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KMSRAJ51-Always Positive Thinker

“तू ना हो निराश कभी मन से” – (KMSRAJ51, KMSRAJ, KMS)

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motivational poem in hindi

यह डूबती सांझ।

Kmsraj51 की कलम से…..

Yah Doobati Sanjh | यह डूबती सांझ।

यह डूबती सांझ देखो, लेके, घना अंधेरा आएगी।
दिन भर की आपाधापी से, हमे मुक्ति दिलाएगी।

यह बात सच है कि यह, दैनिक प्रकाश छुपाएगी।
यह भी तो सच है कि, यह अपनी गोद में सुलाएगी।

मुमकिन है यह कि रात अंधेरी, हर दृश्य छुपाएगी।
पर यह भी वाजिब है कि, यह स्वप्न भी दिखाएगी।

कौन कहता है कि हर सांझ, दिवस को ही खाएगी?
मालूम है जग को यह भी कि, फिर नई भोर आएगी।

नाउम्मीदी में जीने से तो हमेशा, निराशा ही छाएगी।
सांझ ही तो रात को ला कर, सब थकान मिटाएगी।

आशावान को तो यह सांझ, पास मंजिल सी भाएगी।
निराशावान के लिए तो उसका, सारा संसार खाएगी।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला – मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

—————

  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस कविता के माध्यम से समझाने की कोशिश की है — हम सब ये जानते है की सूर्यास्त के बाद शाम होगी ही और शाम होगी तभी रात भी होगा और इंसान दिन भर के कार्य से थका हारा आराम की नींद, ले पाता है जिससे उसकी सारी थकावट दूर होती है। आशावान को तो सदैव ही यह सांझ, पास मंजिल सी भाएगी, लेकिन निराशावान के लिए तो उसका, सारा संसार खाएगी। क्योकि आशावान जनता है की फिर भोर होगी और सूर्य उदय होगा। इसी तरह से जीवन में भी जब चारों तरफ से मुसीबत आ जाए तो घबराना नहीं चाहिए, क्योंकि कोई भी समय लंबे वक्त तक नहीं रहेगा, उसके बाद अच्छा समय भी आएगा। इसलिए सदैव ही आशावान बने रहे और अच्छे कार्य करते चले जीवन में, चाहे परिस्थिति कैसी भी हो।

—————

यह कविता (यह डूबती सांझ।) “हेमराज ठाकुर जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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©KMSRAJ51

जैसे शरीर के लिए भोजन जरूरी है वैसे ही मस्तिष्क के लिए भी सकारात्मक ज्ञान और ध्यान रुपी भोजन जरूरी हैं।-KMSRAj51

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“सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

“अगर अपने कार्य से आप स्वयं संतुष्ट हैं, ताे फिर अन्य लोग क्या कहते हैं उसकी परवाह ना करें।”~KMSRAj51

 

 

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Filed Under: 2023-KMSRAJ51 की कलम से, हिंदी कविता, हिन्दी-कविता Tagged With: hemraj thakur, hemraj thakur poems, Hindi Poems, motivational poem in hindi, poem on sinking sun in hindi, जीवन का सार पर कविता, जीवन जीने की प्रेरणा देने वाली कविता, यह डूबती सांझ, यह डूबती सांझ - हेमराज ठाकुर, संघर्ष और सफलता कविता, सीख देने वाली कविता, हेमराज ठाकुर, हेमराज ठाकुर जी की कविताएं

बदलता भारत।

Kmsraj51 की कलम से…..

