्हीं महापुरूषों में मदन मोहन मालवीय जी का नाम भी प्रमुख रूप में लिया जाता हैं उन्होंने हिन्दू संगठनों का शक्तिशाली आन्दोलन चलाया जबकि इसके लिए उन्हें सहधर्मियों की उलाहना सहन करना पड़ा उलाहना का परवाह किए बिना कलकत्ता, काशी, प्रयाग नासिक आदि प्रमुख जगहों पर उन्होंने भंगियों को उपदेश दिया और मन्त्र दीक्षा भी दिया।

मालवीय जी व्यायाम और त्याग में अद्वितीय पुरूष थे। उन दिनों जब वाइस चांसलर का० हिं० विश्वविद्यालय के थे, तो भी वे सबेरे नियमित रूप से शरीर की मालिश कराया करते थे। वह सत्य ब्रह्मचर्य और देश भक्त उत्तम गुणों वाले महा मानव थें उनके कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं होता था। जो वे कहते उनको जीवन में पालन भी करते थे।

वह मृदृ भाषा पुरूष थे उनमें रोष तो मानों लेशमास भी छू न सका था। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक पं0 मदन मोहन मालवीय जी की शताब्दी के अवसर पर दिसम्बर 25, सन 1961 को पन्दह पैसे का डाक टिकट जारी हुआ। वहीं आयरिश महिला एनीवेसेंट जो भारतीय सवतंत्रता आन्दोलन की समर्थक, सेनानी सामाजिक कार्यकर्ता शिक्षाविद् कोल रूल लीग की संस्थापक सन् 1917 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष के ऊपर अक्टूबर 01, सन् 1963 को डाक विभाग 15 पैसे का टिकट जारी किया। मालवीय जी की 150 वीं जयन्ती पर 05 रू0 का डाक टिकट दिसम्बर 27 सन् 2011 में जारी हुआ।

का० हि० वि० विद्यालय के प्रथम वाइस चांसलर पं० मालवीय जी

का० हि०वि० विद्यालय के प्रथम वाइस चांसलर पं० मालवीय जी बनाए गये। उन्होंने वि० विo के लिए शिक्षाभियान चलाया। जिसमें पं० जी सफल रहे। धर्म संस्कृति की उन्होंने रक्षा की, संस्कृति को संजोया। वह सादा जीवन उच्च विचारवान महामानव पुरूष थे। का० हि०वि० विद्यालय में मिलने देश-विदेश के लोग और मेहमान भी आते रहते थे। मेहमान नवाजी में विद्यालय पीछे नहीं हटता था।

कहा जाता है कि मालवीय जी का आदेश था कि “विश्वविद्यालय के धन का उनके (स्वयं) ऊपर एक पैसा भी व्यय न किया जायं” उनकी यात्रा आदि का खर्च कुछ धनी मित्र अपनी स्वेच्छा से श्रद्धा से करते थे। माना जाता है कि संस्कृत-संस्कृति के संवाहक मालवीय जी पुत्री के रूप में विद्यालय को माना होगा कारण पुत्री का धन खाना हिंदू धर्म शास्त्र में महा पातक कर्म माना गया है। वहीं उन दिनों वि0 वि0 के पास मोटर वाहन नहीं था जबकि रेलवे स्टेशन, बस अड्डा 8–9 किमी0 लगभग पर था। मालवीय जी प्रायः ‘इक्के’ से आते-जाते रहते थे।

एक बार लम्बी यात्रा के बाद …

एक बार लम्बी यात्रा के बाद इक्के की सवारी से आते लत-पथ हालत में देखकर कुंअर सुरेश सिंह एवं सुदरम् जो कि विद्यालय के ही छात्र थे ने वयोबृद्ध तपस्वी वाइसचांसलर की सेवा और वि० विद्यालय के लिए उनके समर्पण भाव को देखकर ‘व्यूक’ गाड़ी भेंट करने की जिज्ञासा संजोकर संकल्प कर होस्टलों में जाकर विद्यार्थियों से चंदा मांगा। मध्यम एवं निम्न मध्यम वर्गी छात्रों द्वारा चंदा सायं काल तक मात्र दो हजार रूपया ही मिल सका।

दोनों संकल्पित छात्र भूखे प्यासे हताशा की हालत में अंत में दानबीर बाबू शिव प्रसाद गुप्त जी के शरण में पहुंचे। उन्होंने इस सर्त पर किसी से मेरे रूपये देने की बात नहीं कहोगे! और वे शेष गाड़ी ‘व्यूक’ खरीदने के लिए पाँच हजार का चेक काट कर दे दिया। उन दिनों व्यूक सात हजार में मिलती थी। दोनों छात्र खुशी – ख़ुशी छात्रावास चले गये। उधर मालवीय जी दोनों विद्यार्थियों को पास आने का बुलावा छात्रावास भेजते रहे, उधर छात्र चंदा इकट्ठा करने में लगे रहे। उन तक सूचना नहीं पहुच सकी।

सायंकाल छात्र सुन्दरम् हास्टल पहुचा तो वह मालवीय जी से जा मिला। जो बातें हुई मोबाइल उन दिनों न होने से कु० सुरेश सिंह से नहीं बता सका। उधर कु० सुरेश सिंह सुबह वाइसचांसलर जी से मिलने पहुँचे। मालवीय जी नित्य की तरह नितकर्मानुसार मालिस करवा रहे थें कुवर सुरेश सिंह को देख कर मालवीय जी बोल- ‘कल-तुम दिन भर मेरे लिए एक मोटर खरीदने को चंदा इकट्ठा करते रहे । विश्वविद्यालय में सारे देश से गरीब लोगों के लड़के पढ़ने आते हैं । वे जब लौट कर अपने-अपने गाँव में जायेंगे और कहेंगे कि वहां तो मेरे सुख सुविधा के लिए उन गरीब विद्यार्थियों से पैसा वसूल किया जाता है। तब देशवासी मेरे बारे में क्या सोचेंगे?

कलंक नहीं लगा रहे …

और आगे सुरेश सिंह से कहा- “तुम तो ताल्लुकेदार के लड़के हो! ताल्लुके दारों को जब मोटर खरीदनी होती है तो वे अपनी रैयत से मोहरवारन वसूल करते हैं। प्रजा इससे कितनी त्रस्त होती होगी। और देश में इस प्रथा से उनकी कितनी भर्त्सना होती है? क्या तुम मेरे लिए भी ‘मोहरवारन’ की प्रथा यहाँ चलाकर मेरे नाम पर भी कलंक नहीं लगा रहे मेरे लिए अपयश से बढ़कर कौन सा दण्ड है? तुमने यह सब क्यों किया?”

हिंदी – अंग्रेजी दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ का सम्पादन

मालवीय जी ने हिंदी अंग्रेजी दैनिक’ हिन्दुस्तान’ का सम्पादन सन् 1887 में शुरू किया, उन्होंने देश भक्त राजा रामपाल सिंह जी के अनुरोध को आत्मसात कर लगभग तीस माह तक जनता को हिन्दुस्तान के माध्यम से जगाया। महामोपाध्याय पं० आदित्य राम भट्टाचार्य के साथ जो म्यामार कालेज (वर्तमान इलाहाबाद वि०वि०) के मनस्वी गुरू थे, के द्वारा 1880 ई0 में स्थापित ‘हिंदू समाज’ में मालवीय जी भाग ले रहे थे। मदन जी पं० अयाध्यानाथ जो कि कांग्रेस नेता थे उनके भी इंडियन ओपीनियन के सम्पादन में भी कार्य किया। और उन्होंने दैनिक लीडर को निकाल कर महान कार्य किया। वह लीडर सरकार समर्थक ‘पायोनियर’ के समकक्ष का था। जो सन् 1909 ई0 में सम्पादित हो रहा था। हिन्दुस्तान टाइम्स को सन् 1924 ई0 में सुव्यवस्थित किया और लाहौर से ‘विश्वबंध’ काशी से ‘सनातन धर्म’ के प्रचारार्थ प्रकाशित कराया। मालवीय जी खुद एक अच्छे सम्पादक थे।

मैं अन्न-जल न ग्रहण करूंगा

उधर वि० विद्यालय के छात्र सुरेश सिंह मालवीय जी के चंदे को लेकर हुई बात सुनकर हतप्रध हो बोले- “महाराज, लम्बी यात्रा से थके थकाये इक्के पर स्टेशन से आपको इस वृद्धावस्था में आते देख हमें दुःख हुआ। हमने सोचा वि०वि० के वाइस चांसलर के पास भी गाड़ी होनी चाहिए।” सो हमने ऐसा निर्णय किया। सादगी पूर्ण जीवन यापन करने वाले महात्मा जी ने यह सुनकर कहा- “कल तुमने चंदा पूरा होने तक उपवास रखा था अब तुम जाकर जिस-जिस से जितना पैसा लाये हो उसे लौटा दो और जब तक तुम आकर मुझे सूचित नहीं करते हो मैं अन्न-जल न ग्रहण करूंगा।

“यह सुनकर गुरू आज्ञा को शिरोधार्य कर दोनों विद्यालय के छात्र लोगों का पैसा लौटाने में लग गये। और जब पैसा लौटा कर दोनों छात्र मालवीय जी से फिर मिले तो कुंअर सुरेश सिंह व सुन्दरम् को वाइसचांसलर जी ने शाबाशी दी तथा अपना किया गया व्रत तोड़ा। लोगों द्वारा प्रायः नरमदल का कार्य कांग्रेस में छोड़ते रहने के वावजूद म० मो० मालवीय जी उसमे डटकर कार्य करते रहे। अतएव कांग्रेस ने उन्हें चार बार सभापति निर्वाचित किया। क्रम से सन् 1909 में लाहौर सन् 1918, 1931 ई0 में दिल्ली एवं सन् 1933 में कलकत्ता में उन्हें सम्मान मिला। दो बार वे सत्याग्रह के कारण गिरफ्तार भी हुए। मालवीय जी आज हमारे बीच न रह कर भी हमेशा-हमेशा अमर रहेंगे उनकी बीरगाथा, देश प्रेम, साहस, शौर्य, धर्मप्रचार एवं बलिदान का संदेश देश को नई ऊर्जा प्रदान करने में सहायक सिद्ध होगी।

♦ सुख मंगल सिंह जी – अवध निवासी ♦

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— Conclusion —

  • “सुख मंगल सिंह जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस लेख में समझाने की कोशिश की है — मदन मोहन मालवीय शिक्षा को मानव मात्र का अधिकार मानते थे तथा इसका समुचित प्रबन्ध करना राज्य का कर्त्तव्य मानते थे। वे शिक्षा की एक ऐसी राष्ट्रीय प्रणाली विकसित होते देखना चाहते थे जिसमें प्रारम्भिक और माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षा निःशुल्क हो। अध्यापकों एवं छात्रों के कर्तव्य, व्यायाम करके शरीर को बलशाली बनायें। पहले स्वास्थ्य सुधारें फिर विद्या पढ़ें। शाम को खेलें, मैदान में विचरें। पंडित मदन मोहन मालवीय ने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेकर 35 साल तक कांग्रेस की सेवा की। उन्हें सन्‌ 1909, 1918, 1930 और 1932 में कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। मालवीयजी एक प्रख्यात वकील भी थे। एक वकील के रूप में उनकी सबसे बड़ी सफलता चौरीचौरा कांड के अभियुक्तों को फांसी से बचा लेने की थी। मदन मोहन मालवीय एक भारतीय विद्वान, शिक्षा सुधारक और राजनीतिज्ञ थे जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी भूमिका के लिए उल्लेखनीय थे। वह चार बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष और अखिल भारत हिंदू महासभा के संस्थापक थे।

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यह लेख (पं. महामना मदन मोहन मालवीय जी एक युगपुरुष।) “सुख मंगल सिंह जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें, व्यंग्य / लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी कविताओं और लेख से आने वाली पीढ़ी के दिलो दिमाग में हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम बना रहेगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे, बाबा विश्वनाथ की कृपा से।

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जैसे शरीर के लिए भोजन जरूरी है वैसे ही मस्तिष्क के लिए भी सकारात्मक ज्ञान और ध्यान रुपी भोजन जरूरी हैं।-KMSRAj51

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“सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

“अगर अपने कार्य से आप स्वयं संतुष्ट हैं, ताे फिर अन्य लोग क्या कहते हैं उसकी परवाह ना करें।”~KMSRAj51

 

 

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Filed Under: 2023-KMSRAJ51 की कलम से, हिन्दी साहित्य Tagged With: essay on madan mohan malviya in hindi, Sukhmangal Singh, sukhmangal singh articles, पंडित मदन मोहन मालवीय के महान योगदान, पंडित मदन मोहन मालवीय के शैक्षिक विचार, मदन मोहन मालवीय पर निबंध, सुखमंगल सिंह, सुखमंगल सिंह जी की रचनाएँ

विपदा।

Kmsraj51 की कलम से…..

Vipada | विपदा।

Do every task in life in a balanced manner, and save money for sudden bad times, otherwise you will get anxious.

