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Prakriti and Hori (Holi) | प्रकृति और होरी।
आकंठ अखंड उद्गार में,
बहता कण-कण विराग।
तिनका-तिनका तृण पल्लवी
कुसुमित हो मुस्कुराय।
दृग दिवस काल में,
देखे मन हर्षाये।
गोकर केश लोहिता,
पल-पल रूप दिखाय।
फैला इस संसार में,
विपुल गंध हर जोर।
डाली-डाली लद गई,
फूलों से चहुँ ओर।
वन कानन की शोभा बढ़ी,
बढ़ी सृष्टि आगार।
कनक पूत की आभा चढ़ी,
फागुन की है बड़जोर।
ताल तम्य तरकश में,
गाये गीत मधुमाधवी।
हर ताल-ताल के छंद में,
मधुर मिलन उत्साही रंग।
आम्र पल्लवी मधुप महुए की,
नवरंग रसरंग की बटायें।
बढ़ी चली हर छोर-छोर,
होरी है बरजोर-जोर।
♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦
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यह कविता (प्रकृति और होरी।) “सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल’ जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख/दोहे सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।
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