Badalta Bharat – बदलता भारत।

बदल गया भारत, देश बदल गया,
नया दौर आने से भारत बदल गया।
इंसान ही इंसान का दुश्मन बन गया,
जो विश्वास अपनों पर था वो मिट गया।

ऐसा मंजर आया, सब कुछ बदल गया,
झूठ का बोलवाला, सत्य का पतन हो गया।
बन गए अलग-अलग दल, अपनी राजनीति चला रहे है,
सत्ता की खातिर, एक दूसरे को नीचा दिखा रहे है।

देश प्रेम और सद्भावना तो कहाँ लुप्त हो रही है,
गुनाहों और अपराधों को सरेआम बढ़ावा दिया जा रही है।
दिन दहाड़े अपहरण, धोखाधड़ी,
बेटियों की इज्जत सरे आम लूटी जा रही है,
देखकर भी सभी मौन धारण किये हुए है।

तिरंगा की शान की खातिर कितने वीरों ने बलिदान दिया,
आज वही तिरंगा शर्म से सर को झुकाए हुए है।
आजादी की खातिर हमारे वीरों ने अपने प्राण गवाएं,
आज देख भारत की दुर्दशा देख कर आँखों में आँसू भर आएं।
इंसान अपने में इतना व्यस्त हो गया,
दूसरे को अनदेखा कर अपने में ही खो गया।

♦ पूनम गुप्ता जी – भोपाल, मध्य प्रदेश ♦

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  • “पूनम गुप्ता जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस कविता के माध्यम से समझाने की कोशिश की है — चारो तरफ आज झूठ का बोलवाला है सत्य का पतन हो गया। सभी राजनीति दल, अपनी-अपनी राजनीति चला रहे है, गरीबो व निर्दोषों की ना सुने कोई, जनता मारी-मारी फिर चहु ओर। जिस देश प्रेम और सद्भावना के लिए वीरो ने अपना बलिदान दिया वो तो कहाँ लुप्त हो गया है, गुनाहों और अपराधों को सरेआम बढ़ावा दिया जा रही है अब। दिन दहाड़े अपहरण, धोखाधड़ी, बेटियों की इज्जत सरे आम लूटी जा रही है, देखकर भी सभी मौन धारण किये हुए है क्यों? इंसान ही इंसान का दुश्मन बन बैठा है आज, जो विश्वास था अपनों पर वो मिट गया है आज।

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यह कविता (बदलता भारत।) “पूनम गुप्ता जी” की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी लेख/कवितायें सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा। आपकी लेखन क्रिया यूं ही चलती रहे।

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“सफलता का सबसे बड़ा सूत्र”(KMSRAJ51)

“स्वयं से वार्तालाप(बातचीत) करके जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा करके आप अपने भीतर छिपी बुराईयाें(Weakness) काे पहचानते है, और स्वयं काे अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

 

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सूना-सूना दूर गगन है।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ सूना-सूना दूर गगन है। ♦

प्रेम के धागे टूटे, टूटा रक्त का संबंध,
बोलते मुखड़े पर, सूना-सूना दूर गगन है।

रुनझुन गाती भोर है,
दालान की साँझ सुहानी।
कच्ची गलियाँ गाँवों की,
बन गई बिसरी कहानी।
घनी छाँव पीपल की,
ढूँढ़ता श्रापित मन है।

रसभरी अमराईयों की,
वेदना प्राणों में जन्मती।
रह गये आँखों में अश्रु अकेले,
खोजती अँखियां नेह प्रीति।
हाय! बेचैनियाँ अधरों पर,
मोह यादों की चुभन है।

रहा मानस के जंगल में,
पहन स्वांगों के मुखौटे।
हर दिन ताजा चोट लेकर,
किंवाड़ पीछे साँझ लौटे।
कुहासों में घुली साँस है,
घावों की थकन पाँव में है।

निरर्थक सी जिंदगी को,
जी रही गुमसुम उदासी।
श्याम-शित पन्थों पर भटकती,
पी कोलाहल की आशा प्यासी।
अनुरक्ति में कसमसाता वह,
आज तक लड़कपन है।

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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यह कविता (सूना-सूना दूर गगन है।) “सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल’ जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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लें संकल्प पुनरावर्तन का।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ लें संकल्प पुनरावर्तन का। ♦

अंतस् का विश्वास यह स्वर्ण-चक्र रुके नहीं,
मानस की सुमंगली कुंकुम कभी चुके नहीं।

प्रवाह रहे झिलमिल,
जैसे आदित्य की थाल।
वृन्तों पर अतीत के,
खिले आगम श्रीवास।
नैनों में धूप रक्तिम,
रंग उन अधरों की।
जिसके गातों तनुरूह में,
सिन्धुनंदनी की कली।