रही पति की अच्छी पगार,
थी होटल में खाती।
व्यंजन कैसे खाने में,
आसपास बताती थी।

कह देता यदि कोई भी
पास कुछ रखा करो!
लेती सिकोड़ मुंह अपना,
भौहें तन जाती जी।

मंगल बने दीवार बच्चे,
वरना होटल में ठहरती।
बिताती रात भर वहीं,
सुबह – सुबह घर आती।

शौहर जब भी बोलता,
उसके सर चढ़ जाती।
दिये दहेज पापा की,
बार बार वह चिल्लाती।

विधान विधाता का क्या,
जानता कौन भला है।
विपत्ति विक्रमादित्य पर,
भूनी मछली जल में पड़ी।

है रोटी कपड़ा और मकान,
सीना तान बैठा सब कोई।
मैं विष्णु का आहार जो,
शास्त्रीय ही बतलाता है।

फिर भी घमंड में मानव,
अपना अपना सुनाता है।
दुनिया से कैसा एम प्रेम,
सोर हर ओर रहा कैसा?
झगड़े झंझट से मुक्ति ले,
दुपट्टे में छुप जाती थी।

जलना जीवन का ध्येय है,
जलना बना ली है सीमा।
कूंजती कोयल काली,
डोलती मद मतवाली।

शौहर पगार पतली पड़ी,
बजा हृदय में विकल राग।
घिर गयी घटा सी उलझन,
दाने दाने को तरस रही।

दशा देख नभ हुआ अधीर,
झर झर नयनों बह रहे नीर।
कोलाहल पथ चल के आयी,
अंतस में नव हर्ष – विषाद।

कास संभल के जीवन जीती,
लहरों का नहीं होता उन्माद।
संस्कृति – सभ्यता में चलती,
जो जीवन का रहस्य खास।

♦ सुख मंगल सिंह जी – अवध निवासी ♦

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— Conclusion —

  • “सुख मंगल सिंह जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस कविता में समझाने की कोशिश की है — कविता में एक पत्नी की कहानी है, जो अपने पति की जब ज्यादा पगार होती है तब खूब होटल में ही खाना खाती है और जब पति कुछ बोलता तो उसे कैसे खाना खाने का तरीका सिखाती है। वह अपने पति से कहती है कि वह कभी भी अपने पास कुछ न रखें, लेकिन जब पति कुछ बोलता तो उसे पापा के द्वारा दिए दहेज का जिक्र कर जाती हैं, और वह चिल्लाती है। समय एक जैसा नहीं रहता हैं, मानव अपने घमंड में क्यों सबकुछ भूल कर अपना ही अहित करता जाता है, जैसे इस पत्नी ने किया अपने पति की बात ना मानकर अपने पुरे परिवार को आर्थिक संकट में डाल दिया। अब तो बजा हृदय में विकल राग, घिर गयी घटा सी उलझन, दाने दाने को तरस रही। इसलिए जीवन में हर कार्य एक संतुलन में रहकर करें, और अचानक से आने वाले ख़राब समय(बुरा समय) के लिए बैकअप योजना (पैसा बचाकर रखे) नहीं तो फिर बहुत ज्यादा परेशान हो जायेंगे।

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यह कविता (विपदा।) “सुख मंगल सिंह जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें, व्यंग्य / लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी कविताओं और लेख से आने वाली पीढ़ी के दिलो दिमाग में हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम बना रहेगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे, बाबा विश्वनाथ की कृपा से।

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Filed Under: 2023-KMSRAJ51 की कलम से, हिंदी कविता, हिन्दी-कविता Tagged With: Hindi Poems, Sukhmangal Singh, विपदा, विपदा - सुखमंगल सिंह, विपदा हिंदी कविता, सुखमंगल सिंह, सुखमंगल सिंह की कविताएं, हिंदी कविता, हिंदी कविता : विपदा

वाराणसी से चंडीगढ़ की साहित्यिक यात्रा अगस्त – 2023

Kmsraj51 की कलम से…..

Literary trip from Varanasi to Chandigarh August – 2023 | वाराणसी से चंडीगढ़ की साहित्यिक यात्रा अगस्त – 2023

यात्रा वृत्तांत के क्रम में अनेक साहित्यकारों ने समय-समय पर यात्रा की। यात्रा होती है। दो भौगोलिक स्थान के रह रहे लोग आपस में एक दूसरे की बोली- भाषा, संस्कृति- सभ्यता का आदान – प्रदान किया करते हैं। यात्रा विविध वाहन से की जाती है। जैसे – विमान, बस, नाव, जलयान, और पैदल भी यात्रा होती है।

अनहद कृति से बुलावा आया – अनहद कृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका की साहित्य आश्रय स्ट्रीट 2023, हेतु बुलावा 2 जुलाई 2023 को मेरे मेल पर आया मैं किताब की बात, पुस्तक प्रदर्शनी, “परिवार के सदस्यों के लिए हिंदी शब्द यज्ञ का अनूठा अवसर साहित्य शेयर, एक बार पुनः दस्तक दे रहा है लिखा।”

अनहद कृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के इस कार्यक्रम को ढाई दिन के लिए विविध सांस्कृतिक साहित्यिक गतिविधियों और आगे बढ़कर मिलन बर्तन आपस में होगा। दो दिन का पुस्तक प्रदर्शनी में, आप कर पाएंगे अपनी किताब की बात। इस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए साहित्य आश्रय 2023 में पंजीकरण कर के अपने बारे में जानकारी देनी थी।

अपनी प्रतिक्रिया एवं प्रश्न काम के जीमेल पर भेजने को आदेशित हुआ था। अनहद कृति अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक ई. पत्रिका का दिनांक 2 जुलाई 2023 का मेल आया। जिसमें हमने पंजीकरण कर लिया था। मन मस्तिष्क पर उसके बारे में चिंतन भी चल रहा था। मन में आया कि भारत शांति का संदेश देने वाला देश है तो एक चार लाइन की रचना प्रस्तुत करते हैं –

शांति का संदेश लेकर चल दिया,
सद्भाव और प्रेम परोसते चल दिया।
संस्कृति संस्कारों में पला यह देश,
बंधुत्व की कामना लिए चल दिया।
ॐ शांति: शांति:

सरयू का पावन किनारा, सरयू में गोता लगाने की ललक, धर्मशास्त्र के अनुसार ‘सरयू में स्नान करने से जन्म-जन्मांतर के पाप नष्ट हो जाते हैं, साथ ही मनुष्य को मुक्ति भी मिलती है।’ सरजू तट से तीन किलोमीटर पहले स्थित मेरा आदर्श गांव, ग्राम महिरौली रानी मऊ, जनपद अम्बेडकर नगर मुझे जाना था। गांव में कुछ मकान का कार्य करना था तीन कमरों की दीवार प्लास्टर होनी बाकी थी। स पत्नी उर्मिला सिंह के साथ मैं गांव पर पहुंच गया आवश्यकता है कारीगर, मजदूर की। पड़ोसी प्रताप सिंह की मदद से मजदूर और मिस्त्री भी मिल गये। काम शुरू हो गया। प्लास्टर का काम पूरा हो गया होता सीमेंट कम थी पैसे भी चूक गये। काम बंद करना है। उसके बाद हमने अपने मित्र जो बालीपुर में रहते हैं उनका कुछ सामान जिसे लाया था, जैसे- बेलचा, रसियां, लोहे की कढ़ाई, लोहे का सब्बल आदि को लेकर अपनी अल्टो गाड़ी से पहुंचने गया था। समान पहुंचा कर जब वापस आ रहा था कि तभी ग्राम अहिरौली रानी मऊ जनपद अंबेडकर नगर के दक्षिणी छोर पर हरिजन बस्ती के पास अपनी गाड़ी को रोकना पड़ा, और बात होने लगी, विभा चसवाल जी से, आपने बताया कि- 4,5,6 अगस्त को अनहद कृति का साहित्याश्रय रिट्रीट 2023 होगा, में आपको बुलावा है। हम दोनों में लगभग आधा घंटा की बात चलीं, विभा जी ने दो रचनाएं और भेजने के लिए मुझे कहा। दूसरे दिन हमें बनारस जाना था इसलिए मैंने कहा ठीक है कल रचना भेज दी जाएगी। रात्रि से ही दूसरे दिन भोर से तैयारियां जोर- शोर से होने लगी।

यात्राएं क्यों आवश्यक है —

यात्रा की महत्व बताती हुई नोबेल पुरस्कार प्राप्त ब्राजील की कवियित्री मार्था मेरिडोस की एक रचना प्रस्तुत कर रहा हूं —

रचना का शीर्षक रचना पढ़ने से लगा, यात्रा क्यों आवश्यक है? —

आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, अगर आप:
करते नहीं कोई यात्रा।
पढ़ते नहीं कोई किताब,
सुनते नहीं जीवन की दुनियां,
करते नहीं किसी की तारीफ।

आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, जब आप:
मार डालते हैं अपना स्वाभिमान।
नहीं करने देते मदद अपनी और,
ना ही करते हैं दूसरों की।
आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, और अगर आप:
बन जाते हैं गुलाम अपनी आदतों के।

चलते हैं रोज उन्हीं रोज वाले रास्तों पे,
नहीं बदलते हैं अपना दैनिक नियम व्यवहार।
नहीं पहनते हैं अलग-अलग रंग या,
आप नहीं बात करते उनसे जो हैं अजनबी अनजान।
आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं अगर आप:,
नहीं बदल सकते हो अपनी जिंदगी को जब,
हों, आप असंतुष्ट अपने काम और परिणाम से।

अगर आप अ निश्चित के लिए नहीं छोड़ सकते हो निश्चित को,
अगर आप नहीं करते हो पीछा किसी स्वप्न का।
अगर आप नहीं देते हों इजाजत खुद को,
अपने जीवन में कम से कम एक बार किसी,
समझदार सलाह से दूर भाग जाने की,
तब आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं।

(इसी रचना पर नोबेल पुरस्कार मिला)

सनातन धर्म मंदिर जो इंदिरा गांधी हालीडे होम के पास ही था दर्शन पूजन करने के उपरांत कैंटीन में आकर चाय – पानी करके अपने रूम में चला गया जो हालीडे होम में मिला था कि आकर आराम कर रहा था तभी हाल के सामने समोसा जलेबी और काफी का काउंटर लग चुका था। बावरा जी से मैं बोला कि चलिए सभा स्थल! वहां पहुंचा तो देखा कि हालीडे होम सेक्टर 24 का सजा हुआ था। नजारा देखने में बहुत बढ़िया सजावट। दोनों लोग साथ में हाल के पास पहुंचे थे। हाल के गेट पर काउंटर लगे थे पर ताजी सजी हुई जलेबी, समोसा, चाय, चाय की चाह, पीने की इच्छा अंदर से जाहिर हुई। समय भी दिन में 12:00 बज चुके थे। समोसा को जैसे ही तोड़ा उसमें हरी मटर भिगोकर डाली गई थी बहुत आनंद आया खाने के बाद वह बहुत ही लाजवाब लगा। पहले जलेबी खाई फिर समोसे और अंत में कॉफी पी।

हाल में सभा स्थल पर लोग बैठना शुरू हो चुके थे हम दोनों लोग भी वहां जाकर उपस्थित हुए साहित्यकारों का परिचय होने लगा जगह-जगह से आए हुए थे साहित्यकार अपना – 2 नाम पता संपूर्ण विवरण के साथ बता रहे थे। एक दूसरे के विचारों का आदान-प्रदान हो रहा था। जब साहित्यकारों के परिचय का कार्यक्रम समाप्त हुआ उसके बगल में ही भोजन का काउंटर लगा हुआ था जब वहां पहुंचा, पहुंचने पर देखा की विविध तरह के व्यंजन काउंटर पर लगाए गए हैं उसमें पापड़, छोले, पुरी, बेसन और मैदे की रोटी, चावल ,दाल, सलाद, रायता, मीठा और काफी का स्टाल लगा था। साहित्याश्रय रिट्रीट का यह कार्यक्रम ढाई दिनों तक चला जिसमें अलग-अलग समय में अलग-अलग तरह का भोजन परोसा जाता था। कभी-कभी फल का भी काउंटर लगा हुआ मिला। मनभावन व्यंजनों को देखकर ऐसा लगता था कि मानों शादी का कोई बड़ा फंक्शन हो।

लोग छक कर भोजन खाते,
कार्यक्रम में खो जाते।
ऐसा कार्यक्रम फिर हो,
सब लोग मानते रहते।
चंडीगढ़ की पावन धरा पे,
चंडी का गुणगान सुनाते।
अनहद कृति की शुभ बेला,
यादों को अपने घर ले जाते।

भोजन करने के उपरांत दूसरी मीटिंग में शामिल रचनाकारों की रचनाएं सुनीं गयी जिसको रचनाकार स्वयं अपनी भागीदारी सुनिश्चित किया करते थे। अपनी-2 रचना वाईफाई लगे हुए अनहद कृति के पोर्टल पर लोग पढ़ते थे। अच्छी रचनाओं पर तालियों की गड़गड़ाहट से सभा स्थल गूंज उठा करता था सभा में शामिल लोग आनंदित हो जाते थे।

सुबह सवेरा होता, लोग नृत्य क्रिया से निवृत होकर एक-एक करके बाहर निकलते कि इस समय विभा चसवाल जी बाहर निकलीं और मैं भी बाहर निकल आया, बात चली चौपाल की, कुर्सियां लान में लगाया जाय, कुर्सियां हम लोग रखने लगे लान में लाइन में। एक कमरे के सामने चाय बिस्कुट रखा हुआ था। लोग बारी-बारी से बिस्कुट खाते चाय पीते। तभी वहां पर राजेंद्र प्रसाद गुप्त बावरा जो चंदौली जनपद से थे डेड पैकेट नमकीन लाकर रख वहां रख दिया उसे भी लोग चखे, नमकीन बड़ा चटपटा था। लोगों को बहुत अच्छा लगा।

रचनाओं का दौरा चला उपस्थित रचनाकारों की अध्यक्षता संपादक द्वय आदरणीय पुष्पराज चसवाल, डॉ प्रेमलता चसवाल ‘पुष्प’ ने की। संचालन का काम अमेरिका से पधारी प्रवासी भारतीय मूल की डॉक्टर विभा चसवाल ने किया। इस कार्यक्रम में रिकॉर्डिंग भी की गई साथ ही साथ यू एस ए से भारतीय मूल की ललिता बत्रा ने ड्रोन से भी फोटोग्राफी की।

दिन में सभा स्थल पर कार्यक्रम चलाया गया चलता रहा यहां संगीत भी प्रस्तुत हुई सरस्वती पूजा अर्चना, पुष्प अर्पित किए सरस्वती जी को। शाम 5:00 बजे टूर पर जाने का कार्यक्रम था लोग बस में सवार हुए और पहुंच गए सुखना झील पर। झील का सैर बहुत अच्छा था।

यात्रा के दौरान आवश्यकता —

काम हो जाने पर लौट आने की नियत। तीन जोड़ी कपड़े। मंजन, तौलिया, साबुन, चंदन, पूजा की सामग्री। जाने और घर आने की तारीख। जिसके पास जाना है उसका नाम पूरा पता शहर का नाम मोबाइल नंबर शहर का पिन कोड आदि। थोड़ा पैसा, आधार कार्ड, पैन कार्ड व डेबिट कार्ड। जहां जाना है उस जगह की जानकारी शहर के किस हिस्से में है, जाना पहचाना लैंड मार्क, व्हाट्सएप पर लोकेशन व्यस्त है, यात्रा की अनुमति पत्र (टिकट), कागज पर छपा हुआ, अथवा यस एम यस प्रारूप में।

यात्रा में क्या न ले जाएं —

  • अरे हो जाएगा वाली आस।
  • उसने बुलाया है तो जा रे वाली सोच।
  • देख लेंगे वाला दृष्टिकोण!
  • अकड़।

पुस्तक को भेंट स्वरुप एक दूसरे रचनाकार को दे दी —

साहित्यकारों में अलग-अलग तरह से, शहरों से जुड़े हुए लोगों में, आदान-प्रदान करना शुरु कर दिया। अनेक साहित्यकारों ने अपनी पुस्तक को भेंट स्वरुप एक दूसरे रचनाकार को दे दी।

प्रभात शर्मा, हिमाचल प्रदेश सेवानिवृत्त सचिव हिमाचल प्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड धर्मशाला जनपद कांगणा, की अपनी पुस्तक ‘शीशम का पेड़’ मुझे दिये। पुस्तक में सद् भाव, संस्कृति, संस्कार, आदर सत्कार, वृद्धों के संग व्यवहार, पारिवारिक एकाकीपन जीवन जीना, सुदूर नौकरी करने से लाभ-हानि, जमीन-जायदाद के झगड़े का निपटारा करने का सुझाव, शर्मा जी ने सादो उर्फ शुभ राम शरण भारद्वाज को केंद्र में रखकर पुस्तक ‘शीशम का पेड़’ प्रकाशित किया, जो पढ़ने योग्य है और ज्ञान बढाने वाली है।

भारतीय कवियों को प्रकृति की गोंद में क्रीड़ा करने का सौभाग्य प्राप्त है। यह हरे-भरे उपवनों में, सुन्दर जलाशय के तट पर, नदियों के किनारे, पहाड़ों की वादियों में, विचरण करते और प्रकृति के नाना प्रकार के मनोंहारी रुपों से परिचित होकर सजीव चित्रण करने में सफलता हासिल करते हैं। भारतीय कवियों का प्रकृति वर्णन सौंदर्य ज्ञान उच्च कोटि का होता है। कवि बुद्धि बाद के चक्कर में पड़ कर व्यक्त प्रकृति के नाना रूपों में एक अव्यक्ति किंतु सजीव सत्ता का साक्षात्कार करता है। उन छवियों से भावमग्न होते हैं।

सामूहिक पुस्तक विमोचन —

अनहद कृत के सामूहिक पुस्तक विमोचन में जो 6 अगस्त को सभागार में आयोजित कार्यक्रम चंडीगढ़ में संपन्न हुआ था। इस कार्यक्रम में स्नेही चौबे कवियित्री व सीनियर साफ्टवेयर इंजीनियर, बंगलोर कर्नाटका की, मेरी अविरल अभिव्यक्ति जिसका आमुख-अविरल अभिव्यक्ति के विविध आयामों में डॉ प्रेमलता चसवाल ‘पुष्प’ ने किया है। आप अनहद कृत ई. पत्रिका की संपादक हैं। फिर मेरे जैसी अदना रचनाकार को क्या लिखना शेष है। राजेंद्र प्रसाद गुप्ता बावरा की पुस्तक ‘चित्र-रेखा’ आप उत्तर प्रदेश के चंदौली जनपद से सोगाई गांव से हैं जहां कर्म नासा नदी की धार कल-कल करती अविरल बहती है।

यह पुस्तक पौराणिक कथा पर आधारित है खंड काव्य इसे कहा जा सकता है। इस पुस्तक की एक रचना प्रस्तुत है—

प्रज्ज्वलित ज्योति भू पर अगर,
प्रसरित है कण-कण धवल धार।
ऊषा ले आई रश्मि-हार,
त्रृण – त्रृण पर छाई मुक्तावलि,
उस छवि – धर का नतमस्तक वंदन।

—♦—

वसा कर बस्ती एक विचित्र,
चित्रपट पर अंकित कर रूप।
जला देना न स्वर्ग – संसार,
कि, हो मर्माहत मेरा रूप।

चित्र – रेखा गूढ़ रहस्यों से भरी शोणित पुर नरेश वाणासुर की पुत्री, वाणासुर का मंत्री, कुम्भाट की पुत्री, द्वारिका पुर नरेश, श्री कृष्ण के पुत्र, प्रदुम्न के पुत्र, देवाधिदेव की अर्धांगिनी, ऊषा की शिक्षिका को आधार मानकर अपनी रचनाओं को स्वरूप प्रदान किया।

दो संस्कृति का मिलन के अंतिम बंद प्रस्तुत में —

कैसी सुंदर घटा छटा का,
ऊंच अटा पर छायी।
मानो उभय बिंदु पर रजनई,
ऊंचा ली अंग ड़ायी।

उक्त रचना से इस चित्रलेखा का राजेंद्र प्रसाद गुप्त बावरा ने समापन किया।

रमेश चंद्र ‘मस्ताना’ की पुस्तक कागज के फूलों में…’

मस्ताना जी के ऊपर सरस्वती की अनुपम कृपा झलकती है आपने इस पुस्तक में लोक संस्कृति, संस्कार आदि पर आधारित छप्पन रचनाओं को संकलित करने का उत्तम प्रयास किया है।

मस्ताना जी की रचना –
भोर की पहली किरण
दूर पहाड़ों की ओट से
स्वर्ण मुकुट पहन
धरती की ओर सरकती
पूछती है मेरी घर आंगन तक!

—♦—

मेरे हिस्से की धूप
मुझे हर पल नई ताजगी
नई उमंग,
नया जोश दे जाती है- २

और नारी संसार नामक शीर्षक से नारी जगत की विशेषताओं को अपनी रचना मेरा है। जो एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य कहा जा सकता है।

यात्रा प्रायः विविध चरण में होती है। यात्रा में जगह-जगह ठहराव होता है। कुछ यात्रा एक दिशा में होती है। एक दिशा में होने वाली यात्रा की मूल एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंच जाना और वहां सम्पन्न होने वाले कार्यक्रम में भाग लेना होता है इसके बाद यात्रा जिस जगह से शुरू होती है वहीं आकर यात्रा स्थगित हो जाती है। यात्रा में अनुसंधान, मनोविनोद, तीर्थ दर्शन व विचारों का आदान-प्रदान होता है।

किसी बड़ी संस्था में प्रकाशित रचना को फेसबुक ट्विटर व्हाट्सएप इंस्टाग्राम ब्लॉग पर पोस्ट कर देते हैं हम तो उन रचनाओं को कॉपी करके अखिल भारतीय सद्भावना संगठन, आलो पोयट्री, अभी पोस्ट कर देते हैं। साहित्य काव्य संकलन पर मेरी 145 रचनाएं प्रकाशित है। शब्द इन, वेबली काम, हिंदी साहित्य शिल्पी आदि।

चंडीगढ़ की यात्रा करने के लिए उसे मेल में हमें यह रचना लिखने को मजबूर किया—

आपने पुकार दिया,
मेरे विचार को,
आपका आशीर्वाद हो,
मेरी मनोबल को
शुभ आशीर्वाद देकर
चिंतन को
निखार दिया।

मौका दिया मौका,
लेकर विचार किया।
सर्जन के सुख को
मोतियों में ढाल लिया।

ट्राई के फैसले से फेसबुक के सीईओ “मार्क जुकरबर्ग जी” को जब निराशा हुई तो हमने वेब दुनिया पर लिखा की “जुकरबर्ग जी को अपने उद्देश्यों पर कायम रहकर कार्य रूप देने में धीरज पूर्वक कार्य करने होंगे।” धन्यवाद!

तेरे दामन में जितने सितारे हैं,
होंगे ए फलक।
मुझको अपनी मां की,
मैली ओढ़नी अच्छी लगी।

साहित्य आश्रम रिट्रीट समारोह का समापन 6 अगस्त 2023 को दोपहर में हो गया। सभा स्थल से राजेंद्र प्रसाद गुप्त बावरा और मैं अपना – अपना बैग आदि लेकर सनातन धर्म मंदिर चंडीगढ़ आ कर टेंपो का इंतजार कर रहे थे, परंतु कोई ना मिलने से थोड़ा आगे बढ़े वहां से बीस-बीस रुपए में चंडीगढ़ बस स्टेशन पहुंचे। पहुंचे ही एयर कंडीशन बस मिल गई। ₹440 / प्रति, व्यक्ति चंडीगढ से दिल्ली का किराया लगा। बस आगे बढ़ी आ गया करनाल, बस रूकी। वहां चाय पीना चाहा तो देखा ₹50 की एक काफी दुकानदार दे रहा था। सह चर बावरा जी के मना करने के बाद हम दोनों वापस बस में सवार हो गये।

हमारी बस दिल्ली के काफी करीब आ गई थी।
सूर्य ढलने लगे, अंधेरा होने लगा।
विद्युत प्रकाश फैलने लगा, बड़ी – बड़ी बिल्डिंग दिखने लगीं।
अगल – बगल मंदिर, सड़क पूरी जाम।

बस अब रेंगने लगी, उतर गया कश्मीरी गेट पे। इधर-उधर देखा, किसी-किसी से पूछा। पहुंच गया बाथरूम के, गेट पर बैग रखा। बारी-बारी, दोनों ने बाथरूम किया। फिर पूछना शुरू किया, ही ई एल सेक्टर 15 अशोकनगर। स्टेशन से बाहर निकला, चाय की चुस्की ली। टेंपो वालों से बात की, एक तैयार हुआ।

रुपया लिया उसने, 200 दोनों का। टैंपू आगे बढ़ा, लाल किला गीता कॉलोनी।
होते यमुना ब्रिज, दाहिनी तरफ अक्षर-धाम। ललिता पार्क बाय तरफ, और फिर आई टी ओ। मयूर विहार फेस वन, के बाद औवर ब्रिज से दाहिने। चिल्ला गांव बायें और त्रिलोकपुरी बायें। स्टोक रेडी हॉस्पिटल, अगले चौराहा पर जिज्ञासु जी। जिन्हें देखकर हम लोग आये थे, फिर उसी टेंपो में सवार हो, पहुंच गए सी ई एल गेट। रात में विश्राम किया, भोजन ले आराम मिला।

सुबह सवेरे नित्य क्रिया किया, आगे सेक्टर 52 के लिए चल पड़े। अशोकनगर मेट्रो स्टेशन से, तीस – तीस रुपया दे सेक्टर 52 पहुंचे। वहां से टेंपो मिला, एक मूर्ति के पास अवतार दिया। मेट्रो ट्रेन सेक्टर 52 से गुजरी, बोला दरवाजा बाय खुलेगा। जब सेक्टर सोरह से गुजरी, आवाज मिली दरवाजा बाय खुलेगा। सेक्टर 17 पर आने वाली, दरवाजा बायें खुलेगा। बाट निकल गार्डन, दरवाजा बायें खुलेगा। नोएडा सिटी सेंटर, दरवाजा बायें खुलेगा।

एक मूर्ति से मेरा छोटा लड़का आकर हमें और राजेंद्र प्रसाद को दुबारा अपने फ्लैट पर ले गया वहां भोजनालय किया। दो घंटे हाल चाल भी इसके बाद टिफिन में लंच आ गया। चल दिए फिर अशोकनगर की तरफ, और बाहर निकला। पुलिस वालों ने टैंपू किधर करवा दिया, आगे बढ़ा टेंपो मिला। वह ले जाकर कहीं और छोड़ दिया, दूसरा टेंपो मिला, गंतव्य स्थान से पहले ही छोड़ दिया। घर दृढ़ता आगे बढ़ा। जल्दी-जल्दी बैग उठाया, अशोकनगर मेट्रो स्टेशन जिज्ञासु जी ने पहुंचाया। ₹20 के टिकट पर, नई दिल्ली मेट्रो रेल ले आई। प्रयागराज एक्सप्रेस ट्रेन में सवार हुआ, पहुंच गया 7 तारीख को प्रयागराज।