छाँव में पलकों के कलाधार कभी थके नहीं,
मानस की सुमंगली कुंकुम कभी चुके नहीं।

मन-आत्मा का अटल विश्वास,
धरा में जैसे ज्वाल रहे।
नजरों की अँगड़ाईयों में,
जैसे अदृश्य मनुहार रहे।
मिट्टी की खुशबू जल में,
विटप-वृंद में बयार रहे।
विचारों की शुचीर्य की,
पैदावार बारंबार रहे।

उर-अंतस्-प्राणों के संघर्षों में वेदनायें कभी दुखे नहीं,
मानस की सुमंगली कुंकुम कभी चुके नहीं।

भावी समय के पन्थ मिले,
अल्पना की कल्पना रंग भरे।
यामित रक्षित कंगूरों पर,
देश भविष्य का दीप धरे।
श्रद्धा आलंब आधार पर,
कभी न धूमिल साँझ घिरे।
आयुष्य प्रखर सुर-ताल बने,
युगों – युगों तक विश्व में,
भारत की जय गान बजे।

चरणों में अनाचार के मनु-आर्य के कभी झुके नहीं,
मानस के सुमंगली कुंकुम कभी चुके नहीं।

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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यह कविता (लें संकल्प पुनरावर्तन का।) “सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल’ जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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आँखों में अश्रु भरे।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ आँखों में अश्रु भरे। ♦

रख काँधे पर सर अपना,
अँखियों में अश्रु भरे हुए।
पहन अँधियारों को,
दर्द – पीड़ा की सुबकी लेते।
हर्ष – कर्ष की बातों में,
अब्धुमन की वीरानी खाती।

किसकी आहट सुनें,
पास कौन आयेगा।
अतिथि की आँखों को,
जो आँसू दे जायेगा।
किससे हम अनुरक्त हो,
भेजते उर-वेदना की पाती।

क्यूँ करे कोई याद,
इष्ट अपना यहाँ कौन।
जग इक बंधन है,
अनुराग इक सपन।
विचार कर अकुलाए,
अंत: करण को ढाँढ़स दे जाती।

है चंदा भी अकेला,
अकेली है उसकी चाँदनी।
मुग्ध हो हँसी दोनों,
ले ली है हृदय पर अपनी।
खाली मन प्राणों से,
मीत-प्रीति की चुटकियाँ ले आती।

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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बीते काल की थकन।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ बीते काल की थकन। ♦

तू चल नये आगाज,
मिटा अपने तन-मन की थकन;
कर कथन अपने मन,
क्षुधा लिप्सा को कर अंतर्मन।
रे पंछी! न परवाज कर,
छोड़ अपने नीड़-चमन।

इस सृष्टि का कहीं न अन्त,
तू विश्राम कर आना – जाना।
पंखों को ले अपने समेट,
थकन तू अपनी ले मिटा।
रे तरंग! न सहला चल,
तू गुदगुदाते अपने पन्थ।

दिखे सब में प्रीति नेह विश्वास,
तटनी की भूल भुला दे।
वो कौन एक है जो,
छोड़े अपने शीलपन।
रे पवन! न हहर चल तू,
मौन हो संग-संग।

जग द्रोह से है भरा,
मोह तू छोड़ जरा।
ज्ञान-विज्ञान के लिये लड़ा,
क्यूँ जीवन – प्राण से भिड़ा।
प्रचंड प्रज्वलित रहा,
खुद में आनंद प्रसन्न रहा।
रे अंतस्! न विलासी तू,
तापस अंग को सुसुप्त कर।

जीवन का सकल आसय,
न ढो अब भ्रमित भाव से।
निष्कर्ष तू निकाल अभी,
मन को न तोल हार-जीत से।
अनगन न कर,
महा-वृन्त तू बन।
रे स्वरूप! न बिगाड़ तू,
संवार निरता का कर सृजन।