प्रयागराज रेलवे स्टेशन पर गुप्त जी का बड़ा लड़का जो एस पी ओ है लेने आया। उसने हम दोनों को घर ले जाकर भोजन कराया। नमकीन – चाय पिलाई स्वादिस्त भोजन था। कुछ देर के बाद हम लोग राजेन्द्र गुप्त बावरा जी के समधी से मिलने गए, साथ में वह गुप्त जी का सुपुत्र – बहू भी गयी। फिर प्रयाग सिटी स्टेशन से बस से बनारस पहुंच गया।

—♦—

चंडीगढ़ यात्रा – सुखद अनुभूति, की तैयारी — व विशेष 

यात्रा में साहस की आवश्यकता होती है। यात्रा मनुष्य के बुद्धि को उन्मुक्त करती है। लेखको में वैचारिक आग्रह और दूराग्रह भी होते है, जिसे साहित्य में आपत्तिजनक माना जाता है। देखना है हम लोग विविध भाषायी एकाकार जहां करेंगे वहां का नजारा कैसा होगा।

चंडीगढ़ में पुस्तक प्रदर्शनी लगेगी! यह सुनकर मैं और राजेंद्र प्रसाद गुप्त “बावरा” उत्साहित हो उठे? बावरा ने इच्छा जाहिर किया कि मेरी प्रकाशित पुस्तक ‘चित्र-रेखा और जनतंत्र-महिमा’ पुस्तक मेले में लग सकती है क्या! हमने कहा जरुर आप अपनी पुस्तक लगाइए मैं फॉर्म भर देता हूँ पुस्तक प्रदर्शनी में स्टाल लगेंगे उसके पेपर फिलअप कर देता हूँ परन्तु याद रहे 10-10 पुस्तकें प्रदर्शनी में लगाने के लिए ले जाना है, साथ में एक स्थानीय पत्रिका भी ले जानी है।

बावरा जी यत्र-तत्र जहाँ भी उनकी पुस्तके थीं वहां से 12-12 पुस्तकों को इकठ्ठा करके बैग में रखना शुरू कर दिये। इसे सुनकर मुझे अच्छा लगा की उन्होंने अपनी पुस्तकें ले जाने वाले बैग में रख ली है।

हमनें बावरा जी को साहित्य काव्य संकलन में 19-12-2014 को प्रकाशित काव्य रचना सुनाई —

मुझे देखो मैं भी प्यार करता हूँ,
एहसास के ठाव – गाँव में ही रहता हूँ।
ज्ञान की गंगा में गोता खा रहा हूँ,
नदी बहुत गहरी उसी में नहा रहा हूँ।
कई बरसो से डूबता उतर रहा हूँ,
मुझे देखो मैं भी प्यार करता हूँ।

दिखे दिखता दिलदार दिलवर दिलेर दिखाई,
लिख-लिख-लिख लिखते लरिकन लरिकाई।
लड़ते-लड़ते लाखो लालित्य लाल लाई,
सज-सुघर सुहृद सजल साहित्य पाई।
विश्व के साहित्य प्रेम को साकार करता हूँ,
मुझे देखो मैं भी प्यार करता हूँ।

मेरा भी मन हिलोरे भरने लगा पुस्तक प्रदर्शनी में पुस्तक लगाने के लिए, फिर मैंने कंप्यूटर के जानकार, को पुस्तकों को छापने हेतु मित्र रतन को बुलाया उन्हें ढेंकानाल उड़ीसा यात्रा (तृतीय खण्ड ई बुक), ओडिशा साहित्यिक धर्मयात्रा क्रमशः 2015 और 2018 में प्रकाशित, सु पाथेय षट्दर्शन (चतुर्थ खण्ड) स्वर्ग विभा अवतरण ई-बुक सूरज की रौशनी को आने तो दो, काव्य साधना (प्रथम खण्ड ई-बुक) की प्रतियाँ प्रकाशन करने वाले को दे दी। साथ ही दिया “कवि हूँ मैं सरयू तट का” (काव्य संग्रह)।

काम लम्बा था उसने ऊपर से चार पुस्तकों को दे दी, दिन में ‘रतन’ ने तैयार कर दिया। हमने भी उन पुस्तकों को पुस्तक मेले में बावरा जी के पुस्तक के बगल में लगा दिया था। मैंने सारी पुस्तकें इंटरनेट पर काम करने वाले साहित्यकारों को आखिरी दिन भेंट कर दिया। अनहद कृत के वयोवृद्ध सम्पादक, साहित्यकार पुष्पराज चसवाल जी को स्वर्ग विभा अवतरण की एक पुस्तक भेंट की।

भारतीय साहित्य में मनुष्य को सर्वोपरि स्थान प्राप्त है और उसे साहित्य रचना देश-समाज हित में ही करनी चाहिए।

देश हित में बात जो करता नहीं,
वह धरा पर पिशाच बन रहता कही।
ज़िंदगी पाया मूल्यवान आदमी का,
माँ- ममता रखता नहीं तू ही ?
उऋण जब होगा नही इस जन्म में,
अगले जन्म में क्या बनेगा सोच ले।

—♦—

03 अगस्त 2023 के पूर्व संध्या पर रतन के किराए के रूम चौकाघाट में मैं पंहुचा। वहां उनके माता-पिता और बहन भी उपस्थित थी उनके घर चाय-पान किया, सुपाथेय षट्दर्शन की प्रतियां ली और काली मंदिर के पास बाइंडिंग करने वाले को दे दिया। कुछ घंटों में बाइंडिंग हो गई में घर से आकर उन पुस्तकों को ले लिया।

उसके बाद – पं.दीनदयाल उपाध्याय नगर, जनपद चंदौली तक जाने की थी रतन जी ने वहां तक पहुचाने का पक्का वादा कर ली, और सुबह-सुबह पांडेयपुर मेरे आवास पर पहुँच गए थे वादा का पक्का, मन के धनी, ईमानदार नेक इंसान हैं रतन जी।

इसीलिए मैं कहता हुं कि मेरा मित्र वही होता है जो वादा खिलाफी कभी नहीं करता।
हमनें अपनी पुस्तकें एक बड़े बैग में रख ली और एक अरेस्टोकेट अटेची में यात्रा से सम्बंधित आवश्यक सामानों को रख लिया और एक बोतल पानी, अपना बैग लेकर रतन के मोटरसाइकल पर बैठकर ज्यों ही घर के सामने कंडेल पुष्प के पास पंहुचा ही था की धरती माँ पुस्तकों को चूमना चाहती थीं कि बैग धरती पर आ गया।

उसे उठाकर मैंने माथे से लगाया और फिर मोटरसाइकिल के पीछे बैग और उसके उपर अटेची बाँध लिया। आगे बढे रतन ने अपने चौकाघाट रूम पर जाकर हेलमेट लिया। सुरक्षा के दृष्टिकोण से हेलमइट आवश्यक है।

आगे बढे पीली कोठी सिटी रेलवे स्टेशन के समीप पंहुचा ही था कि इन्द्र भगवान खुश होकर रिमझिम-रिमझिम बारिश करने लगे इसीलिए कहा है कि —

प्रकृति हमें जीवन जीने की कला सिखाती,
हमें प्रकृति अपने आँगन में सदा बिठाती।
अम्बर ऊपर भूतल निचे फिर जल बरसाती,
सतयुग से कलयुग तक वह सफ़र कराती।
ऋषिमुनियों से भाँति-भांति संसार बसाती,
निर्मल जल गगन बिच मयंक धरा सजाती।

राजघाट पुल पर चढने के पहले बसंत महिला कालेज के पास जोरदार बारिश होने लगी रतन तो चलते चल रहे थे, आगे बढ़ रहे थे, जहाँ-तहां पेड़ के छाँव में रुक जाते। मैं अपने जेब से रुमाल निकाल कर बेग के दोनों तरफ बारिश के पानी को बैग के ऊपर से सुखा कर उसे निचोड़ते हुए आगे बढ़ते रहते बढ़ते-बढ़ते रेलवे स्टेशन के द्वार पर पहुच गया।

रतन ने बैग व अटेची को बरामदे में रख दिया हमने कपडे बदले भीगा हुवा कपडा स्टील की बनी हुई मुसाफिर खाने के कुर्सियों पर फैला दिया, बैग को खोला तो उसमें अपनी पुस्तक सही सलामत थी।

हर हर महादेव!

♦ सुख मंगल सिंह जी – अवध निवासी ♦

—————

— Conclusion —

  • “सुख मंगल सिंह जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस यात्रा वृतांत में समझाने की कोशिश की है — यसाहित्यिक यात्रा के दौरान क्या-क्या तैयारी करना जरुरी होता है और क्या-क्या नहीं करना चाहिए, व किन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए। यात्रा के समय आपका व्यवहार लोगों से कैसा होना चाहिए? जब सभी से मिले तो, एक दूसरे से बात-चित कैसे करें व सभी का सम्मान अच्छे से करे, सभी की बातों को ध्यानपूर्वक सुने और सभी का मनोबल बढ़ाये, तथा अच्छे साहित्यिक कार्य को आगे बढ़ाने में एक दूसरे की मदद करे। एक – एक करके सभी की रचनाओं को सुनकर उनका उत्साह बढ़ाये दिल से। यात्रा के दौरान अपने मन व बुद्धि को शांत व स्थिर रखें, सभी से शालीनता पूर्वक अच्छा व्यवहार करे। “आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, अगर आप: करते नहीं कोई यात्रा। पढ़ते नहीं कोई किताब, सुनते नहीं जीवन की दुनियां, करते नहीं किसी की तारीफ।”

—————

यह यात्रा वृतांत (वाराणसी से चंडीगढ़ की साहित्यिक यात्रा अगस्त – 2023) “सुख मंगल सिंह जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें, व्यंग्य / लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी कविताओं और लेख से आने वाली पीढ़ी के दिलो दिमाग में हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम बना रहेगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे, बाबा विश्वनाथ की कृपा से।

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पूर्व जन्मों के पुण्य का फल है काशी दर्शन।

Kmsraj51 की कलम से…..

Kashi Darshan | पूर्व जन्मों के पुण्य का फल है काशी दर्शन।

Kashi Darshan is The Result of Virtues of Previous Births

काशी की सरजमीं निराली है, काशी का हर कंकर शंकर है, प्रत्येक घर गर्भगृह है, हर एक चौराहा किसी न किसी देवी देवता का चौराहा है। संस्कृत शिक्षा का एक प्रधान केन्द्र रहा है। विविध रीति-रिवाज, धर्म एवं विविध भाषाओं के जानने वाले वेष-भूषा को धारण करने वाले वाराणसी में रहते हैं, आते जाते रहते हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि काशी वैदिक काल से पूर्व की नगरी है।

यहाँ शिवोपासना को पूर्व वैदिककालीन माना जाता है। यद्यपि हरिवंशपुराण में राजा ‘काश’ का नाम काशी को बसाने में आया है जो भरतवंशी रहे। यह मुक्त तथा मुक्तिधाम है। यहाँ गुप्त काल के पूर्व यक्ष पूजा, नागपूजा के साथ-साथ शिवपूजा अवश्य होती थी। गुप्तकाल से शिव उपासना में काफी वृद्धि हुई, जो उत्तरोत्तर बढ़ती गई। बनारस महादेव का महानगर है। यह एक नगर ही नहीं एक संस्कृति है।

प्राचीनकाल से ही संस्कृत का केन्द्र है — काशी

बनारस ईंट-पत्थरों का नगर ही नहीं अपितु इतिहास है जो ऐतिहासिक नगर के रूप में जाना जाता है। यह संसार प्रसिद्ध विद्वानों का गढ़ है। प्राचीनकाल से ही आर्य धर्म और संस्कृत का केन्द्र है। यहाँ की संस्कृति और धर्म प्राचीन काल से ही विद्वानों के कारण सुरक्षित संजमित है। काशी भारत का एक अंग है। भारत आध्यात्मिक संस्कृति की उदय भूमि है।

मनुष्य के अंदर अपनी जाति के प्रति जब से मोह उत्पन्न हुआ तभी से वह पूर्ण जानकारी हासिल करने का प्रयत्न करना चाहा और चेतन अचेतन मन से जाने-अनजाने अनगिनत क्रियाएँ जानकारी करने के लिए करता आ रहा है। वह वैदिक काल से ही इस कार्य में तत्परता पूर्वक लगा हुआ है।

मानवशास्त्र, इतिहास, समाजशास्त्र, पुराण एवं साहित्य को टटोलने से लगता है कि वह ठीक ही कर रहा है, कारण समाज और सामाजिक गतिविधियों का यह भी दर्पण है। इसी के बल पर भविष्य की पीढ़ी भविष्य का सांस्कृतिक और सामाजिक निर्माण करेगी। प्रांतीयता के भेद-भाव से रहित काशी प्रत्येक व्यक्ति को संस्कृत भाषा का अध्ययन अध्यापन कराता है।

भाषा विज्ञान के आचार्यों की माने तो हिंदी साहित्य का मूल स्थान काशी ही है। पुराणादि जातकों द्वारा गंगा के तट की बस्ती प्राचीन प्रमाणित है आज तो पड़ाव क्षेत्र से सामने घाट काशी हिंदू विश्वविद्यालय तक बस्ती अगाध रूप से बढ़कर बसी है परन्तु डॉ. मोतीचंद ने लिखा है कि 500-600 वर्ष पहले गंगा के किनारे आज के समान निवास स्थान नहीं थे।

किनारे के भवनों में सबसे प्राचीन मानमंदिर, बूँदी के महल तथा कुमार स्वामी के मठ आते हैं। इसकी पुष्टि जेन्स प्रिसप नामक अंग्रेज के लेखों के आधार पर की गई है। आठवीं शताब्दी में अस्सी घाट पर शंकराचार्य द्वारा ‘दक्षिणामुखी’ शंकरमूर्ति तथा देवस्थान थे। यहाँ यात्रियों के रहने का प्रमाण मिलते हैं।

कुछ अभिलेखों में काशी की गलियों ‘वाररामाभिरामा’ बताया गया है। गंगा का सामीप्य और धर्म साधना में शांति थी। मुगलों के समय आक्रमणों से बचने हेतु हिंदू वन एवं पानी का सहारा पाकर गंगा के किनारे बसते थे। भारतीय मनीषियों ने माना कि धर्म ही मानव जाति को पशु से ऊपर उठाने में, सक्षम सिद्ध होता है यथा —

धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः

धर्मपालन का तात्पर्य सत्य, अहिंसा, परोपकार, क्षमा और अमूल्य मूल्यों का जीवन में पालन करना है। मिथ्या भाषण, हिंसा, लोलुपता, आलस्य का शिकार न होना। सही अर्थों में पुरुषार्थ (पुरुष वा स्त्री) मोक्ष है। भारतीय मानव की मेधा शक्ति दोलायमान नहीं रही वह निर्धारित लक्ष्य की तरफ अविचल अविरल निष्ठापूर्वक अग्रसर होती रही है। जीवन को टुकड़ों में बाँटने के बजाय चारों तरफ से घेरना ही भारतीय संस्कृति रही है। काशी की गणना अंगुत्तर निकाय में 16 महाजनपदों में की गई है। भारती की प्राचीनतम् सांस्कृतिक राजधानी का गौरव आज भी काशी को ही प्राप्त है। शंकराचार्य ने काशी में अनुभव किया कि ‘अन्नमयदेह शूद्र है चैतन्य आत्मा ब्रह्मभाव है।

काशी का ऐतिहासिक व्यक्तित्व विराट

यहाँ की मिट्टी में गौतम बुद्ध का राम से विराग मिलेगा तो वहीं शंकर का वेदांत निनाद, कबीर का अलमस्त फक्कड़पन तो तुलसीदास जी का सगुणी रामधुन प्रसाद और मुंशी प्रेमचन्द की साहित्यिक आराधना का संसार तो भारतेंदु की साहित्य सर्जना का विपुल विश्व। काशी में ठुमरी, ध्रुपद, धमार और खयाल अलौकिक आलाप और दूसरी तरफ सितार, सरोद, शहनाई, तबला, पखावज और सारंगी, बासुरी का स्वर संतुलन भी, नर्तन लहरियाँ बनारस के परंपरा में परिवकर्तन भी यहाँ देखे जा सकते हैं। काशी का ऐतिहासिक व्यक्तित्व विराट है।

यह लौकिक और पारलौकिक भी है, भौतिक और आध्यात्मिक भी है, शृंगारी, श्मशानी, पतितपावनी, पतित पालिनी भोगी, परमयोगी, अनुरागी और विरागी है। भूमि का प्रभाव मस्तिष्क पर वैज्ञानिक मान्यता है। यहाँ का औसतन तापमान 65 डिग्री से 75 डिग्री फारेनहाइट। 85 से 95 डिग्री फा० जनवरी से मई तक रहता है। हिंदू मध्ययुग की सभ्यता आज भी यहाँ विद्यमान दिखती है। लकड़ी के खिलौने, पत्थरों पर नक्काशी के मकान, मंदिर तोरण द्वार, पीतल के बर्तन, सोने व चाँदी के विविध आकार-प्रकार के गहने, रेशमी वस्त्र, कीम खाना आदि प्रमुख हैं।

धरना प्रथा — गृहकर के विरोध में धरने

बनारस में 1781 में अदालत कायम हुई इसके पूर्व में धरना प्रथा चरम पर थी। ब्राह्मण छूरा व विष लेकर किसी के भी दरवाजे पर बैठ जाते थे। हिंदुओं का उस समय तक पूर्ण विश्वास था कि ब्रह्महत्या से बढ़कर कोई पाप न था। यद्यपि आज भी मान्यता है फिर भी हत्याएँ हो रही हैं जो खेद का विषय बना हुआ है। एक बार तीन लाख लोग मुँह लटकाकर गृहकर के विरोध में धरने पर बैठ गये। खेती का कार्य प्रभावित होने, दुर्भिक्ष पड़ने के डर से बरसात की कमी से मुसीबत आ गई अंत में गृहकर नहीं लगा, प्रशासन को अपने आदेश से पीछे हटना पड़ा था। यह घटना 1810 की है जब अंग्रेज शासन का उस वक्त गवर्नर जनरल कलकत्ते में बैठता था। काशी की 20-30 हजार जनता सामानों से सजकर कलकत्ता जाने लगी, बीच में ही गृहकर खत्म होने से वापस आ गई थी।

भक्ति साहित्य का सूत्रपात

भक्ति साहित्य का सूत्रपात काशी से ही हुआ स्वामी रामानन्द के शिष्य कबीर, रैदास (निर्गुण) तता तुलसीदास जी (सगुण) साहित्य यही से पूर्ण किए। मानस की रचना सं. 1631 में अयोध्या से प्रारम्भ हो काशी में पूर्ण हुई। तुलसी की चरण पादुका तुलसी कंठी तुलसी मंदिर काशी में प्रमाण स्वरूप है। प्राचीन संस्कृत साहित्य में काशी पृथ्वी के सब अंशों से अलग है अतएव काशी तीनों लोकों से न्यारी नगरी है।

गुप्तकाल में यहाँ पाठशाला थी, इस पाठशाला के कुछ अध्यापक वैष्णव थे। यहाँ तीनों वेद पढ़ाये जाने का प्रबंध था। यहाँ धातुओं के चमचमाते चमकते कलश विविध प्रकार की ध्वजा पताका ऊँचे-ऊँचे गुंबदों पर गरिमा को बढ़ाते रहते हैं। काशी कैलाश शिखर का स्वरूप है। काशी के विद्वानों के सहयोग से विविध अवसर पर पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ जो अपने आप में अद्वितीय है।

पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन

1867 ई. में शुभारंभ ‘कविवचन सुधा’ पत्रिका का जिसे साहित्यिक पत्रकारिता युग के रूप में माना गया। 15 अक्टूबर 1873 ई. को हरिश्चंद मैंगजीन मासिक पत्रिका प्रकाशित हुई जो डा. इ.जे. लाजरस के मेडिकल हाल प्रेस में छापी जाती थी। 1875 में काशी पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ। विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका काशी के रईस शिक्षक बाबू बालेश्वर प्रसाद द्वारा संपादित की जाती थी। 3 मार्च 1884 ई. को ‘भ्रत जीवन’ नामक समाचार पत्र काशी से प्रकाशित हुआ जो पहले साप्ताहिक पुनः दैनिक कर दिया गया। काशी में आज, संसार, सन्मार्ग, गाण्डीव, रणभेरी आदि का प्रकाशन किया गया था। जो आजादी के आसपास के पत्र-पत्रिकाओं में से आजादी की गाथा बयां करते रहे हैं।

1893 ई. में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना के बाद 1896 ई. में नागरी प्रचारिणी पत्रिका प्रारंभ हुई। यह पहले मासिक बाद में त्रैमासिक हो गई। 1916 ई. तक सरस्वती का संपादन द्विवेदी जी ने किया। 1909 में इंदु का काशी से प्रकाशन हुआ यह सरस्वती पत्रिका के शब्दा नुशासन से अलग हटकर छायावादी कवियों के विकास हेतु प्रकाशित हुआ।

11 फरवरी 1932 में बाबू शिवपूजन सहाय ने पाक्षिक पत्रिका जागरण का प्रारम्भ किया, इसके संपादक साहित्यकार विनोद शंकर व्यास के छोटे भाई प्रमोद शंकर व्यास रहे। यह छः मास तक चली पुनः प्रेमचंद ने ले ली और साप्ताहिक प्रकाशन होने लगा।

1930 में ‘हंस’ नामक कहानी पत्रिका से प्रारम्भ होकर प्रेमचंद ने मासिक बनाया अंत में धनाभाव के कारण प्रख्यात कथाकार के. एस. मुंशी 1935 में संयुक्त रूप से प्रकाशन प्रारंभ किया। उपरोक्त प्रमुख पत्रिका काशी से प्रकाशित होती रही है। बाद में विविध पत्रिकाओं का प्रकाशन काशी से होने लगा है।

काशी अनेकता में एकता का संसार है। कृत पुरुषों विद्वानों का जन्मदाता है, साहित्यिक मनीषियों से भरापूरा भूभाग है। आपत्तिकाल में उग्र क्रांति की लहर का संवाहक है। यहाँ के पूर्व में प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं को युगबोध की कसौटी पर कसने पर पूर्णतया खरा उतरते हैं।

नव साहित्य का जन्मदाता संस्कृति का संवाहक है। विविध रंगमंच का प्रणयन कर सामाजिक उद्देश्यों को मान्यता प्रदान करता है। परिणाम स्वरूप अभिनय योग्य नाटक लिखे गये। काशी दर्शन महान दर्शन है। काशी में चरण, पुण्य के पूर्वजन्म के प्रताप से ही पड़ते हैं। आइये एक बार काशी का दर्शन करें।

मुक्ति जन्म महिं जानि।
ज्ञान खानि अघ हानि करि॥
जहँ बसि शंभु भवानी।
सो काशी सेइय कस न॥

♦ सुख मंगल सिंह जी – अवध निवासी ♦

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— Conclusion —

  • “सुख मंगल सिंह जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस लेख में समझाने की कोशिश की है — यहाँ शिवोपासना को पूर्व वैदिककालीन माना जाता है। यद्यपि हरिवंशपुराण में राजा ‘काश’ का नाम काशी को बसाने में आया है जो भरतवंशी रहे। यह मुक्त तथा मुक्तिधाम है। यहाँ गुप्त काल के पूर्व यक्ष पूजा, नागपूजा के साथ-साथ शिवपूजा अवश्य होती थी। गुप्तकाल से शिव उपासना में काफी वृद्धि हुई, जो उत्तरोत्तर बढ़ती गई। बनारस महादेव का महानगर है। यह एक नगर ही नहीं एक संस्कृति है।

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यह लेख (पूर्व जन्मों के पुण्य का फल है काशी दर्शन।) “सुख मंगल सिंह जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें, व्यंग्य / लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी कविताओं और लेख से आने वाली पीढ़ी के दिलो दिमाग में हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम बना रहेगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे, बाबा विश्वनाथ की कृपा से।

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“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

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राखो चुंदरिया संवारि।

Kmsraj51 की कलम से…..

Rakho Chundaria Sanvaari | राखो चुंदरिया संवारि।

भीगल जाले मोर चुनरिया, छुपाये छिपे ना द्युति दागरी।
चूक चटक चंदा जो छिपा था, चुंदरी तो चटकार री॥

भीगल चुंदरी निखिल निचोड़ा, मोहन ज्यों सपने साथ री।
घट-घट खोजत नीक चुनरिया, पायो अपने पास री॥

इहै चुनरिया नहीं तुम्हारी, प्यारी-प्यारी यारी दुलारी।
जेते सुन्दर चुंदरी पायो, तेते ज्ञान, मान, ग्यान अगाध री॥

जा बुन लायो मोहन मोरे, मौन ज्यों महा भंडार री।
चुनरी चुरा चारो चौकछु रे, सूर्य चन्द्रमा जान्यो संसार रे॥

आंगन लाये पिया चुनरिया भीगी झीनी सारी।
गणपति गावत बीच बाजार, नीक चुनरिया नीक किनारी॥

रंगी चुनरिया को रंग निराला, मागत मधुवन मां नन्दलाल।
मंगल मंदिर बूझत न्यारी, देखत बारी – बारी – सारी॥

सोलह सी बंद चुंदरी चोखी, चार चौपटा नाग-पास री।
रंगना धूमिल चुंदरी चटकीली, राखो राजे इसे संवारि री॥

♦ सुख मंगल सिंह जी – अवध निवासी ♦

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— Conclusion —

  • “सुख मंगल सिंह जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस कविता में समझाने की कोशिश की है — यह कविता मोहन (श्री कृष्ण) और उसकी प्यारी चुंदरी के प्रेम की कहानी को व्यक्त करती है। चुंदरी को धीरे-धीरे मोहन की प्यारी यारी और उसके ज्ञान के साथ मिल जाती है। मोहन की प्रेरणा से, वह चुंदरी अपने स्वामी के पास आती है और उसका साथ देती है, जैसे सूर्य और चंद्रमा समय-समय पर संसार को प्रकाशित करते हैं। चुंदरी का रंग निराला होता है और वह मंगल मंदिर की शोभा को बढ़ाती है, जैसे मधुवन में नन्दलाल के साथ खुशियों की गाथा। इस रूप में, चुंदरी को मोहन के प्रेम और उसकी भक्ति का प्रतीक माना जा सकता है।

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यह कविता (राखो चुंदरिया संवारि।) “सुख मंगल सिंह जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें, व्यंग्य / लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी कविताओं और लेख से आने वाली पीढ़ी के दिलो दिमाग में हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम बना रहेगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे, बाबा विश्वनाथ की कृपा से।

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नागचंद्रेश्वर मंदिर।

Kmsraj51 की कलम से…..