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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अकेलेपन में किसे आवाज दूँ।

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♦ अकेलेपन में किसे आवाज दूँ। ♦

अकेलेपन में किसे आवाज दूँ,
दिगन्त पर नेह-प्रिया के देश।
मेरी मृगतृष्णा कहाँ ले आई,
मेरे प्राणों को किस परदेश।

महाशून्य में विलीन हो जाती,
कारुण्य शब्दों की निनाद तरंगें।
उठने से पहले सुप्त हो जाती,
नयनों के स्वप्न रंग – बिरंगें।
यह अखिल जगत स्वप्नों-सा,
क्षणिक पल सा परिवेश।

आतप अनंत कतरा भर छाया,
वाक्य हमारे अर्थ पराया।
अठखेलपना पल-पल छलती,
आकर्षण से मुग्धित माया।
श्याम-सखा बदरा से कैसे भेजूँ,
प्राण-प्रियतमे को संदेशा।

खिले – खिले कुसुमित फूलों की,
देख निशामुख झर गई लालिमा।
अकुंठ अरुण को खा लेती,
प्रचंड निशिता की घनी कालिमा।
समयकाल की अटल आधार पर,
निशान भंग के असंख्य शेष।

जन्म – जन्मांतर की अव्यक्त यातना,
अवदलित वृद्धता की दु:खद कहानी।
युग – युगान्तों से जल रही धरा पर,
द्वन्द – संघर्षों में सतत जवानी।
छलमय जमाने के निष्ठुर हाथों में,
जकड़ा है जीवन का केश।

♦ सतीश शेखर श्रीवास्तव ‘परिमल‘ जी — जिला–सिंगरौली, मध्य प्रदेश ♦

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“अगर अपने कार्य से आप स्वयं संतुष्ट हैं, ताे फिर अन्य लोग क्या कहते हैं उसकी परवाह ना करें।”~KMSRAj51

 

 

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आज न होगा।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ आज न होगा। ♦

आज न होगा कोई मंगल गान प्रिये,
विपदा में व्यथित जो समूची धरती है।
नफरत के शोलों से विदीर्ण हर वक्ष आज है,
मानवता तिल – तिल कर आज यहां मरती है।

दर्द का दरिया बह रहा है दिल में,
हृदय की जमीन हो गई अब परती है।
मानस कल्पना की लहरों से भी अब तो,
आक्रोश – कटाक्ष की आग ही झड़ती है।

अतृप्त लालसाओं ने जग को है घेरा,
स्वार्थ बेड़ियों ने रूह ही मानो जकड़ी है।
अब उठती ही कहां है कोमल भावनाएं मन में?
हृदय भाव की गति भौतिकता ने जो जकड़ी है।

होता न आदर आज गांव के गलियारों में,
शहरों में तो पहले से ही रही आपाधापी है।
आज न नातों – रिश्तों की कद्र है कहीं पर,
मानव रूप में पाश्विक सभ्यता देखो आती है।

गांव की गुड्डी को गभरू बहन यहां कहते थे,
आज नव जवान देहाती भी खुराफाती है।
महफूज कहां रही अब अस्मत बहू – बेटी की?
वह अपनों के ही हाथों आज लूटी जाती है।

पढ़े-लिखे आदिमानव हो चले हैं हम क्या?
अर्धनग्न घूमते हैं और मद्य – मांस ही खाते हैं।
पशु सी करते हैं करतूतें सब उन्मादी में,
फिर खुद को सभ्य – सुसंस्कृत मानव बताते हैं।

हाय – हाय री! फैशन लाचारी और मानव दुर्दशे,
सच में आज विद्रूपता है जीती और हम है हारे।
शहर – शहर और गांव – गांव में देखो आज तुम,
हर कोई फिरते हैं फैशन के पीछे मारे – मारे।

आज न होगा कोई मंगल गान प्रिये,
इन सब घटनाओं से भीतर भारी पीड़ा है।
मानव समाज में विकृतियों आते देख को,
सोचता हूं, यह विधि की कैसी क्रीड़ा है?