Nagchandreshwar Mandir | नागचंद्रेश्वर मंदिर।

उज्जैन का नागचंद्रेश्वर मंदिर।

भारतवर्ष के कोने-कोने में अलग-अलग शहरों नगर में मंदिर – मूर्ति हैं। चाहे जिस क्षेत्र में आपका कोई भी शहर, नगर, ऐसा नहीं होगा जिसमे मंदिर ना हो। परंतु उज्जैन एक ऐसा शहर है जहां पर भगवान नाग चंद्रेश्वर मंदिर है इस मंदिर की खास बात यह है कि इस मंदिर का कपाट केवल नाग पंचमी सावन मास की शुक्र पंचमी तिथि को ही खुलता है — सिर्फ साल में एक दिन।

भगवान शिव के आभूषण स्वरुप नागदेव की पूजा होती है। इस दिन दरवाजे पर नाग देवता की मूर्ति लगाई जाती है गाय का दूध और धान का लावा घर के हर कमरे में छिलका जाता है। मस्तक पर केसर चंदन लेप किया जाता है। यह सारी क्रियाएं सुबह स्नान करके घर की औरतें करती हैं।

मंदिरों का शहर उज्जैन

महाकाल का नगर उज्जैन को कौन नहीं जानता उज्जैन को मंदिरों के शहर के धाम नाम से जाना जाता है। उज्जैन शहर की गली-गली मोहल्ले-मोहल्ले में मंदिर स्थित है। उन्हीं मंदिरों में से एक विशेष मंदिर नागचंद्रेश्वर मंदिर है जो महाकाल मंदिर में अवस्थित है। नागचंद्रेश्वर मंदिर की आभा निराली है। यहां भी नागपंचमी को त्यौहार मनाया जाता है जबकि सम्पूर्ण भारतवर्ष में नागपंचमी का त्यौहार सावन मास की शुक्ल पंचमी को मनाया जाता है।

नाग पंचमी के दिन औरतें नाग देवता की पूजा अर्चना करती हैं। ऐसा माना जाता है कि नाग देवता मनुष्य की रक्षा करते हैं। सनातन संस्कृति में नाग देवता का पूजन करने का विधान प्राचीन काल से प्रचलन में चलता चला रहा है। नाग पंचमी के दिन नागों की पूजा का विधान है। पुनः गाय के दूध से स्नान कराया जाता है। इस दिन नाग पूजन के साथ ही भगवान शिव की पूजा रुद्राभिषेक करने से कालसर्प दोष खत्म हो जाता है। और राहु केतु के अशुभ दोष दूर हो जाते हैं।

वर्ष में केवल 24 घंटे के लिए खुलने वाला मंदिर

24 घंटे नागपंचमी के दिन भारतवर्ष में एक मात्र खुलने वाला मंदिर उज्जैन का नागचंद्रेश्वर मंदिर है जो उज्जैन में महाकाल मंदिर के तीसरे भाग में विद्यमान है। नागचंद्रेश्वर मंदिर, यह नागचंद्रेश्वर की प्रतिमा उज्जैन के लिए नेपाल से लाई गई थी। यह प्रतिमा बहुत पुरानी है इस प्रतिमा के बारे में कहा जाता है कि यह प्रतिमा 11 वीं सदी की प्रतिमा है। खास बात तो यह है कि इस प्रतिमा में शिव – पार्वती अपने पूरे परिवार के साथ विराजमान है। शिव परिवार के ऊपर नाग देवता फन फैलाएं हुए हैं। इस तरह की प्रतिमा के बारे में खासकर उज्जैन में चंद्रेश्वर मंदिर उज्जैन के अलावा अन्यत्र कहीं भी नहीं है। ऐसी प्रतिमा देखने को भी नहीं मिलती है।

दुनिया का यह इकलौता मंदिर उज्जैन का नागचंद्रेश्वर मंदिर है जहां शिव सपरिवार सांपों की शय्या पर विराजमान हो। मान्यता अनुसार सांपों के राजा तक्षक ने भगवान शिव को मनाने के लिए घोर तपस्या की। उनकी कठिन तपस्या से खुश होकर भगवान भोलेनाथ तक्षक नाग को अमरत्व का वरदान दिया वरदान प्राप्त करने के बाद से ही तक्षक राज ने भगवान शिव के सानिध्य में वास करना शुरु कर दिया।

उज्जैन के महाकाल मंदिर के आस पास प्राचीन काल से ही घोर जंगल था। इस क्षेत्र को महाकाल वन उपवन के रुप ने जाना जाता था। नाग देवता को महाकाल में वास करने के पीछे उनकी मनसा रही होगी कि एकांत में विघ्न न हो!

शायद यही कारण था कि नाग चंद्रेश्वर मंदिर नाग देवता के रहने के स्थान पर बना। नाग चंद्रेश्वर मंदिर का कपाट बार-बार नहीं, “वर्ष में एक दिन खुलता है।” वह भी सावन की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को नाग पंचमी के दिन, नाग दर्शन को खुलता है। नाग पंचमी के दिन ही उनका दर्शन होता है। मेला लगता है सुदूर से लोग दर्शन के लिए आते हैं।

समय और परंपरा के अनुसार मंदिर का कपाट बंद कर दिया जाता है। बाकी के दिनों में चंद्रेश्वर के सम्मान में प्राची परंपरा अनुसार मंदिर बंद ही रहता है। भगवान चंद्रेश्वर जी की त्रिकाल पूजा की जाती है। काल पूजा करने का विधान प्राचीन काल से चला रहा है।

त्रिकाल पूजा अलग-अलग समय में होती है।
पहली मध्यान रात में महा निर्माणी होती है।

दूसरी पूजा नाग पंचमी के दिन दोपहर के समय शासन प्रशासन द्वारा करायी जाती है।
तीसरी पूजा नाग पंचमी की शाम को भगवान महाकाल की पूजा के बाद मंदिर समिति द्वारा की जाती है।

पहले की भांति रात्रि 12:00 बजे भगवान चंद्रेश्वर के मंदिर का कपाट पुनः एक वर्ष के लिए बंद कर दिया जाता है।

ओम् नागेश्वराए नमः

♦ सुख मंगल सिंह जी – अवध निवासी ♦

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— Conclusion —

  • “सुख मंगल सिंह जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस लेख में समझाने की कोशिश की है — दुनिया का यह इकलौता मंदिर उज्जैन का नागचंद्रेश्वर मंदिर है जहां शिव सपरिवार सांपों की शय्या पर विराजमान हो। मान्यता अनुसार सांपों के राजा तक्षक ने भगवान शिव को मनाने के लिए घोर तपस्या की। उनकी कठिन तपस्या से खुश होकर भगवान भोलेनाथ तक्षक नाग को अमरत्व का वरदान दिया वरदान प्राप्त करने के बाद से ही तक्षक राज ने भगवान शिव के सानिध्य में वास करना शुरु कर दिया। 24 घंटे नागपंचमी के दिन भारतवर्ष में एक मात्र खुलने वाला मंदिर उज्जैन का नागचंद्रेश्वर मंदिर है जो उज्जैन में महाकाल मंदिर के तीसरे भाग में विद्यमान है। नाग पंचमी के दिन औरतें नाग देवता की पूजा अर्चना करती हैं। ऐसा माना जाता है कि नाग देवता मनुष्य की रक्षा करते हैं। सनातन संस्कृति में नाग देवता का पूजन करने का विधान प्राचीन काल से प्रचलन में चलता चला रहा है। नाग पंचमी के दिन नागों की पूजा का विधान है। इस दिन नाग पूजन के साथ ही भगवान शिव की पूजा रुद्राभिषेक करने से कालसर्प दोष खत्म हो जाता है। और राहु केतु के अशुभ दोष दूर हो जाते हैं।

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ज्ञानवापी षंड-धा।

Kmsraj51 की कलम से…..

Gyanvapi Shand-dha | ज्ञानवापी षंड-धा।

श्रृंगार गौरी जी की साधना के साधक शिव,
विविध प्रभाव छापे ‘ज्ञानवापी’ धाम हो।
जिनकी उपासना को महिमा बखाने जग,
नन्दीश्वर संग जो विराजे आठो याम हो।
काल – काल महाकाल ताल ठोंक खड़े हैं जो,
सदर अदालत दिया सर्वे प्रोग्राम हो।
भेष, निसून सर्वे हित अधिवक्ता चले,
नामित हुये थे सर्वे हित जो जो नाम हो।

कला कृतियों में का फोटोग्राफी लिया जाने लगा,
नोंक-झोंक होने लगा दोनों पक्षकार में।
बात पर बात बढ़ती ही गयी दोनो ओर,
सर्वे काम रोक दिया गया तकरार में।
नंदी महराज सामने मिला था शिवलिंग,
मिल गये बाबा शोर हुआ इजहार में।
मूर्तियों को तोड़ रखा गया तहखाने में था,
ताला नहीं खोला गया ही इन्तजार में।

टूटी मूर्तियाँ मिली अंधेरे में विराजमान,
उसकी रिकार्डिंग हुयी बैटरी प्रकाश में।
मिट्टी डाली नमी मिली दस दिन पहले की,
राज खुला पक्ष और विपक्ष बीच क्रास में।
लोम हर्षक घटना न घट पायी दुनो ओर,
पुलिस प्रशासन साथ दिया इतिहास में।
चुनके दिवाल जो छिपाये माता गौरी जी को,
‘मंगल’ मनाने लगे आस्था के सुभाष में।

जांच टीम संग दोनों पक्षकार साथ रहे,
सुबह दोपहरी से काम को निभाया था।
तहखाना इमेज में बनी जो दीवार रही,
वो श्रृंगार गौरी श्री मूर्ति को छिपाया था।
स्वेत सीमेंट तहखाने में मिला जो भी,
सद्व्यवहार भंग हुआ जो निभाया था।

मंगल’ मुरीद बीच तालमेल हुआ नहीं,
हताशा होने लगी साथ जो भी आया था।
सदी पन्द्रहवीं मूर्ति मिली तहखाने में जो,
भग्नावशेष का भण्डारण वहाँ भाया था।
यत्र-तत्र बिखरे हुए थे मूर्ति चारों ओर,
कुछ सही मूर्तियों को वहां पर छुपाया था।

फोटोग्राफी ली गयी करीने से सजा के इसे,
महमूद औरंगजेब मलवा बनाया था।
सर्वे ऑफ इण्डिया करेगी पहचान इसे,
न्याय प्रिय सर्वे का आदेश जो सुनाया था।

मिले हुए मलबे को छान रही सर्वे टीम,
सत्य दफनाया गया मलबे के ढेर में।
उजागर होते तथ्य कागज पे लाया गया,
बसते में बन्द करवाया गया देर में।

हाल ही में पेंटिंग तहखाने में हुयी है मिली,
किस सदी का है मुल्ला उलझाये फेर में।
कोर्ट के आदेश पर फिर जांच होगा क्योंकि,
दनुज प्रभाव सत्य छ्लें ना अहेर में।

कुछ कला कृतियाँ है कह रही लोगों से,
प्राचीन मूर्तियाँ दबा दी गयी तोड़ कर।
फोटो लिया जाने लगा बरामदा खम्भों का है,
रोशनी नीलाम हुयी शिव – धाम तोड़ कर।

रानी ग्वालियर बनवायी वहाँ मण्डप थी,
रास्ता सुरंग का है बना हुआ जोड़ कर।
कहा गया रामनगर किले में जा मिलता है,
राजघाट पुरातत्व में भी बना जोड़कर।

ताला खुला मिला तहखाने के दो कमरों का,
समय पाबंद सर्वे किया गया उसका।
देव परिसर की दुकाने सभी बन्द रहीं,
पाँव पयादे राहियों पर ध्यान जिसका।

तीसरे भी कमरे का ताला तोड़ा गया वहाँ,
चौथे कमरे का दरवाजा कहाँ खिसका।
अन्दर की चुनी गयी दीवारों के पीछे क्या है,
तोड़ने का न्यायिक आदेश नहीं उसका।

गुम्बद तालाब की भी रिकार्डिंग हु‌यी वहाँ,
साठ पैसठ परसेन्ट हुवा काम है।
देखने को शान्ति काशी वासियों में मिली अहा,
अधिवक्ता आयुक्त टीम भी ललाम हैं।

न्यायालय न्याय प्रिय काम को सराहें, लोग,
फर्स तोड़ जाँच हो तो सच खुले आम है।
‘मंगल’ मनावें लोग, देवता रमन्ते जहाँ,
मुल्ला कठमुल्ला छेड़ रहें, शिव-धाम है।

♦ सुख मंगल सिंह जी – अवध निवासी ♦

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— Conclusion —

  • “सुख मंगल सिंह जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस कविता में समझाने की कोशिश की है — श्रृंगार गौरी जी की साधना के साधक शिव, विविध प्रभाव छापे ‘ज्ञानवापी’ धाम हो। जिनकी उपासना को महिमा बखाने जग, नन्दीश्वर संग जो विराजे आठो याम हो। काल – काल महाकाल ताल ठोंक खड़े हैं जो, सदर अदालत दिया सर्वे प्रोग्राम हो। नंदी महराज सामने मिला था शिवलिंग, मिल गये बाबा शोर हुआ इजहार में। मूर्तियों को तोड़ रखा गया तहखाने में था, ताला नहीं खोला गया ही इन्तजार में। टूटी मूर्तियाँ मिली अंधेरे में विराजमान, उसकी रिकार्डिंग हुयी बैटरी प्रकाश में। मिट्टी डाली नमी मिली दस दिन पहले की, राज खुला पक्ष और विपक्ष बीच क्रास में। मिले हुए मलबे को छान रही सर्वे टीम, सत्य दफनाया गया मलबे के ढेर में। उजागर होते तथ्य कागज पे लाया गया, बसते में बन्द करवाया गया देर में। “सत्य छुपाये नहीं छुपता।”

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यह कविता (ज्ञानवापी षंड-धा।) “सुख मंगल सिंह जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें, व्यंग्य / लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी कविताओं और लेख से आने वाली पीढ़ी के दिलो दिमाग में हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम बना रहेगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे, बाबा विश्वनाथ की कृपा से।

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“सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

“अगर अपने कार्य से आप स्वयं संतुष्ट हैं, ताे फिर अन्य लोग क्या कहते हैं उसकी परवाह ना करें।”~KMSRAj51

 

 

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गुरु – शिष्य परम्परा की शुरुआत कब और कैसे?

Kmsraj51 की कलम से…..

Beginning of Guru Shishya tradition when and how | गुरु–शिष्य परंपरा की शुरुआत कब और कैसे हुई?

वैदिक युग के साहित्य अध्ययन की सुविधा से पूर्व वैदिक काल जो 1500 ई. पूर्व से लेकर 1000 ई. पूर्व तक तथा उत्तर वैदिक काल 1000 ई. पूर्व से लेकर 500 ई. पूर्व तक में विभक्त किया गया। ऋग्वेद से हमें पूर्णरूपेण ऋग्वैदिक काल का इतिहास ज्ञात होता है। उत्तर वैदिक काल का विकास संस्कृति का उत्थान ऋग्वेद से ही हुआ। इस काल का इतिहास संहिता अख्यक ग्रंथ ब्राह्मण एवं उपनिषदों से प्राप्त हुआ है। आर्य सभ्यता को फैलाव ऋग्वैदिक काल तक पंजाब एवं सिंध तक सीमित रहा, परंतु उत्तर वैदिक काल में आर्यों का प्रसार व्यापक क्षेत्र में हो गया। आर्य सभ्यता का केन्द्र सरस्वती से गंगा तक दोआब में विकसित-विस्तृत था। आध्यात्मिक तत्वों की विशाल राशि वेद है। इन तत्वों का अनुगमन ही धर्म है। धर्म का स्त्रोत वेद है।

वैदिक काल का जीवन दर्शन

वेद प्रत्यक्ष या अनुमान द्वारा अगम्य औषधि तत्वों का सुगमता से बोध अनुभव कराता है। अलौकिक तत्वों के रहस्य जानने के लिये वेद का अध्ययन जरूरी है। इसे जानने हेतु दर्शन एवं चिंतन की आवश्यता है। चिंतन से नवीन दार्शनिक आयाम प्राप्त होते है। वैदिक काल का जीवन दर्शन, निष्ठा, आस्था एवं अनुराग था। उक्त काल में कर्मठता, एकनिष्ठा, के आधार पर समन्वय अनुशासन अनुकरण करते रहे। वेदों के सूक्त, सरल, सुबोध, सुविधाजनक तथा देवताओं को प्रसन्न करने हेतु है। अथर्ववेद में वरुणा नदी का उल्लेख से कुछ विद्वान वाराणसी नाम की प्राचीनता का अनुमान करते हैं, तो भी यह नगर काशी की तुलना में जाती रही, परंतु मुख्य रूप से संस्कृत विद्या पर विशेष वद दिया जाता था।

ऋग्वेद कालीन समाज में भौतिक की अपेक्षा बौद्धिक ज्ञान के महत्व का लोगों के ऊँचे विचार ज्ञान की महिमा आध्यात्मिक चिंतन और भौतिक आकर्षण के प्रति विरक्त मनुष्य की जीवन के मूल्य थे। यहाँ वेद में गायत्री मंत्र ज्ञान के उच्चतम आधार थे। मंच द्रष्टा ऋषियों में उच्चतम दार्शनिक चिंतन दिग्दर्शिका होता था। ऋग्वेद के अनुसार स्वाध्याय एवं प्रवचन के अनुगमन से मनुष्य एकाग्र-चीना होता है। लोग विविध विद्या का अध्ययन कर देवताओं को प्रसन्न करते थे और अपनी कामयाबी की पूर्ति करते थे। वैदिक काल में प्रमुख रूप से वेद अध्ययन होता था।

शिक्षा शास्त्र का निर्माण स्वरों के अनुशासन एवं शुद्धता के लिये किया गया। योद्धा को धर्म की शिक्षायें कंठस्थ करायी जाती, तो वहीं पुरोहितों को संस्कार के मंत्रों का, शिक्षाओं की विस्तृत व्याख्या बतायी जाती थी। गुरू-शिष्य परम्परा का निर्वहन काशी में होता था। ब्रह्माघाट पर ब्रह्मशाला को ब्रह्मा जी ने आकर ब्राह्मण वंश चलाया था, ऐसी काशी की मान्यता है। विद्या, श्रद्धा और योग से किया गया कर्म संयुक्त होने का प्रबल हो जाता है। शिक्षा से सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन का उत्कर्ष होता। ज्ञान शिक्षा से प्राप्त होता है, ज्ञान जीवन को प्रकाशवान बनाता है। मानव को संमार्ग अवलोकन कराता है। ज्ञान से जीवन का कठिनतम कठिनाइयों को दूर करने का सम्बल प्राप्त होता करने में शिक्षा का महत योगदान है। समाज को विकसित करने तथा जीवन को सात्विक और नैतिक निर्देशों का पालन करने का मार्ग शिक्षा द्वारा प्रदान होता है।

उपनयन संस्कार

व्यक्ति आत्मनिर्भर हो, बहुमूल्य शिक्षा का विकास करता है। पारिवारिक निर्वहन के साथ-साथ सामाजिक आर्थिक नैतिक, धार्मिक उत्थान करते हुये चरित्रवान बनकर उत्कृष्ट व्यक्तित्व के उत्तरदायित्वों के साथ सभ्य समाज का नवनिर्माण करता है। मौखिक शिक्षा का प्रचलन वैदिक काल में था। आगे चल कर कमल एवं भोजपत्र पर मयूर पंखों से लिखा जाने लगा। शिक्षा का आरम्भ ब्रह्मचर्य आश्रमों में उपनयन संस्कार के बाद ही होता था। विद्यारम्भ संस्कार के समय बालक गुरूवंदना कर गुरू के प्रति निष्ठा व्यक्त करता था। उपनयन उपरांत ब्रह्मचारी बालक को विद्यामय शरीर और ज्ञानमुक्ति मस्तिष्क प्राप्त होता था, जो माता-पिता से प्राप्त स्थल शरीर से भिन्न था। शिक्षा ग्रहण करने के काल का निर्धारण किया गया था, जो क्रमशः 8-10 वर्ष क्षत्रिय, 11-12 , वर्ष की आयु में शिक्षा प्रारम्भ करने का निर्धारण था। गुरूकुल की प्रथा थी कि गृह त्याग कर बालक गुरू आश्रमों में रहते और योग्यतानुसार शिक्षा प्रदान की जाती रही। उपनिषदों के गुरूकुल के स्थान आचार्य कुल का प्रयोग आते हैं। शिक्षा और विद्या के अद्धतीय अधिष्ठानों का उल्लेख महाकाव्य में गुरुकुल का उल्लेख मिलता है।

उच्चकोटि के गुरूकुल व आश्रम

पूर्वकाल में भारद्वाज एवं वाल्मीकि आश्रम उच्चकोटि के गुरूकुल थे। { महाभारत के द्वारा } मार्कण्डेय एवं कण ऋषि के आश्रम शिक्षा के प्रधान विद्या स्थल थे। वैदिक काल में गुरू के निम्न प्रकार बताये गये हैं। आचार्य, उपाध्याय, प्रवक्ता, अध्यापक, श्रोचिय, गुरू, ऋत्विक, चरक। उक्त गुरूओं का वैदिक काल एवं सूक्तयुग में वेद का ज्ञान स्मरण ! शक्ति पर आधारित था। वेद मंत्रों का कंठस्थ! किया जाता था। गुरूकुल में ज्ञान प्राप्त करने हेतु अध्ययन-अध्यापन कंठस्थ कर होता था। वैदिक युग में आचार्य और गुरू का स्थान देवता-सा था, जो आदरयुक्त, गरिमामय और प्रतिष्ठित था। अग्नि का आचार्य अंगिरा के रूप में अतवरण हुआ, इंद्र के गुरू के रूप में प्रतिष्ठा थी। ऋग्वैदिक आचार्य दिव्य और आलौकिक ज्ञान के प्रतीक थे।

शिक्षा केंद्रों द्वारा समाज को नई दिशा

दृष्टि के धनी होने और बुद्धि तीक्ष्ण होना! शिक्षा के कारण स्वभाविक हो सकता है। एक व्यक्ति से दूसरा अधिक विवेकशील तथा विद्वान हो सकता है। निरंतरता में त्रुटियों के बावजूद काशी की शिक्षा पद्धति ने समाज को एक नई दिशा प्रदान की। आज विश्वविद्यायल, काशी, कश्मीर, धारा, कनौज, उपहित्न पातन, कांची, नालंदा, विक्रमशीला, बल्लभी एवं त्रावस्ती जैसे शिक्षा केंद्रों द्वारा समाज को नई दिशा प्रदान करने का क्रम जारी है। काशी में छोटी-बड़ी वेदशालाओं में दर्जनों भर शिष्य वेद परम्पराओं का निर्वहन कर रहे हैं। ऋग्वेद की शाकल शाखा कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा शुक्लर यजुर्वेद की माध्यंदिन शाखापूर्ण रूप से काशी में विद्यमान है। सामवेद की रमणीय शाखा में आंशिक गान करने वाले भी कुछ गुरू-शिष्य परम्परा काशी में दृष्टिगत होती है।

♦ सुख मंगल सिंह जी – अवध निवासी ♦

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— Conclusion —

  • “सुख मंगल सिंह जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस लेख में समझाने की कोशिश की है — वैदिक काल का जीवन दर्शन, निष्ठा, आस्था एवं अनुराग था। उक्त काल में कर्मठता, एकनिष्ठा, के आधार पर समन्वय अनुशासन अनुकरण करते रहे। वेदों के सूक्त, सरल, सुबोध, सुविधाजनक तथा देवताओं को प्रसन्न करने हेतु है। अथर्ववेद में वरुणा नदी का उल्लेख से कुछ विद्वान वाराणसी नाम की प्राचीनता का अनुमान करते हैं, तो भी यह नगर काशी की तुलना में जाती रही, परंतु मुख्य रूप से संस्कृत विद्या पर विशेष वद दिया जाता था। ऋग्वेद कालीन समाज में भौतिक की अपेक्षा बौद्धिक ज्ञान के महत्व का लोगों के ऊँचे विचार ज्ञान की महिमा आध्यात्मिक चिंतन और भौतिक आकर्षण के प्रति विरक्त मनुष्य की जीवन के मूल्य थे।

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यह लेख (गुरु – शिष्य परम्परा की शुरुआत कब और कैसे ?) “सुख मंगल सिंह जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें, व्यंग्य / लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी कविताओं और लेख से आने वाली पीढ़ी के दिलो दिमाग में हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम बना रहेगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे, बाबा विश्वनाथ की कृपा से।

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अयोध्या।

Kmsraj51 की कलम से…..

Ayodhya | अयोध्या।

कण-कण वासी, अवध निवासी,
मानवता के त्राता, जगत के सुखदाता।
दानव – दुष्ट – दलन अवतारी,
श्रृष्टि सृजन सद्धर्म प्रभारी।
सहज शेष शारदा संग में,
भव – भय भन्जन जग हितकारी।

सरयू अमिय प्रदाता, श्रृष्टि जगत विख्याता,
मानवता के त्राता, जगत के सुख दाता।

बंदर संग मदारी भेषा,
दरस-परस शिव अति लवलेशा।
बाल सुलभ श्री राम दरस पा,
अति सुख पावे नर हरि भेषा।

समता मूलक ध्ताया त्रिपुर विनाशक ज्ञाता,
मानवता की त्राता, जगत के सुख दाता।

जल निधि वक्षस्थल पर धाये,
राम सेतु निर्माण कराये।
मर्कट बंदर भालू के संग,
लांघि समंदर लंका आये।

‘मंगल’ भाष्य विधाता, जीवन ज्योति प्रदाता,
मानवता के त्राता, जगती के सुख दाता।

♦ सुख मंगल सिंह जी – अवध निवासी ♦

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— Conclusion —

  • “सुख मंगल सिंह जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस कविता में समझाने की कोशिश की है — जिस भूमि पर प्राचीन समय से ही महापुरुष तपस्या करते आये है, निष्काम उपासकों की पुण्य गाथा से कण – कण सुशोभित है प्राचीन पुरी अयोध्या धाम। महाबली हनुमान जी के आराध्य की नगरी अयोध्या धाम। सरयू नदी के तट पर प्राचीन पुरी अयोध्या धाम जहां जगत पिता श्री हरि खुद आये श्री राम रूप में, पूरी मानव जाती को मर्यादा व धर्म का सीख देने। दुष्टों का संहार कर, जगत में शांति की पुनः स्थापना कर, प्रेम, पवित्रता व त्याग के साक्षात रूप श्री राम। अयोध्या धाम पुनः विश्व में “वसुधैव कुटुम्बकम्” सनातन धर्म के मूल संस्कार को मानवों में भरने का कार्य करेगा।

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यह कविता (अयोध्या।) “सुख मंगल सिंह जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें, व्यंग्य / लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी कविताओं और लेख से आने वाली पीढ़ी के दिलो दिमाग में हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम बना रहेगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे, बाबा विश्वनाथ की कृपा से।

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“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

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काशी कहां चली।

Kmsraj51 की कलम से…..