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला – मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से इस कविता के माध्यम से समझाने की कोशिश की है — समस्त संसार का एक ही मूलमंत्र होना चाहिए, वो है जीवमात्र पर दया करना। यह दया भाव मनुष्य का मनुष्य के प्रति या मनुष्य का अन्य जीवों के प्रति होती है। जीवमात्र पर दया करना ही मानवता है। पृथ्वी पर मनुष्य सबसे उत्तम और सर्वश्रेष्ठ प्रजाति है। पर आजकल हो क्या रहा है? इसके बिलकुल उलट – सबकुछ हो रहा है आज का मानव शैतान व राक्षस हो गया है, शराब पीना, मांस खाना, बलात्कार करना, काम वासना व नशे में चूर होकर बड़े से बड़ा विकर्म करने से भी जरा भी नही डरता, क्यों ? पूर्ण रूप से शैतान व राक्षस बन गया है आज का मानव पढ़-लिखकर भी ऐसे कुकर्म करने से पहले एक बार भी नहीं सोचता की आने वाली पीढ़ी के लिए हम क्या सीख दे रहे हैं, हद हैं तेरी रे मानव क्या से क्या हो गया तू !

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यह कविता (आज न होगा।) “हेमराज ठाकुर जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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माँ की जय हो।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ माँ की जय हो। ♦

तूने अपना नूर गवाया,
तब जा के हमें सृजाया।
पीड़ा सह कर हमें उत्पाया,
अपना दर्द सब अंदर छुपाया।
तेरी जय हो मां!

मल – मूत्र से हमें बचाया,
अपने मुंह का हमें खिलाया।
उंगली पकड़ कर चलना सिखाया,
तोतली जुबां को बतियाना बताया,
अपना दर्द सब अंदर छुपाया।
तेरी जय हो मां!

पाला – पोसा बड़ा बनाया,
सर्दी में गर्मी दी, धूप में छाया।
लकड़ी सी सूखा दी अपनी काया,
अरमान कुचल निज हमें पढ़ाया।
हमारी गलती पर भी हमें न सताया,
अपना दर्द सब अंदर छुपाया।
तेरी जय हो मां!

हांफते – कांपते तुझे वृद्धा -आश्रम पहुंचाया,
हमने जोरू संग गुलछर्रे उड़ाया।
बलिदान तेरा कभी याद न आया,
कितना कर खाती वह बूढ़ी काया?
तुझमें तो है करूणा सिंधु समाया,
सब के बाबजूद भी कुछ न बताया,
अपना दर्द सब अंदर छुपाया।
तेरी जय हो मां!

हम ढीठ है, एहसान फरामोश,
हमें रही न बचपन की होश।
तूने कैसे बड़ा किया था, हमें पाल-पोष,
कोई हमें गड़ाता निगाहें था तो,
दिखाती थी तू कैसा जोश?
जोरू की तिरेरी से ही डर गए हम,
है बड़ा ही यह अफसोस।
तू है कि अपने दर्द को,
रही है अंदर ही अंदर मां मसोस।
तेरी जय हो मां!

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला – मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

—————

  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — कड़वा है मगर सत्य यही है इस संसार में माँ की जगह कोई और नहीं ले सकता हैं। माँ जब से गर्भवती होती हैं तभी से अपने बच्चे का ख्याल रखती है। जब जन्म होता है तभी से उसके लिए दिन रात एक कर उसका पूरा ख्याल रखती है, उसे पाल-पोष बड़ा करती हैं। कोई भी दुःख आये वह अपने बच्चे तक उस दुःख को पहुंचने भी नहीं देती हैं। माँ तो माँ होती है, एहसान फरामोश आज की पीढ़ी अपने माँ बाप का ख्याल ही नहीं रखती है। आजकल के युवा अपने जोरू का गुलाम इस कदर हो गए है की उसके कहने पर माँ बाप को वृद्धाआश्रम छोड़ आते है, वो ये भूल जाते है की माँ ने ही हमे जन्म दिया है और पाल-पोष कर बड़ा किया हैं। माँ की स्नेह भरी ममता को भूल जाते है।

—————

यह कविता (माँ की जय हो।) “हेमराज ठाकुर जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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अन्तर ज्वाला धधक रही है।

Kmsraj51 की कलम से…..