Kashi Kahan Chali | काशी कहां चली।

काशी संसार सागर से पार उतारने वाली भक्ति भावन नगरी है। काशी समीचीन यथार्थ सुदृढ़ शोत्रसम्मत् सर्वसिद्धि तपोभूमि है। काशी में जहां मरणोपरांत भक्ति मुक्ति मिलती है वही काशी में किये पुण्य अथवा पाप कर्म भी अक्षुण्ण होते हैं। मानव यूं तो बुद्धिजीवी है, फिर काशी की गरिमा पर कहीं प्रश्नचिन्ह न लगे, आंच न आवे ऐसे कार्यो से भावुक हो लोग तमाम अनैतिक कार्यों में लिप्त नजर जाने क्यों लोग दिखते हैं। इससे साफ जाहिर है जन – जन में वैभव, पराक्रम मनस्विता और जीवट, ओजस् तेजस् की कमी कहीं न कहीं हमारे अंदर अवश्य ही प्रभावित कर रही है। फाल्गुन मास में बरसाने वृंदावन – मथुरा होली के माहौल में जब रंग विरंगे रंगों से सरावोर रहती है वहीं काशी, काशी में बाबा भोले भी इस सुअवसर से अछूते क्यों रह जायेंगे।

आमल एकादशी 

आमल एकादशी को भोले भी भाव विह्वल हो स्नान करते हैं, सप्रेम भरी होली-रंगभरी के रंग से सराबोर होते हैं साथ ही अतिविशिष्ट शृंगार भी कराते हैं। इन्हीं दिनों सिद्धि चक विधानानुसार धर्म के अष्ट चिन्ह के पूजा विधान में भी लिखा गया है—

कार्तिक फाल्गुन अषाढ़ के अंत अठ दिन माहि।
नन्दीश्वर श्वर जात है, हम पूजे इह ठाहिं॥

अर्थात् — जैन श्रावक उक्त मास के अंतम आठ दिन शुक्ल पक्ष की अष्टमी से पूर्णिमा तक काल्पनिक रूप में इन्द्र इन्द्राणी देवता का विधानपूर्वक पूजन, भजन भी होता है। जब काशी का वर्णन हम कर रहे हों, वहां शिवलिंग का वर्णन न हो तो काशी का वर्णन संभवतः अधूरा प्रतीत होता है। वैगे तो मनुष्यों द्वारा कुछ भी पूर्ण कर पाना समीचीन नहीं हैं।

निराकार पार ब्रह्म परमेश्वर

पूर्ण तो मात्र ब्रह्म है जो निराकार पार ब्रह्म है जो निराकार पार ब्रह्मपरमेश्वर ही है। हम जिस ज्योतिर्लिंग का वर्णन यहां करने जा रहे हैं वह वही है जो आपकी आत्मा का स्वरूप है। जब बच्चा मां के गर्भ में आता है तो वही अंडाकार रूप धारण करता है जिस आकार में शिवलिंग होता है। मरणोपरांत अग्नि दहन के समय भी शनैः शनैः पुनः उन्हीं स्वरूप में ही, यह मानवीय रूपाकाया पंच भूतात्मा पंचतत्व में विलीन हो जाता है। शिव आनन्ददाता हैं। जिस दिन आप शिव में लीन होंगे और गंगा के पावन जल से परिपूर्ण हो जायेंगे उस दिन से कुछ शेष नहीं बचा। द्वंद नहीं निर्द्वद हो जायेंगे। विलक्षणता की अनुभूति होनी स्वभावतः हो जायेगी।

काशी में स्त्रैण और नगरी पुरुष को खोजते फिरते रहते हैं शायद उन्हें ज्ञात नहीं शिव अर्धनारीश्वर है। बांवले से सड़कों गलियों ऐसे में देखते ही होगें। आप में भी द्वंद्व होना स्वाभाविक है ही, क्योकि यह जगत ही द्वंद्व से निर्मित है। तो आप भी दो होंगे ही। इतना तो अवश्य ही है। द्वैत से अद्वैत में पहुंचने के मार्ग की आकांक्षा में आपको उस शिवलिंग की अपने घर में उपासना करनी होगी। जिसके द्वारा आप निर्द्वद्व हो जाय। वह तभी संभव होगी जब मेक्सिमम ६ अंगुल की ही मूर्ति विधान सहित स्थापित करने परांत आप के अन्दर ध्यान योग प्राणायाम अथवा अन्यान्य विधाओं से विह्वल विकल अति आतुरता आनन्द हो, जिस समय उस अलौकिक बोध गुदगुदाहट आलिंगन सा परम आनंद मिल जाये आप अनुभूति करें, काशी की एक रेखा तक पहुंच रहा हूँ।

प्रथम पूज्य देवाधिदेव – भोले के सुपुत्र गौरी के लाल गणेश जी

हमें काशी का वर्णन करते समय प्रथम पूज्य देवाधिदेव भोले के सुपुत्र गौरी के लाल गणेश जी को नहीं भूलना होगा जिसकी प्रतिमूर्ति बड़ा गणेश में प्रतिष्ठापित है। बड़ा गणेश जी को भी हमें हर शुभ कार्य में प्रथम सादर याद करना चाहिए। यहां गणेश चतुर्थी के दिन सैलानियों की भीड़ स्वाभाविक हर्षानुभूति कराता है। गणेश जी के लिए यह भी कहना अतिशयोक्ति न होगी—

सुख समृद्धि का जब आयेगा नया दौर।
गणपति गजबदना को पूजेंगे लोग॥

यहीं; मंगल ने कहा है—

  • मांगो न और काहू से याचक बन काशी में चातुर्मास बिताय रहतु ना एकै द्वार लेत न हाय वहां सव तीरथराज देवगण चरवन लेत चबाय चहु और महिमा काशी में।
  • पंचाक्षरी मंत्र पढ़ महिमा तन की काशी त्रिलोचन लोचन कर्णघंटा घंटा बजत गिरजानन्दन शिवयाचक वनि हो काशी में।

आज हम अध्यात्म, नैतिकता, संस्कृति पश्चिम से लेते जा रहे हैं। हमें याद करना होगा स्वामी विवेकानन्द जी के मुख, मुखार परमार्थ तप, सेवा को भी, हमें याद करना होगा, स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी के उपदेशों को, कबीरदास के कर्मयोग, राजर्षि विश्वामित्र के ‘तप’ को, मीरा का प्रेम, राजा मान्धाता के ‘त्याग’ और राजा हरिश्चंद्र का ‘सत्य’, लक्ष्मीबाई के शौर्य को भी हमें नहीं भूलना होगा। आज काशी में ही क्या सारी पृथ्वी बोझ से दबी जा रही है। हमें मिटाना है काशी के साथ सारी धरती के क्लेश को?

गंगा में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है—

सद्भावना पूर्ण वातावरण का हम सब जन मिल निर्माण करें। काशी के हाथीघाट, शिवाला घाट वह स्थान है जहां राजा विजयानगरम् का हाथी आता था। इस घाट की बनावट ऐसी थी कि जो लोग तैरना नहीं जानते थे वे इस घाट पर कमर भर पानी में नहा सकते थे परंतु आज यहां कीचड़ का अम्बार रहता है इसलिए नहीं कि गंगा का बालू एकत्र हो गया है। बलात गंगा में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। चूंकि अंग्रेजों के समय में कस्साई बाड़ा के जो जानवरों का खून पहले गंगा जी में नहीं आता था आज खून शाम होते ही रंग बिरंगे रंगों में कभी लाल, कभी हरा, कभी बैगनी, कभी काला एवं मटमैले कलर की धार बन कर सम्वत् २०४६ से गंगा में अनवरत आ रहा है।

यही नहीं रंगाई के कारखानों का रंग एवं हजारों लीटर केमिकल तथा लगभग सौ लीटर खून डायरेक्ट गंगा में प्रतिदिन अनवरत बहाया जाता है। प्रतिदिन लोहता भिटारी के बीच बने नाले से भी केमिकल निरर्थक वरुणा नाले से होकर अनवरत वरुणा नदी में बहाया जा रहा है। वरुणा नदी भी उसे बेहिचक गंगा को अर्पित कर देती है। आज गंगा जी के दंडी घाट से गुलेरी घाट तक मनुष्य क्या बन्दर व गाय भी पानी पीने से दूर नहा सकने में भी हिचकिचाहट कर रहे हैं। इन घाटों को भैंसा घाट कहा जाय तो भी अतिशयोक्ति न होगी।

इस प्रकार वाराणसी के छः घाट उक्त प्रदूषण से जहां प्रभावित हैं वही राजेंद्र प्रसाद घाट, मर्णिकर्णिका घाट भी प्रदूषण से क्यों अछूता रह जाय। अस्सी घाट का पूछना ही क्या है। नाला द्वारा हजारों लीटर गन्दा पानी गंगा में बहाने से नगर निगम आखिर क्यों नहीं बाज आता। इससे साफ जाहिर होता है कि केंद्र अथवा राज्य द्वारा चलाई गई सफाई निर्मलीकरण योजना सफेद हाथी का सा रूप धारण कर रखा है। मणिकर्णिका, हरिश्चंद्र घाट से आज भी अधजले शव गंगा में बहाकर ही नहीं अपितु पशुओं के शव को गंगा में प्रवाह कर गंगा में हम सड़ान्ध क्यों पैदा कर रहे हैं? पुलिस प्रशासन भी मूक दर्शक आखिर क्यों बनी रहती है? ऐसे में अधिक अपराध के युग का श्रीगणेश भी इस दशक को कहने से लेखक नहीं चुकेगा। बशर्ते नाबालिग बच्चों का शव धार्मिक परम्परानुसार जल प्रवाह की अवधारणा जब तक नहीं बदलेगी। हम धार्मिक परम्परा का जिक्र कर रहे हैं तो धर्माचार्य का जो सत्य निष्ठा से आज का मानव जीव कल्यार्णाथ यज्ञ, हवन, पूजन, प्रवचन, हरिभजन, शिवअर्चन, चण्डी जाप, नाम जपन, भजन पर भी हमें जिक्र करना मुनासिब होगा। आप काशी में कम नहीं पायेंगे।

ज्ञान, भक्ति, अध्यात्म तीर्थों का भी तीर्थस्थल काशी है।

ज्ञान, भक्ति, अध्यात्म और सर्व प्रेम का प्रतीक यह तीर्थों का भी तीर्थ है। आध्यात्मिक, धार्मिक तथा भक्तिभाव प्रेरक धार्मिक सांस्कृतक लोक उन्नायक आयोजनों का यह तीर्थस्थल काशी है। काशी में नास्तिक विचारधारा से युक्त जो प्राणी आता है रमण भ्रमण करने, वह भी शिवमय हो रम जाता है। भोला भूदेवी, भवानी, भगवती, जगदम्बा में कारण शास्त्रों में वर्णित है।

भोला काशी परिक्षेत्र चौदह कोश में आने वाले प्राणी को रमणीय कर देते हैं। कारण स्पष्ट है। यहां प्रतिदिन गंगा में मणिकर्णिका घाट पर दो घड़ी उपरान्त दोपहर में समस्त देव गण देवलोक से स्नान करने आते ही रहते हैं। काशी में देवताओं का आना अनवरत समस्त युगों से रहा है तो क्या हिंदू/सिक्ख/इसाई अथवा मुसलमान जिनमें एक सा पंच तत्वों से बनी बुद्धि विवेक प्रभु ने दे रखी है, हम उस गंगा मां को जिसने देवलोक से हाहाकार कर हमारे पूर्वजों का तारंतार किया, कर रही है, हम पवित्र क्यों नहीं रख सकते हैं?

♦ सुख मंगल सिंह जी – अवध निवासी ♦

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— Conclusion —

  • “सुख मंगल सिंह जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस लेख में समझाने की कोशिश की है — काशी जहां स्वयंभू भोलेनाथ माता पार्वती व गणपति सहित अनंत काल से विराजमान है। पतित पावनि माँ गंगा को अपनी जटाओ से धीरे-धीरे मध्यम जल धारा के रूप में मानव कल्याण के लिए छोड़ा है, लेकिन आज का मानव पतित पावनि माँ गंगा को बहुत ज्यादा प्रदूषित कर रखा है। अब भी सुधर जाओ और पतित पावनि माँ गंगा को स्वच्छ करो, इसे प्रदूषित करना बंद करो। ज्ञान, भक्ति, अध्यात्म और सर्व प्रेम का प्रतीक यह तीर्थों का भी तीर्थ है। आध्यात्मिक, धार्मिक तथा भक्तिभाव प्रेरक धार्मिक सांस्कृतक लोक उन्नायक आयोजनों का यह तीर्थस्थल काशी है। काशी में नास्तिक विचारधारा से युक्त जो प्राणी आता है रमण भ्रमण करने, वह भी शिवमय हो रम जाता है। भोला भूदेवी, भवानी, भगवती, जगदम्बा में कारण शास्त्रों में वर्णित है।

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यह लेख (काशी कहां चली।) “सुख मंगल सिंह जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें, व्यंग्य / लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी कविताओं और लेख से आने वाली पीढ़ी के दिलो दिमाग में हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम बना रहेगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे, बाबा विश्वनाथ की कृपा से।

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