♦ अन्तर ज्वाला धधक रही है। ♦

शल्थ हो चुकी है बाहर की लपटें,
फिर भी अन्तर ज्वाला धधक रही है।
हर गांव – गांव और शहर – शहर में,
नफरत की आग आज भभक रही है।

बहता विकार आज दरिया की मानिंद,
प्यार बरसाती नालों सा है सिकुड़ गया।
उड़ा रही है सब ईर्ष्या – द्वेष की आंधी,
रहा शेष कहां अब रहमो कर्म और दया?

भीगे चूनर से लालसा है नाचती,
ममता का घूंघट ही फाड़ दिया।
परहित का वर्चस्व है खत्म किया,
आज झण्डा स्वार्थ का गाड़ दिया।

मानव से छीन ली मानवता है सारी,
है शैतानियत का उसने शृंगार किया।
मदहोशी का है यूं आलम कुछ ऐसा,
मानो सबने है मादक मय पान किया।

कलकल बहती नदियों की भांति,
आज वितृप्त वासनाएं बहती है।
तृप्ति के भाव – प्रेम के सोते सूखे,
पतन की गाथा मानवता कहती है।

विकार की आंधी, वासनाओं की ब्यार से,
हर हृदय में अन्तर ज्वालाएं धधक रही है।
निरन्तर बरसते आधुनिक ज्ञान के मेघ पर,
कामनाओं की आग तब भी भभक रही है।

मालूम नहीं यह युग का प्रभाव है या,
है मानव की अक्ल पर पत्थर पड़े।
महफूज नहीं है आबरू बहु बेटी की,
पग पग पर है बहरूपिये लूटेरे खड़े।

♦ हेमराज ठाकुर जी – जिला – मण्डी, हिमाचल प्रदेश ♦

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  • “हेमराज ठाकुर जी“ ने, बहुत ही सरल शब्दों में सुंदर तरीके से समझाने की कोशिश की है — आज हर तरफ नफरत की आग आज भभक रही है, गांव – गांव और शहर – शहर में। विकार थो आज के समय में इस तरह से बढ़ गया है जैसे समुद्र हो, और सच्चा प्यार बरसाती के नालों सा है सिकुड़ गया। आज सभी एक दूसरे से ईर्ष्या – द्वेष कर रहे है, शील प्रेम और दया थो अब किसी के अंदर बचा ही नहीं। अब तो वह ममता का घूंघट भी नहीं रहा, आज सभी स्वार्थ के वशीभूत हो गए है। अब इंसान के अंदर मानवता बची कहा उसने तो शैतानियत का शृंगार जो कर लिया है। इस मदहोशी का आलम कुछ ऐसा, मानो सबने है नशीली शराब का पान किया हो। अब तो इस भयानक विकार की आंधी व वासनाओं की ब्यार से हर हृदय में अन्तर ज्वालाएं धधक रही है। आधुनिक ज्ञान के नाम पर ये कैसा बनता जा रहा है आज का इंसान, इनके कामनाओं की आग शांत ही नहीं हो रही है। हे मानव अब भी समय है सम्भल जा वर्ना कुछ भी नहीं बचेगा। हे मानव पुनः अपने प्राचीन संस्कृति, संस्कार व सभ्यता के अनुसार जीवन यापन कर।

—————

यह कविता (अन्तर ज्वाला धधक रही है।) “हेमराज ठाकुर जी“ की रचना है। KMSRAJ51.COM — के पाठकों के लिए। आपकी कवितायें/लेख सरल शब्दो में दिल की गहराइयों तक उतर कर जीवन बदलने वाली होती है। मुझे पूर्ण विश्वास है आपकी कविताओं और लेख से जनमानस का कल्याण होगा।

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